लेखक- विनय कुमार पाठक
मुकेशआज भी अनमना सा था. जब वेटर बिल ले कर आया तो उस के चेहरे पर काफी परेशानी उभर आई. कविता इस बात को समझ सकती थी. हमारे पुरुषप्रधान समाज में यदि स्त्री भुगतान करे तो इसे खराब माना जाता है. हमारे पुरुषप्रधान समाज में ही क्यों शायद सारी दुनिया में इसे अपमानजनक माना जाता है.
कविता को स्कूल के दिन याद आ गए जब वे एक कहानी पढ़ा करती थी लंचियों. इस में एक 40 वर्षीय महिला लेखक विलियम सोमरसेट की दीवानी थी. वह लेखक से एक बड़े रैस्टोरैंट में मिलने की इच्छा व्यक्त करती है. रैस्टोरैंट में दोनों लंच के लिए पहुंचते हैं.
विलियम को बिल की चिंता होती है क्योंकि महिला के द्वारा बिल का भुगतान किया जाना अपमानजनक होता और विलियम के पास ज्यादा पैसे नहीं थे. महिला काफी महंगी खानेपीने की चीजें मंगवाती जाती है और विलियम का दिल धड़कता रहता है.
अंत में स्थिति यह होती है कि उस के पास टिप देने को बहुत कम रकम बचती है और अगले कुछ दिनों के लिए उस के पास कुछ भी नहीं बचता है. यद्यपि यह कहानी हास्य का पुट लिए हुए थी पर यह संदेश तो था ही उस में कि पुरुष के होते महिला के द्वारा बिल का भुगतान करना या बिल शेयर करना ठीक नहीं माना
जाता था.
मगर मुकेश उस के साथ ऐसा क्यों महसूस करता है वह समझ नहीं पाती थी. आखिर वह उस का बौयफ्रैंड था. कई वर्षों से दोनों साथ थे. सुख में भी और दुख में भी. यह ठीक है कि उस की आमदनी कुछ कम थी. वैसे वह उम्र में भी उस से 2 वर्ष छोटा था और जौब भी उस के बाद ही शुरू की थी. परंतु जब इस में उसे कोई परेशानी नहीं थी तो आखिर मुकेश क्यों इतना गंभीर हो जाता था छोटीछोटी बातों पर?
मुकेश का मूड देख कविता ने इस बारे में बात करना मुनासिब नहीं समझ. इधरउधर की बातें कर के उस ने उस से विदा ली. पर यह बात उसे मथती रही. आज वे मित्र हैं कल पतिपत्नी होंगे. उस समय भी यदि मुकेश इसी प्रकार व्यवहार करेगा तो क्या आसान होगी जीवन की यात्रा?
क्या करे वह कुछ समझ नहीं पा रही थी. कहीं मुकेश के मन में हीनभावना न आती जाए और वह उसे छोड़ कर चला न जाए. वह उसे बहुत चाहती थी और उस के साथ जीवन बिताना चाहती थी. पर उस के इस व्यवहार से उस के मन में आशंका होती थी कि कहीं यह रिश्ता दरक न जाए.
कौन इस समस्या से उसे छुटकारा दिला सकता है? कई नाम उस के जेहन में आए जिन से वह चर्चा करने पर विचार कर सकती थी. पर अधिकांश लोगों से बात करने में उसे संदेह था कि लोग उस की खिल्ली न उड़ाएं. ‘रहिमन निज मन की व्यथा मन में राखो गोय, सुनी अठिलइन्हें लोग सब बांट न लइन्हें कोय,’ उस के जेहन में रहीमदास की पंक्तियां गूंज गईं.
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उस के मन में सुजीत का खयाल आया. वह उस का सहकर्मी था और बड़े ही सुलझे विचारों का था. उस से यह सलाह ली जा सकती है. औफिस में आधे घंटे का लंच होता था. वह सुजीत के साथ लंच लेते हुए बात कर सकती थी. वह उस की उलझन सुन हंसेगा नहीं और अपनी तरफ से सही सलाह भी देगा.
दूसरे दिन औफिस पहुंचते ही उस ने इंटरकौम से सुजीत का नंबर मिलाया.
डिस्प्ले पर कविता का नंबर देख सुजीत ने रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘हाय कविता.’’
‘‘हाय, कैसे हो सुजीत?’’ कविता ने पूछा.
‘‘चकाचक, मस्ती, झकास,’’ हमेशा की तरह सुजीत का जवाब था. कितनी भी परेशानी में क्यों न हो उस का यही जवाब होता था. वह कहता भी था, स्थिति जो भी हो जवाब यही होना चाहिए. यदि रोने बैठ जाओगे तो कोई हाल भी नहीं पूछेगा.
‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने पूछा.
‘‘मैं ठीक हूं पर पूरी तरह नहीं. कुछ उलझन है, तुम से निष्पक्ष सलाह चाहिए,’’ कविता ने कहा.
‘‘सलाह? अरे यह तो थोक के भाव कोई भी दे सकता है अपने देश में,’’ सुजीत ने हंस कर कहा, ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे.’’
‘‘मुझे पता है. पर मैं किसी सुलझे विचारों वाले व्यक्तिसे ही सलाह लेना चाहती हूं और वह भी थोक के भाव से नहीं. संक्षिप्त और गूढ़ सलाह और मेरे खयाल से तुम सही व्यक्तिहो.’’ कविता ने कहा.
‘‘बड़ी खुशी हुई कि मुझे इस लायक समझ गया. फरमाइए?’’ सुजीत ने कहा.
‘‘अभी नहीं. आज लंच तुम्हारे पास बैठ कर करूंगी और उसी समय बात भी करूंगी.’’
‘‘स्वागत है आप का. ठीक डेढ़ बजे मिलते हैं,’’ सुजीत ने कहा.
‘‘ठीक है,’’ कविता ने कहा और फोन डिसकनैक्ट कर दिया.
डेढ़ बजे कविता सुजीत के कैबिन में टिफिन बौक्स ले कर पहुंची. वह जानती थी कि सुजीत भी घर से लंच लाता है. फिर उस का कैबिन थोड़ा बड़ा भी था और वहां वह अकेला बैठता था. अत: बात करने में सुविधा भी थी.
दोनों ने एकदूसरे के टिफिन बौक्स से खाद्यसामग्री मिलबांट कर खाई और फिर हाथ धो कर दोनों बातचीत करने बैठ गए.
‘‘क्या बात है?’’ सुजीत ने पूछा.
‘‘मुकेश को तो तुम जानते हो.’’
‘‘हां. तुम्हारा दोस्त.’’
‘‘दोस्त से कुछ ज्यादा… होने वाला जीवनसाथी.’’
‘‘मामला क्या है?’’
‘‘वह मुझ से 2 वर्ष छोटा है. जौब मेरे बाद शुरू की है. मेहनती भी बहुत ज्यादा नहीं है. थोड़ा कम व्यावहारिक भी है. अत: वेतन कम पाता है. स्वाभाविक है हम कहीं साथ होते हैं तो ज्यादातर खर्च मैं ही करती हूं. मुझे कोई आपत्ति भी नहीं है. पर वह इसे अपमानजनक मानता है. मैं उसे खोना नहीं चाहती. मैं क्या करूं?’’ कविता ने एक ही सांस में अपनी बात रख दी.
‘‘हूं, मामला पेचीदा है,’’ सुजीत ने कहा और फिर सोच में डूब गया.
थोड़ी देर सोचने के बाद बोला, ‘‘देखो वह जब तक आर्थिक रूप से समर्थ नहीं हो जाता उस का ऐसा व्यवहार स्वाभाविक है. आखिर वर्षों से जड़ जमाए पितृसत्तात्मक व्यवस्था का हिस्सा है वह. दूसरा उपाय यह है कि वह भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करे. आर्थिक रूप से समर्थ तो वह अपनी मेहनत और लगन से ही हो सकता है. इस में तुम ज्यादा कुछ नहीं कर सकती. हां भावनात्मक सुरक्षा तुम उसे दे सकती हो. तुम उस से बात करती रहो और बताओ कि तुम ज्यादा क्यों कमाती हो. पहली बात तुम उस से पहले से जौब कर रही हो. दूसरा तुम काफी मेहनत करती हो. तुम उस के साथ लगातार बात करती रहो और उसे समझती रहो. उसे बताओ कि जमाना बदल रहा है. अब पतिपत्नी साथसाथ काम कर रहे हैं. घर का भी, बाहर का भी.
‘‘अब संयुक्त परिवारों का समय नहीं रहा जब महिलाओं को घर के अंदर और पुरुषों को घर के बाहर काम करना होता था. अब वह समय नहीं रहा जब घर में कई महिलाएं होती थीं और कई पुरुष होते थे. महिलाएं आपस में काम बांटती थीं और पुरुष आपस के. अब परिवार में पतिपत्नी और बच्चे होते हैं. पतिपत्नी को ही मिल कर परिवार चलाना होता है. कोई बड़ा नहीं कोई छोटा नहीं होता. दोनों बराबर होते हैं और अपनी क्षमता के अनुसार कमाते हैं और घर का काम करते हैं. उसे बताओ कि तुम्हें उस की कम आमदनी से कोई परेशानी नहीं है.’’
‘‘ठीक कह रहो हो. मैं उस से बात करूंगी थैंक्यू,’’ कविता ने कहा और टिफिन बौक्स ले कर अपने कैबिन में वापस आ गई.
अगली बार जब कविता मुकेश से मिली तो उस ने कहा, ‘‘एक बुरी खबर सुनानी है.’’ ‘‘क्या?’’ मुकेश चौंका.
‘‘हो सकता है मेरी जौब चली जाए और मुझे कहीं अभी से आधी सैलरी पर काम करना पड़े. कहीं तुम मेरा साथ छोड़ तो नहीं दोगे?’’
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‘‘कैसी बात करती हो? क्या मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी सैलरी के लिए जुड़ा हूं? मैं प्यार करता हूं तुम से. आधी सैलरी तो छोड़ो, बगैर सैलरी के भी रहोगी तो हम मिलजुल कर गुजारा कर लेंगे. अभी मेरी सैलरी कम है तो क्या तुम मुझे छोड़ कर चली गई?’’ मुकेश ने कहा.
‘‘नहीं और कभी जाऊंगी भी नहीं. पर तुम कभीकभी ऐसा व्यवहार क्यों करते हो जब कभी मैं बिल का भुगतान करती हूं,’’ कविता ने कहा.
‘‘वह… वह… वह…’’ मुकेश कुछ बोल नहीं पाया. शायद उसे पता भी नहीं था कि उस की प्रतिक्रिया से कविता वाकिफ है.
‘‘देखो मुकेश, जिंदगी में कभी मैं ज्यादा कमाऊंगी कभी तुम ज्यादा कमाओगे. इस से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. अब मैं और तुम, हम बनने वाले हैं. इन छोटीछोटी बातों को बीच में मत आने दिया करो.’’
मुकेश के चेहरे पर अनिश्चिंतता के भाव थे. शायद वह पूरी तरह सहमत नहीं हो पा रहा था. बाद में भी मुकेश का व्यवहार वैसा ही बना रहा. स्थिति तब और बुरी हो गई जब लौकडाउन के चलते पहले तो उसे वर्क फ्रौम होम का और्डर दिया गया और बाद में उसे जौब से ही हटा दिया गया.
मुकेश कोशिश करता रह गया कहीं काम पाने की पर सफल नहीं हो पाया. धीरेधीरे वह निराशा के गर्त में डूबता चला गया. अब उसे कविता से बारबार पैसे लेने पड़े. इस शहर में उस का और कोई ऐसा नहीं था जिस से वह सहायता ले पाता और घर वाले तो उस पर ही आश्रित थे. उन से वह कुछ मांग नहीं सकता था. कोढ़ में खाज की तरह वह कोरोना से संक्रमित हो गया. वह भी तब, जब सबकुछ सुधरता नजर आ रहा था. एक कंपनी से उस की बात भी हो गई थी और बहुत बढि़या पैकेज पर उसे जौब मिल रही था.
पहले तो हलका बुखार ही था पर जब उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी तो अस्पताल जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. उस ने कविता को बताया कि वह अस्पताल जाने वाला है तो कविता उस के पास आ गई.
‘‘इस बीमारी में पास नहीं आते कविता. दूर ही खड़ी रहो और वापस जाओ,’’ दरवाजा खोलने के साथ ही उस ने कहा.
‘‘पूरी सावधानी के साथ आई हूं मुकेश. यह देखो मास्क, सैनिटाइजर मेरे बैग में हमेशा रहते हैं. तुम्हें अस्पताल में एडमिट करवा कर वापस आऊंगी तो स्नान कर लूंगी,’’ कविता ने कहा.
‘‘मेरे कारण तुम भी संक्रमित हो जाओगी,’’ मुकेश ने थोड़ी नाराजगी से कहा.
‘‘बीमारी कोई भी हो, अपने तो अपने के काम आएंगे. पूरी सावधानी बरतूंगी. अगर फिर भी संक्रमित होना होगा तो हो जाऊंगी, पर तुम्हें अकेले कैसे छोड़ दूं,’’ कविता ने कहा और उसे किनारे होने का इशारा कर अंदर चली आई.
मुकेश लाख समझता रहा पर कविता नहीं मानी. उसे ले कर अस्पताल गई.
डाक्टर ने चैक कर कहा, ‘‘शारीरिक से ज्यादा मानसिक परेशानी है आप की. बहुत ही मामूली संक्रमण है. अस्पताल में भरती होने की आवश्यकता नहीं है. घर पर ही क्वारंटाइन रहें और जो दवाएं लिख रहा हूं उन्हें लेते रहें, जो ऐक्सरसाइज बता रहा हूं वे करते रहें, समयसमय पर भाप लेते रहें.’’
कविता कुछ दिनों के लिए मुकेश के ही फ्लैट में आ गई. उस ने उस का पूरापूरा खयाल रखा. समय पर खानापानी देना, दवा देना, भाप देने की व्यवस्था आदि सबकुछ और साथ ही घर से ही कंपनी का काम भी करती रही.
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मुकेश कुछ ही सप्ताह में पूरी तरह स्वस्थ हो गया. धीरेधीरे बात उस की समझ में आ गई कि साथी का क्या मतलब होता है. अब उसे जौब भी मिल गई. अब उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि बिल का भुगतान कविता करती है या वह.
कविता की निस्स्वार्थ सेवा ने उस के मन में भावनात्मक सुरक्षा भर दी थी और अब वे दोनों सुखी दांपत्य जीवन के पथ पर चलने के लिए तैयार थे.