देश दुनिया इस समय कोरोना के पकोप से हुए नुकसान का हिसाब लगा रही है. चाहे वह जान का नुकसान हो या अर्थव्यवस्था का. यह साल पूरी दुनिया के लिए सर दर्द बना हुआ है. और इसी सरदर्दी में बढ़ोतरी देने के लिए इस साल आपदाएं भी दिक्कतों को बढाने में अपना योगदान देने में लगी हुई हैं.
ऐसे ही भारत के उत्तर राज्यों में इस समय आकाशीय बिजली गिरने से मौतें बढती जा रही है. बात अगर बिहार की हो तो पिछले 10 दिनों में अकेले बिहार राज्य में यह खबर लिखने तक 147 लोग आकाशीय बिजली गिरने की वजह से अपनी जान गँवा चुके हैं. बीते रविवार आपदा प्रबंधन अधिकारियों ने बताया कि बिहार में मार्च से लेकर अब तक 215 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं. बिहार में यह आकड़ा इस साल अधिक इसलिए आँका जा रहा है क्योंकि पिछले साल भारतीय मौसम विज्ञानं विभाग, सीआरओपीसी और वर्ल्ड विज़न इंडिया की तरफ से जारी एक रिपोर्ट में बिहार में 1 अप्रैल से 31 जुलाई तक 170 लोगों ने इस आपदा में अपनी जान गंवाई थी वहीँ 224 मौतें यूपी में हुई थीं.
वहीँ बिहार के डिजास्टर मैनेजमेंट मंत्री लक्ष्मेश्वर राय ने इन घटनाओं पर कहा कि “मुझे मौसम वैज्ञानिकों और अधिकारीयों ने बताया कि बढ़ते तापमान के कारण यह जलवायु में बदलाव के कारण हुआ है. जिस कारण इतनी ज्यादा बिजली गिरने की घटनाओं में तेजी आई हैं.” बिहार में होने वाली घटनाओं को लेकर उन्होंने कहा कि इस शनिवार आकाशीय बिजली के कारण 25 लोगों की मौत हो गई है.
वहीँ अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो अप्रैल से लेकर अब तक 200 लोगों से ज्यादा लोगों की मौत इस आपदा के चलते हो चुकी है. अधिकारीयों ने इन मौत के लिए वातावरण में अस्थिरता होना बड़ी वजह बताई है. जिसमें तापमान का बढ़ना और बढ़ी हुई आर्दता के चलते बादल के कड़कने और बिजली के गिरने में वृद्धि दर्ज हुई है. किन्तु बात को आगे बढाने से पहले समझ तो लें कि आकाशीय बिजली क्या है और यह कड़कती क्यों हैं?
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इस साल इन बढ़ते दुर्घटनाओं पर प्रधानमंत्री मोदीजी ने 25 जून को एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने उत्तरप्रदेश और बिहार में घाट रही इन घटनाओं पर दुःख प्रकट किया और मृतक के परिवारजन के प्रति संवेदना भी व्यक्त की थी.
वहीँ बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने भी उसी दिन ट्वीट कर मृतकों के प्रति दुःख प्रकट किया और मृतकों को 4-4 लाख रूपए अनुग्रह अनुदान देने का निर्देश भी दिया.
हांलाकि उससे दो दिन पहले भारतीय मौसम विज्ञानं विभाग ने एक पत्र जारी कर बिहार के मुख्य सचिव व आपदा प्रबंधन विभाग को बिहार के दर्जनों जिलों में बारिश होने का अनुमान लगाया था. सम्बंधित पत्र के बाद आपदा प्रबंधन विभाग ने सम्बंधित जिलों को पत्र लिख कर बारिश के बाद बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होने के खतरे को लेकर एहतियातन कदम उठाने को कहा था. ध्यान हो तो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ने इस साल 59 सेकेण्ड की एक वीडियो भी जारी की थी.
क्या है आकाशीय बिजली?
आकाशीय बिजली जिसे “तड़ित” भी कहा जाता है और इसी को इंग्लिश में “लाइटनिंग” भी कहते है. महानगरों में आसमानी बिजली का गडगडाना सिर्फ उतना ही सुनाई देता है जितना ऊँचीऊँची घप्प कसे हुए इमारतों के बीच से दिखाई देता है. इसे महसूस करने के लिए दुर्भाग्य/सोभाग्य से गांव उपयुक्त जगह होता है. ध्यान हो बचपन में गांव में बरसात के इन्ही दिनों में बादलों से ढके आसमान से गडगडाहट की आवाजें आती थी. उन्ही आवाजों के साथ एक तेज रौशनी बादलों के बीच से चमकती दिखाई देती थी. यह चमकती रौशनी ही आकाशीय बिजली होती है.
इस बिजली के बनने की प्रक्रिया प्राकृतिक होती है. यह दो तरह की होती है. एक जो बादलों के बीच चमकते हुए शांत हो जाती है. दूसरी जो बादलों से निकलकर धरती तक पहुँचती है. यह दूसरी वाली बिजली ही आपदा बनती है. इसलिए इसी बिजली से होने वाली मौत/आपदा को प्राकृतिक मौत/आपदा भी कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया हमने अपनी किताबों में पढ़ी जरूर होगी. यह जल चक्र के भीतर आता है.
यूँ तो इसे पूरी तरह से समझने की जरुरत है. किन्तु सरल करने हेतु यह कि जब अत्यंत गर्मी से समुद्र का पानी भाप बन कर ऊपर उठता है तो जितनी ऊपर वह भाप जाती है उतनी ठंडी होने लगती है. ठंडी होकर वह पानी की छोटी छोटी बूंदों के रूप में इक्कठा होकर बादल बनाते हैं. जितना बड़ा बादल बनता जाता है उतना ठंडा होता जाता है. बादल का उपरी भाग इतना ठंडा होता है कि बर्फ के छोटे छोटे कण बनने लगते हैं. यही कण जब हवा से टकराते है तो घर्षण/रगड़ पैदा करते है. और इसी रगड़ से आकाशीय बिजली उत्पन्न होती है, कभी कभार बादलों के इन्ही कणों के आपस में टकराने से भी बिजली उत्पन्न हो जाती है. इसमें दुर्भाग्य से जो बिजली जमीन पर गिरती है वह जान और माल दोनों का नुकसान करने की क्षमता रखती है.
आकाशीय बिजली को लेकर भ्रम
प्राय यह देखा गया है कि आकाशीय बिजली से गांव देहात की तरफ अधिकाधिक जान का खतरा बना रहता है. इसका कारण परिस्थिति पर निर्भर है. चूँकि गांव में खेतीबाड़ी का काम होता है तो मीलों मील खाली जगहें/खेत होते हैं. आमतौर पर आकाश से गिरने वाली बिजली का बचाव किसी मजबूत स्थान के नीचे रहकर किया जा सकता है लेकिन गांव में खेतों में काम करते हुए किसान/खेत मजदूरों को बाहर निकलना पड़ता है. जिस कारण आकाशीय बिजली से बचने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं खोज पाते.
उत्तराखंड में इस मौसम बारिश बहुत ज्यादा पड़ती है. बादल का फटना और बिजली का प्रकोप वाली खबर इस मौसम आए दिन मिल जाती है. लेकिन इन सब के बीच एक बात जो मुझे हमेशा अपने गांव जाते हुए महसूस होती है कि आज भी बिजली का गिरना या चमकने को ईश्वर का दंड माना जाता है. और यह जिस पर गिरती है उस वस्तू या प्राणी को उसके कर्मों के सजा बताई जाती है. और यह सिर्फ मेरे गांव तक सीमित बात नहीं बल्कि अधिकतम लोग इसे इसी नजर से देखते हैं. खासकर हिन्दू मान्यताओं में आकाशीय बिजली को भगवान् इंद्र के बज्र से जोड़ा जाता है. यहां तक कि दो लोगों के आपसी झगडे में बज्र का किसी पर गिरना गाली के तौर पर दिया जाता है या श्राप के तौर पर.
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यही नहीं किसी भी समय अथवा जगह बारिश/बादल की ख़ास एहमियत है/थी. प्रकृति में खेत उपजाने से लेकर पीने के पानी तक में इस मौसम की ख़ास जरुरत होती है. किन्तु पुराने समय में जिन चीजों के तर्क नहीं मिल पाते थे उन्हें भगवान् से जोड़ दिया जाता था. यह सिर्फ भारत में नहीं बल्कि ग्रीक और रोम में भी इसे भगवान् जुपिटर का प्रहारदंड माना जाता था. आज तर्क साफ़ होने के बावजूद भी देश दुनियां में यही भ्रम व्याप्त हैं. यह भ्रम सिर्फ आम लोगों में ही नहीं बल्कि बड़े बड़े ओधे में बैठे सरकारी/गैरसरकारी अधिकारियो के भीतर होता है.
आकाशीय बिजली से होने वाली दुर्घटनाओं पर एनसीआरबी का डाटा
वर्ष 1967-2012 के बीच एनसीआरबी ने 45 सालों में आपदाओं से होने वाली मौतों को संकलित किया था जिसमें आकाशीय बिजली से होने वाली अकेले मौतें 39 प्रतिशत थी. यह आकड़ा उन तमाम आपदाओं में मरने वाले लोगों के आकड़ों से कई अधिक है जिनसे लोगों की मौत होती है. यहां तक कि बाढ़ तक में इतनी संख्या में मौतें नहीं होती है.
हर साल आमतौर पर बिजली गिरने से दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है. यह घटनाएं अधिकतम जून से सितम्बर माह तक घटित होती रहती हैं. किन्तु इस बार शुरूआती आकड़ों में इन घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. ओसतन हर साल इस आपदा में पुरे देश में लगभग 2,000 से ऊपर लोगों की मौत होती हैं. यह आकड़ा अपने आप में सभी आपदाओं से होने वाली मौतों से अधिक है. फिर चाहे वह बाढ़ हो, भूस्खलन हो, भूकंप हो या कोई और. साल 2014 में 2582 लोगों ने इसी आपदा में अपनी जान गंवाई थी. वहीँ 2015 में यह आकड़ा बढ़ कर 2,833 तक पहुँच गया था. साल 2018 में इसी आपदा से लगभग 2,300 से अधिक लोगों की मौत हुई थी.
सरकार इसे रोकने के तरीके क्यों नहीं अपनाती?
यह बात पहले स्पष्ट की जा चुकी है कि भारत या दुनिया के बाकी हिस्सों में आज भी आकाशीय बिजली को लेकर भ्रम हैं. क्या आम क्या ख़ास बहुत से लोग इसे भगवान् का प्रकोप समझते हैं. यहां तक कि सरकार, नोकरशाह के बड़े पदों में बेठे लोग भी इसे या तो भगवान् का न्याय(एक्ट ऑफ़ गॉड) समझ कर कन्नी काट लेते हैं या यह सोच कर कि “प्राकृतिक आपदा के खिलाफ किया क्या जा सकता है?” चुप्पी साध लेते हैं.
विज्ञान ने ऐसे उपाय सुझाए तो जिससे इस आपदा से होने वाली हानि को कम किया जा सकता है. जैसे अगर कोई व्यक्ति घर से बाहर किसी खुले स्थान में हो तो बादल गडगडाने या बिजली चमकने के दौरान उसे किसी मजबूत सुरक्षित स्थान(मकान) के भीतर जाना चाहिए. यदि यह संभव नहीं तो अपने दोनों पेरों को जोड़कर उकडू बनकर जमीन पर बेठ जाएं, अपने कान दोनों हाथों से धक लें ताकि कान न फटे. पेड़ों, तार, बिजली/मोबाइल के खम्बों/टावर से, पानी से दूर रहें. यह उपाय वह है जो लोगों को त्वरित स्थिति में करनी चाहिए. किन्तु ऐसे उपाय जो सरकार के बूते की बात है फिर भी उस में ढिलाई बरती जाती है.
जानकारों का कहना है कि आकाशीय बिजली से बचने के दो तरीके हैं. पहला, तो लाइटनिंग अर्रेस्टर स्थापित किये जाएं. यह वो उपकरण होते हैं जो आकाशीय बिजली को अपनी तरफ खींच कर जमीन के भीतर डाल देते हैं. आमतौर पर यह उपकरण बड़े बड़े बिजली के टावरों में दिख जाते हैं. लेकिन आज भी आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इनकी कमी है.
दूसरा बांग्लादेश मॉडल. बांग्लादेश में भी आकाशीय बिजली खूब गिरती थी. वहां हर साल सैकड़ों लोग इस आपदा से मारे जाते थे. जिसे रोकने के लिए उन्होंने लाइटिंग अर्रेस्टर का इस्तेमाल तो किया ही, साथ ही प्राभावित क्षेत्रों में ताड़ के पेड़ लगाए गए. जो खुद लाइटनिंग अर्रेस्टर का काम करने लगे. इसे रोकने के लिए खूब सांस्कृतिक माध्यमों का उपयोग किया गया.
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अब यह बात सरकार को बतानी अजीब लगेगी कि किसी कुतर्क के खिलाफ वैज्ञानिक तर्क कैसे खड़ा किया जाए. जाहिर है वह तमाम सामाजिक संप्रेक्षणों का प्रयोग कर जिससे एक गांव में रहने वाला आम इन्सान तक भी आसानी से समझ जाए. फिर चाहे वह सरकार द्वारा गांव गांव में किये जा रहे नुक्कड़ नाटक हों, या गांव के लोकगीतों, कहानियों में आपदाओं के निपटान के तरीके हों या चाहे नवयुवकों के बीच सोशल मीडिया के जरिये से हो. मुख्य बात इस तरह के आपदाओं से निपटने के जरूरी उपाय एक आम इंसान को समझ आना जरुरी है. जैसे एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. अमेरिका में एक तकियाकलाम है “व्हेन थंडर रोअर्स, गो इनसाइड” यानी “जब बिजली गरजे, अंदर चले जाओ.” यह वाक्य वहां खूब प्रचलित है. गांव कस्बों में भी यह प्रचलित है. यह इसलिए कि इस तरह के वाक्यों, तकियाकलामों, कहावतों को सामाजिक जागरूकता के लिए जनहित में जारी किये गए और प्रचार प्रसार किये गए.
सरकारें वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के साथ मिल कर उन प्रभावित क्षेत्रो को चिन्हित करे जहां अधिकाधिक आपदाएं हर साल दर्ज की जाती हैं. उन इलाकों में विशेष जागरूकता अभियान चलाए जाएं. आपदा को लेकर ड्रिल किये जाएं. विशेष तौर पर उन क्षेत्रों में गाइडलाइन जारी किये जाएं.
जाहिर है यह प्राकृतिक आपदा है जिसे फिलहाल रोकना संभव नहीं लेकिन इससे बचाव जरूर संभव हैं. इन उपायों से मृत्यु को कम किया जा सकता है. इसके लिए सबसे पहले सरकारी महकमों के भीतर के लोगों के मन से “इस पर क्या कर सकते हैं” वाली मानसिकता को ख़त्म करने की जरुरत है. साथ ही लोगों के दिमाग से भी अनापशनाप भरे भ्रम को ख़त्म करने की जरुरत है. यह बेहतर है कि सरकार मरने वाले व्यक्ति को 4 लाख रूपए देती है. लेकिन यह 4 लाख रूपए क्या किसी की जान की कमी पूरी कर सकते हैं. इस आपदा में मरने वाले अधिकतर किसान या खेत मजदूर होते हैं. जिनके कंधे पर परिवार की जिम्मेदारी टिकी होती है. इसलिए अगर किसी की मौत को इस तरह के आपदाओं के उपायों से रोका जा सकता है तो पहले बचाने की कार्यवाहियां करने की जरुरत है. बाकी किसी की मौत का मोल महज 4 लाख या कितना हो उस पर बहसें चलनी भी जरुरी हैं.