गंदी नजरों से बचना इतना दर्दनाक क्यों

मैट्रो स्टेशन में हों या भीड़भरी सड़कों पर, बस में हों या बाइक अथवा रिकशे पर आप ने अकसर देखा होगा कि लड़कियां अकसर दुपट्टे या स्टोल से अपने पूरे चेहरे और बालों को ढक कर रखती हैं. सिर्फ उन की आंखें दिखती हैं. कभी-कभी तो उन पर भी गौगल्स चढ़े होते हैं. इन लड़कियों की उम्र होती है 15 से 35 साल के बीच.

अब आप के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि आखिर ये लड़कियां डाकू की तरह अपना चेहरा क्यों छिपाए रखती हैं? आखिर प्रदूषण, धूलमिट्टी से तो पुरुषों और अधिक उम्र की महिलाओं को भी परेशानी होती है. फिर ये लड़कियां किस से बचने के लिए ऐसा करती हैं?

दरअसल, ये लड़कियां बचती हैं गंदी नजरों से. पुरुष जाति यों तो महिलाओं के प्रति बहुत सहयोगी होती है पर कई दफा भीड़ में इन लड़कियों का सामना ऐसी नजरों से भी हो जाता है जो कपड़ों के साथसाथ शरीर का भी पूरा ऐक्सरे लेने लगती हैं. उन नजरों से वासना की लपटें साफ नजर आती हैं. मौका मिलते ही ऐसी नजरों वाले लोग लड़कियों को दबोच कर उन के अरमानों, सपनों के परों को क्षतविक्षत कर फेंक डालते हैं.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में हर एक घंटे में 4 रेप यानी हर 14 मिनट में 1 रेप होता है. ऐसे में लड़कियों को खुद ही अपनी हिफाजत करने का प्रयास करना होगा. उन निगाहों से पीछा छुड़ाना होगा जो उन के स्वतंत्र वजूद को नकारती हैं. उन के हौसलों को जड़ से मिटा डालती हैं. यही वजह है कि  अब लड़कियां जूडोकराटे सीख रही हैं. छुईमुई बनने के बजाय दंगल में लड़कों को चित करना पसंद कर रही हैं. पायलट बन कर सपनों को उड़ान देना सीख रही हैं, नेता बन कर पूरे समाज को अपने पीछे चलाने का जज्बा बटोर रही हैं.

मगर सच यह भी है कि उदाहरण बनने वाली ऐसी महिलाएं अब भी ज्यादा नहीं हैं. अभी भी ऐसी महिलाओं की भरमार है, जिन के साथ भेदभाव और क्रूरता का नंगा खेल खेला जाता है. उन के मनोबल को गिराया जाता है और यह काम सिर्फ पुरुष ही नहीं करते, अकसर महिलाएं भी महिलाओं के साथ ऐसा करती हैं. सुरक्षा के नाम पर उन की जिंदगी से खेलती है.

ऐसी ही एक दिल दहलाने वाली प्रथा है. मर्दों की गंदी नजरों से बचाने के लिए ब्रैस्ट आयरनिंग.

ब्रैस्ट आयरनिंग

ब्रैस्ट आयरनिंग यानी सीने को गरम प्रैस से दबा देना. इस पंरपरा के तहत लड़कियों के सीने को किसी गरम चीज से दबा दिया जाता है ताकि उन के उभारों को रोका जा सके और उन्हें मर्दों की गंदी नजरों से बचाया जा सके.

अफ्रीका महाद्वीप के कैमरून, नाइजीरिया और साउथ अफ्रीका के कुछ समुदायों में माना जाता है कि महिलाओं की ब्रैस्ट को जलाने से उस की वृद्धि नहीं होती. तब पुरुषों का ध्यान लड़कियों पर नहीं जाएगा. इस से रेप जैसी घटनाएं कम होंगी. किशोरियों के पेरैंट्स ही उन के साथ यह घिनौनी हरकत करते हैं. ब्रैस्ट आयरनिंग के

58% मामलों में लड़की की मां ही इसे अंजाम देती है. पत्थर, हथौड़े या चिमटे को आग में तपा कर बच्चियों की ब्रैस्ट पर लगाया जाता है ताकि उन की ब्रैस्ट के सैल्स हमेशा के लिए नष्ट हो जाएं.

यह दर्दभरी प्रक्रिया सिर्फ इसलिए ताकि लड़कियों को जवान दिखने से रोका जा सके. ज्यादा से ज्यादा दिनों तक वे बच्ची ही लगें और उन पुरुषों से बची रहें जो उन्हें अगवा करते हैं, उन का यौनशोषण करते हैं या उन पर भद्दे कमैंट करते हैं. यानी इसे बचाव का तरीका माना जाता है. बचाव यौन शोषण से, बचाव रेप से, बचाव मर्दों की लड़कियों में इंटरैस्ट से.

कैमरून की अधिकतर लड़कियां 9-10 साल की उम्र में ब्रैस्ट आयरनिंग की प्रक्रिया से गुजर चुकी होती हैं. ब्रैस्ट आयरनिंग की यह बीभत्स प्रक्रिया लड़कियों के साथ 2-3 महीनों तक लगातार की जाती है.

अफ्रीका के गिनियन गल्फ में स्थित कैमरून की आबादी करीब 1.5 करोड़ है और यहां करीब 250 जनजातियां रहती हैं. टोगो, बेनिन और इक्काटोरिअल गुनिया से सटे इस देश को ‘मिनिएचर अफ्रीका’ भी कहा जाता है. इस अजीबोगरीब प्रथा के कारण पिछले कुछ समय से कैमरून काफी चर्चा में है.

मूल रूप से पश्चिमी अफ्रीफा में शुरू हुई यह परंपरा अब ब्रिटेन समेत कुछ अन्य यूरोपीय देशों तक पहुंच गई है. एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटेन में भी करीब 1 हजार लड़कियों को इस प्रक्रिया से गुजरता पड़ा है.

इस प्रथा का लड़कियों की सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है, सिर्फ शारीरिक ही नहीं, मानसिक भी. ब्रैस्ट आयरनिंग की वजह से उन्हें इन्फैक्शन, खुजली, ब्रैस्ट कैंसर जैसी बीमारियां हो जाती हैं. आगे चल कर स्तनपान कराने में भी काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है.

गौरतलब है कि अन्य अफ्रीकी देशों की तुलना में कैमरून की साक्षरता दर सब से अधिक है. सैक्सुअल आकर्षण और दिखावे से बचाने के लिए की जाने वाली इस बीभत्स प्रथा के बावजूद यहां लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने के मामले सामने आते रहते हैं.

जाहिर है, ब्रैस्ट आयरनिंग से इस धारणा को जोर मिलता है कि लड़कियों के शरीर का आकर्षण ही पुरुषों को बेबस करता है कि वे इस तरह की हरकतें करें, यौन हमलों या रेप जैसी घटनाओं में पुरुषों की कोई गलती नहीं होती.

यह प्रथा जैंडर वायलैंस के तहत आती है. एक ऐसा वायलैंस जिसे सुरक्षा के नाम पर घर वाले ही अंजाम देते हैं और अपनी ही बच्ची की जिंदगी तबाह कर डालते हैं.

दुनियाभर में लड़कियों को ऐसी दर्दनाक प्रथाओं से गुजरना पड़ता है ताकि उन की इज्जत बची रहे. जैसे इज्जत कोईर् चीज है जिसे ऐसी ऊलजलूल प्रथाओं द्वारा चोरी हो जाने से बचाया जा सकता है.

कुप्रथाओं का काला इतिहास

महिलाओं पर अत्याचार की कहानी बहुत पुरानी है और तरीके भी बहुत सारे हैं. तरहतरह से प्रथाओं और परंपराओं के नाम पर उन के साथ ज्यादतियां की जाती हैं, उन्हें सताया जाता है और पीड़ा पहुंचाई जाती है. उन के तन के साथसाथ उन के मन को भी कुचला जाता है. हम बता रहे हैं कुछ ऐसी प्रथाओं के बारे में जिन का मकसद कभी महिलाओं की पवित्रता की जांच करना होता है तो कभी उन की सुरक्षा, कभी उन की खूबसूरती बढ़ाना तो कभी बदसूरत बनाना. यानी वजह कुछ भी हो मगर मूल रूप में मकसद होता है उन्हें प्रताडि़त करना और पुरुषों के अधीन रखना:

–  औरतों को खतना जैसी कुप्रथा का भी शिकार होना पड़ता है. इस में औरतों का क्लाइटोरिस काट दिया जता है ताकि उन का सैक्स करने का मन न करे. भारत में इस प्रथा का चलन बोहरा मुसलिम समुदाय में है. भारत में बोहरा आबादी आमतौर पर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में है. 10 लाख से अधिक आबादी वाला यह समाज काफी समृद्ध है और दाऊदी बोहरा समुदाय भारत के सब से ज्यादा शिक्षित समुदायों में से एक है. पढ़ेलिखे होने के बावजूद वे इस तरह की बेसिरपैर की बातों में यकीन करते हैं.

लड़कियों का खतना किशोरावस्था से पहले यानी 6-7 साल की उम्र में ही करा दिया जाता है. इस के कई तरीके हैं जैसे ब्लेड या चाकू का इस्तेमाल कर क्लाइटोरिस के बाहरी हिस्से में कट लगाना या बाहरी हिस्से की त्वचा निकाल देना. खतना से पहले ऐनेस्थीसिया भी नहीं दिया जाता. बच्चियां पूरे होशोहवास में रहती हैं और दर्द से चीखती रहती हैं.

खतना के बाद हलदी, गरम पानी और छोटेमोटे मरहम लगा कर दर्द कम करने की कोशिश की जाती है. माना जाता है कि क्लाइटोरिस हटा देने से लड़की की यौनेच्छा कम हो जाएगी और वह शादी से पहले यौन संबंध नहीं बनाएगी.

खतना से औरतों को शारीरिक तकलीफ तो उठानी ही पड़ती है, इस के अलावा तरहतरह की मानसिक परेशानियां भी होती हैं. उन की सैक्स लाइफ पर भी असर पड़ता है और वे भविष्य में सैक्स ऐंजौय नहीं कर पातीं.

–  थाईलैंड की केरन जनजाति में लंबी गरदन महिलाओं की खूबसूरती की निशानी मानी जाती है. उन की गरदन लंबी करने के लिए उन्हें एक दर्दभरी प्रक्रिया से गुजारा जाता है.

5 साल की उम्र से उन के गले में रिंग पहना दी जाती है. इस से गरदन भले ही लंबी हो जाती हो, लेकिन जिस दर्द और तकलीफ से गुजरना होता है उसे पीडि़ताएं ही समझ सकती हैं. वे अपनी गरदन पूरी तरह घुमा भी नहीं पातीं और यह रिंग उन्हें उम्रभर पहननी पड़ती है.

–  रोमानिया, इटली, संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा अन्य कई देशों में रोमन जिप्सी समुदाय के लोग रहते है. इस समुदाय में किसी लड़की से शादी की इच्छा हो तो लड़के को उस का अपहरण करना होता है. लड़का यदि 3-4 दिनों तक लड़की को उस के मातापिता से छिपा कर रखने में सफल हो जाता है तो वह लड़की उस की संपत्ति मानी जाती हैऔर फिर उन दोनों की शादी कर दी जाती है.

–  भारत में लंबे समय तक बहुविवाह प्रथा कायम रही. इस के तहत पुरुष को यह आजादी थी कि वह जब चाहे जितनी चाहे महिलाओं को अपनी स्त्री बना सकता था. इस के कारण औरतें अपने पति के लिए भोग की वस्तु बन कर रह गई थीं.

इसी तरह केरल और हिमाचल में बहुपतित्व की परंपरा कायम है, जिस में एक स्त्री को 1 से अधिक पतियों की पत्नी बनना स्वीकार करना पड़ता है. इस व्यवस्था के तहत पहले ही निश्चित कर लिया जाता है कि स्त्री कितने दिन तक किस पति के साथ रहेगी.

दक्षिण भारत की आदिवासी जनजाति टोडा, उत्तरी भारत के जौनसर भवर में, त्रावणकोर और मालाबार के नायरों में, हिमाचल के किन्नोर और पंजाब के मालवा क्षेत्र में भी यह प्रथा देखने को मिल जाती है. जहां पहले बहुपतित्व जैसी परंपरा स्त्री को भावनात्मक और मानसिक रूप से तोड़ देती थी, वहीं अब बहुपतित्व की यह प्रथा उसे शारीरिक रूप से भी झकझोर देती है.

–  केन्या, घाना और युगांडा जैसे देशों में एक विधवा औरत को यह साबित करना होता है कि उस के पति की मौत उस की वजह से नहीं हुई है. ऐसे में उस विधवा औरत को क्लिनजर के साथ सोना पड़ता है. कहींकहीं विधवा को अपने मृत पति के शरीर के साथ ही 3 दिनों तक सोना पड़ता है. परंपरा के नाम पर उसे पति के भाइयों के साथ सैक्स करने पर भी मजबूर किया जाता है.

–  सुमात्रा की मैनताइवान जनजाति में औरतों के दांतों को ब्लेड से नुकीला बनाया जाता है. यहां ऐसी मान्यता है कि नुकीले दांतों वाली औरत ज्यादा खूबसूरत लगती है.

इसी तरह अफ्रीका की मुर्सी और सुरमा जनजाति की महिलाएं जब प्यूबर्टी की उम्र में आ जाती हैं तो उन के नीचे के सामने के 2 दांतों को तोड़ कर निचले होंठ में छेद कर के उसे खींच कर एक प्लेट लगाई जाती है. दर्द सहने के लिए कोई दवा भी नहीं दी जाती. हर साल इस लिप प्लेट का आकार बढ़ाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि जितनी बड़ी प्लेट और जितने बड़े होंठ होंगे वह महिला उतनी ही खूबसूरत होगी.

–  सोमालिया और इजिप्ट के कुछ पिछड़े समुदायों में बहुत ही अजीब कारण से क्लिटोरल को विकृत कर दिया जाता है. किशोरियों की वर्जिनिटी की रक्षा के लिए बिना दवा दिए वैजाइना को सील कर दिया जाता है. यह आज भी लागू हो रही है हालांकि कम हो चुकी है.

–  इसलामिक गणराज्य मौरिटानिया के कुछ हिस्सों में माना जाता है कि अधिक वजन वाली पत्नी खुशी और समृद्धि लाती है. ऐसे में यहां शादी से पहले युवतियों को जबरदस्ती रोज लगभग 16,000 कैलोरी की डाइट दी जाती है ताकि उन का वजन बढ़ जाए.

–  अरुणाचल प्रदेश की जीरो वैली की अपातानी ट्राइब की महिलाओं की नाक के छेद में वुडन प्लग्स इन्सर्ट कर दिए जाते थे. ऐसा उन्हें बदसूरत दिखाने के लिए किया जाता था ताकि कोई ट्राइब महिला को किडनैप न करें. हालांकि अब इस पर काफी हक तक रोक लग गई है.

क्या पुरुष दूध के धुले होते हैं

भारतीय इतिहास में चाणक्य और उस के अर्थशास्त्र का काफी नाम है. जरा स्त्रियों के प्रति उस के विचारों पर गौर करें-

स्त्रियां एक के साथ बात करती हुईं दूसरे की ओर देख रही होती हैं और चिंतन किसी और का हो रहा होता है. इन्हें किसी एक से प्यार नहीं होता.

कहने का मतलब यह है कि स्त्री जैसा पतित और व्यभिचारी और कोई नहीं होता. मगर क्या चाणक्य से यह नहीं पूछा जाना चाहिए था कि क्या पुरुष दूध के धुले होते हैं?

कामवासना तो मानव प्रवृति का एक स्वाभाविक हिस्सा है और मर्यादा का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति स्त्री और पुरुष दोनों में समान रूप से मिलती है. परंतु धर्मशास्त्रों में सदा से व्यभिचार के लिए स्त्री चरित्र को ही दोष दिया गया है. पुरुष अपने दुष्कर्मों को आसानी से छिपा सकता है. समाज में उस की स्थिति मजबूत होती है, इसलिए वह दोषमुक्त हो जाता है, जबकि स्त्री को हमेशा शोषण सहना पड़ा है.

जरूरी है कि हम सदियों पुरानी अपनी मानसिकता में बदलाव लाएं. जरा आंखें खोल कर देखें कि शारीरिक रूप से भिन्न होने के बावजूद स्त्री और पुरुष प्रकृति की 2 एकसमान रचनाएं हैं. दोनों के मिल कर और एक स्तर पर आगे बढ़ने से ही समाज की प्रगति संभव है. स्त्री हो या पुरुष दोनों को समान अवसर और समान दर्जा दिया जाना वक्त की मांग है.

भीड़ में अकेली होती औरत

अवंतिका को शुरू से ही नौकरी करने का शौक था. ग्रैजुएशन के बाद ही उस ने एक औफिस में काम शुरू कर दिया था. वह बहुत क्रिएटिव भी थी. पेंटिंग बनाना, डांस, गाना, मिमिक्री, बागबानी करना उस के शौक थे और इन खूबियों के चलते उस का एक बड़ा फ्रैंड्स गु्रप भी था. छुट्टी वाले दिन पूरा ग्रुप कहीं घूमने निकल जाता था. फिल्म देखता, पिकनिक मनाता या किसी एक सहेली के घर इकट्ठा हो कर दुनियाजहान की बातों में मशगूल रहता था.

मगर शादी के 4 साल के अंदर ही अवंतिका बेहद अकेली, उदास और चिड़चिड़ी हो गई है. अब वह सुबह 9 बजे औफिस के लिए निकलती है, शाम को 7 बजे घर पहुंचती है और लौट कर उस के आगे ढेरों काम मुंह बाए खड़े रहते हैं.

अवंतिका के पास समय ही नहीं होता है किसी से कोई बात करने का. अगर होता भी है तो सोचती है कि किस से क्या बोले, क्या बताए? इतने सालों में भी कोई उस को पूरी तरह जान नहीं पाया है. पति भी नहीं.

अवंतिका अपने छोटे से शहर से महानगर में ब्याह कर आई थी. उस का नौकरी करना उस की ससुराल वालों को खूब भाया था, क्योंकि बड़े शहर में पतिपत्नी दोनों कमाएं तभी घरगृहस्थी ठीक से चल पाती है. इसलिए पहली बार में ही रिश्ते के लिए ‘हां’ हो गई थी. वह जिस औफिस में काम करती थी, उस की ब्रांच यहां भी थी, इसलिए उस का ट्रांसफर भी आसानी से हो गया. मगर शादी के बाद उस पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी थी. ससुराल में सिर्फ उस की कमाई ही माने रखती थी, उस के गुणों के बारे में तो कभी किसी ने जानने की कोशिश भी नहीं की. यहां आ कर उस की सहेलियां भी छूट गईं. सारे शौक जैसे किसी गहरी कब्र में दफन हो गए.

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घरऔफिस के काम के बीच वह कब चकरघिन्नी बन कर रह गई, पता ही नहीं चला. शादी से पहले हर वक्त हंसतीखिलखिलाती, चहकती रहने वाली अवंतिका अब एक चलतीफिरती लाश बन कर रह गई है. घड़ी की सूईयों पर भागती जिंदगी, अकेली और उदास.

यह कहानी अकेली अवंतिका की नहीं है, यह कहानी देश की उन तमाम महिलाओं की है, जो घरऔफिस की दोहरी जिम्मेदारी उठाते हुए भीड़ के बीच अकेली पड़ गई हैं. मन की बातें किसी से साझा न कर पाने के कारण वे लगातार तनाव में रहती हैं. यही वजह है कि कामकाजी औरतों में स्ट्रैस, हार्ट अटैक, ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, थायराइड जैसी बीमारियां उन औरतों के मुकाबले ज्यादा दिख रही हैं, जो अनब्याही हैं, घर पर रहती हैं, जिन के पास अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा भी है, समय भी और सहेलियां भी.

दूसरों की कमाई पर नहीं जीना चाहती औरतें

ऐसा नहीं है कि औरतें आदमियों की कमाई पर जीना चाहती हैं या उन की कमाई उड़ाने का उन्हें शौक होता है. ऐसा कतई नहीं है. आज ज्यादातर पढ़ीलिखी महिलाएं अपनी शैक्षिक योग्यताओं को बरबाद नहीं होने देना चाहती हैं. वे अच्छी से अच्छी नौकरी पाना चाहती हैं ताकि जहां एक ओर वे अपने ज्ञान और क्षमताओं का उपयोग समाज के हित में कर सकें, वहीं आर्थिक रूप से सक्षम हो कर अपने पारिवारिक स्टेटस में भी बढ़ोतरी करें.

आज कोई भी नौकरीपेशा औरत अपनी नौकरी छोड़ कर घर नहीं बैठना चाहती है. लेकिन नौकरी के साथसाथ घर, बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी जो सिर्फ उसी के कंधों पर डाली जाती है, उस ने उसे बिलकुल अकेला कर दिया है. उस से उस का वक्तछीन कर उस की जिंदगी में सूनापन भर दिया है. दोहरी जिम्मेदारी ढोतेढोते वह कब बुढ़ापे की सीढि़यां चढ़ जाती है, उसे पता ही नहीं चलता.

अवंतिका का ही उदाहरण देखें तो औफिस से घर लौटने के बाद वह रिलैक्स होने के बजाय बच्चे की जरूरतें पूरी करने में लग जाती है. पति को समय पर चाय देनी है, सासससुर को खाना देना है, बरतन मांजने हैं, सुबह के लिए कपड़े प्रैस करने हैं, ऐसे न जाने कितने काम वह रात के बारह बजे तक तेजी से निबटाती है और उस के बाद थकान से भरी जब बिस्तर पर जाती है तो पति की शारीरिक जरूरत पूरी करना भी उस की ही जिम्मेदारी है, जिस के लिए वह मना नहीं कर पाती है.

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वहीं उस का पति जो लगभग उसी के साथसाथ घर लौटता है, घर लौट कर रिलैक्स फील करता है, क्योंकि बाथरूम से हाथमुंह धो कर जब बाहर निकलता है तो मेज पर उसे गरमगरम चाय का कप मिलता है और साथ में नाश्ता भी. इस के बाद वह आराम से ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने मातापिता के साथ गप्पें मारता है, टीवी देखता है, दोस्तों के साथ फोन पर बातें करता है या अपने बच्चे के साथ खेलता है. यह सब कर के वह अपनी थकान दूर कर रहा होता है. अगले दिन के लिए खुद को तरोताजा कर रहा होता है. उसे बनाबनाया खाना मिलता है. सुबह की बैड टी मिलती है. प्रैस किए कपड़े मिलते हैं. करीने से पैक किया लंच बौक्स मिलता है. इन में से किसी भी काम में उस की कोई भागीदारी नहीं होती.

और अवंतिका? वह घर आ कर रिलैक्स होने के बजाय घर के कामों में खप कर अपनी थकान बढ़ा रही होती है. घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभातेनिभाते वह लगातार तनाव में रहती है. यही तनाव और थकान दोनों आगे चल कर गंभीर बीमारियों में बदल जाता है.

घरेलू औरत भी अकेली है

ऐसा नहीं है कि घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभाने वाली महिलाएं ही अकेली हैं, घर में रहने वाली महिलाएं भी आज अकेलेपन का दंश झेल रही हैं. पहले संयुक्त परिवार होते थे. घर में सास, ननद, जेठानी, देवरानी और ढेर सारे बच्चों के बीच हंसीठिठोली करते हुए औरतें खुश रहती थीं. घर का काम भी मिलबांट कर हो जाता था. मगर अब ज्यादातर परिवार एकल हो रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा लड़के के मातापिता ही साथ रहते हैं. ऐसे में बूढ़ी होती सास से घर का काम करवाना ज्यादातर बहुओं को ठीक नहीं लगता. वे खुद ही सारा काम निबटा लेती हैं.

मध्यवर्गीय परिवार की बहुओं पर पारिवारिक और सामाजिक बंधन भी खूब होते हैं. ऐसे परिवारों में बहुओं का अकेले घर से बाहर निकलना, पड़ोसियों के साथ हिलनामिलना अथवा सहेलियों के साथ सैरसपाटा निषेध होता है. जिन घरों में सासबहू के संबंध ठीक नहीं होते, वहां तो दोनों ही महिलाएं समस्याएं झेलती हैं. आपसी तनाव के चलते दोनों के बीच बातचीत भी ज्यादातर बंद रहती है. ऐसे घरों में तो सास भी अकेली है और बहू भी अकेली.

कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लड़की शादी से पहले पूरी आजादी से घूमतीफिरती थी, अपनी सहेलियों में बैठ कर मन की बातें करती थी, वह शादी के बाद चारदीवारी में घिर कर अकेली रह जाती है. पति और सासससुर की सेवा करना ही उस का एकमात्र काम रह जाता है. शादी के बाद लड़कों के दोस्त तो वैसे ही बने रहते हैं. आएदिन घर में भी धमक पड़ते हैं, लेकिन लड़की की सहेलियां छूट जाती हैं. उस की मांबहनें सबकुछ छूट जाता है. सास के साथ तो हिंदुस्तानी बहुओं की बातचीत सिर्फ ‘हां मांजी’ और ‘नहीं मांजी’ तक ही सीमित रहती है, तो फिर कहां और किस से कहे घरेलू औरत भी अपने मन की बात?

अकेलेपन का दंश सहने को क्यों मजबूर

स्त्री शिक्षा में बढ़ोतरी होना और महिलाओं का अपने पैरों पर खड़ा होना किसी भी देश और समाज की प्रगति का सूचक है. मगर इस के साथसाथ परिवार और समाज में कुछ चीजों और नियमों में बदलाव आना भी बहुत जरूरी है, जो भारतीय समाज और परिवारों में कतई नहीं आया है. यही कारण है कि आज पढ़ीलिखी महिला जहां दोहरी भूमिका में पिस रही हैं, वहीं वे दुनिया की इस भीड़ में बिलकुल तनहा भी हो गई हैं.

पश्चिमी देशों में जहां औरतमर्द शिक्षा का स्तर एक है. दोनों ही शिक्षा प्राप्ति के बाद नौकरी करते हैं, वहीं शादी के बाद लड़का और लड़की दोनों ही अपनेअपने मातापिता का घर छोड़ कर अपना अलग घर बसाते हैं, जहां वे दोनों ही घर के समस्त कार्यों में बराबर की भूमिका अदा करते हैं. मगर भारतीय परिवारों में कामकाजी औरत की कमाई तो सब ऐंजौय करते हैं, मगर उस के साथ घर के कामों में हाथ कोई भी नहीं बंटाता. पतियों को तो घर का काम करना जैसे उन की इज्जत गंवाना हो जाता है. हाय, लोग क्या कहेंगे?

सासससुर की मानसिकता भी यही होती है कि औफिस से आ कर किचन में काम करना बहू का काम है, उन के बेटे का नहीं. ऐसे में बहू के अंदर खीज, तनाव और नफरत के भाव ही पैदा हो सकते हैं, खुशी के तो कतई नहीं.

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आज जरूरत है लड़कों की परवरिश के तरीके बदलने की और यह काम भी औरत ही कर सकती है. अगर वह चाहती है कि उस की आने वाली पीढि़यां खुश रहें, उस की बेटियांबहुएं खुश रहें तो अपनी बेटियों को किचन का काम सिखाने से पहले अपने बेटों को घर का सारा काम सिखाएं.

आप की एक छोटी सी पहल आधी आबादी के लिए मुक्ति का द्वार खोलेगी. यही एकमात्र तरीका है जिस से औरत को अकेलेपन के दंश से मुक्ति मिल सकेगी.

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