बीजी यहीं है: क्या सही था बापूजी का फैसला

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बीजी यहीं है: भाग 3- क्या सही था बापूजी का फैसला

तीजत्योहार, ब्याहशादियों में बीजी बहुत याद आती. अपनी पीढ़ी के हर तीजत्योहार, पर्व के लोकगीतों का संग्रह थी वह. ऊपर से आवाज ऐसी कि जो एक बार बीजी के मुंह से कोई लोकगीत सुन ले तो सुनता ही रह जाए.

बीजी के जाने के बाद जब भी मौका मिलता बाबूजी बीजी की बातें ले

बैठते. बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तब मुझ से सांझ करने से नहीं हिचकते. कई बार तो बाबूजी के नकारने के बाद भी साफ लगता कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी बीजी के और नजदीक हो गए हों जैसे. पता नहीं ऐसा क्यों होता होगा कि किसी के जाने के बाद ही हम उस के पहले से और नजदीक हो आते हैं.

बाबूजी को अपने साथ यों खुलतेघुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि… बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे, धीरेधीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते जाते ज्यों अब मैं उन का बेटा न हो कर उन का दोस्त होऊं.

बीजी के जाने के बाद मैं ने ही नहीं, राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर 4 महीने में 4 बार बदलते देखा. हर 20 दिन बाद बाबूजी की शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं. तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी था कि वे हमारे साथ ही पूरी तरह से रहें. पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए. अवसर देख उन्होंने शर्त रखी, ‘‘तो शाम का भोजन सब के लिए नीचे की रसोई में ही बना करेगा. और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’ उस वक्त ऐसा लगा था जैसे मेरे से अधिक राजी बाबूजी के करीब जा पहुंची हो.

‘‘और रात को मैं नीचे ही

सोया करूंगा.’’

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‘‘यह कैसे संभव है बाबूजी?’’ राजी ने मुझ से पहले आपत्ति जताई तो वे बोले, ‘‘देखो राजी बेटाख् वहां मेरा अतीत है, मेरा वर्तमान है. आदमी हर चीज से कट सकता है पर अपने अतीत, वर्तमान से नहीं. इसलिए… क्या तुम चाहोगी कि मैं अपने अतीत, अपने वर्तमान से कट अपनेआप से कट जाऊं, तुम सब से कट जाऊं? कभीकभी तो आदमी को अपनी शर्तों पर जी लेना चाहिए या कि आदमी को उस की शर्तों पर जी लेने देना चाहिए. इस से संबंधों में गरमाहट बनी रहती है राजी,’’ बाबूजी बाबूजी से दार्शनिक हुए तो मैं अवाक. क्या ये वही बाबूजी हैं जो पहले कभीकभी तो बाबूजी भी नहीं होते थे?

‘‘ठीक है बाबूजी. जैसे आप चाहें,’’ मैं ने और राजी ने उन के आगे ज्यादा जिद्द नहीं की यह सोच कर कि जब 2 दिन बाद ही अकेले वहां ऊब जाएंगे तो फिर जाएंगे कहां?

उस रोज मैं हाफ टाइम के बाद ही औफिस से घर आया तो बाबूजी को धूप में न बैठे देख अजीब सा लगा क्योंकि अब उन को औफिस को जाते, औफिस से आते देखना मुझे पहले से भी जरूरी सा लगने लगा था. अचानक मन में यों ही बेतुका सा सवाल पैदा हुआ कि कहीं बाबूजी से राजी की कोई… पर अब राजी और बाबूजी के रिश्ते को देख कर कहीं ऐसा लगता नहीं था जो… सो इस बेतुके सवाल को परे करते मैं ने राजी से पूछा, ‘‘आज बाबूजी धूप में नहीं आए क्या?’’

‘‘क्यों? आए तो थे. पर तुम?’’

‘‘तबीयत ढीली सी लग रही थी सो सोचा कि घर आ कर आराम कर लूं. शायद तबीयत ठीक हो जाए. कहां गए हैं बाबूजी.’’

‘‘कह गए थे जरा नीचे जा रहा हूं. कुछ देर बाद आ जाऊंगा. चाय बनाऊं क्या?’’

‘‘हां, बना दो सब के लिए. तब तक मैं बाबूजी को देख आता हूं. देखूं तो सही वे…’’ और मैं तुरंत नीचे उतर गया.

बाबूजी जब बाहर नहीं दिखे तो यों ही खिड़की से भीतर झंका यह देखने के लिए कि भीतर बाबूजी क्या कर रहे होंगे? भीतर देखा तो बाबूजी ने पहले सोफोें के कवर ठीक किए, फिर सामने बीजी की टंगी तसवीर की धूल साफ  की अपने कुरते से. उस के बाद बीजी की तरह ही टेबल साफ  करने लगे. टेबल साफ  कर हटे तो बीजी की तरह ही किचन के दरवाजे के पीछे पीछे रखे झड़ू से साफ करने लगे. यह देख बड़ा अचंभा हुआ. जिन चीजों से बाबूजी का अभी दूरदूर तक का कोई वास्ता न होता था, इस वक्त वे चीजें बाबूजी के लिए इतनी अहम हो जाएंगी, मैं ने सपने में भी न सोचा था. मैं ने तो सोचा था कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी और भी बेपरवाह हो जाएंगे.

बड़ी देर तक मैं यह सब फटी आंखों से देखता रहा. अचानक मेरी आंखों के गीलेपन के साथ मेरी सिसकी निकली तो सुन बाबूजी चौंके, ‘‘कौन? कौन?’’

‘‘मैं बाबूजी संकु.’’

‘‘तू कब आया?’’ बाबूजी ने अपने को छिपाते सामान्य हो पूछा तो मैं ने भी अपने को छिपा सामान्य होते कहा, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं थी, सो सोचा घर जा कर कुछ आराम कर लूं तो शायद… पर आप यहां… राजी को कह देते, नहीं तो मैं कर देता ये सब…’’

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‘‘नहीं. अपने हिस्से के कई काम कई बार खुद कर के मन को बहुत चैन मिलता है संकु. तुम्हारी बीजी के जाने के इतने महीनों बाद भी जबजब यहां आता हूं तो लगता है कि तुम्हारी बीजी यहीं कहीं है. हम सब के साथ. वह शरीर से ही हम से जुदा हुई है. तुझे ऐसा फील नहीं होता क्या?’’ बाबूजी ने मुझ से पूछा और मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

पक्का था उन की आंखें भर आई थीं. सच पूछो तो उस वक्त मैं ने भी बाबूजी के साथ बीजी का होना महसूस किया था पूरे घर में. सोफों पर, टीवी के पास, किचन में हर जगह क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां बीजी न हो, वहां बाबूजी एक पल भी नहीं टिकते. एक पल भी नहीं रुकते. कोई उन्हें रोकने की चाहे लाख कोशिशें क्यों न कर ले, वे अपनेआप ऐसी जगह रुकने की हजार कोशिशें क्यों न कर लें. बाबूजी आज भी कुछ मामलों में बड़े स्वार्थी हैं. ऐसे में इस वक्त जो बीजी उन के साथ न होती तो भला वे जब धूप भी धूप तापने को धूप की तलाश में दरदर भटक रही हो, उसे छोड़ बीजी के बिना यहां होते भला?

बीजी यहीं है: भाग 2- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी की बात जब मौन रह कर भी नकार दी गई या राजी द्वारा ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सब को खाना बनाती पर बाद में बीचबीच में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का भी लंच बना लेती. फिर धीरेधीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा और एक दिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी. पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी क्योंकि मैं ने बीजी को 40 साल से बहुत करीब से देखा था. इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो.

बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘‘राजी, तू ऊपरनीचे दौड़ती थक जाती है. ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर. मैं नीचे कर लिया करूंगी.’’

‘‘पर बीजी आप?’’

‘‘हमारा क्या? सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इन के और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी. जिस दिन खाना न बने उस दिन को तू तो है ही,’’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हंसते हुए राजी का स्पेस को और स्पेस दी तो मैं हत्प्रभ. आखिर बीजी भी समझौते करना सीख ही गई.

उस वक्त तब मैं ने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान

पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसली जा रही थी. जब आदमी सम?ौता करता हो तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद अपने को पूरी तरह फिसलाव के हवाले कर.

इस निर्णय के बाद से बीजी के  चेहरे पर से धीरेधीरे मुसकराहट गायब रहने लगी. यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबहशाम बीजी के पास जा आते. बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर कर के आते तो राजी तुनकती भी. पर मुझे अधिक देर तक बीजी, बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता. उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश मैं भी चीनू होता. काश मैं भी किट्टी होती.

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जिस बीजी के हाथों के बने खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे, धीरेधीरे वही बीजी अपने ही हाथों बने खाने से बीमार होने लगी.

अब मैं जब भी बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘‘अभी तेरे बाबूजी हैं न. वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं. बूढ़ा शरीर है. कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा. जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी.’’

और बीजी बिस्तर पर पड़ीपड़ी पता नहीं बड़ी देर तक किस ओर देखती रहती. मुझ से पूरी तरह बेखबर हो. जैसे में उस के पास होने के बाद भी उस के पास बिलकुल भी न होऊं. बीजी को टूटते देख तब टूट तो मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से. कई बार हम केवल अपने को असहाय हो टूटता देखते भर हैं. अपने टूटने को रोकना न उस वक्त अपने हाथ में होता है न किसी और के हाथों में. कई बार टूटना हमारी नियति होती है और उसे चुपचाप भोगने के सिवा हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं. फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथपांवों को इधरउधर मारते रहें.

दिसंबर का महीना था. आखिर वही हुआ. बीजी ने जम कर चारपाई पकड़ ली. बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ ले कर

ही गया.

शायद सोमवार ही था उस दिन. सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला. एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप. बीजी ने चारपाई पर लेटेलेटे पूछा, ‘‘राजी कहां है?’’

‘‘बीजी ऊपर है, कोई गैस्ट आया है. उसे देख रही होगी. कुछ करना है क्या?’’

‘‘नहीं. तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा.

बाबूजी साफ मुकर गए थे, ‘‘तेरी बीजी ने मेरा बहुत खयाल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही. अब मैं भी चाहता हूं कि…’’

‘‘टाइम क्या हो गया?’’ बीजी ने पूछा तो मैं ने मोबाइल में टाइम देख कर कहा, ‘‘बीजी, 5 बजे रहे हैं.’’

‘‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते पूछा.

‘‘बीजी, रोज तो इसी वक्त 5 बजते हैं. हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’’ मैं ने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली, ‘‘देख न, रोज 5 बजते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर 5 फिर भी बजते हैं. हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु. बस कोई एक नहीं रहता. एक समय के बाद उसे क्या, किसी को भी नहीं रहना चाहिए,’’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब.

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और बीजी चली गई. 15 दिन तक उस के जाने के अनुष्ठान होते रहे. बाबूजी ने

मुझ से बीजी का मेरा काम भी न करने दिया. जब भी मैं कुछ कहता, वे मुझे बस चुप भर रहने का इशारा कर के रोक देते. तब पहली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे? नहीं तो मैं ने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्रभर और मरने के बाद भी करती रहेगी.

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सब की जिंदगी बीचबीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी. मैं महसूस करता कि बाबूजी को अब बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे. जब कभी परेशान होता तो बाबूजी को कम बीजी को अपने कंधे पर हाथ रखे अधिक महसूस करता.

आगे पढ़ें- बीजी के जाने के बाद जब…

बीजी यहीं है: भाग 1- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी के जाने से पहले हम 6 सदस्य थे इस घर के- मैं, मेरी पत्नी, बाबूजी, बीजी और 2 बच्चे किट्टी और चीनू. यह घर बाबूजी ने 35 साल तक क्लर्की करने के बाद बड़ी मुश्किल से बनवाया था. डेढ़ साल पहले मैं ने बीजी के पहले खुल कर, फिर चुप विरोध के बाद भी घर की छत पर 4 कमरों का सैट बना ही दिया. राजी के कहने पर मैं अपने बच्चों के साथ अब इसी से में रह रहा हूं.

मुझे तब बाबूजी, बीजी को नीचे वाले घर में अकेले छोड़ते हुए बुरा भी लगा था, पर राजी के सामने हथियार डालने पड़े थे. शायद इस के पीछे यह भी हो सकता है कि हर मर्द को चाहे अपने घर की तलाश हो या न हो, पर हर औरत को जरूरत होती है. हर मर्द कहीं अपने लिए स्पेस ढूंढ़े या न ढूंढ़े पर हर औरत को अपने लिए एक स्पेस चाहिए, जो केवल और केवल उसी की हो.

बाबूजी तब माहौल ताड़ गए थे जब मैं ने उन से छत पर सैट बनाने के बारे में बताया था, पर बीजी साफ मुकर गई थी यह कहते हुए, ‘‘क्या जरूरत है छत पर एक और घर बनाने की? इसी में जब सब ठीक चल रहा है तो और बेकार का खर्चा क्यों? जिस को तंगी हो रही हो वह बता दे. मैं बाहर के कमरे में सो जाया करूंगी. संकेत, क्या तुझे अच्छा नहीं लगता कि सारा परिवार एक छत के नीचे रहे? एक चूल्हे पर बना सब एकसाथ खाएं?’’ कह बीजी को जैसे आभास हो गया था कि छत के ऊपर सैट बन जाने का सीधा सा मतलब है कि…

बीजी के बाल धूप में सफेद न हुए थे, इस बात का पता मुझे बीच में लगता रहा था.

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‘‘सो तो ठीक है बीजी पर अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं और ऊपर से…’’  राजी एकदम बोल पड़ी तो मैं चौक उठा. घर में कहीं अपने लिए स्पेस तलाशने निकली राजी कुछ और न कह जाए, इसलिए उसे संभालने को मैं ने खुद को एकदम तैयार कर लिया, पर आगे कुछ कहने के बदले वह चुप हो गई. पर चुप होने के बाद भी वह कहना चाहती थी कि वह कह चुकी थी मेरे हिसाब से. उस के यह खुल कर कहने के बाद मैं कहीं से टूटा जरूर था. पर जब बाबूजी ने मेरी ओर शांत हो देखा था तो मुझे लगा था कि मैं इतनी जल्दी टूटने वाला नहीं. कोई साथ अभी भी है, बरगद की तरह. राजी को पता था कि अभी जो चुप रहा गया तो फिर बात कहना और आगे चला जाएगा और वह नहीं चाहती थी कि उस की स्वतंत्रता कुछ और आगे सरक जाए.

ऐसा नहीं कि बीजी ने कभी भी उसे कुछ करने से रोकाटोका हो बल्कि बीजी उसे

अपने से भी अधिक मानती थी. जब देखो, पड़ोस में राजी की तारीफ करते नहीं थकती. मेरी राजी. वाह क्या कहने मेरी राजी के. मौका मिलते ही बीजी हर कहीं बखान करने लग जाती, बहू हो तो राजी जैसी. घर में मुझे कभी कुछ करने ही नहीं देती.

सच कहूं जब से राजी घर में आई है, मैं तो रसोई में जाना ही भूल गई हूं. सब को राजी जैसी बहू मिले. राजी को ले कर बीजी इतनी संजीदा कि उतनी तो राजी अपने को ले कर भी कभी क्या ही रही होगी.

राजी के आगे मैं विवश था, पता नहीं क्यों? मेरी विवशता को बाबूजी मुझ से अधिक जान गए थे. इसलिए जब उन्होंने जैसेतैसे बीजी को समझया तो बीजी ने छत पर सैट बनाने का न तो विरोध किया और न ही हामी भरी. वह बस मन ही मन मसोसती न्यूट्रल हो गई.

और मैं ने लोन ले कर छत पर सैट बनाने का काम शुरू कर दिया. छत पर बन रहे सैट की दीवारें ज्योंत्यों ऊपर उठ रही थीं, बीजी को लगा ज्यों आपस में हम हर पल ईंट एकदूसरे से ओझल होते जा रहे हैं पर राजी खुश थी. अंदर से या बाहर से या फिर अंदरबाहर दोनों ही जगह से, वही जाने.

मगर इतना सब होने के बाद भी बीजी सारा दिन बाबूजी के साथ काम कर रहे मजदूरों की निगरानी करती. मजदूरों के काम करते रहने के बाद भी वजहबेवजह टोकती रहती कि पहले यह करो, वह करो.

4 महीने में सैट बन कर तैयार हो गया तो राजी ने संकेत में वह सब कह डाला जिस का मुझे महीनों पहले यकीन था, ‘‘संकेत, कैसा रहेगा जो हम यहां किचन में कुछकुछ किचन का सामान रख कुछ बनाना भी शुरू कर दें?’’

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‘‘पर नीचे भी तो किचन है. बीजी है, बाबूजी हैं. राजी एक ही किचन में सब एकसाथ मिलबैठ कर खाएं तो तुम्हें नहीं लगता कि खाने का स्वाद कुछ और ही हो जाता है?’’ मैं ने पता नहीं तब कहां से कैसे यह हिम्मत जुटा कर राजी से कहा था. पर मुझे पता था कि मेरी यह हिम्मत अधिक दिन टिकने वाली नहीं और हफ्ते बाद ही वह पस्त भी हो गई. ऊपर वाले सैट में व्हाइटवाश हो चुका था. फर्नीचर भी खरीदा जा चुका था.

राजी ये सब देख बहुत खुश थी तो बीजी उदास. बाबूजी न खुश थे, न उदास.

शायद उन्हें सब पता था कि अब आगे क्या होने वाला है. घर के हर मौसम को वे बड़ी बारीकी से पढ़ने में सिद्धहस्त जो थे.

नई किचन में सब के लिए खुशीखुशी खाना बना. फिर हम सब खाना खाने बैठे. तब बीजी ने मेरी थाली में दाल डालते हुए मेरे भीतर झंकते पूछा, ‘‘संकेत, ऊपर वाला सैट बन गया सो तो ठीक, पर साफ कह देती हूं, चूल्हा जलेगा तो बस एक ही जगह.’’

मैं चुप. मेरे हाथ का ग्रास हाथ में तो मुंह का मुंह में. बाबूजी सब जानते थे. इसलिए वे चुपचाप खाना खाते रहे. उस वक्त वे बीजी के इस फैसले के न तो पक्ष में बोले न विपक्ष में. वैसे, पता नहीं उस वक्त क्यों मुझे ही कुछ ऐसा लगा था जैसे वे कुछ कहने की हिम्मत कर रहे हों. पर ऐन मौके पर चुप हो गए थे. दोनों बच्चे नए लाए सोफोें पर पलटियां खा रहे थे. हमें खाना देती बीजी उन्हें कनखियों से घूरने लग गई थी. पर मैं ने उस वक्त खाना खाते हुए साफ महसूस किया था जैसे आज बीजी के हाथ उदास हैं. उस के हाथों से खाना बनाने की वह मास्टरी कहीं दूर चली गई है.

आगे पढ़ें- कल तक जो बीजी उम्र की ढलान पर बाबूजी से…

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