तलाक मिलना इतना पेचीदा क्यों

शादी का रिश्ता सात जन्मों का माना जाता है और इसे तोड़ना एक आफत होती है. एक अदालत के अधिकारियों और वकीलों के मुताबिक यह शायद भारत में अपनी किस्म का पहला ही मामला है जहां दोनों पक्षों में से कोई भी सुनवाई के कौन्फैंसिंग लिए मौजूद नहीं था. काननून कम से कम एक पक्ष को आमतौर पर अदालत में मौजूद रहना पड़ता है, किंतु वीडियो  के माध्यम से अमेरिका में रहने वाले पति और आस्टे्रलिया में रहने वाली पत्नी से सहमति मिलते ही दोनों को ईमेल पर तलाक की कौपी भिजवा दी गई.

पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर दोनों पति और पत्नी 30 साल के भी नहीं हुए थे, लेकिन उन के बीच विवाद इस कदर था कि तलाक से पहले 6 महीने की अनिवार्यता को देख कर पति ने अमेरिका में नौकरी तलाश ली तो बीवी ने आस्ट्रेलिया में जौब ढूंढ़ी. अब तलाक का मामला कोर्ट में गया तो सुनवाई वाले दिन दोनों पक्षों ने कोर्ट को सूचित किया कि वे नहीं आ सकते. लिहाजा कोर्ट ने वीडियो कौन्फैंसिंग का सहारा लिया.

इस में वक्त के साथ खर्च भी बचा और यह तलाक, तलाक के उन अन्य मामलों में अनोखा था जहां कम से कम 2 लाख रुपए का खर्च आता है. दोनों पक्षों की यात्रा में लगने वाले समय की बचत हुई वह अलग.

आसान नहीं थी डगर तलाक की

आमतौर पर तलाक या अलगाव का फैसला एक दिन या कुछ पलों में लिया जाने वाला फैसला नहीं है. इस की कवायद महीनों से ले कर सालों तक चलती है. इस के चलते अलग होने वाले पतिपत्नी मानसिक, शारीरिक क्लेश तो  झेलते ही हैं आर्थिक दंड भी भुगतते हैं.

शायद इस बात को समझते हुए विदेशों में 2005 में स्पेन की नई सरकार ने एक नया तलाक का कानून बनाया, जिस के चलते तलाक लेना आसान हुआ. हां इस से तलाक के मामलों में वृद्धि तो देखी गई पर पतिपत्नी को जल्दी छुटकारा मिल जाता. इस के पहले की चर्च की मान्यता मानने वाली कंजरवेटिव पार्टी की सरकार में तलाक लेना मुश्किल था क्योंकि कानूनी प्रक्रिया इस की इजाजत नहीं देती थी.

यद्यपि लोगों ने फिर भी रास्ता निकाल लिया था, जिस में जोड़े कानून अलग नहीं होते थे, मगर वे अलग ही रहते थे. इसे स्पेनिश तलाक का तरीका कहा जाता था. इस कानून से पहले स्पेन में तलाक की दर यूरोपीय देशों में सब से कम थी.

हमारे देश में भी तलाक का मुद्दा सामाजिक रूप से चर्चा और विवाद का मुद्दा बना हुआ है. करीब 50 साल पहले यह कोई मुद्दा नहीं था. ऐसा समाज की अच्छाई के कारण था या विकल्पहीनता की स्थिति के कारण यह विश्लेषण करने वाले व्यक्ति के नजरिए के साथ जुड़ा हुआ है.

लेकिन यह सभी के लिए विचारणीय है कि कानून की सख्ती द्वारा या समुदाय के दबाव में लोगों को एकसाथ रहने के लिए मजबूर करना क्यों न्यायोचित्त माना जाए. कोई 2 लोग साथ रहना चाहते हैं या अलग, यह निर्णय उन्हीं दोनों को करना चाहिए क्योंकि वे ही समझ सकते हैं कि उन के लिए क्या ठीक है.

देश में तलाक की स्थिति

तलाक के मुद्दे को इस दृष्टि से भी समझने की जरूरत है कि यह स्वयं एक अधिकार है जिसे आप चाहें तो इस्तेमाल करें या न करें. एक जमाना था जब भारत में तलाक लेना संभव ही न था या यों समझ लें कि संबंध विच्छेद करना पतियों के हाथ में था, जहां पत्नियों का उन के हाल पर छोड़ दिया जाता था. यहां तक कि परित्यक्ता की गलती थी भी या नहीं यह सोचने की जहमत कोई नहीं उठाता था.

बहुत से लोगों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद 1956 में हिंदू बिल पास होने से पहले हिंदू औरत को यह अधिकार भी नहीं था कि वह अपने अत्याचारी, शराबी, दुष्चरित्र, परस्त्रीगामी पति से तलाक की मांग कर सम्मानपूर्वक अलग हो सके.

इसे संसद में पहली बार जवाहर लाल नेहरू और कानून मंत्री डा. अंबेडकर ने पेश किया था. तब सनातनी हिंदुओं के दबाव में आ कर यह कानून पास नहीं हो सका और फिर बाद में उस का संशोधित और कमजोर रूप जो टुकड़ों में आया कानून बना था अर्थात जो काम पुरुष बिना कानून के करते थे, उसे नागरिक समाज की मर्यादा के अनुरूप स्त्री और पुरुष दोनों को करने का अधिकार मिला.

राजेंद्र प्रसाद जैसे कट्टरपंथी आदमियों को तो पूरे अधिकार देने के पक्षधर थे पर औरतों को तलाककी जगह आत्महत्या करने की व्यवस्था करते थे.

पेचीदगियों का सामना

इस के बाद अन्याय से लड़ने और अपने अधिकारों को पाने की संघर्ष प्रक्रिया में भी बदलाव आया. विवाह टूटने पर कई बार कोई भी प्रमाण न होने पर स्त्रियों को कई बार कानूनी पेचीदगियों का सामना करना पड़ता था. इन्हीं विवादों से चिंतित हो कर उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रशासित प्रदेशों को आदेश दिया कि वे सभी जातियों में विवाह का पंजीकरण अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाएं.

हालांकि हमारे यहां विवाह एक पारिवारिक मसला समझ जाता है, लेकिन अब समय की मांग है कि हम विवाह पंजीकरण के माने समझे. पंजीकरण जरूरी है. शादी के तुरंत बाद खासतौर पर एनआरआई लड़के से शादी के समय पंजीकरण करवाने के बाद इस की एक प्रति अपने पास रखना जरूरी है क्योंकि धोखाधड़ी के मामले में ऐसे कानूनी दस्तावेज महिला का पक्ष मजबूत बनाते हैं जिस से तलाक की प्रक्रिया जल्दी निबटने की संभावना बनती है.

विवाद के मामले

अक्तूबर, 2006 में घरेलू हिंसा कानून आने के बाद स्त्रियों के प्रति होने वाले अत्याचारों की सुनवाई 498 सेक्शन के तहत होने लगी. जिस के नतीजे में देश के अलगअलग थानों अदालतों में इस के तहत लाखों से अधिक विवाद के मामले दर्ज हुए.

इतना होने के बाद भी कहीं न कहीं कानूनी व्यवस्था ऐसी है जिस से भारत में तलाक लेना आसान बात नहीं होती क्योंकि देश के कानून में न्यायालयों द्वारा इस बात के समुचित आदेश दिए गए हैं कि वे तलाक के प्रकरणों पर अपना निर्णय सुनाने में जल्दीबाजी न करें, इसलिए तलाक के प्रकरणों में सुनाई की तिथियां लंबे अंतराल वाली दी जाती हैं. दोनों पक्षों द्वारा न्यायालय के अनेक चक्कर लगवाए जाते हैं ताकि इस बीच उन में कोई सुलह हो जाए, लेकिन ऐसा कभीकभी ही हो पाता है.

मगर अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं होता. प्रेम और सदविश्वास का टूटा धागा प्राय जुड़ नहीं पाता. यदि गांठ गठीले हो कर दबाव और मजबूरी में जुड़ती भी है, तो दोनों पक्ष जीवनपर्यंत विपरीत धु्रव बन कर मजबूरी का जीवन व्यतीत करते देखे गए हैं. अत: दांपत्य की डोर खींच कर टूटने के कगार पर पहुंच जाए तो उसे दांपत्य दुर्घटना मान कर टूट जाने देना चाहिए. अदालतें अब यह बात समझने लगी है. इसलिए वे अपना निर्णय सुनाने में उतनी देर नहीं करतीं, जितनी पहले करती थीं.

आमतौर पर जब विवाह विच्छेद के साथ अन्य मुद्दे जैसे भरणपोषण, बच्चों का संरक्षण, उत्तराधिकार और संपत्ति वितरण जुड़े होते हैं तो अदालतों को निर्णय सुनाने में देर लगती है. यदि कोई स्त्री पति के अत्याचार की शिकायत अपनी याचिका में करती है तो उसे अत्याचार को सिद्ध करने में वक्त लगता है.

हां लेकिन अगर पतिपत्नी को जल्दी तलाक चाहिए तो पतिपत्नी अगर आपसी समझैते पर एकसाथ याचिका दायर करें तो इस से तलाक जल्दी मिल जाता है क्योंकि उन के ज्यादातर  झगड़ों के मुद्दे अदालत में जाने से पहले ही सुलझ चुके होते हैं.

जब एकसाथ रहना मुश्किल हो

आमतौर पर शादी के 1 साल के बाद ही तलाक लेने की सोची जा सकती है क्योंकि कानून 1 साल के अंदर तलाक दिए जाने का प्रावधान नहीं है. फिर भी अगर किसी दंपती में शादी के दो महीने बाद ही खटपट शुरू हो जाए और परिस्थितियां इस तरह असामान्य बन जाएं कि एकसाथ रहना बेहद मुश्किल हो चुका हो तो उन के याचिका दायर करने के बाद हाई कोर्ट यह देखता है कि उन की तलाक प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए या नहीं.

जब प्रेम की डोरी टूट जाए

विवाह के प्रथम चरण यानी बच्चा पैदा करने से पूर्व भी तलाक की सुनवाई शीघ्र होती लेकिन यदि बच्चे हो जाएं तब उन के व्यस्क होने पर, उन के दायित्व निर्वाह के बाद पतिपत्नी यदि तलाक मांगें तो अदालतें तलाक का मामला जल्दी निबटाती हैं. भले ही अभी तलाक की प्रक्रिया भारत में लंबी हो, लेकिन बदलते वक्त के साथ अदालतें भी समझने लगी हैं कि जब प्रेम की डोरी टूट जाए तो रिश्ते को फिर से जोड़ने की जद्दोजहद करने से बेहतर है उसे तोड़ देना.

तलाकों में अब सिल्वर तलाक की संख्या भी बढ़ रही है जिस में पतिपत्नी बच्चों की शादियां करने के बाद अकेले सुख से रहना चाहते हैं चाहे उन को दूसरा साथी मिले या न मिले. अदालतों में 60 से ऊपर के जोड़े भी तलाक के लिए आने लगे हैं जिस का अर्थ है कि जोड़े एकदूसरे को झेल नहीं पा रहे पर बच्चों के कारण दबाव  झेल रहे थे.

जीवन के आखिरी साल अकेले ही सही पर कम से कम सुकून से तो गुजरें, यह भी जरूरी है. इस में झगड़ालू डौमिनेटिंग धर्म को नुकसान होता है पर यह तो उस की अपनी गलती ही होती है.

वैसे भारत में तलाक दर अभी भी 6% के आसपास है जो पुलिस में सब से कम है पर यह मकानों की कमी के कारण ज्यादा है, संस्कृति और परवरिश के कारण कम. तलाक के बाद सब को मकान नहीं मिलता और देश में किराए पर मकान लेना अकेले के लिए मुश्किल है.

अदालतें आमतौर पर विरोधाभासी कन्फ्यूजन पैदा करने वाली बातें करती हैं. उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय कभी तुरंत तलाक दिलवा देते हैं तो कभी महीनों, सालों इंतजार कराते हैं.

आखिर क्यों आत्महत्या कर रहे हैं हमारे स्टूडेंट्स

भारत में हर घंटे एक स्टूडेंट आत्महत्या कर रहा है. हम उन देशो में से एक हैं जिनमें 15 से 29 साल के लोगो के बीच आत्महत्या की दर अधिकतम हैं. मुख्यतः भारत में इन आत्महत्याओं की वजह शिक्षा से संबधित तनाव को पाया गया हैं.

हाल ही में आई आई टी हैदराबाद के एक स्टूडेंट मार्क एंड्रू चार्ल्स ने पढ़ाई में खराब प्रदर्शन और नौकरी न मिलने के डर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. मार्क ने आत्महत्या से पहले एक आठ पन्नो का सुसाइड नोट छोड़ा है जिसमें उन्होंने अपनी आत्महत्या की वजह खराब नंबर और अच्छी नौकरी न मिलने के डर को बताया है. आई आई टी हैदराबाद में स्टूडेंट द्वारा आत्महत्या का यह इस साल का दूसरा मामला हैं .

हमारे देश के लगभग हर राज्य से स्टूडेंट्स द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सामने आ रही हैं. सन 2016 में सभी राज्यों और यूनियन प्रदेशों द्वारा होम मिनिस्ट्री को भेजे गए एक लेटेस्ट डाटा के मुताबिक 9474 बच्चो द्वारा आत्महत्या कि गयी. जिसमें महाराष्ट्र और बंगाल जैसे राज्यों में स्टूडेंट्स द्वारा आत्महत्या करने का आकड़ा अधिक पाया गया.

गौर से अगर आप हमारी शिक्षा व्यवस्था और आत्महत्याओं के इन आकड़ो को देखेंगे तो पाएंगे कि यह सुसाइड नोट्स जो हमे प्रति घंटे देश के लगभग हर राज्य से प्राप्त हो रहे है. यह सुसाइड नोट्स नहीं बल्कि स्टूडेंट्स द्वारा संपूर्ण समाज को शिक्षा के प्रति स्टूडेंट्स पर असहनीय दबाव और बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था कि तरफ एक संकेत पत्र हैं.

भारतीय शिक्षा व्यवस्था और समाज में अगर कोई बच्चा आई आई टी या एम्स जैसे बड़े संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाता है तो उसे कमजोर या हारा हुआ माना जाता है . इस बात के चलते बच्चो पर पेरेंट्स द्वारा अच्छे नंबर लाने का दबाव प्राइमरी कक्षा से ही शुरू हो जाता हैं . अच्छे नम्बरो कि चाहत और आई आई टी, एम्स जैसे संस्थानों में दाखिला कराने के लिए पेरेंट्स अपने बच्चो को छोटी कक्षाओं से ही तैयार करने के लिए प्राइवेट कोचिंग भेजना शुरू कर देते हैं. जिस वजह से बच्चो को खेलने और ठीक से खाने तक का समय भी नहीं मिल पाता हैं .

महाराष्ट्र राज्य के मुंबई शहर में रहने वाले 9 वि कक्षा के स्टूडेंट सर्वेश मोघे बताते है कि कुछ बच्चो के घर से कोचिंग सेंटर्स बहुत दूर होने की वजह से वो अपने साथ स्कूल जाते समय ही तीन या चार टिफ़िन लेकर जाते है. क्यूंकि सुबह 7 बजे जब वो अपने घर से स्कूल  के लिए निकलते  है तो फिर रात 9 या 9: 30 तक घर पहुंचते है. आई  आई  टी जैसे कौलेज में भी अपने सहपाठियों से अव्वल आने के लिए और अंत में एक अच्छी जौब पाने कि होड़ में स्टूडेंट्स को १४ – १४ घंटे तक पढ़ना पड़ता  हैं . यह समय किसी कौर्पोरेट ऑफिस में कार्यरत व्यक्ति के काम करने के समय से भी ज्यादा है. इस तरह के शेड्यूल और वातावरण का स्टूडेंट के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता हैं .

पिछले कुछ सालो में सेंटर फौर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटी के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 10 में से 4 स्टूडेंट अवसाद ग्रस्त हैं . पेरेंट्स कि इछाओ का दबाव, अपने सहपाठियों से कम्पटीशन और इस नम्बरो कि अंतहीन दौड़ में भागते हुए स्टूडेंट्स कई बार अपने तनाव और डर को किसी से भी नहीं बाँट पाते और आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं .

हमारे शिक्षण संस्थानों और यहां तक कि समाज में भी मानसिक स्वस्थ्य को बहुत ही काम महत्व दिया जाता है . जिसकी वजह से बच्चे उनके सामाजिक जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते है. लगभग हर घर में बच्चो पर अधिक से अधिक नंबर लाने और अच्छी से अच्छी नौकरी को पाने का दबाव बनाया जाता हैं . अगर कभी पेरेंट्स को बच्चे के मनोवैज्ञानिक रोग से ग्रस्त होने का पता चलता हैं तब भी वे समाज के डर से बहुत समय तक अपने बच्चे को मनोवैज्ञानिक उपचार नहीं देते और उसके मानसिक स्वास्थ्य को छुपाते रहते है . इस से भी स्टूडेंट्स का मानसिक स्वास्थ्य और बिगड़ता जाता हैं .

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था देश के विकास में रीढ़ कि हड्डी मानी जाती थी, जिसमे मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक तीनो बातो पर ध्यान दिया जाता था . आज भी हमारे कौलेज एवं शिक्षण संस्थानों को इसके लिए उचित प्रयास करने चाहिए ताकि बच्चो को उनके शिक्षण संसथान में ही मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ वातावरण मिल पाए . बच्चो के पेरेंट्स और प्रशासन को भी स्टूडेंट के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो कर कदम उठाने होंगे .

जौब के विषय में प्लेसमेंट कंपनियों को अपने प्लेसमेंट क्राइटेरिया को सिर्फ अच्छे नम्बरो तक ही सिमित नहीं देखकर उनकी योग्यता को आधार बनाना चाहिए . यू एस के कई राज्यों में स्टूडेंट से उसकी पिछली सैलरी और ग्रेड्स पूछना क़ानूनी अपराध के अंतर्गत आता है . भारत में भी इसी तरह के कदम उठाये जा सकते है. जिस से स्टूडेंट्स में तनाव कम हो और वो निश्चिन्त होकर अपनी योग्यता के आधार पर जौ   ब पा सके.

आशा है कि भविष्य में सावधानी बरतते हुए ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाकर, हम भारत के भविष्य को एक चिंतामुक्त और खुशहाल जीवन जीने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगे.

Diwali Special: जलाएं दूसरों के जीवन में दीप

दीवाली के त्योहार पर सभी अपने घर में दीप जलाते हैं, अपनों को तरहतरह की मिठाई तोहफे में देते हैं. मगर क्या आप ने कभी दूसरों के घर का अंधेरा दूर कर के देखा है. दीवाली के दिन ऐसा करने पर जो आनंद मिलता है कभी उसे भी महसूस कर के देखें.

मिल कर मनाएं दीवाली

आज के समय में कितने ही लोग महानगरों की भीड़ में अकेले, तनहा रहते हैं. दीवाली के दिन उन के साथ खुशियां बांटने वाला कोई नहीं होता. कहीं बूढ़े मांबाप अकेले रहते हैं, तो कहीं युवा लड़केलड़कियां पढ़ाई और नौकरी के कारण अपने घरों से दूर अकेले रह रहे होते हैं. कुछ ऐसे भी होते हैं जो शादी न करने की वजह से अकेले रहते हैं तो कुछ जीवनसाथी की मौत के बाद अकेले रह जाते हैं.

वैसे तो हर सोसायटी औफिस या फिर इंस्टिट्यूट्स में दीवाली की धूम दीवाली से एक दिन पहले ही मना ली जाती है, मगर महत्त्वपूर्ण पल वे होते हैं जब दीवाली की शाम कोई व्यक्ति तनहा अपने घर में कैद होता है. उस वक्त उस के साथ कोई और दीप जलाने वाला नहीं होता तो लाख कोशिशों के बावजूद उस के मन का एक कोना अंधेरा ही रह जाता है.

ऐसे में हमारा दायित्व बनता है कि हम ऐसे तनहा लोगों के जीवन में दीप जलाने का प्रयास करें. वैसे भी आजकल संयुक्त परिवारों की कमी की वजह से व्यक्ति अपने परिवार के साथ अकेला ही दीवाली मना रहा होता है. ऐसे में 2-3 परिवारों के लोग मिल कर त्योहार मनाएं तो यकीनन खुशियां बढ़ेंगी.

आप अपने आसपास के तनहा रह रहे बुजुर्गों या युवाओं को अपने घर दीवाली मनाने को आमंत्रित कर सकते हैं. उन के साथ मिल कर दीप, कैंडल जलाएं. पटाखे फोड़ें और एकदूसरे को मिठाई खिलाएं.

किसी के घर इस तरह दीवाली मनाने आ रहे शख्स को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस ने आप को आमंत्रित किया है, उस के परिवार के लिए भी कुछ मिठाई और पटाखे खरीद लिए जाएं. उस के घर जा कर घर सजाने में मदद करें और उस के बच्चों को अपने घर ले आएं, ताकि थोड़ी धूम और रौनक आप अपने घर में भी महसूस कर सकें.

बुजुर्गों के साथ मस्ती

पत्रकार प्रिया कहती हैं, ‘‘जब मैं जौब करने के लिए नईनई दिल्ली आई थी तो 3 साल एनडीएमसी के एक होस्टल में रही. वहीं बगल में एनडीएमसी का ओल्डऐज होम भी था जहां वृद्ध और एकाकी महिलाएं रहती थीं. मैं अकसर उन के पास जा कर बातें करती थी, उन के साथ टीवी देखती, खानेपीने की चीजें शेयर करती. कई वृद्ध महिलाओं से मेरा अच्छा रिश्ता बन गया था. पिछली दीवाली में मैं अपना घर सजा रही थी तो यकायक उन वृद्ध महिलाओं का खयाल आया. फिर क्या था मैं सजावट के कुछ सामान, पटाखे और मिठाई ले कर वहां पहुंच गई. मुझे देख कर उन के उदास चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई. मैं ने ओल्डऐज होम के बाहरी हिस्से को बड़ी खूबसूरती से सजा दिया. उन्हें मिठाई खिलाई और फिर उन के साथ मिल कर पटाखे छोड़े. सच बहुत मजा आया.

एक वृद्ध महिला जो मुझे बहुत मानती थीं, मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने साथ कमरे में ले गईं. और फिर मेरी पसंद के रंग का एक बेहद प्यारा सूट मुझे दिया. मैं वहां करीब 2 ही घंटे रुकी पर इतने समय में ही वह दीवाली मेरे लिए यादगार बन गई.

अपनों को खो चुके लोगों के जीवन में उम्मीद के दीप जलाएं: आप के किसी परिचित, पड़ोसी, रिश्तेदार या आसपास रहने वाले ऐसे परिवार जिस में हाल ही में कोई हादसा, मृत्यु, पुलिस केस, मर्डर या परिवार टूटने की स्थिति आई हो, दीवाली के दिन उस परिवार से जरूर मिलें. परिवार के लोगों के मन में नई संभावनाओं के दीप जलाएं और बताएं कि हर स्थिति में आप हमेशा उन के साथ हैं.

अनजान लोगों के चेहरों पर सजाएं मुसकान

आप के औफिस के कुलीग, क्लाइंट, रिलेटिव्स व अन्य जानपहचान वाले इस दिन मिठाई जरूर देते हैं. अत: जरूरत से ज्यादा आई मिठाई को पैक कर जरूरतमंद लोगों को बांटें. इस से उन के चेहरे खुशी से खिल उठेंगे. उन के चेहरों पर खुशी देख यकीनन आप भी खुशी महसूस करेंगे.

वौलंटियर बनें: हर साल कितने ही लोग दीवाली की रात दुर्घटना का शिकार होते हैं. पटाखों से जल जाते हैं. यह समय ऐसा होता है जब ला ऐंड और्डर मैनेज करना काफी कठिन होता है. ऐसे में यदि वौलंटियर बन कर जले लोगों की मदद को आगे आएंगे तो आप का यह कार्य पीडि़त व्यक्ति के घर में नई रोशनी जलाने जैसा सुखद होगा.

दीवाली के दिन काम कर रहे लोगों की हौसला अफजाई

बहुत से लोगों का काम ऐसा होता है जिन्हें दीवाली के दिन भी छुट्टी नहीं मिलती जैसे वाचमैन, पुलिसमैन आदि. ये आप की सुरक्षा के लिए काम करते रहते हैं. आप उन्हें खास महसूस कराएं. इन्हें ग्रीटिंग कार्ड्स, चौकलेट बार जैसी चीजें दे कर हैप्पी दीवाली कह कर देखें. आप की यह कोशिश और चेहरे की मुसकान उन के चेहरों पर भी खुशी ले आएगी.

काम की चीजें दूसरों को दें

दीवाली पर घर की सफाई करते समय अकसर हम बहुत सी बेकार की चीजें निकालते हैं. इन्हें फेंकने के बजाय उन्हें दे जिन्हें इन की जरूरत है. 45 साल की स्कूल टीचर दीपान्विता कहती हैं, ‘‘मेरी कामवाली करीब 15 सालों से हमारे यहां काम कर रही है. हर साल जब मैं दीवाली में अपने घर की साफसफाई करती हूं तो बहुत सी ऐसी चीजें निकल आती हैं जो मेरे लिए भले ही पुरानी या अनुपयोगी हो गई हों पर उस के काम आ सकती हैं. अत: ऐसी चीजें इकट्ठी कर उसे दे देती हूं.’’ इन में से एक भी बात पर यदि अमल कर लिया तो यह त्योहार आप के लिए यादगार बन जाएगा.

वर्किंग वाइफ पसंद करते हैं पुरुष

दिलचस्प बात यह है कि जहां लोग पहले शादी के लिए कामकाज में दक्ष, संस्कारी और घरेलू लड़की पसंद करते थे वहीं आज इस ट्रेंड में बदलाव नजर आ रहा है. अब पुरुष शादी के लिए घर बैठी लड़की नहीं बल्कि वर्किंग वूमन पसंद करने लगे हैं. अपनी वर्किंग वाइफ का दूसरों से परिचय कराते हुए उन्हें गर्व महसूस होता है. आइये जानते हैं पुरुषों की इस बदलती सोच की वजह;

पति की परिस्थितियों को समझती है

अगर पत्नी खुद भी कामकाजी है तो वह पति की काम से जु़ड़ी हर परेशानी को बखूबी समझ जाती है. वह समयसमय पर न तो पति को घर जल्दी आने के लिए फोन करती रहेगी और न घर लौटने पर हजारों सवाल ही करेगी. इस तरह पतिपत्नी का रिश्ता स्मूथली चलता रहता है. दोनों हर संभव एक दूसरे की मदद को भी तैयार रहते हैं. यही वजह है कि पुरुष कामकाजी लड़कियां खोजने लगे हैं.

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अपना खर्च खुद उठा सकती हैं

जो महिलाएं जौब नहीं करतीं वे अपने खर्चे के लिए पूरी तरह पति पर निर्भर होती हैं. छोटी सी छोटी चीज़ के लिए भी उन्हें पति और घरवालों के आगे हाथ पसारना पड़ता है. दूसरी तरफ वर्किंग वूमन खर्चों को पूरा करने के लिए पति पर डिपेंडेंट नहीं रहती हैं. वे न सिर्फ अपने खर्चे खुद उठाती हैं बल्कि समय पड़ने पर परिवार की भी मदद करती हैं.

पौजिटिव होती हैं

कामकाजी महिलाओं पर हुई एक रिसर्च के मुताबिक ज्यादातर वर्किंग वूमन सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर रहती हैं. उन के अंदर आत्मविश्वास और चीज़ों को हैंडल करने का अनूठा जज्बा होता है. उन्हें पता होता है कि किस परेशानी से किस तरह निपटना है.इस लिए वे छोटी छोटी बातों पर हाइपर नहीं होती न ही घबड़ाती हैं. उन्हें पता होता है कि प्रयास करने पर वे काफी आगे बढ़ सकती हैं.

खर्च कम बचत ज्यादा

आज की महंगाई में यदि पतिपत्नी दोनों कमाई करते हैं तो जिंदगी आसान हो जाती है. आप को कोई भी प्लान बनाते समय सोचना नहीं पड़ता. भविष्य के लिए बचत भी आसानी से कर पाते हैं. घर और वाहन खरीदने या फिर किसी और जरुरत के लिए लोन लेना हो तो वह भी दोनों मिल कर आसानी से ले लेते हैं और किश्तें भी चुका पाते हैं. आलम तो यह है कि आज महिलाएं लोन लेने और उसे चुकाने के मामले में पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे न सिर्फ पारिवारिक और सामाजिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी घर की धुरी बनती जा रही है.

बढ़ रही है लोन लेने वाली औरतों की संख्या

क्रेडिट इन्फौर्मेशन कंपनी ‘ट्रांसयूनियन सिबिल’ की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पिछले 3 सालों में कर्ज लेने के मामले में महिला आवेदको की संख्या लगातार बढ़ रही हैं. देखा जाए तो औरतों ने मर्दों को पीछे छोड़ दिया है.

रिपोर्ट के अनुसार, ‘साल 2015 से 2018 के बीच कर्ज लेने के लिए सफल महिला आवेदकों की संख्या में 48 फीसदी की बढ़त हुई है. इस की तुलना में सफल पुरुष आवेदकों की संख्या में 35 फीसदी की बढ़त हुई है. हालांकि कुल कस्टमर बेस के हिसाब से अभी भी कर्ज लेने वाले पुरुषों की संख्या काफी ज्यादा है.

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रिपोर्ट के अनुसार करीब 5.64 करोड़ के कुल लोन अकाउंट में अब भी ज्यादा हिस्सा गोल्ड लोन का है, हालांकि साल 2018 में इस में 13 फीसदी की गिरावट आई है. इस के बाद बिजनेस लोन का स्थान है. कंज्यूमर लोन, पर्सनल लोन और टू व्हीलर लोन के लिए महिलाओं की तरफ से मांग साल-दर-साल बढ़ती जा रही है.

आज हर 4 कर्जधारकों में से एक महिला है. यह अनुपात और भी बदलेगा क्यों कि कर्ज लेने लायक महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है. बेहतर शिक्षा और श्रम बाजार में बेहतर हिस्सेदारी की वजह से अब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अपने वित्तीय फैसले खुद ले रही हैं.

बच कर रहें ऐसे सैलूनों से

कल सोहा को अपनी हर महीने होने वाली किट्टी पार्टी में जाना है, इसलिए अपने घर के काम निबटा कर सैलून रवाना हो गई. वैसे तो वह हर महीने वैक्स, हेयर कट, आइब्रोज करवाती ही है, किंतु इस बार किट्टी रैट्रो थीम पर आयोजित की जा रही है, इसलिए वह 70-80 के दशक की अभिनेत्रियों की तरह कुछ खास तैयार हो कर जाना चाहती है. उस जमाने में हेयरस्टाइल पर ही खास जोर दिया जाता था. अत: सैलून जा कर उस ने जब हेयरस्टाइल की बात की तो उन्होंने तरहतरह के स्टाइल दिखा अगले दिन आने का समय तय किया.

मैंबरशिप और डिस्काउंट का लालच

‘‘मैडम जब आप किट्टी पार्टी की तैयारी कर ही रही हैं तो फिर आप हमारा नया डायमंड फेशियल क्यों नहीं करवातीं? एक बार में ही खूब ग्लो आ जाएगा,’’ सैलून में कार्यरत लड़की ने कहा. ‘‘क्या खास बात है इस फेशियल की?’’ सोहा ने पूछा. ‘‘मैडम यह टैन रिमूवल फेशियल है. इस से आप के चेहरे से टैन के साथसाथ डैड स्किन भी निकल जाएगी जिस से चेहरे के दागदब्बे भी कम हो जाएंगे. इस से चेहरे पर गजब का निखार आएगा. एक बार करवा कर तो देखें.’’ ‘‘क्या रेट है इस फेशियल का?’’

‘‘मैडम कुछ खास नहीं केवल क्व2,200.’’

‘‘यह तो बहुत महंगा है?’’

‘‘मैडम क्या आप के पास सैलून की मैंबरशिप है?’’

‘‘नहीं, पर क्यों?’’

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‘‘मैडम आप मैंबरशिप ले लीजिए. मैंबर्स को हम डिस्काउंट देते हैं. आप की पूरी फैमिली का कोई भी मैंबर जब भी हमारे यहां से कोई सर्विस लेगा तो उसे हम डिस्काउंट देंगे और आज के फेशियल में भी आप को 20% डिस्काउंट मिलेगा.’’

सोहा दुविधा की स्थिति में थी कि क्या करे. तभी सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. झांइयां दिनबदिन बढ़ती जा रही थीं. अत: उस ने पूछा, ‘‘क्या ये दाग भी कम होंगे इस फेशियल से?’’

‘‘हां मैडम, पर इन्हें हटाने के लिए आप को 3-4 सिटिंग्स लेनी पड़ेंगी, क्योंकि दाग पुराने हैं.’’

सोहा ने खुद को सुंदर दिखाने के लिए फेशियल करवाने हेतु हामी भर दी.

1 घंटे बाद जब उस ने अपना चेहरा देखा तो सचमुच वह चमक उठी थी.

किंतु सोचने वाली बात यह है कि झांइयां क्या कभी फेशियल से जा सकती हैं?

हां, अस्थाई फर्क जरूर आएगा, क्योंकि चेहरे की मालिश से रक्तसंचार बढ़ने से चेहरे की कुछ सफाई हो जाती है. लेकिन डैड स्किन हटने से झांइयों वाली त्वचा अल्ट्रावायलेट किरणों के लिए पहले से अधिक ऐक्सपोज हो गईं. अत: ज्यादा अच्छा होता कि सोहा अपने चेहरे की झांइयों का इलाज करवाने के लिए किसी डर्मैटोलौजिस्ट के पास जाती.

नए प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल और खर्च

इसी तरह नेहा भी एक दिन सैलून गई. वहां जा कर उस ने बताया कि वह बिकिनी की शेव करकर के परेशान हो गई है. मासिक के समय तो खास परेशानी होती है. फिर जब दोबारा बाल निकलने लगते हैं तो बहुत मोटे निकलते हैं, जो चुभते हैं. अब ऐसी जगह बारबार स्क्रैच करो तो देखने में अच्छा नहीं लगता. तब सैलून में काम करने वाली लड़की बोली कि मैडम, बिकिनी वैक्स करवा लीजिए. पूरा महीना आराम रहेगा.

एक बार तो नेहा हिचकिचाई, फिर सोचा कि ट्राई करने में कोई हरज नहीं. फिर जब सैलून वाली लड़की ने पूछा कि मैडम वैक्स कौन सा नौर्मल या फिर फ्लेवर्ड तो नेहा ने कहा कि नौर्मल ही करो.

इस पर लड़की ने कहा कि वह फ्लेवर्ड वैक्स ही करेगी, क्योंकि उस से बिकिनी के बाल आसानी से निकल जाते हैं. अब चूंकि नेहा पहली बार बिकिनी वैक्स करवा रही थी सो बोली ठीक है. लेकिन जब बिल देखा तो 2 हजार रुपए का. साधारण वैक्स से दोगुना. उफ, उस के मुंह से निकला. घर आ कर जब नेहा ने अपनी मां को बताया तो मां बोली कि वैक्स तो वैक्स है जिस का काम है बालों पर चिपकना ताकि उस पर वैक्सिंग स्ट्रिप चिपका कर बालों को खींच लिया जाए. उस में फ्लेवर से क्या फर्क पड़ेगा? यह रुपए ऐंठने का तरीका है.

औफर्स की चकाचौंध

अकसर सैलून में किसी न किसी बहाने औफर्स रखे जाते हैं, जैसे नए वर्ष पर डिस्काउंट या दीपावली पर यह नया पैकेज. इन पैकेज में वैक्स, आईब्रो, मैनीक्योर, पैडीक्योर, हेयर कट आदि के साथ हेयर कलर फ्री.

इस तरह के पैकेज में हेयर कलर के रुपए पहले से ही जोड़ दिए जाते हैं. फिर यदि एक बार कलर किए बाल आप पर जंच गए, दूसरे लोगों ने आप की तारीफ कर दी तो आप उन के हर माह के क्लाइंट बन गए. कुल मिला कर सैलून को मुनाफा ही हुआ और आप भी खुश. लेकिन इस में आप यह भूल जाते हैं हेयर कलर में कैमिकल्स होते हैं जो आप के बालों को नुकसान पहुंचाते हैं.

कलर्ड हेयर को ऐक्स्ट्रा केयर की जरूरत होती है, जो आप नहीं कर पाते हैं. अब जब  आप के बाल डैमेज होते हैं तो आप फिर सैलून वालों से पूछते हैं, ‘‘क्या करूं बहुत हेयर फौल हो रहा है और बाल रफ भी हो गए हैं.’’ तब वे अपने सैलून में रखे जाने वाले कई बड़ी कंपनियों के उत्पाद इस्तेमाल करने को कहते हैं. उन का कमीशन तय होता है. कुल मिला कर फिर सैलून वालों का फायदा और आप का बुद्धू बनना.

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पैकेज की बहार और आप का बंधन

इसी तरह से आजकल सैलून में एक और नया पैकेज तैयार है. यदि आप 3 माह लगातार 3 हजार रुपए हमारे सर्विसेज पर खर्च करें तो चौथे माह आप का हेयर कट फ्री. अब ग्राहक चाहे हर महीने डेढ़ या 2 हजार का खर्च सैलून में करता है, लेकिन उस फ्री हेयर कट के लिए हर माह ऐक्सट्रा सर्विसेज ले कर 3 हजार का खर्च करता है. वह सोचता है कि ये 3 हजार तो सर्विसेज के हैं. बाद में हेयर कट तो फ्री है ही. यहां यह समझने की कोशिश कीजिए कि दुनिया में कुछ भी फ्री नहीं होता है. कहीं न कहीं तो आप को कीमत देनी ही होती है. इस तरह से हर ग्राहक से 3 हजार कमा कर उन की आय फिक्स हो गई और आप 4-5 माह तो वहां जाएंगे ही, क्योंकि आप को फ्री हेयर कट जो करवाना है. आप रुपए दे कर उस एक ही सैलून से बंध जाते हैं अन्यत्र कहीं जाने की सोच भी नहीं सकते, भले ही आप को उन का काम पसंद आए या नहीं.

पैकेज की ऐडवांस पेमैंट

इसी तरह से निहारिका ने एक पैकेज ले लिया जिस की सर्विसेज 2 दिन में पूरी करने की बात थी. पहले दिन उस ने हेयर कलर करवाया. उसे स्कैल्प में बहुत इचिंग होने लगी. घर पहुंचने पर उस के सिर में लाललाल चकत्ते हो गए. उन के कारण उसे डाक्टर के पास जाना पड़ा. मालूम हुआ जो हेयर कलर उस के बालों में इस्तेमाल किया गया है उस से उस के सिर में ऐलर्जिक रिएक्शन हो गया है. उसे बहुत गुस्सा आया. वह अगले ही दिन सैलून जा कर बोली कि पैकेज के रुपए वापस कर दें, उसे वहां से कोई सर्विसेज नहीं लेनी है. लेकिन सैलून वाले रुपए वापस देने को तैयार नहीं थे.

उन का कहना था कि मैडम ये सब औनलाइन सिस्टम में पहले से फीड किया होता है. आप ने पैकेज लिया है और उस के लिए पे किया है अब आप को सर्विसेज तो लेनी ही होंगी. यदि आप आधी सर्विसेज ले कर छोड़ देना चाहें तो हमारी क्या गलती? फिर आप ने भी तो नहीं बताया था कि आप को किस प्रोडक्ट से ऐलर्जी है. किसी और ग्राहक को तो इस प्रोडक्ट से कोई नुकसान नहीं हुआ. आप ही पहली हैं जो यहां ऐसी शिकायत ले कर आई हैं.

फिर क्या था निहारिका अपना सा मुंह ले कर घर लौट आई.

नकली प्रोडक्ट्स की पहचान

आजकल बाजार में सभी बड़े ब्रैंड के नकली प्रोडक्ट्स बिक रहे हैं. यहां तक कि नकली सामान की बिक्री औनलाइन भी हो रही है. यही नकली प्रोडक्ट्स कई सैलून में इस्तेमाल होते हैं. ग्राहकों को इस की जानकारी नहीं होती और वे बड़ी कीमत दे कर वहां की सर्विसेज लेते हैं, जबकि सैलून को वे नकली प्रोडक्ट्स कम कीमत पर मिलते हैं. इस से सैलून को काफी मुनाफा होता है.

अब बात आती है कि ग्राहक इन नकली प्रोडक्ट्स की पहचान कैसे करे? तो सब से पहले जब ग्राहक सैलून में सर्विसेज लेता है तो इस्तेमाल किए गए प्रोडक्ट्स की पैकिंग की मैन्युफैक्चरिंग डेट व बैच नंबर देखे, क्योंकि बाजार में रिपैकिंग किए गए प्रोडक्ट्स उपलब्ध होते हैं यानी पैकिंग मैटीरियल असली और उन में पैक किया गया सामान नकली.हम इस्तेमाल किए गए असली प्रोडक्ट्स की खाली शीशियां, डब्बे रद्दी वाले को बेच देते हैं या फिर कूड़ेदान में डाल देते हैं. इन शीशियों व डब्बों का इस्तेमाल नकली सामान की पैकिंग में किया जाता है. नकली प्रोडक्ट के इस्तेमाल से जलन भी हो सकती है, यह भी उस के नकली होने का एक प्रमाण है.

सैलून में बिकने वाले प्रोडक्ट्स

इसी तरह एक बार निहारिका हेयर कट के लिए एक बड़े सैलून में गई और अपनी बेटी को भी साथ ले गई. वहां हेयर कट से पहले हेयर वाश जरूरी होता है. सैलून की स्टाफ हेयर वाश कर हेयर कट कर बिलिंग के समय बोली, ‘‘मैडम, आप की बेटी के बाल बहुत रफ हो रहे हैं. हेयर कट के समय कंघी चलाने में भी मुझे परेशानी हो रही थी. आप उस के लिए हमारे सैलून में रखे प्रोडक्ट्स क्यों नहीं इस्तेमाल करतीं? ये देखिए…’’ ऐसा कह उस ने अपने सैलून के शोकेश में सजे कई महंगे प्रोडक्ट्स दिखाए.

निहारिका समझ गई थी कि यह उस से रुपए ऐंठने की चाल है. अत: उस ने प्रोडक्ट्स को देख कर कहा कि मैं बाद में सोचूंगी. मगर स्टाफ कहां आसानी से टलने वाला था. उस प्रोडक्ट को बेच कर उसे कमीशन जो मिलने वाला था, सो बोली कि मैडम और्गेनिक प्रोडक्ट्स हैं. आप की बेटी के बाल अच्छे रहेंगे इन से. वरना बहुत खराब हो जाएंगे.’’

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निहारिका उन की बातों में आने वाली नहीं थी, सो बोली, ‘‘मैं घर में उस के बाल धोने के लिए आंवला, रीठा, शिकाकाई का इस्तेमाल करती हूं और उस से बहुत खुश हूं.’’

इसी तरह जब सत्या हेयर कट के लिए गई तो बाल धोते ही उस के बालों से मेहंदी की खुशबू आने लगी, क्योंकि वह मेहंदी का इस्तेमाल करती थी. सैलून का स्टाफ बाल काटते समय उस से बोला कि मैडम आप के बालों से गंध आ रही है. मेहंदी की जगह हेयर कलर क्यों नहीं इस्तेमाल करतीं?

स्टाफ की बात सुन सत्या बोली, ‘‘आप जिसे बैड स्मैल कह रहे हैं हमें वह खुशबू लगती है, आप बाल काटें उस के सिवा कुछ न करें.’’

बदन संवारें कपड़े नहीं

टीवी एक्ट्रेस शिखा सिंह आज के समय में टीवी का जानामाना नाम बन चुकीं हैं. वैसे भले ही इन्होंने अब तक किसी भी शो में लीड किरदार न निभाया हो फिर भी टीवी जगत में वह काफी लोकप्रिय है खास कर ज़ी टीवी के शो कुमकुम भाग्य में आलिया के किरदार से इन्हे पहचान मिली है.

हाल ही में उन्होंने कहा कि उन्हें हर चीज महंगी ही अच्छी लगती है. खास कर अपने कपड़ों के लिए वह सब से ज़्यादा पैसे खर्च करती हैं. सामान्यतः  शिखा के एक ड्रेस की कीमत 80 हजार से 1 लाख तक होती है क्योंकि वह अपने ड्रेस विदेश से मंगवाती है और इस तरह के महंगे ड्रेस पहनना ही उन को पसंद आता है. उसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो.

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बौलीवुड एक्ट्रेस करीना की बात करें तो सब को पता है कि वह पार्टियों में लाखों की ड्रेस पहन कर पहुंचती हैं. लेकिन क्या आपने सुना है कि वह जिम में भी 45 हजार तक की टीशर्ट पहन कर जा चुकी हैं.

महंगे कपड़ों से सुर्खियां बटोरने की चाह

करीब 2 साल पूर्व ‘द मैन विद द गोल्डन शर्ट’ के नाम से मशहूर महाराष्ट्र के मशहूर व्यवसायी और राजनेता पंकज पारेख का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल हो गया. उन्होंने सबसे महंगी सोने की शर्ट रखने के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकार्ड बनाने का दावा किया जिसकी मौजूदा कीमत 1.3 करोड़ रूपये से ज्यादा आंकी गयी है.

नासिक से करीब 70 किलोमीटर दूर येओला के 47 साल के पंकज पारेख ने 2014 में अपने 45 वें जन्मदिन पर यह विशेष शर्ट बनवायी थी और इस के दो साल बाद 98,35,099 रूपये की चार किलोग्राम सोने की शर्ट ने सब से महंगी शर्ट होने का रिकौर्ड बनाया. पंकज पारेख ने यह शर्ट एक अगस्त 2014 को खरीदी थी. शुद्ध सोने से बनी इस शर्ट के भीतरी हिस्से में कपड़े की बेहद महीन परत है. पारेख को जिस शर्ट के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड मिला है उस का वजन 4.10 किलोग्राम है. इसे तैयार करने के लिए 20 कारीगरों ने दो महीनों में 3200 घंटों तक काम किया. इस शर्ट को तैयार करने के लिए 18-22 कैरेट सोने का इस्तेमाल हुआ.

पारेख जब भी अपने सोने के परिधान के साथ येयोला की सड़कों पर निकते हैं उन के साथ एक लाइसेंसी रिवाल्वर होता है. पारेख स्वीकार करते हैं कि येयोला के पुरुष व महिलाएं उन्हें घूरते हैं इसलिए वह प्राइवेट बॉडीगार्ड ले कर चलते हैं.

पारेख का परिवार उनके इस शौक को गैरजरूरी जुनून करार देता है. उन के रिश्तेदार भी उन्हें झक्की करार देते हैं.

अजब गजब फैशन पर लाखों का खर्च

हाल ही में प्रियंका का एक लुक खासा चर्चा में रहा। मेट गाला में प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण काफी अतरंगी बन कर पहुंचीं।

प्रियंका ने क्रिश्चियन डिओर की सिल्वर रंग की पंखनुमा ड्रेस पहनी थी. मेकअप थोड़ा अलग किस्म का था. अपनी भंवों को प्रियंका ने सफ़ेद कर रखा था. बाल भी ऐसे लग रहे थे जैसे अभीअभी उन्हें इलेक्ट्रिक शॉक लगा हो. प्रियंका अपनी इस ड्रेस और मेकअप के लिए काफ़ी ट्रोल भी हुई. इंटरनेट पर उन के मीम चले. वहीं दूसरी तरफ़ दीपिका ने ज़ैक पोसेन का गुलाबी गाउन पहना था.

मेट गाला को फैशन का वर्ल्डकप फाइनल समझ लीजिए. मेट गाला हर साल मई के पहले मंडे को होता है. न्यूयॉर्क में एक जगह है, मेट्रोपोलिटन म्यूजियम ऑफ़ आर्ट नाम की. मेट नाम इसी से निकला है. अंग्रेज़ी में गाला का मतलब हुआ पर्व. दोनों शब्दों को जोड़ कर बनता है मेट गाला. इस इवेंट का मकसद फंडरेजिंग है. यह आर्ट म्यूजियम अपने फैशन कलेक्शन के लिए पैसे जोड़ता है. हर साल यह एक थीम तय करता है. सब इसी थीम के मुताबिक कपड़े पहन कर आते हैं. इस साल की थीम थी ,‘कैंप: नोट्स ऑन फैशन.’ मेट गाला की शुरुआत साल 1946 में हुई थी. इस को एक तरह से ‘फैशन पार्टी ऑफ़ द इयर’ समझा जाता है.

दुनियाभर के तुर्रमखान जिन्हें फैशन में दिलचस्पी होती है वे मेट गाला में हिस्सा लेते हैं. ज्यादातर म्यूजिक इंडस्ट्री के सितारे, फिल्मों के जानेमाने चेहरे, फैशन की दुनिया के बड़े नाम या किसी भी वजह से फेमस लोग इस इवेंट में शामिल होते हैं. हर साल मेहमानों की लिस्ट बदलती है.

मेट गाला में जो मेहमान आते हैं उन्हें एक टेबल ख़रीदनी पड़ती है. इस को एंट्री टिकट समझ लीजिए. इस की कीमत एक करोड़ से ऊपर है. यहां आने के लिए आप को डिज़ाइनर गाउन, गहने वगैरह भी खरीदने ही पड़ते हैं. हालांकि टिकट एंट्री वाला रूल सेलिब्रिटीज़ पर लागू नहीं होता. उन्हें तो उल्टा यहां आने के पैसे दिए जाते हैं. यहाँ सब बड़ेबड़े डिज़ाइनर्स के रंगबिरंगे फॅशनेबल और महंगे से महंगए कपड़े पहन कर अपना जलवा दिखाते हैं.

कान्स फिल्म फेस्टिवल 2019 के लिए दीपिका की पहनी हुई हर ड्रेस, ज्वैलरी और फुटवेयर की कीमत लाखों में रही. दीपिका पादुकोण ने अपने दूसरे दिन के रेड कार्पेट वॉक के लिए लाइम ग्रीन कलर ट्यूल गाउन पहना था. उन का यह गाउन गियमबटिस्टा वाली (Giambattista Valli ) ने डिजाइन किया था. इस लुक में उन्होंने गाउन के साथ ही सिर पर एक गुलाबी पगड़ी पहनी थी। अपने इस लुक को पूरा करने के लिए उन्होंने एक लग्जरी हेयरबैंड भी पहना हुआ था. अगर बात करें इस छोटे से हेयरबैंड की तो उस की अकेले की कीमत ही 585 पाउंड्स बताई जा रही है. इस कीमत को अगर भारतीय करेंसी में बदल कर देखा जाए तो यह हेयरबैंड लगभग 52,338 रुपए का है. इतनी कीमत में एक शानदार बाइक खरीदी जा सकती है. दीपिका के लिए यह हेयर बैंड एमिली बक्सेंडले (Emily Baxendale) ने डिजाइन की थी.

कुछ दिनों पहले महिला दिवस के अवसर पर प्रियंका सोहो हाउस पार्टी में पहुंची थी. इस दौरान वह ब्राउन कलर के बेहद ड्रेस में नजर आईं. उन्‍होंने अपने लुक को कंप्‍लीट करने के लिए बूट्स पहने थे और मैचिंग बैग कैरी किया था. उन के इस लुक की तसवीरें जम कर वायरल हुई. सोशल मीडिया पर कुछ लोगों को उन का यह लुक पसंद आया और कुछ ने  सोशल मीडिया पर उन की ड्रेस का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. उन के इस लुक को किसी ने ‘कोकाकोला’ कहा तो किसी ने ‘चिड़िया’ बताया।

प्रियंका के इस ड्रेस की कीमत जान कर आप हैरान रह जायेंगे. प्रियंका की यह ड्रेस एट्रो (ETRO ) ब्रांड की थी जिस की कीमत $2,750 यानी तकरीबन 1,90,155 रुपये है.

एक्टर रणवीर सिंह अक्सर अतरंगी पोशाके पहनने के कारण सुर्खियों में रहते हैं. हाल ही में रणवीर ने एक ऐसी तस्वीर इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दी है जिस की वजह से वह सोशल मीडिया पर ट्रोल होने लगे। फोटो में रणवीर फर वाली जैकेट पहने नजर आ रहे हैं जिस पर तरहतरह के स्टिकर्स लगे हुए हैं. व्हाइट पैंट, व्हाइट स्वेटर और कलरफुल सनग्लासेज लगाए रणवीर बड़े डिफरेंट लग रहे थे. सोशल मीडिया पर यूजर्स को उन का यह लुक रास नहीं आया.

लोगों ने रणवीर को कार्टून किरदार सुविलियन से कंपेयर किया . रणवीर के इस लुक का लोगों ने जम कर मजाक उड़ाया जब कि उन की पत्नी दीपिका पादुकोण को वह इस जैकेट में बहुत अच्छे लगे.

बदन पर खर्च करें रूपए कपड़ों पर नहीं

इस तरह के फैशन और परिधानों को देख कर क्या आप के दिल में यह ख्याल नहीं आता कि सजीधजी कोई दुकान तो नहीं चली आ रही है? आप कपड़े खरीदती हैं अपने शरीर को खूबसूरत दिखाने के लिए मगर जब कपड़ों की कीमत लाखों में हो तो क्या यह नहीं लगता कि हम उस दुकान या डिजाइनर का प्रचार करने वाले कैनवस पेपर बन गए हैं.

वस्तुत यदि आप बेहतर दिखना चाहती हैं तो अपने शरीर पर काम कीजिए। रुपए खर्च करने हैं तो अपने शारीरिक दोषों को दूर करने पर खर्च कीजिए। आकर्षक दिखना है तो फिटनेस कायम कर अपने शरीर को सुडौल और आकर्षक बनाइये. मगर इस तरह की बनावटी खूबसूरती का जामा पहन कर आप किसे भ्रमित कर रही हैं ?

महिलाएं खासतौर पर अपनी सैलरी और कमाई का सब से बड़ा हिस्सा अपने मेकअप के सामानो और परिधानों पर खर्च करती है. घंटों का समय लगा कर कोई ड्रेस खरीदती है. उस ड्रेस के लिए बड़ी से बड़ी कीमत अदा करती है। बारबार टेलर या डिज़ाइनर के पास जा कर उस की फिटिंग सही कराती हैं. फिर उस ड्रेस को और आकर्षक बनाने के लिए उस से मैच करते एक्सेसरीज और ज्वेलरीज खरीदती हैं. इस काम में भी घंटों का समय लगता है। तब जा कर उन की एक ड्रेस तैयार होती है.

पर क्या आप ने यह सोचा है कि यदि इतना समय और इतने रुपए आप ने अपने बदन को खूबसूरत और हैल्दी बनाने में खर्च किए होते, अपने चेहरे के नेचुरल आकर्षण को बढ़ाने में रूपए लगाए होते तो नतीजा कितना अलग निकलता। तब आप की खूबसूरती बनावटी और अस्थाई नहीं होती। आप अंदर से खूबसूरत महसूस करती। आप का रियल कॉन्फिडेंस बढ़ता।

फैशन के नाम पर कुछ भी पहन लेना आप के व्यक्तित्व की गरिमा को घटाता है. अपने बदन पर रूपए खर्च कर आप किसी भी उम्र में खूबसूरत दिख सकती हैं. आप 15 की हों , 25 की या 50 की. आज कल नएनए तकनीक उपलब्ध हैं. उन का प्रयोग करें. जिस तरह कपड़ों और मेकअप के फील्ड में लेटेस्ट तकनीक हावी हो रही हैं वैसे ही हेल्थ और कोस्मैटिक सर्जरी के फील्ड में भी हर समस्या का निदान है. आप को फिटनेस ट्रेनर के पास जाना पड़े , कॉस्मेटिक सर्जन के पास या फिर डॉक्टर्स के पास मगर अपने बदन के आकर्षण और सेहत को इग्नोर न करें. क्यों कि वक्त हाथ से निकल गया तो फैशन के जलवे भी आप को खूबसूरत नहीं दिखा पायेगा। जब कि बदन पर खर्च कर आप साधारण से साधारण कपड़ों में भी सब से बढ़ कर दिखेंगी.

Edited by Rosy

महिलाएं पुरुषों से कम कैसे

’जोरू का गुलाम’ जैसी कहावतों को अकसर लोग मजाक में लेते हैं, क्योकि आमतौर पर पूरी दुनिया में महिलाओं को दोयमदर्जे का समझा जाता है और पुरुष ही घर का मुखिया होता है. मगर आप को यह जान कर हैरानी होगी कि एक खप्ती से ग्रुप ने एक इलाके का नाम दे कर ऐसा तंत्र स्थापित किया है जहां वाकई पुरुष महिलाओं के गुलाम होते हैं.

‘वूमन ओवर मैन’ मोटो वाले इस तथाकथित देश का शासन भी एक महिला के हाथों में ही है. यह देश है ‘अदर वर्ल्ड किंगडम’ जो 1996 में यूरोपियन देश चेक रिपब्लिकन में एक फार्म हाउस में बना. इस देश की रानी पैट्रिसिया प्रथम हैं, पर उन का चेहरा आज तक बाहरी दुनिया ने नहीं देखा है.

इस देश की मूल नागरिक सिर्फ महिलाएं होती हैं और पुरुष महज गुलामों की हैसियत से रहते हैं. यह शगूफे की तरह का देश है पर फिर भी साबित करता है कि दुनिया में ऐसे लोग मौजूद हैं जो औरतों के संपूर्ण शासन में विश्वास रखते हैं.

भारत के मणिपुर की राजधानी इंफाल का  इमा बाजार सब से बड़ा बाजार है. इसे मणिपुर की लाइफलाइन भी कह सकते हैं. इस बाजार की खासीयत यह है कि यहां ज्यादातर दुकानदार भी महिलाएं ही हैं और खरीदार भी.

4 हजार से ज्यादा दुकानों वाले इस बाजार में सागसब्जी, फल, कपड़े, राशन से ले कर हर तरह की चीज मिल जाएगी. यहां किसी भी दुकान पर पुरुषों को काम करने की इजाजत नहीं है.

इमा बाजार की बुनियाद 1786 में पड़ी थी जब मणिपुर के सभी पुरुष चीन और बर्मा की सेनाओं से युद्ध में शामिल होने चले गए और महिलाओं को परिवार संभालने के लिए बाहर आना पड़ा. उन्होंने दुकानें लगा कर धन कमाया. इस तरह जरूरत के हिसाब से सामाजिक व्यवस्था में आया यह बदलाव परंपरा में बदल गया.

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खुद रचा समाज

दरअसल, जिस समाज में हम रहते हैं उस की संरचना हम ने ही की होती है. जिंदगी को आसान बनाने, एकरूपता लाने व दूसरी जरूरतों के लिहाज से आवश्यकतानुसार इंसान ने समाज के तौरतरीके व परंपराएं बनाईं. महिलाओंपुरुषों की भूमिकाएं तय की गईं. पुरुष चूंकि शारीरिक रूप से थोड़े ज्यादा शक्तिशाली होते थे, इसलिए उन्हें बाहर की दौड़धूप व धनसंपत्ति जुटाने का जिम्मा सौंपा गया. वहीं महिलाएं चूंकि बच्चों को जन्म देती हैं, इसलिए बच्चों का पालनपोषण और घर संभालने की जिम्मेदारी उन्हें दी गई.

मगर इस का मतलब यह नहीं कि स्त्रीपुरुष के बीच कोई जन्मजात अंतर होता है. वे हर तरह से समान हैं. समाज ही उन के स्वभावगत गुणों व भूमिकाओं से उन्हें अवगत कराता है और वैसी ही भूमिकाएं निभाने की उम्मीद रखता है.

न तो लड़कियां अधिक संवेदनशीलता और बुद्धिकौशल ले कर पैदा होती हैं और न ही लड़के सत्ता व शक्ति ले कर आते हैं. समाज ही बचपन से उन्हें इस प्रकार की सीख देता है कि वे स्त्री या पुरुष के रूप में बड़े होने लगते हैं.

क्यों बंटी भूमिकाएं

इस संदर्भ में पुराने समय की जानीमानी मानवशास्त्री और समाज वैज्ञानिक मागर्े्रट मीड का अध्ययन काफी रोचक है. मीड ने पूरी दुनिया की अलगअलग सामाजिक व्यवस्थाओं की रिसर्च कर पाया कि लगभग सभी समाजों में पुरुषों का ही बोलबाला है और स्त्रीपुरुष की भूमिकाएं भी बंटी हुई हैं.

रिसर्च के बाद मीड को कुछ ऐसी जनजातियां भी दिखीं जहां की सामाजिक व्यवस्था बिलकुल भिन्न थी. 1935 में प्रकाशित उन की किताब ‘सैक्स ऐंड टैंपरामैंट इन थ्री प्रीमिटिव सोसाइटीज’ में ऐसी 3 जनजातियों का विवरण है जहां स्त्रीपुरुष की भूमिकाएं बिलकुल अलग तरह से तय की गई थीं.

मीड ने पाया कि न्यू गुयाना आइलैंड के पहाड़ी इलाकों में रहने वाली अरापेश नामक जनजाति में महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाएं एकसमान थीं. बच्चों के पालनपोषण में दोनों समान रूप से सहयोग करते, मिल कर अनाज का उत्पादन करते, खाना बनाते और कभी भी झगड़ों या विवादों में उलझना पसंद नहीं करते.

इसी तरह एक दूसरी जनजाति मुंडुगुमोर में भी स्त्रीपुरुषों की भूमिकाएं समान थीं. फर्क इतना था कि यहां स्त्रीपुरुष दोनों ही ‘पुरुषोचित’ गुणों से युक्त थे. वे योद्धाओं की तरह व्यवहार करते थे. शक्ति और ओहदा पाने के लिए प्रयासरत रहते थे और बच्चों के पालनपोषण में कोई रूचि नहीं रखते थे.

तीसरी जनजाति जिस का मार्ग्रेट मीड ने उल्लेख किया वह थी न्यू गियाना की चांबरी कम्यूनिटी. यहां स्थिति बिलकुल अलग थी. स्त्रीपुरुषों के बीच अंतर था, मगर पारंपरिक सोच से बिलकुल भिन्न.

पुरुष इमोशनली डिपैंडैंट और कम जिम्मेदार थे. वे खाना बनाने, घर की साफसफाई व बच्चों की देखभाल का काम करते थे जबकि महिलाएं अधिक लौजिकल, इंटैलिजैंट और डौमिनैंट थीं.

जैंडर इक्वैलिटी की अवधारणा

19वीं सदी में इजराइल के ‘किबुट्ज’ नामक समुदाय जैंडर इक्वैलिटी का खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत करते थे. यह दौर था औद्योगिकीकरण से पहले का. यहां के लोग खेती का काम कर अपना जीवननिर्वाह करते. इस समुदाय के पुरुषों को महिलाओं के पारंपरिक काम जैसे खाना बनाना, बच्चों की देखभाल आदि करने को प्रोत्साहित किया जाता. वैसे महिलाएं खुद भी ये काम करती थीं.

इस के साथ ही पुरुषों वाले काम जैसे अनाज का उत्पादन, घरपरिवार की सुरक्षा आदि स्त्रीपुरुष दोनों मिल कर करते थे. वे प्रतिदिन या सप्ताह के हिसाब से अपने काम बदलते रहते ताकि स्त्रीपुरुष दोनों ही हर तरह के कामों में अपना योगदान दे सकें. आज भी इजराइल में 200 से ज्यादा किबुट्ज समुदाय मौजूद हैं, जहां सामाजिक व्यवस्था जैंडर इक्वैलिटी के सिद्धांत पर आधारित है.

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देखा जाए तो इस तरह की सामाजिक व्यवस्था ही आदर्श कही जा सकती है. पर हकीकत में ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं. पूरी दुनिया में हमेशा से आलम यही रहा है कि महिलाएं घर संभालें और पुरुष बाहर के काम करें, पैसे कमा कर लाएं. इस से पुरुषों के अंदर वर्चस्व की भावना घर करती रही. महिलाओं को परिवार व समाज में दोयमदर्जा मिला. वे घर की चारदीवारी में कैद होती गईं जबकि पुरुष घर के मुखिया बनते गए.

पिछले कुछ दशकों में स्थिति थोड़ी बदली है. कितनी ही महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने साथसाथ परिवार, देश का नाम रोशन किया. खेलकूद, मैडिकल, इंजीनियरिंग, पर्वतारोहण जैसे क्षेत्र हों या फिर ऐक्टिंग, राइटिंग, सिंगिंग जैसे कला के क्षेत्र हर जगह महिलाओं ने अपना परचम लहराया. मगर इन सब के बावजूद आज भी उन की आगे बढ़ने की राह आसान नहीं.

सामाजिक कार्यकर्त्ता शीतल वर्मा कहती हैं, ‘‘यकीनन स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं, परंतु सामाजिक भेद हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा पैदा किया जाता है. पुरुषप्रधान समाज में नारी की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक की रही है और आज भी ऐसा ही है. ऐसा हर देश और हर युग में होता रहा है. नारी ने अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ कर कुछ अधिकार प्राप्त किए हैं, परंतु स्थिति अब भी ज्यादा बेहतर नहीं है. हर स्तर पर महिला का संघर्ष जारी है.

सक्षम महिलाएं भी शोषित

यदि महिला आर्थिक रूप से सक्षम है तब भी उसे कार्यस्थल पर शारीरिक शोषण, अपमान, कटाक्ष आदि का सामना करना पड़ता है. यह बहुत दुखद है कि हमारे समाज में महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार एक परंपरा सी बन गई है.

घर, औफिस या सड़क, कहीं भी स्त्री पुरुषों द्वारा शोषण की शिकार हो सकती है. कमजोर समझ कर प्रताडि़त किए जाने के अवसर कभी भी आ सकते हैं.

इस संदर्भ में शीतल वर्मा कहती हैं, ‘‘महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाना है तो खुद महिलाओं को भी इस दिशा में प्रयास करना होगा और सकारात्मक कदम उठाने होंगे. महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना होगा. उन्हें अपना स्वतंत्र वजूद गढ़ने और उसे कायम रखने के लिए आत्मनिर्भर और स्वावलंबी होना बहुत जरूरी है.’’

सच तो यह है कि समाज में शक्तिशाली ही शक्तिहीनों का शोषण करता है. फिर क्यों न अपने अंदर वह ताकत जगाई जाए कि कोई भी शख्स किसी तरह का अन्याय करने की बात सोच भी न सके.

पुरुष सत्तावादी सामाजिक संरचना का बहिष्कार करते हुए कई महिलाओं ने अपना अलग वजूद कायम कर समाज के आगे उदाहरण पेश किए हैं.

हैदराबाद में वारंगल की डी. ज्योति रेड्डी एक ऐसा ही नाम है. 1989 तक वे रु 5 प्रति दिन पर मजदूरी करती थीं. लेकिन आज वे यूएसए की एक कंपनी की सौफ्टवेयर सौल्यूशंस की सीईओ हैं और करोड़ों के बिजनैस को हैंडल कर रही हैं.

एक ऐसे समाज, जिस में महिलाओं का सदियों से प्रतिकार किया जाता है, वहां से निकल कर एक ऊंचा मुकाम हासिल कर ज्योति रेड्डी ने साबित कर दिया कि रूढि़वादी सामाजिक संरचना से बाहर निकलना कठिन है नामुमकिन नहीं. बस जरूरत है अपनी ताकत को पहचानने की.

बुलंद हौसला है जरूरी

स्त्री या पुरुष होना माने नहीं रखता. सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि पुरुष ही शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं और स्त्रियां कमजोर. मगर ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं, जिन्होंने इस मान्यता को गलत साबित किया है.

48 वर्षीय सामान्य कदकाठी की सीमा राव भी ऐसी ही एक शख्सीयत हैं. सैवेंथ डिग्री ब्लैक बैल्ट होल्डर, कौंबेट शूटिंग इंस्ट्रक्टर, फायर फाइटर, स्कूबा डाइवर और रौक क्लाइबिंग में एचएमआई मैडलिस्ट सीमा राव पिछले 20 सालों से भारतीय जवानों को अवेतनिक तौर पर ट्रेनिंग दे रही हैं. वे भारत की एकमात्र महिला कमांडो ट्रेनर हैं.

3 बहनों में सब से छोटी सीमा राव के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्हीं की प्रेरणा से सीमा के मन में अपने देश के लिए कुछ करने की इच्छा जगी. मैडिकल लाइन छोड़ कर वे स्वेच्छा से कमांडो ट्रेनर बनीं. अब तक वे 2 हजार से ज्यादा जवानों को ट्रेंड कर चुकी हैं.

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उन्हें अपने पति मेजर दीपक राव का पूरा सहयोग मिलता है. बतौर स्त्री, घरपरिवार और बच्चों के साथ इस तरह के कामों में इन्वौल्व रहना आसान नहीं.

सीमा राव बताती हैं, ‘‘मैं ने और मेरे पति ने आपसी सहमति से यह तय किया कि हम अपनी संतान पैदा नहीं करेंगे. अपने काम के सिलसिले में अकसर हमें बाहर रहना पड़ता है. मैं साल में 8 महीने ट्रैवल करती हूं. ऐसे में सब मैनेज करना आसान नहीं. मेरे पति ने मेरी भावनाओं को मान दिया और इस अनुरूप परिस्थितियां दीं कि मैं बेफिक्र हो कर अपना काम कर सकूं.

‘‘बचपन से ही महिलाओं को यह समझाया जाता है कि उन्हें जिंदगी में शादी करनी है, बच्चे पैदा करने हैं और घर संभालना है. मगर इस का मतलब यह नहीं कि स्त्री दूसरे काम नहीं कर सकती. जब मैं फील्ड में होती हूं तो जवानों की आंखों में यह सवाल नजर आता है कि क्या एक स्त्री हमें ट्रेनिंग दे सकेगी? मगर मेरी आदत है कि कुछ भी सिखाने से पहले वह कार्यवाही मैं स्वयं कर के दिखाती हूं. इस से उन को अपने सवाल का जवाब भी मिल जाता है.’’

शारीरिक रूप से फिट रहने के लिए सीमा राव हफ्ते में 2 बार 5 किलोमीटर तक दौड़ती हैं. 2 बार जिम में जा कर वेट लिफ्टिंग करती हैं,

2-3 बार फाइटिंग, बौक्सिंग, कुश्ती करती हैं. वे अपने से दोगुने वजन और आधी उम्र के पुरुषों के साथ फाइट करती हैं.

अपनी दिनचर्या के बारे में बताते हुए सीमा कहती हैं, ‘‘ट्रेनिंग के दौरान मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू हो जाता है. 6 से 7 बजे तक पहला सैशन होता है. 9 से 1 बजे तक शूटिंग और शाम 5 बजे से फिर लैक्सर्च, डैमो, वगैरह का दौर शुरू आता है. क्लोज क्वार्टर बैटल वगैरह के सैशन रात 3 बजे तक चलते रहे हैं.’’

सीमा को अब तक कई अवार्ड्स मिल चुके हैं. वे कई किताबें भी लिख चुकी हैं. उन का मानना है कि जिन लड़कियों में में आगे बढ़ने की चाह है, उन्हें पहले स्वयं को मजबूत बनाना होगा औ तय करना होगा कि यह काम करना ही है. फिर उन्हें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता.

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प्राइवेसी पर आक्रमण है ड्रैस कोड

रुचि को स्थानीय प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई. उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, क्योंकि यह शहर का सब से नामी स्कूल था, अच्छी तनख्वाह, आनेजाने के लिए बस और सभ्यसुसंस्कृत परिवार के विद्यार्थी. उस ने अपने लिए विद्यालय के हिसाब से कपड़े सिलवाए.

पहले दिन ही जब वह स्कूल पहुंची तो उस के होश उड़ गए. जब उसे ड्रैस कोड से संबंधित एक सर्कुलर दिया गया और यही नहीं अगले दिन उसे 12 हजार रुपए भी जमा करने को कहा गया, क्योंकि वहां पर सब अध्यापिकाओं को यूनीफौर्म पहननी होती है जो उस नामचीन विद्यालय की प्रिंसिपल निर्धारित करती हैं और सब से मजे की बात यह है कि प्रिंसिपल खुद अपने लिए कोई ड्रैस कोड निर्धारित नहीं करती हैं. वे खुद प्लाजो, स्कर्ट, सूट, साड़ी या चुस्त चूड़ीदार पहन सकती हैं पर मजाल है कोई भी टीचर बिना यूनीफौर्म के स्कूल आ जाए.

ऐसा ही कुछ पूजा के साथ भी हुआ. एक निजी कंपनी में उसे अकाउंटैंट की पोस्ट मिली और साथसाथ मिला ड्रैस कोड पर लंबाचौड़ा फरमान. उस फरमान के हिसाब से:

– कोई भी महिला कर्मचारी 4 इंच से डीप गला नहीं पहना सकती है.

– बांहों की लंबाई कम से कम तीनचौथाई होनी चाहिए.

– साड़ी बस कौटन या सिल्क की ही पहन सकती हैं.

– हाई नैक ब्लाउज ही पहनना है.

आज भी आजादी के इतने वर्षों बाद महिला कर्मचारी अपनी पसंद के मुताबिक कपड़े नहीं पहन सकती हैं.

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मजबूरी या जरूरी

संस्थाओं की ही बात क्यों करें. महिलाओं को तो निजी जीवन में भी कपड़े चुनने की स्वतंत्रता नहीं है. अगर आप इस बाबत किसी ऐसे स्कूल की प्रधानाचार्य से बात करें जहां महिला अध्यापिका की यूनीफौर्म है तो उन का यही जवाब होगा कि टीचर्स रोल मौडल होते हैं और बहुत बार यंग टीचर्स यह निर्धारित नहीं कर पाते कि उन्हें कैसे कपड़े पहनने चाहिए, इसलिए मजबूरन उन्हें यह निर्णय लेना पड़ता है.

गौरतलब बात यह है कि कैसे कपड़े सही हैं और कैसे गलत हैं यह कोई भी संस्था या व्यक्ति कैसे निर्धारित कर सकता है?

बहरहाल, ऐसी तालिबानी सोच कर्मचारियों का काम के प्रति मोटिवेशन खत्म करने में जरूर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

कोई व्यक्ति या महिला क्या पहनना चाहती है यह उस का निजी निर्णय है. उस पर अपनी पसंद का ड्रैस कोड लागू करना एक तरह से उस के मौलिक अधिकार का हनन ही होगा.

प्राइवेट संस्थाओं में तो ड्रैस कोड भी लागू करेंगे और जेब भी उन्हीं कर्मचारियों की काटेंगे.

आप इधरउधर गौर करेंगे तो अधिकतर ड्रैस कोड महिलाओं पर ही लागू किए जाते हैं, क्योंकि उन के अनुसार महिलाओं को शायद तमीज ही नहीं है कि किस प्रकार के कपड़े पहनने हैं. पुरुषों के लिए तो एक ही राग होता है कि वे बेचारे क्या पहनेंगे पैंटशर्ट के अलावा. अगर भारतीय संस्कृति और सभ्यता के नाम पर महिलाओं को साड़ी नामक ड्रैस कोड में बांध दिया जाता है तो फिर पुरुषों को भी क्यों नहीं धोतीकुरता पहनाया जाता है?

क्या है नुकसान

एक महिला के शरीर में ऐसा क्या है कि चाहे घर हो या बाहर उसे ड्रैस कोड में कैद कर दिया जाता है? क्यों महिला का ड्रैस कोड उस की उम्र के हिसाब से तय करा जाता है?

40 वर्ष की महिला मिनी स्कर्ट नहीं पहन सकती, उसे बस सलवारसूट या साड़ी ही पहननी चाहिए. मेरे हिसाब से किसी भी महिला को क्या पहनना है क्या नहीं यह वह क्यों न खुद तय करे. अपने शरीर की बनावट के हिसाब से कोई कुछ भी पहन सकता है, जो उस की सुंदरता में चार चांद लगा सके.

क्यों हम महिलाओं को ही ड्रैस कोड में बांधना चाहते हैं? उसे ड्रैस कोड में बांधने का किसी व्यक्ति या संस्था को कोई अधिकार नहीं है.

ड्रैस कोड लागू करने का बस एक ही फायदा हो सकता है कि यह संस्था में काम करने वाले सभी आयवर्ग के कर्मचारियों को एक ही सीमारेखा में रखता है ताकि किसी के अंदर हीनभावना न हो.

मगर अब चलिए ड्रैस कोड से होने वाले नुकसान पर गौर करें:

– खूबसूरत दिखना हर महिला का मौलिक हक होता है पर यूनीफौर्म या ड्रैस कोड के नाम पर महिलाओं को ढीलेढाले कपड़े पहना दिए जाते हैं. यह ड्रैस कोड नहीं, बल्कि सुडौल शरीर को कपड़ों में छिपाने की साजिश है.

– निजी संस्थानों में ड्रैस कोड के नाम पर हर साल एक मोटी रकम कर्मचारियों की सैलरी से निकल जाती है. यह ड्रैस कोड मन को नहीं भाता है और नौकरीपेशा लोगों की जेब पर भारी पड़ता है.

– जब आप को ड्रैस कोड में बांध दिया जाता है तो ढंग से तैयार होने का जज्बा पहले ही खत्म हो जाता है.

– रोजरोज एक ही तरह के कपड़े पहनने से हमें मानसिक थकान भी महसूस होती है, जो हमारी काम की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव डालती है.

– किसी भी संस्था में ड्रैस कोड तय करते समय कर्मचारियों की राय कभी नहीं ली जाती. अगर आप को ड्रैस कोड या यूनीफौर्म लागू भी करनी है तो क्यों न इन के मानक निर्धारित करते हुए कर्मचारियों की राय भी ले ली जाए?

– अधिकतर मामलों में देखा गया है कि बौस स्वयं कभी यूनीफौर्म या ड्रैस कोड को नहीं फोलो करता, जिस की उम्मीद दूसरों से करी जाती है. बहुत सी संस्थाओं में महिलाएं शाल नहीं पहन सकती हैं, उन्हें बस ब्लेजर ही पहनना होता है. वह अलग बात है कि रोजरोज ब्लेजर पहनने के कारण सर्वाइकल के दर्द से पीडि़त रहती हैं. वहीं बौस की साड़ी के ऊपर पश्मीना शाल लहराती रहती है.

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– हम चाहे कितनी भी तरक्की कर लें पर दफ्तरों में अब भी वही गुलामी वाली मानसिकता है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को दबा कर रखना चाहिए. उन के और अपने बीच एक दूरी बना कर रखनी चाहिए और यूनीफौर्म या ड्रैस कोड इसी मानसिकता के तहत लागू करे जाते हैं. खुद को श्रेष्ठ और कर्मचारियों को दोयम दर्जे की श्रेणी में रखने की मानसिकता इस ड्रैस कोड के पीछे का प्रमुख कारण है.

किसी भी महिला की निजता पर सीधा प्रहार करते हैं ये दकियानूसी ड्रैस कोड और प्रगतिशील भारत में इस प्रकार के ड्रैस कोड की कोई आवश्यकता नहीं है. जरूरी नहीं है कि साड़ी पहन कर ही हम खुद को भारतीय साबित करें. नियमित टैक्स भरना और देश की सेवा करना भी भारतीयता की पहचान है.

ना बांधो मुझे आठ इंची बाजू और चार इंची गले की गहराई में, बंधे हुए रिवाजों में क्या कभी कोई रचनात्मकता पैदा हो पाई है?

कोख पर कानूनी पहरा क्यों?

कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सरकार ने भारीभरकम नाम वाला कानून प्री-कन्सैप्शन ऐंड प्री-नैटेल डायग्नोस्टिक टैक्निक (प्रोहिबिशन औफ सैक्स सिलैक्शन) ऐक्ट 1994 बना रखा है. इस की एक धारा के अनुसार इंस्पैक्टरों की एक टीम जगहजगह अस्पतालों में जा कर अल्ट्रासाउंड मशीनों की जांच करती हैं और फिर रजिस्टर, रिपोर्टें आदि खंगालती है कि कहीं से कुछ पता चल जाए तो डाक्टर, नर्स, टैक्नीशियन और अस्पतालों को लपेटे में ले लिया जाए. इस तरह की टीमें देश भर में छापे मारती रहती हैं सैक्स सिलैक्शन रोकती हैं या नहीं, मोटा पैसा अवश्य बनाती हैं.

इसी वजह से छोटी जगहों पर मारे गए छापों के बारे में राज्य सरकारें खासी गंभीर रहती हैं और इन छापों को पूरा संरक्षण देती हैं.

उड़ीसा के अनजाने से जिले ढेंकनाल में 2014 में एक टीम ने जगन्नाथ अस्पताल पर छापा मारा और ममता साहू व अन्य के खिलाफ मुकदमा चलाने के समन जारी कर दिए.

अस्पताल कलैक्टर के बाद हाई कोर्ट पहुंचा और वहां मामला खारिज कर दिया गया तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई कि मुकदमा तो चलना ही चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और इंस्पैक्टरों की सुनी और मामला फिर चालू हो गया है.

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इतनी लंबी बात सिर्फ यह बताने के लिए की गई है कि सैक्स सिलैक्शन प्रक्रिया पूरी तरह औरत की मरजी पर होती है. जो औरतें मनचाही सैक्स की संतान चाहती हैं, चाहे कारण धार्मिक हों, सामाजिक, पारिवारिक या निजी, कोई अस्पताल इस मामले में न तो जबरदस्ती कर सकता है और न ही धोखेबाजी. जरा से सीने के दर्द को हार्टअटैक बता कर अस्पताल लाखों कमा सकता है. यूरिन इन्फैक्शन को किडनी फेल्योर बता कर उसे निकाल भी सकता है पर प्रीनैटेल जांच तभी कर सकता है जब गर्भवती चाहे.

उस की इस इच्छा पर सरकारी बंधन लगे यह अति है. हो सकता है कि धार्मिक व सामाजिक कारणों से ही औरतें मनचाहे सैक्स की संतान चाहती हों तो इस के लिए धर्म को कटघरे में खड़ा करो, समाज को सजा दो. औरत को सजा क्यों?

हर औरत के लिए अपनी संतान प्रिय होती है. प्रकृति ने सैक्स सिलैक्शन अपनेआप सिखाया है कि संतुलन बना रहे.

होने वाली संतान किस सैक्स की है, यह जन्म से पहले पता होना गलत नहीं है. उसी आधार पर तैयारी की जाती है, कपड़े खरीदे जाते हैं, पतिपत्नी अपने सपने बुनते हैं. यदि होने वाली संतान का सैक्स मनचाहा नहीं है और गर्भपात कराया भी गया तो भी क्या? यह निर्णय तो गर्भवती वैसे भी ले सकती थी कि उसे संतान चाहिए या नहीं. समाज और धर्म को पेडस्टल पर रख कर अस्पताल, अल्ट्रासाउंड मशीन या डाक्टरों को अपराधी बना कर सरकार धर्म व समाज के प्रति अपना डर दर्शा रही है. अब तो दोमुंही सरकार है जो एक तरफ आधुनिक तकनीक की बात करती है और दूसरी तरफ योग व गौमूत्र से हजार रोगों से मुक्ति दिलाने पर ठप्पा लगाती है. एक तरफ उस धर्म के नाम पर दूसरों के घरो में आग लगाई जाती है जो औरतों को पैर की जूती समझता है, उन्हें व्रतों, उपवासों, पूजाओं, आरतियों, शोभायात्राओं में उलझा कर पुत्र की गरिमा बताता रहा है और दूसरी तरफ अस्पतालों से आधुनिक सुविधाजनक तकनीक को हटाया जा रहा है.

संतान औरत का हक है. गर्भ उन की संपत्ति है. सरकार को कोई हक नहीं है कि उस पर डाका मारे. न वह बंध्याकरण करा सकती है, न सैक्स सिलैक्शन के हक को छीना जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट चाहे सरकार की हां में हां मिला दे, सैक्स अनुपात चाहे जो हो, औरत का हक नहीं मारा जा सकता.

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जब मां-बाप करें बच्चों पर हिंसा

दिल्ली के दक्षिणपुरी इलाके में (13 सितम्बर 2019 ) को इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई. दरअसल बच्ची के रोने से परेशान हो कर सौतेले पिता ने 3 साल की मासूम बेटी को गर्म चिमटे से जला दिया. अफ़सोस की बात यह है कि इस काम में बच्ची की सगी माँ सोनिया ने भी पति का साथ दिया. पड़ोसियों ने बच्ची के रोने की आवाज सुन कर चाइल्ड हेल्पलाइन में फ़ोन कर दिया और आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया. बच्ची के साथ इस तरह के जुल्म करीब 4 माह से हो रहे थे. जब भी वह रोती थी उस का सौतेला बाप उस के साथ ऐसे ही मारपीट करता था.

घरेलू हिंसा जो बच्ची की मौत की वजह बनी

10 सितम्बर, 2019 को दिल्ली में 21 दिन की बेटी की हत्या करने के आरोप में पिता को गिरफ्तार किया गया. दिल्ली के द्वारका के बिंदापुर क्षेत्र में एक कारोबारी व्यक्ति ने पत्नी से झगड़ा करने के बाद 21 दिन की बेटी की हत्या कर दी. आरोपी ने पहले अपनी बेटी का गला घोटा और फिर उसे पानी की टंकी में डुबो दिया. बच्ची की 23 वर्षीय मां ने पुलिस में अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई. युवती द्वारा दर्ज शिकायत के मुताबिक़ वह शुक्रवार को मायके जाने की योजना बना रही थी. बच्ची का जन्म 16 अगस्त को हुआ था. मुकेश इस बात को ले कर खुश नहीं था. वह बच्ची को छत पर ले कर गया और दरवाजा बंद कर इस घटना को अंजाम दिया.

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20 जुलाई, 2019 को मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक व्यक्ति ने शराब के नशे में अपनी डेढ़ वर्षीय मासूम बेटी की जमीन पर पटक कर हत्या कर दी. इस वारदात को आरोपी की बड़ी बेटी ने देखा. पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया, घटना के दिन आरोपी युवक अज्जू वर्मन ने नशे की हालत में अपनी डेढ़ साल की मासूम बेटी को सिर के बल पटक दिया जिस से उसकी मौत हो गई. युवक की पत्नी उस वक्त अस्पताल में भर्ती थी. रात के समय जब वह घर आया तो उसकी छोटी बेटी रो रही थी. तब उस ने मंझली बेटी को पीटा और छोटी बेटी को सिर के बल पटक दिया.

जब पिता ने किया यौन उत्पीड़न

हाल ही में(18 अगस्त, 2019 ) उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रिश्तों को शर्मसार करने वाली ऐसी ही घटना सामने आई. वहां एक ऐसे आरोपी को गिरफ्तार किया गया है जिस पर पहले अपनी ही बेटी से 2 साल तक रेप करने और बाद में उस की हत्या करने का आरोप है. आरोपी की पत्नी का निधन 15 साल पहले हो गया था. पीड़िता लड़की की उम्र 19 साल है.

बेटी के यौन उत्पीड़न का यह कोई पहला मामला नहीं है. इस से पहले देश की राजधानी दिल्ली से सटे गुरुग्राम में एक युवक को अपनी आठ साल की बेटी के साथ कई महीनों तक रेप करने के मामले में गिरफ्तार किया गया था. लड़की पिछले कुछ दिनों से सामान्य व्यवहार नहीं कर रही थी, जब पड़ोसियों ने उससे पूछताछ की तो उसने यौन उत्पीड़न के बारे में बताया.

मार खाती बच्ची और गाली बकते बाप का वीडियो

मार्च 2019 में बिहार के कंकरबाग की एक बच्ची का वीडियो वायरल हुआ था. जिस में 5 साल की बच्ची का पिता कभी उसे थप्पड़ मारता है, कभी उस के कंधे तक के बालों को मुट्ठी में भींच कर उस का सिर पटक देता है तो कभी लात से मारता है।

बच्ची लगातार मार खा रही है लेकिन एक बार भी अपने घावों को सहला नहीं रही. उस के मुंह से एक बार भी आह सुनने को नहीं मिलता.उल्टा वह बारबार माफ़ी मांग रही है,” पापा हम से ग़लती हो गई…हम अपना क़सम खाते हैं कि कभी भी जन्मदिन मनाने के लिए नहीं कहेंगे…हम साइकिल नहीं मांगेंगे… हम को माफ़ कर दीजिए…”

जैसे ही वीडियो वायरल हुआ, कंकड़बाग पुलिस ने इस शख़्स को तुरंत हिरासत में ले लिया. इस बच्ची का नाम जयश्री है और पिता का नाम कृष्णा मुक्तिबोध है.

राजस्थान का वीडियो

राजस्थान के राजसमंद जिले में देवगढ़ थाना ‘फूंकिया की थड़’ गांव से एक वीडियो वायरल हुआ जिस में दो मासूम बच्चों को उन का पिता सिर्फ इसीलिए खूंटी से बांध कर पीटता है क्यों कि मना करने के बावजूद बच्चे मिट्टी खाते थे और जहांतहां गंदगी कर बैठते थे। बच्चों के चाचा ने वीडियो बनाया और वायरल कर दिया। मामला उठा तो पुलिस कार्रवाई हुई। बच्चों को पीटने वाला पिता गिरफ्तार हुआ. वीडियो बनाने वाले चाचा पर भी कार्रवाई की गई. इस वीडियो को देख कर कोई भी सिहर उठेगा.

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ऐसे मामले एक दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में होते रहते हैं. पूरे देश में बच्चे घरेलू हिंसा के शिकार होते रहे हैं। दीगर बात यह है कि इस का कोई ऑफिशियल आंकड़ा तब ही रिकॉर्ड होता है जब शिकायत होती है। ज्यादातर घरों में लोगों को ही अंदाजा नहीं बच्चे जानेअनजाने किस तरह ‘घरेलू हिंसा’ का शिकार हो रहे हैं। बच्चों के प्रति मारपीट, उन की उपेक्षा, उदासीनता और अनदेखी, समय न दे पाना, अपेक्षाओ का बोझ ,धमकाना जैसी बातें आम हैं. मानसिक प्रताड़ना और घरेलू हिंसा के ऐसे मामले बच्चों के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं. कुछ मामलों में नौबत जान से हाथ धोने की आ जाती है.

यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में करीब 13 करोड़ बच्चे अपने आसपास बुलिंग या दादागीरी का सामना करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हर 7 मिनट में दुनिया में कहीं न कहीं एक किशोर को हिंसा के कारण अपनी जान गंवानी पड़ती है। ऐसी मौतों की वजह झगड़ों के बाद हुई हिंसा होती है। वस्तुतः किशोरों में हिंसा की बढ़ी प्रवृति बढ़ का जवाब उन के बचपन में ही छिपा होता है।

21वीं शताब्दी के पहले सोलह सालों (वर्ष 2001 से 2016 तक) में भारत में 1,09,065 बच्चों ने आत्महत्या की है. 1,53,701 बच्चों के साथ बलात्कार हुआ है. 2,49,383 बच्चों का अपहरण हुआ है. कहने को हम विकास कर रहे हैं लेकिन हमारे इसी समाज में स्कूली परीक्षा में असफल होने के कारण 34,525 बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं. ये महज वो मामले हैं जो दर्ज हुए हैं. इन से कई गुना ज्यादा घरेलु हिंसा, बलात्कार और शोषण के मामले तो दर्ज ही नहीं होते हैं.

इसी कड़ी में आगे पढ़िए बच्चों का उत्पीड़न हो सकता है खतरनाक…

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