यहां सारे पाप धुल जाते हैं

पत्नी हो तो उत्तर प्रदेश के पूर्व विधायक कुलदीप सेंगर जैसे  की, जो पति के रेप कांड में पकड़े और जेल जाने के बावजूद न केवल पति के प्रति समर्पित है, उस की पार्टी के प्रति भी.

भारतीय जनता पार्टी ने उस व्यक्ति की पत्नी को पंचायत चुनावों के लिए टिकट दिया था, जिस पर एक से बढ़ कर एक गंभीर आरोप लगे थे और जिन में रेप का आरोप भी था और अदालतों ने सजा सुना दी.

यह भी मानना पड़ेगा कि भारतीय जनता पार्टी अपने को वास्तव में वैसा अमृत मानती है, जो हर पाप से मुक्ति दिला दे. कुलदीप सेंगर को कुकर्मों के लिए सजा देने की जगह पार्टी उस की पत्नी को टिकट दे कर यह साबित कर रही है कि रेप, हत्या जैसी चीजें बड़ी बात नहीं हैं अगर व्यक्ति भाजपा में है.

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पार्टी यह भी कहती है कि एक पत्नी को अपने कुख्यात पति के प्रति निष्ठावान भी रहना चाहिए और जन्मों के बंधन रेप, हत्या जैसी छोटी चीजों के कारण तोड़ा नहीं जा सकता.

दरअसल, पार्टी मानती है कि जो धर्म की शरण में आ जाता है चाहे वह विभीषण हो या सुग्रीव अपना हो जाता है, उस के सारे पाप धुल जाते हैं. कुंती और द्रौपदी के पाप कृष्ण के निकट आने से धुल गए थे न. कुलदीप सेंगर को देश की अदालतों ने गुनहगार माना है, न पार्टी ने, न पत्नी ने.

कुलदीप सेंगर से उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज भी जेल में मिलने गए थे और यह बता आए थे कि सुखी रहें, शीघ्र मुक्ति मिल जाएगी. वे कोई दलित या कांग्रेसी या वामपंथी या फिर लालू यादव थोड़े ही हैं कि सालों जेल में रहेंगे.

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भारतीय जनता पार्टी को अगर बुरा लगा तो यह कि खुराफाती तत्त्वों ने पत्नी की निष्ठा और समर्पण का आदर नहीं किया और पंचायत चुनाव में उसे टिकट देने पर हल्ला मचा डाला. ईश्वर जैसे संरक्षक होने के बावजूद संगीता सेंगर को हालांकि टिकट नहीं दिया गया था, पर यह पक्का है कि दोषी दोषमुक्त हो चुका है. हत्या, बलात्कार जैसी चीजें तो होती ही रहती हैं.

कोरोना संकट पहले या, बीजेपी की राजनीति

भारत में कोरोना का कहर इस कदर फैलता जा रहा है, जिसे अब रोकना मुश्किल होता जा रहा है. आज की तारीक में 3+ लाख से ऊपर नए कोरोना केस सामने आए है, 2000 से अधिक मौतें हुईं, जिस कारण अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे हैं. ऐसे में भाजपा शासित सरकार क्या कर रही है,वही जो वो पहले से करती आया है – राजनीति. भाजपा अपनी राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने में लगी हुई है,उनके लिए ये महामारी कुछ नहीं.

हैरानी की बात तो यह है,जब कुछ दिन पहले रात को पीएम नरेंद्र मोदी जी ने टीवी पर मूल रूप से अपनी सरकार को महामारी से निपटने के लिए, इस महामारी में एक दूसरे की सहायता करने और उत्कृष्ट कार्य करने की बधाई दी. इतना ही नहीं उन्होंने लोगों से सावधानी बरतने और कोविड–सुरक्षा नियमों का पालन करने का भी आग्रह किया. फिर भी उन्हें और उनकी पार्टी को किसी भी तरह के नियमों की न तो कोई चिंता है न ही कोई कदर है. इसका जीता जागता उदाहरण है बंगाल के इलेक्शन.

मास्क लेस इलेक्शन मेला

बंगाल में मास्क लेस इलेक्शन मेले से भले ही जीत का एक मौका महक रहा हो, जहां पीएम नरेंद्र मोदी जी के साथ उनके गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य में कई दमदार रैलियां की, जिसमें बिना मास्क के लोगों की बेहिसाब भीड़ शामिल थी. जो बिना मास्क के नेताओं का उत्साह बढ़ा रही थी. चुनावी रैलियों में पूरी तरह से कोरोना गाइडलाइन का उल्लंघन हुआ.बंगाल में चुनावी रैलियों में जमकर भीड़ उमड़ी. इस दौरान कोरोना नियमों का पालन भी नहीं किया गया, क्योंकि राज्य में शांतिपूर्ण चुनाव कराने का अधिकार चुनाव आयोग का ही होता है ऐसे में कोरोना संकट के बीच रैली, रोड शो और जनसभाओं में उमड़ती भीड़ पर काबू पाने के लिए कदम उठाना और शांति पूर्ण मतदान कराना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी होती है. क्या एक मौके पर भी पीएम ने इस भीड़ के अकार के बारे में सोचा, इस भीड़ में शामिल बिना मास्क के लोगों पर ध्यान दिया, क्या यह सोचा कि इससे देश में इस महामारी का क्या प्रभाव पड़ेगा और कितना नुकसान हो सकता है.

बीते सप्ताह के आंकड़े

जब ऐसी महामारी को बुरी तरह से फैलने पर, इस तरह से प्रचार करने के खतरे के बारे में पूछा गया, तो गृहमंत्री अमित शाह जी ने साफ शब्दों में घोषणा की कि रैलियों की वजह से कोविड –19 मामलों में किसी भी तरह से कोई वृद्धि नहीं हुई है. रिकॉर्ड के अनुसार, बीते सप्ताह से पश्चिम बंगाल में आठ ही दिनों में कोरोना मामलों में दोगुनी रफ्तार से वृद्धि हुई है. एक ही दिन में लगभग 10 हजार संक्रमण मामले सामने आए हैं,जो की एक बहुत बड़ी चुनौती है. यहां कोरोना के मामलों में काफी उछाल आया है. स्वास्थ्य विभाग की तरफ से कराए गए एक आंतरिक सर्वे के अनुसार बंगाल के 19 जिलों में कोरोना वायरस की स्थिति गंभीर है और यहां कोरोना के मामले में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.

अपना स्वार्थ

इसी बीच, बंगाल सरकार ने चुनाव आयोग से विनती की है कि वे बढ़ती हुई इस महामारी को ध्यान में रखते हुए, बचे हुए तीन चरणों के चुनावों को रद्द कर दिया जाए. चुनाव आयोग एक सम्मान जनक संस्था है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन सभी जानते है की यह भाजपा है जो बंगाल में आठ चरण के इस सुपर चुनाव से सबसे अधिक लाभ हासिल करने के लिए खड़ी है.

राजनीति का खेल

इस घटक महामारी से निपटने के लिए सामूहिक टीकाकरण महत्वपूर्ण है,और दुनिया भर के देशों में सरकारें अपने नागरिकों को मुफ्त में टीका लगा रही हैं. भारत में सरकार को आदेश न देने और अपनी वयस्क आबादी को जल्दी से टीका लगाने के लिए पर्याप्त वैक्सीन खुराक खरीदने में काफी आनाकानी की है जिस वजह से सरकार की काफी आलोचना भी हुई है.देश में दवा की कमी होने के बावजूद भी केंद्र दूसरे देशों में दवा भेज रही है. परिणामस्वरूप, अब हमारे पास वैक्सीन की भारी कमी है.

भारत में नई वैक्सीन की रणनीति

सरकार के द्वारा कोविड – 19 वैक्सीन नीति जो अब 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोगों के लिए उपलब्ध कराई गई है. अब जो वैक्सीन निर्माता है वे अपनी आपूर्ति का 50 प्रतिशत राज्य सरकार और ओपन मार्केट को देंगें एक ही मूल्य पर ( कोविशील्ड राज्यों को 400 रुपए प्रति डोज पर उपलब्ध होगी ), यह है जो, स्वास्थ्य संकट के बीच भी राजनीति को एक राष्ट्र के हितों से ऊपर रखता है.

हम क्या देख रहे हैं

कोरोना वैक्सीन पर एक राजनीतिक ब्लेम –गेम चल रहा है. कयी राज्यों को इस समय 18 –45 आयु वर्ग के टीकाकरण के लिए टीके खरीदने के लिए कहना केवल मुख्य रूप से केंद्र की जिम्मेदारी है. लेकिन इसके पीछे भी बड़ा खेल है, यदि राज्यों में टीकाकरण अभियान धीमा हो जाता है तो, सरकार के लिए राज्यों पर दोष शिफ्ट करने का यह एक अच्छा राजनीतिक प्रयास है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि, नॉन भाजपा शासित राज्यों को केंद्र सरकार के मंत्रियों द्वारा सबसे अधिक हमलों का सामना करना पड़ेगा. इसके अलावा कई राज्यों के पास मार्केट द्वारा निर्धारित कीमत पर वैक्सीन की खुराक खरीदने की क्षमता नहीं है.

दूसरे शब्दों में कहें तो, हम आने वाले राजनीतिक ब्लेम–गेम का एक तांडव देख रहे हैं – जहां केंद्र, राज्यों को टीकाकरण के लिए दोषी ठहरा रहा है , वही दूसरी ओर सभी राज्य, जिम्मेदारी को अच्छे से न निभाने के लिए केंद्र को दोषी ठहरा रहें हैं. इतना ही नहीं सभी राज्य आपस में एक दूसरे को आउट बिडिंग टीके की आपूर्ति के लिए दोषी ठहरा रहे हैं.
राजनीतिक तकरार में, यह भारतीय नागरिक है जो कोविड से पीड़ित है,और हर रोज अपनी जान गंवा रहे हैं.

दोष किसका

लेकिन यह शायद ही आश्चर्य की बात है, इस महामारी की दूसरी लहर को देश भर में तबाही मचाने में सरकार का भी बहुत अधिक दोष है. फरवरी 2021 के अंत तक, यह स्पष्ट था की कोविड 19 मामले एक बार फिर बढ़ रहे है. यह तक ही पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव बाकी थे जो होने वाले थे ऐसे में वोट मांगने के प्रचार को सख्त कोविड प्रोटोकॉल के अधीन किया जाना चाहिए था.

अनोखी बीजेपी का कहना

दोषों के लिए अपने राजनीतिक अपोनेंट को दोष दें ’. लेकिन इस बार महामारी को रोकने के लिए केंद्र ने चूक की है. केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण कोविड 19 मामलों में वृद्धि हुई है.

जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने महागठबंधन को एक गरिमापूर्ण और पूरी तरह से राजनीति से उदासीन एक पत्र लिखा जिसमे महामारी से निपटने के लिए सुझाव पेश किए गए थे, तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इसका जवाब तिरस्कार, मजाक उड़ते हुए और कांग्रेस के बारे में तीखी टिप्पणी के साथ दिया.

गंदा खेल

जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र को लिखा कि, कोविड –19 मामलों की तेजी से बढ़ती बाढ़ को मद्देनजर रखते हुए अस्पतालों में मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति को बढ़ाने का अनुरोध किया तो, कॉमर्स मंत्री पियूष गोयल ने कहा था कि: “ राज्य सरकारों को मांग करनी चाहिए ” नियंत्रण में =डिमांड – साइड मैनेजमेंट, सप्लाई – साइड मैनेजमेंट जितना ही महत्वपूर्ण है.
WHO ने पहले ऑक्सीजन स्टॉक करने के निर्देश दिए थे,तो केंद्र सरकार ने ऐसा क्यों नहीं किया ?
जब देश भर के अस्पताल कोविड –19 रोगियों के साथ तेजी से बढ़ रहे हैं, जिन्हे ऑक्सीजन सपोर्ट की आवश्यकता है, तो राज्य सरकारें ऑक्सीजन की डिमांड साइड को ‘ मैनेज ’ कैसे करें ?

कॉमर्स मिनिस्टर की टिप्पणी से यह तो साबित होती है कि यह भाजपा की यह हमेशा की भाषा है – मुद्दा चाहे कोई भी हो, लगभग किसी भी राजनीतिक विरोधी को किसी भी तरह से दोषी ठहराना ही बीजेपी की सबसे पहली कोशिश रहती है. यह हमेशा राजनीति का पहला भाव है, और संवेदनशीलता अंतिम है.

नहीं भूलेगा इतिहास कभी

इतिहास कभी नहीं भूलेगा की सरकार की सत्ता में रहने की भूख के लालच की वजह से, जनता को इस खतरनाक महामारी की आपदा के कारण स्वास्थ्य पर भारी संकट का सामना करना पड़ा है. न जाने कितने लोगों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. न जाने कितने लोग ऑक्सीजन की कमी से तड़प कर अपनी जान गवाई हैं.

वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में, बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस और प्रवीण दरेकर कथित तौर पर रेमेड्सविर की खरीद में शामिल है, जिसमें यह भी आरोप लगे है कि वे भी कालाबाजारी में शामिल हो सकते हैं.

यह सब जानते है कि राजनीति में राजनीतिक पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती है. राजनीति में पूर्ण उद्देश्य ही राजनीति करना होता है. लेकिन यह हमेशा ही राजनीति करना जरूरी नहीं. जब तो बिलकुल नहीं जब देश स्वास्थ्य आपातकाल से उबर रहा हो.

इतिहास इस सरकार को इसकी सत्ता की भूख के लिए कभी माफ नहीं करेगा. पावर के जुनून में चूर यह सरकार, अपनी राजनीति के खेल में डूबी हुई है और यही दूसरी ओर असहाय महसूस जनता अपनी जान गंवा रही है .

कंगना: एक्ट्रेस या भगवा खिलाड़ी 

कभीकभी अतिमहत्त्वाकांक्षा, बेबाकी और बड़बोलापन खुद पर ही भारी पड़ जाता है. बौलीवुड क्वीन कंगना रनौत के साथ यही हो रहा है. ऐक्टर सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध परिस्थितयों में हुई मौत की जांच के मामले में महाराष्ट्र सरकार से बैर मौल ले कर कंगना ने अपने लिए कई मुसीबतें खड़ी कर ली हैं. एक ओर जहां उन का फिल्म कैरियर दांव पर लगा है, इंडस्ट्री के ज्यादातर लोग उन से अलग हो चुके हैं, वहीं बौंबे म्यूनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) उन के बांद्रा स्थित ‘मणिकर्णिका फिल्म’ के औफिस पर चढ़ बैठा है. बीएमसी ने कंगना के दफ्तर को अवैध निर्माण बता कर ढहा दिया है और मुंबई पुलिस ड्रग्स लेने के आरोप में उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर के जांच शुरू कर चुकी है.

9 सितंबर को मुंबई पहुंचने पर एयरपोर्ट पर कंगना को शिवसैनिकों ने काले झंडे दिखाए. उन के समर्थकों और विरोधियों के बीच एयरपोर्ट पर भारी हंगामा हुआ और नौबत मारपीट तक पहुंच गई. कंगना को वीआईपी गेट के बजाय दूसरे गेट से बाहर निकालना पड़ा. वे एयरपोर्ट से सीधे खार स्थित अपने घर पहुंचीं, जहां 50 से ज्यादा पुलिसकर्मी उन के घर के बाहर तैनात किए गए थे.

सोशल मीडिया का सहारा

गौरतलब है कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत की तह तक पहुंचने में जहां देश की 3 बड़ी जांच एजेंसियां लगी हैं और 3 माह बीतने के बाद भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंची हैं, वहीं कंगना ने शुरू से ही सुशांत की मौत को हत्या करार दे कर सोशल मीडिया पर इस मामले में अपनी राय जाहिर करनी शुरू कर दी थी.

उन्होंने पहले बौलीवुड में फैले नैपोटिज्म यानी भाईभतीजावाद को उन की मौत का जिम्मेदार ठहराया और मुंबई पुलिस की जांच को भटकाने की कोशिश की, फिर जब इस मामले से ड्रग ऐंगल जुड़ा तो कंगना फिल्म इंडस्ट्री में कैंसर की तरह फैले ड्रग कारोबार का खुलासा करने लगीं और इस बड़बोलेपन में यह भी कबूल कर गईं कि उन्हें भी उन का मैंटर ड्रग्स लेने के लिए मजबूर करता था. हालांकि उन्होंने उस का नाम नहीं लिया. फिर वे अपने ट््वीट्स में इंडस्ट्री के लोगों को निशाना बनाने लगीं और अंत में जा भिड़ीं

शिवसेना के नेता और प्रवक्ता संजय राउत से. कंगना और संजय राउत के बीच ट्वीट पर भयानक जंग चली और यह कहना गलत न होगा कि दोनों के बीच जबानी जंग शब्दों की तमाम मर्यादाएं लांघ गई.

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अभिनय पर हावी राजनीति

एक तरफ जहां शिवसेना कंगना पर लगातार हमले बोल रही है और उन्हें बेईमान, देशद्रोही और हरामखोर तक कह चुकी है, वहीं अब अभिनेत्री के बचाव में भारतीय जनता पार्टी खुल कर सामने आ गई है. वरिष्ठ भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कंगना का हौसला बढ़ाया है. उन्होंने ट्वीट कर के कंगना से भरोसा रखने को कहा है. उन्होंने अपने ट्वीटर हैंडल से ट्वीट कर के कहा कि कगना से कहें कि वे भरोसा रखें. हम सभी इस संघर्ष में उन के साथ हैं.

इस से पहले सुब्रह्मण्यम स्वामी के वकील ईशकरण ने सोशल मीडिया पर जानकारी दी थी कि कंगना को डा. स्वामी कानूनी रूप से मदद करने को तैयार हैं. उन्होंने ट्वीट कर कहा था कि अगर कंगना या उन की टीम को पुलिस में स्टेटमैंट देने के दौरान किसी प्रकार की कोई कानूनी मदद चाहिए तो सुब्रह्मण्यम स्वामी कंगना की पूरी मदद करेंगे.

खुद स्वामी ने ट्वीट किया कि कंगना रनौत के औफिस ने ईशकरण से संपर्क किया. ईशकरण और मैं जल्द ही मिल कर चर्चा करेंगे कि कैसे कंगना की उन के कानूनी अधिकारों में मदद करें और मुंबई पुलिस के साथ कब मीटिंग की जाए. मुझे बताया गया है कि वे हिंदी सिनेमा की टौप 3 स्टार्स में से एक हैं लेकिन हिम्मत के मामले में वे सब से अव्वल हैं.

अब केंद्रीय गृहमंत्रालय द्वारा कंगना रनौत को वाई श्रेणी की सुरक्षा मुहैया कराने से साफ हो जाता है कि कंगना किस के दम पर इतना जोश दिखा रही हैं.

कंगना को सुरक्षा क्यों?

उल्लेखनीय है कि कंगना रनौत को अब चौबीस घंटे सीआरपीएफ के कमांडो कवर देंगे. बौलीवुड के अन्य सितारों को अधिकतर महाराष्ट्र पुलिस या निजी सुरक्षा ऐजैंसियों द्वारा सुरक्षा दी जाती है, लेकिन कंगना पहली बौलीवुड स्टार हैं, जिन की सुरक्षा सीआरपीएफ करेगी.

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी सहित लगभग 60 हाई प्रोफाइल व्यक्तियों को सीआरपीएफ सुरक्षा देती है.

वाई प्लस की सुरक्षा के तहत कंगना रनौत को 10-11 सशस्त्र कमांडो द्वारा 24 घंटे सुरक्षा दी जाएगी. कंगना की सुरक्षा में 2-3 सशस्त्र पीएसओ भी शामिल होंगे, जो उन के साथ रहेंगे, जबकि अन्य सुरक्षाकर्मी उन के आवास पर तैनात रहेंगे. कंगना के घर से बाहर आने और जाने वाले सभी लोगों का कंट्रोल सुरक्षाकर्मियों के पास होगा. कंगना को अपनी सुरक्षा टीम ले जाने के लिए एस्कौर्ट वाहन भी मिलने की उम्मीद है. हालांकि एस्कौर्ट वाहन जैड कैटेगरी की सुरक्षाकर्मियों को मिलता है और जैड प्लस कैटेगरी को एस्कौर्ट वाहन के साथ पायलट भी मिलता है.

धमकी और गालीगलौच का दौर

कंगना का गृह राज्य हिमाचल प्रदेश है. कोरोना काल के दौरान कंगना मुंबई से दूर हिमाचल में अपने परिवार के साथ रह रही थीं. लेकिन सुशांत मामले पर वे पूरी नजर बनाए हुए थीं और लगातार ट्वीट्स के जरीए टिप्पणियां कर रही थीं. वे लगातार मुंबई पुलिस और इंडस्ट्री के लोगों पर आरोप लगा रही थीं. उन के वाक्बाणों ने कइयों को छलनी किया और बढ़तेबढ़ते महाराष्ट्र सरकार तक पहुंच गईं.

कंगना ने जब मुंबई की तुलना ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ से कर दी तो संजय राउत भड़क उठे और फिर धमकी और गालीगलौच का जो दौर शुरू हुआ तो कंगना को कहना पड़ा कि उन्हें मुंबई से डर लगता है, उन की जान को वहां खतरा है. उन का यह कहना था कि देश के गृहमंत्री अमित शाह ने उन के लिए वाई श्रेणी की सुरक्षा मुहैया करवा दी.

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर कंगना रनौत को केंद्रीय सुरक्षा देने से काफी खुश हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे जानकारी मिली है कि सीआरपीएफ का 11 सदस्यीय कमांडो की टीम को कंगना की सुरक्षा के लिए गृह मंत्रालय द्वारा लगाया गया है. मैं इस फैसले का स्वागत करता हूं और केंद्रीय गृहमंत्री का आभार व्यक्त करता हूं. कंगना की सुरक्षा हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है.’’

खुद कंगना ने इस सुरक्षा को ले कर खुशी जताते हुए गृहमंत्री अमित शाह को टैग करते हुए लिखा, ‘‘ये प्रमाण है कि जब किसी देशभक्त आवाज को कोई फासीवादी नहीं कुचल सकेगा. मैं अमित शाहजी की आभारी हूं. वे चाहते तो हालातो के चलते मुझे कुछ दिन बाद मुंबई जाने की सलाह देते, मगर उन्होंने भारत की एक बेटी के वचनों का मान रखा, हमारे स्वाभिमान और आत्मसम्मान की लाज रखी, जय हिंद.’’

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अब इस में काई शक नहीं रह गया है कि कंगना के पीछे भाजपा की ताकत काम कर रही है. अब यह ताकत कंगना का राजनीतिक भविष्य तय कर रही है या उन के जरीए सिर्फ महाराष्ट्र सरकार को घेरना चाहती है यानी इस खेल में कंगना रनौत खिलाड़ी हैं या मुहरा, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा, लेकिन अफसोस इस बात का है कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत इस राजनीतिक बिसात पर एक खेल बन कर रह गई है.

शिवसेना के धोखे से बिलबिलाती भाजपा

सुशांत सिंह राजपूत की मौत के इर्दगिर्द खेला जा रहा सियासत का गंदा खेल मुंबई पर कब्जे को ले कर है. मुंबई में ड्रग माफिया, बौलीवुड और आईपीएल के अरबों रुपयों पर अब महाराष्ट्र की उद्धव सरकार का कब्जा है. इस कब्जे को उस से कैसे हथियाया जाए या ऐसा कुछ कर दिया जाए कि यह पैसा महाराष्ट्र सरकार की तिजोरी में न जा पाए, सारी साजिश इसी सोच के इर्दगिर्द है.

भाजपा शिवसेना से बेवफाई का बदला भी लेना चाहती है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने मिल कर विधानसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन सीएम पद के लिए शिवसेना अड़ गई थी. बाद में शिवसेना ने पाला बदल कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिल कर सरकार बना ली और उद्धव ठाकरे सीएम बन गए. शिवसेना के इस ‘धोखे’ को भाजपा अब तक पचा नहीं पाई है. ऐसे में सुशांत की मौत ने भाजपा को शिवसेना से बदला लेने का अच्छा अवसर दे दिया है और उस पर कंगना के बयानों ने आग में घी डालने का काम किया है.

सुशांत की मौत को हत्या कह कर कंगना ने जैसे ही मुंबई पुलिस की जांच पर सवाल खड़े किए तो उन के बयानों से भाजपा सियासी लाभ लेने की जुगत में लग गई. भाजपा एक तीर से दो निशाने साध रही है.

चंद माह बाद ही बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. वहां एनसीपी और कांग्रेस पार्टी आरजेडी के साथ मिल कर चुनाव लड़ने की तैयारी में है. बिहार से तअल्लुक रखने वाले सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत को ले कर बिहार मानस व्यथित है. सशांत को न्याय दिलाने के लिए वहां काफी प्रदर्शन भी हुए हैं. उन्हें न्याय दिलाने की मुहिम भी चल रही है. बिहार सरकार के मंत्रियों तक ने मुंबई पुलिस पर आरोप लगाया कि वह ठीक से जांच नहीं  कर रही है.

इसी बीच कंगना ने भी महाराष्ट्र सरकार पर आक्रमण शुरू कर दिया. अब कंगना के माध्यम से एक ओर भाजपा चुनाव के दौरान बिहारी संवेदना अपने हक में भुनाने की कवायद में जुटी है तो वहां दूसरी ओर वह महाराष्ट्र सरकार को घेरने में लगी है. कंगना का हौसला बढ़ाए रखने के लिए उन्हें वाई श्रेणी की कमांडो सुरक्षा मुहैया कराने के पीछे भाजपा की यही रणनीति काम कर रही है, साथ ही बांद्रा का उन का औफिस तोड़ने वाले बीएमसी अधिकारियों को महाराष्ट्र के गवर्नर और भाजपा नेता भगत सिंह कोश्यारी ने अपने दफ्तर तलब किया है.

उकसाने का भरपूर प्रयास

कंगना को उकसाने और उन की पीठ थपथपाने में भाजपा पीछे नहीं है. दिल्ली से ले कर महाराष्ट्र तक के नेतामंत्री महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ कंगना को सपोर्ट कर रहे हैं. महाराष्ट्र में भाजपा नेता राम कदम ने शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत पर कंगना को धमकी देने का आरोप लगाया है. कदम ने कहा कि राज्य सरकार सुशांत मामले को आत्महत्या करार देने के लिए मुंबई पुलिस पर दबाव बना रही है. उन्होंने उद्धव सरकार पर बौलीवुड ड्रग माफिया को बचाने का भी आरोप मढ़ा.

भाजपा नेता ने कहा कि महाराष्ट्र विकास अघाड़ी मुंबई पुलिस पर अपने फायदे के लिए दबाव बना रही है ताकि सुशांत सिंह राजपूत को न्याय न मिले और बौलीवुड ड्रग माफिया और नेताओं को बचाया जा सके. राम कदम यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा कि कंगना रनौत, झांसी की रानी हैं, जो धमकियों से नहीं डरती हैं.

राम कदम के बयानों से कंगना को खूब हौसला मिला और सोशल मीडिया पर संजय राउत के साथ उन की खुली जंग शुरू हो गई. नतीजा यह हुआ कि कंगना की 15 साल की मेहनत पर बीएमसी का बुलडोजर चल गया और ‘मणिकर्णिंका फिल्म’ का दफ्तर पलक झपकते धूल में मिल गया.

महाराष्ट्र सरकार के इस हमले से कंगना काफी आहत हैं. उन के दुख का अंदाजा सोशल मीडिया पर आए उन के बयान से लगता है. कंगना ने अपने औफिस का वीडियो शेयर कर के कहा, ‘‘ये मुंबई में मणिकर्णिका फिल्म का औफिस है, जिसे मैं ने 15 साल मेहनत कर के कमाया, मेरा जिंदगी में एक ही सपना था कि मैं जब भी फिल्म निर्माता बनूं मेरा अपना खुद का औफिस हो, मगर लगता है यह सपना टूटने का वक्त आ गया है. आज वहां अचानक बीएमसी के लोग आए.’’

अभी तक संजय राउत से जबानी जंग लड़ने वाली कंगना अपना 48 करोड़ रुपए मूल्य का दफ्तर टूटता देख घायल शेरनी की तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर टूट पड़ीं. उद्धव के लिए उन के शब्द पहले से ज्यादा कर्कश थे. कंगना दहाड़ी, ‘‘उद्धव ठाकरे तुझे क्या लगता है कि तूने फिल्म माफिया के साथ मिल कर मेरा घर तोड़ कर मुझ से बहुत बड़ा बदला लिया है? आज मेरा घर टूटा है, कल तेरा घमंड टूटेगा. यह वक्त का पहिया है, याद रखना, हमेशा एकजैसा नहीं रहता.’’

कंगना की इस आक्रामकता का आने वाले समय में महाराष्ट्र सरकार की तरफ से क्या नया जवाब मिलेगा यह देखना दिलचस्प होगा. इतना तो साफ है कि सत्ता की बिसात पर कंगना अपना काफी व्यक्तिगत नुकसान कर बैठी हैं. नुकसान अभी और होगा. सुशांत सिंह राजपूत की मौत की वजह हत्या है या आत्महत्या, इसे जानने में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही है.

क्या कंगना को मुंबई पुलिस ड्रग केस में पलटेगी? क्या बौलीवुड कंगना के समर्थन में आगे आएगा? उन के ऐक्टिंग कैरियर की दिशा और दशा अब क्या होगी? क्या कंगना का फिल्म कैरियर अब खत्म हो जाएगा? क्या भाजपा कंगना के लिए राजनीति की राह साफ करेगी या अपना काम निकाल कर उन्हें उन के हाल पर छोड़ देगी? क्या अपनी ‘जान से प्यारी मुंबई’ में कंगना सुरक्षित रहेगी? सवाल बहुतेरे हैं.

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17 साल की उम्र में ‘गैंगस्टर’ जैसी फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली कंगना रनौत ने ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्मों में बौलीवुड में अपनी एक खास जगह बनाई. 3 नैशनल अवार्ड्स समेत कमर्शियल फिल्मों में धमाकेदार कमाई के बावजूद कंगना के खाते में फिल्में आनी धीरेधीरे कम होती चली गईं. वजह है कंगना का बड़बोलापन और इंडस्ट्री के लोगों से उन के झगड़े.

कंगना खुद मानती हैं कि इंडस्ट्री में जगह बनाने के लिए उन्होंने कई लोगों का साथ पकड़ा, मगर बाद में रिश्ते खराब होने पर कंगना उन्हें सरेआम नंगा करने से भी नहीं चूकीं. फिर चाहे वे आदित्य पंचोली हों, अध्ययन सुमन हों या ऋतिक रोशन. सोशल मीडिया पर उन्होंने कई बड़े ऐक्टर्स को बदनाम किया.

उन पर प्रताड़ना और ब्लैकमेल करने के आरोप लगाए. मगर ये सब सिर्फ सोशल मीडिया पर ही चलता रहा, कभी पुलिस के रजिस्टर में एफआईआर के तौर पर दर्ज नहीं हुआ. सुशांत मामले में तो कंगना रनौत नैपोटिज्म से ले कर बौलीवुड माफिया, ड्रग्स कौकस तक पर बोलीं.

उल्लेखनीय है कि बौलीवुड में अपने शुरुआती दिनों के दौरान कंगना अभिनेता आदित्य पंचोली के साथ एक रिश्ते में थीं. आदित्य उन से करीब 20 वर्ष बड़े हैं और वे विवाहित भी थे. कंगना से उन का रिश्ता तब टूटा जब कंगना ने आदित्य पर उन के साथ हिंसा करने का आरोप लगाया. उन के बीच तलखी अभी भी बनी हुई है और समयसमय पर कंगना के ट्वीट्स में दिखती भी है.

अभिनेता शेखर सुमन के बेटे अध्ययन सुमन के साथ कंगना का रिश्ता रहा और जब यह टूटा तो अध्ययन ने कहा, ‘‘मेरे रिश्ते की वजह से मुझे भावनात्मक रूप से बदनाम किया जा रहा है. कंगना ने मेरा इस्तेमाल किया है और वह मेरा दुरुपयोग करती थी. वह मुझे अपमानजनक कौल करती थी और उस ने अपनी सीमाएं पार कर दीं. चूंकि वह मेरी मां को फोन कर के परेशान करने लग गई थी.’’

ऋतिक रोशन और कंगना रनौत के बीच की लड़ाई भी खूब सुर्खियों में रही. दोनों की लड़ाई इस कदर चर्चा में रही कि ऋतिक और उन की पत्नी सुजैन के अलग होने में भी कंगना का नाम अफवाहों में आया. लेकिन ऋतिक और कंगना के बीच तलखी चरम पर तब पहुंची जब कंगना ने एक इंटरव्यू के दौरान ऋतिक को अपना ऐक्स बताया और कहा कि ऋतिक उन की अटेंशन पाने के लिए उन के आगेपीछे घूमते हैं.

इस पर ऋतिक ने पलटवार करते हुए कंगना को कहा कि वे दिमागी तौर से बीमार हैं और वह उन की इमेज खराब कर रही हैं.

निशाने पर महाराष्ट्र सरकार क्यों

कंगना हमेशा से अपने बेबाक बोलों के लिए जानी जाती हैं और इस के चलते ही अब फिल्म इंडस्ट्री में लोग उन से कटने लगे हैं. कोई उन के साथ काम नहीं करना चाहता कि पता नहीं कब, किस पर, वे क्या इलजाम थोप दें. इंडस्ट्री में अपने खत्म होते कैरियर को देख कर भी कंगना के उग्र व्यवहार में रत्तीभर फर्क नहीं आया, बल्कि अब तो वे और ज्यादा मुखर हो गई हैं. अब तक कंगना के विवाद बौलीवुड ऐक्टर्स के साथ थे, लेकिन यह पहला मौका है जब कंगना एक ऐसे मुद्दे के केंद्र में आ गई हैं, जिस में उन के निशाने पर मुंबई पुलिस, बीएमसी और महाराष्ट्र सरकार है.

कंगना ने बीते दिनों बौलीवुड में ड्रग्स के इस्तेमाल को ले कर बड़े दावे किए हैं. बकौल कंगना फिल्म इंडस्ट्री ड्रग माफिया के चंगुल में है. उन्होंने यह भी कहा कि वह नारकोटिक्स ब्यूरो की मदद करने को तैयार हैं, क्योंकि उन्हें बौलीवुड पार्टीज में ड्रग्स के इस्तेमाल को ले कर काफी जानकारी है. उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘मैं नारकोटिक्स ब्यूरो की मदद करने के लिए पूरी तरह तैयार हूं, लेकिन मुझे केंद्र सरकार से सुरक्षा चाहिए. मैं ने सिर्फ अपने कैरियर को जोखिम में नहीं डाला है, बल्कि मैं ने अपनी जिंदगी को भी जोखिम में डाला है. यह काफी स्पष्ट है कि सुशांत को कुछ बुरे राज पता थे, इसलिए उसे मार दिया गया.’’

सुशांत सिंह मामले में जब ड्रग ऐंगल सामने आया तो उन्होंने ट्वीट कर के कहा कि उन का मैंटर भी उन्हें पार्टीज में ड्रग्स लेने के लिए मजबूर करता था यानी कंगना ने खुद ड्रग्स लेने की बात स्वीकार की है, जिस का नतीजा यह हुआ कि मुंबई पुलिस ने उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर जांच शुरू कर दी है.

महाराष्ट्र सरकार के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने कहा है कि महाराष्ट्र सरकार कंगना रनौत के ड्रग्स लेने के मामले की जांच करेगी. इस पर पलटवार करते हुए कंगना ने महाराष्ट्र सरकार को चुनौती देते हुए कहा है कि अगर जांच में उन के और ड्रग पैडलर्स के बीच किसी तरह का संबंध होने का सुबूत मिलता है तो वे हमेशा के लिए मुंबई छोड़ने के लिए तैयार हैं.

उधर सुशांत केस में न्याय के लिए आवाज उठाने वाले शेखर सुमन के बेटे अध्ययन सुमन का कहना है कि कंगना खुद ड्रग्स लेती थीं और उन्हें लेने के लिए भी मजबूर करती थीं. इस बात को आधार मान कर अनिल देशमुख ने जांच के आदेश दिए हैं. मुंबई पुलिस इस केस को देखेगी.

आखिर कंगना ऐसा क्यों कर रही हैं

19 साल की उम्र में घर से बगावत कर के फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के इरादे से आई कंगना रनौत अपनी हर अगली फिल्म के साथ बेहतर से बेहतर होती गईं, लेकिन जब बात उन के व्यवहार की होती है तो उन का बड़बोलापन, बिना सोचेसमझे बात कह देना, निजी संबंधों को बेदर्दी से उघाड़ देना, शब्दों की कटुता उन्हें इंडस्ट्री से दूर करती जा रही है.

उन्हें फिल्में मिलनी काफी समय से बहुत कम हो गई हैं और अब एक अभिनेत्री के रूप में कंगना रनौत को खुद इंडस्ट्री में अपना भविष्य कुछ खास नहीं दिख रहा है. इसीलिए उन्होंने फिल्म प्रोडक्शन की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया था और बांद्रा में ‘मणिकर्णिका फिल्म’ के नाम से करोड़ों की लगात लगा कर औफिस खोला था.

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2017-18 तक कंगना मुख्यधारा की अभिनेत्रियों में गिनी जाती थीं, जिन्होंने अपने अच्छे काम से अपनी जगह बनाई, लेकिन इस के बाद धीरेधीरे उन की टिप्पणियां इतनी अपमानजनक होती गईं कि अब लोगों के लिए उन के साथ काम करना मुश्किल हो गया है.

हाल ही में मुंबई के प्रतिष्ठित डाइरैक्टर औफ फोटोग्राफी पीसी श्रीराम ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से कंगना के साथ काम न करने का ऐलान किया है. इंडस्ट्री में ऐसे बहुत कम लोग बचे हैं, जो उन के साथ फिल्म करने की हिम्मत रखते हैं. सुशांत मामले के बाद तो यह संख्या और भी घट गई है. कंगना को भी इस बात का एहसास है और इसीलिए उन्होंने अपने ऐक्टिंग कैरियर को महत्त्व देना बंद कर दिया है और जिस तरह उन्हें भाजपा से शह मिल रही है, शायद वे राजनीति में जाने के संकेत दे रही हैं.

कंगनाशिवसेना विवाद के पीछे सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने से ज्यादा एक राजनीतिक अंडर करंट है, जिस की वजह से दोनों पक्षों के बीच आक्रामकता इतनी ज्यादा बढ़ गई है. भाजपा की मदद से कंगना अब अपनी राष्ट्रीय छवि गढ़ रही हैं. उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी हैं. हो सकता है आने वाले समय में वे राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा पहुंच जाएं.

शराफत की भाषा है कहां

हमारे घरों में जब भी सासबहू में झगड़ा या तूतू, मैंमैं हो तो तुरंत शादी के समय की बातें ही नहीं, बहू के मायके के किस्से भी सास की जबान से ऐसे फिसलते हैं मानो शब्दों के नीचे ग्रीस लगी हो.

‘‘मांजी, यह भगोना तो खराब हो गया है,’’ बहू के यह कहते ही सास अगर कह दे, ‘‘शादी के समय देखा था कैसे जगों में पानी पिलाया था… और अपने चाचा के घर में देखा है, एक भी बरतन ढंग का नहीं है और यहां नए भगोने की मांग कर रही है महारानीजी.’’

यह भाषा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की जवान पर चढ़ी रहती है और वे रोज सारी सासों को बताते हैं कि यही भाषा इस महान देश की संस्कृति का हिस्सा है. आप पूछें कि समाचारपत्रों की स्वतंत्रता का बुरा हाल है तो तुरंत कहा जाएगा याद है न आपातकाल, जब सारे अखबारों पर सैंसरशिप लगा रखी थी.

आप कहें कि पैट्रोलडीजल के दाम बढ़ गए तो उस पर कहेंगे 1973 को याद करो जब इंदिरा गांधी ने 4 गुना दाम बढ़ाए थे. आप कहेंगे कि श्रमिकों की ट्रेनों में पैसा वसूला गया तो तुरंत कहेंगे कि ये सब नेहरुइंदिरा की वजह से है कि ये श्रमिक अपने गांव छोड़ कर बाहर गए थे और कांग्रेस ने तो 70 साल देश को लूटा था और अब किस मुंह से श्रमिकों के हिमायती बन रही है?

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भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा बड़ी डींगें हांक रहे थे कि देश 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था बनेगी. कांग्रेसी नुमाइंदे ने भरी सभा में पूछ डाला कि संबितजी, बताइए कि ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं? पता है क्या जवाब मिला? ‘‘आप पहले राहुल गांधी से पूछें, फिर मैं बताऊंगा. मुझे मालूम है पर राहुल गांधी जवाब दें तो मैं बता सकूंगा.’’

वाह क्या कला है. भगोना खराब हुआ पति के घर पर आसमान पर उठा लिया गया पत्नी का मायका. यह संस्कृति हमारी मुंह बंद करने के लिए बड़ी कारगर है. आप कहें कि हिंदू औरतों को विधवा बना कर आज भी सामाजिक अलगाव सहना क्यों पड़ता है? तो जवाब मिलेगा कि लो मुसलमानों से पूछो न जहां जब चाहे मरजी तलाक दे दो. अब आप हिंदू रोना छोड़ कर मुसलिमों को भी गाली देना शुरू कर दें और असली मुद्दा भूल जाएं.

रेलमंत्री पीयूष गोयल अकेले नहीं हैं. संबित पात्रा अकेले नहीं हैं. अमित शाह, नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह वगैरह सब यही भाषा बोलते हैं. और भाषा उन्हें समझ ही नहीं आती. वे तर्क और तथ्य की भाषा नहीं समझते. यही गुण आम जनता में आ जाता है. वह भी तर्क और तथ्य की बातें नहीं समझती. हमारे बहुत से विवाद होते ही इसलिए हैं कि हम तर्कों को अधार्मिक मानते हैं.

यह दोष औरतों को ज्यादा परेशान करता है. उन की आधी जिंदगी अपने मायके वालों के पुराण सुन कर चली जाती है और बाकी आधी में वे अपने घर आई बेटे की पत्नी के मायके के गुणगान करती रहती हैं. सुख और शांति कहां है मालूम ही नहीं.

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सुप्रीम कोर्ट के भीतर कुछ हाईकोर्टों पर वार

सरकारी एजेंसियों को नियंत्रित व निर्देशित करतीं सरकारें देश की अदालतों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करती रही हैं, फिर चाहे वह सैशन कोर्ट हो, हाईकोर्ट हो और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ही क्यों न हो.

अनियोजित व अचानक लगाए गए राष्ट्रव्यापी लौकडाउन के कारण रोजीरोटी छिनने से सड़क पर गिरतेपड़ते, चलतेदौड़ते, बीमार होते, भूखप्यास से मरते माइग्रेंट लेबरों की दुखदाई हालत पर चौतरफा आलोचना और फिर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से हुई किरकिरी की वजह से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार तिलमिलाई हुई है. सरकार ने आलोचना करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश तो की ही है, न्यायपालिका से जुड़े लोगों को भी अपने निशाने पर लिया है और उन की बेहद तीखी आलोचना की है. इतना ही नहीं, उन पर निजी हमले तक किए हैं. साथ ही, कोर्टों पर भी आरोप मढ़ा है.

मालूम हो कि कि देश के 20 बहुत ही मशहूर और बड़े वकीलों ने चिट्टी लिख कर सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि माइग्रेंट लेबरों की मौजूदा अतिदयनीय स्थिति उन के मौलिक अधिकारों का हनन है. इस के साथ ही इन वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय को उस के उत्तरदायित्व का एहसास कराते हुए कहा था कि संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका को इन मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह उस का संवैधानिक कर्तव्य है.

मशहूर अधिवक्ताओं की चिट्ठी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासियों के मामले का स्वत: संज्ञान लिया. केंद्र व राज्य सरकारों को नोटिस दिए. 28 मई को सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का रवैया बहुत आक्रामक रहा.

तीखा अटैक

जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस के कौल और एम आर शाह की पीठ से मुखातिब सरकार की पैरवी कर रहे सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखने वाले वकीलों के नाम लिए बग़ैर कहा,
“जो लोग आप के पास आते हैं, उन से ख़ुद को साबित करने के लिए कहें. वे करोड़ों में कमाते हैं, पर उन्होंने कोरोना पीड़ितों के लिए क्या किया है, उन की क्या मदद की है या उन्हें क्या दिया है? क्या उन्होंने किसी को एक रुपया भी दिया है. लोग सड़कों पर हैं, क्या वे लोग अपने एयरकंडीशंड कमरों से निकले हैं?”

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उन्होंने न्यायिक हस्तक्षेप की माँग करने वालों को ‘आरामकुरसी पर बैठा हुआ बुद्धिजीवी’ क़रार दिया, और कहा कि उन की नज़र में जज निष्पक्ष तभी होते हैं जब वे कार्यपालिका (यानी सरकार) की आलोचना करते हैं. ये मुट्ठीभर लोग पूरी न्यायपालिका को नियंत्रित करना चाहते हैं.

गिद्ध से तुलना !

सौलिसिटर जनरल मेहता ने न्याय के पेशे से जुड़े उन महत्त्वपूर्ण लोगों पर इस से भी तीखा हमला किया और उन की तुलना सूडान भुखमरी के दौरान मरते हुए बच्चे और उस के पीछे चलने वाले गिद्ध की तसवीर खींचने वाले फ़ोटोग्राफ़र केविन कार्टर से कर दी. मेहता ने कहा कि हस्तक्षेप की मांग करने वाले सभी लोगों पर बच्चे और गिद्ध की कहानी लागू होती है.

सौलिसिटर जनरल ने कहा, “एक फ़ोटोग्राफर 1993 में सूडान गया था. वहां एक गिद्ध था और एक बीमार बच्चा था. गिद्ध उस बच्चे के मरने का इंतजार कर रहा था. फोटोग्राफर ने उस दृश्य को कैमरे में कैद किया, जिसे न्यूयौर्क टाइम्स ने छापा और उस फोटोग्राफर को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला. पुरस्कार मिलने के 4 महीने बाद उस फोटोग्राफर ने आत्महत्या कर ली. किसी पत्रकार ने उस फोटोग्राफर से पूछा था कि वहां कितने  गिद्ध थे तो उस ने कहा, ‘एक.’ इस पर उस पत्रकार ने तुरंत कहा था, ‘नहीं, वहां 2 गिद्ध थे, दूसरे के हाथ में कैमरा था.”

इस तर्क से यह साफ़ है कि जिन्होंने प्रवासी मज़दूरों की बुरी स्थिति पर चिंता जताई और उन के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप करने की अपील की, सौलिसिटर जनरल की नज़र में वे उस फोटोग्राफर की तरह हैं, जो गिद्ध की तरह था और जिस ने संकट का फ़ायदा उठा कर एक बड़ा पुरस्कार जीत लिया.

अदालत या राजनीतिक या निजी मंच?

बहस को आगे बढ़ाते हुए तुषार मेहता ने कहा, “विनाश की भविष्यवाणी करने वाले कुछ लोग हैं, जो ग़लत जानकारी फैलाते रहते हैं. उन के मन में राष्ट्र के लिए कोई सम्मान नहीं है.”

तुषार मेहता ने मशहूर वकील कपिल सिब्बल से तंज करते हुए पूछा, “आप ने कितने पैसे दिए?” इस पर सिब्बल ने कहा, “4 करोड़ रुपए.” बता दें कि चिट्ठी लिखने वालों में सिब्बल भी थे.

देश के जानेमाने वकील कपिल सिब्बल 2 संगठनों की तरफ से पैरवी कर रहे थे. उन्होंने कहा,”यह मानवीय त्रासदी है और इस का राजनीति से कोई लेनादेना नहीं है. इसे निजी मुद्दा भी मत बनाइए.”

ज्युडीशियरी पर सीधा वार

सौलिसिटर जनरल, जो सरकार का पक्ष रख रहे थे, ने न्यायपालिका पर सीधा वार भी किया. उन्होंने कहा, “कुछ हाईकोर्ट समानांतर सरकार चला रहे हैं.” गौरतलब है कि पिछले दिनों कोरोना संकट के मद्देनजर लौकडाउन लागू किए जाने के चलते प्रवासी मज़दूरों की हुई अतिदयनीय हालत पर सुप्रीम कोर्ट ने तो दख़ल नहीं दिया लेकिन ओडिशा, गुजरात, चेन्नई, कर्नाटक हाईकोर्टों ने राज्य सरकारों को जम कर फटकार लगाई और जवाबदेही तय करने को कहा. ख़ासतौर पर गुजरात हाईकोर्ट ने 2 बार राज्य सरकार की खिंचाई की.

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बहरहाल, प्रवासी मजदूरों (माइग्रेंट लेबरों) की हालत को ले कर सुप्रीम कोर्ट में 28 मई को हुई बहस से यह साफ़ हो जाता है कि मौजूदा केंद्र सरकार के मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान नहीं है, उस की निष्पक्षता पर उसे संदेह है और वह उन सब का मुंह बंद करना चाहती है, जो उस की आलोचना करते हैं, वह चाहे न्यायिक संस्था ही क्यों न हो.

दर्द जो नासूर बन जाता है

दिल्ली में हुए दंगे जिन्हें मुख्यतौर पर भारतीय जनता पार्टी के कपिल मिश्रा ने खुल्लमखुल्ला पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में उकसाया था, में ज्यादा नुकसान औरतों को हुआ जिन के बेटे, पति, पिता, घर, संपत्ति, वाहन नहीं रहे. आदमी आमतौर पर इस तरह के जोखिमों के लिए हर समय तैयार रहते हैं पर सभ्य समाज ने औरतों को अपनी सुरक्षा के मामले में ढीला कर दिया है.

जब दंगों में घर जलते हैं तो मां या पत्नी को ही अधिक चिंता होती है कि 4 घंटे बाद जब सब को भूख लगेगी, वह कहां से खाना लाएगी? जब रात होती है तो उसे चिंता होती है कि दूधमुंहे बच्चों से ले कर जवान लड़कियां कहां सोएंगी? औरतों को दंगों में मारे गए जने का दर्द देर तक भुगतना होता है- सालों तक, जीवन के अंत तक.

पैसा आताजाता रहता है, जानें भी बीमारी या दुर्घटनाओं में जाती हैं पर उस में बाकी दूसरे घर के सदस्य हाथ बंटा कर सांत्वना दे देते हैं. दंगे अचानक होते हैं, घर पर या सड़क पर अचानक बिना गुनाह के कोई मार डालता है, जला डालता है. जो यह कर रहा होता है वह जानवर से भी बदतर होता है, क्योंकि जानवर केवल अपनी सुरक्षा या खाने के लिए मारते हैं, दंगाई तो गिनते हैं कि उन्होंने 10 को मारा या 100 को, 10 गाडि़यां जलाईं या 100, 10 घरों को लूटा या 100 घरों को.

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दंगाई आमतौर पर जानते हैं कि वे भीड़ का हिस्सा होते हैं. अत: बच जाएंगे. दंगाइयों को सरकार पर भरोसा होता है कि वह उन्हें बचाएगी और शिकारों को ही दोषी करार देगी. यह तथ्य भी बहुत पीड़ा देता है.

औरतों की याद्दाश्त ज्यादा तेज होती है. यह प्राकृतिक गुण है, क्योंकि तभी वे छोटे बच्चों को जन्म दे सकती हैं, पाल सकती बाहरी खतरों का आदी होता है और दुश्मन से भी दोस्ती पालने की हिम्मत रखता है.

औरतें दंगों में बलात्कारों की शिकार भी होती हैं. सदियों से राजाओं ने यह छूट सैनिकों को दे रखी थी कि वे जीते गए इलाके में लूट भी मचाएं और औरतों का बलात्कार भी करें. दंगे लड़कियों को भगा ले जाने में सब से ज्यादा कारगर होते हैं.

अफसोस यह है कि यही औरतें दंगों के लिए मुख्यतया जिम्मेदार धर्म को पालपोस कर कंटीला पेड़ बनाए रखती हैं. वे अपने बच्चों को धर्म की अंधभक्त बनाती हैं. वे ही दूसरे धर्मों की आलोचना करती फिरती हैं. वे ही जाति, कुंडली, रीतिरिवाजों की बात करती हैं और वे ही अपने मर्दों को धर्मों के दुकानदारों तक ले जाती हैं.

दंगों के लिए जहां गुंडे जिम्मेदार हैं, उस से ज्यादा धर्म के साए में पलती गुंडों की मांएं भी जिम्मेदार हैं, जो दंगा कर के आने पर अपने बेटों, पति की आरती उतारती हैं.

इन दंगों के बाद कितनी हिंदू औरतों ने अपने दंगाई बेटों को घर में घुसने नहीं दिया? कितनों ने पतियों को छोड़ा? पति द्वारा एक थप्पड़ लगा देने पर तलाक मांगने वाली तापसी पन्नू की बहादुरी पर तालियां बजाने वाली औरतों की जमात कब कहां औरतों को लूटने, उन के घरों को जलाने पर उन को घर निकाला देती हैं?

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औरतें धर्म नहीं शिक्षा से आगे बढ़ेंगी

सरकार शिक्षा के साथ जो भी कर रही है वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इशारे पर कर रही है, यह कुछ समय पहले संघ संचालक सर मोहन भागवत के भाषण से स्पष्ट है. हमें जो शिक्षा ब्रिटिश युग में दी गई थी वही आजादी की लड़ाई में काम आई. उसी शिक्षा के बल पर न केवल हम ने ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, घरघर में क्रांति भी आई.

उस समय सैकड़ों स्कूल सरकार ने खोले तो भारतीय उद्योगपतियों व व्यापारियों ने भी. दोनों में शिक्षा वह दी गई, जो जरूरी थी. भूगोल, इतिहास, समाज की जानकारी के साथसाथ लेखन कला का भी विकास कराया गया पर आजादी आते ही तेवर बदल गए और शिक्षा में लगातार धर्म धकेला जाने लगा. धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा का हिस्सा कांग्रेस के जमाने में ही हो गई, क्योंकि कट्टरपंथियों ने शिक्षा पर कब्जा कर रखा था.

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मोहन भागवत कहते हैं कि शिक्षा की रचना भी भारतीय दृष्टि से करनी पड़ेगी. यह भारतीय दृष्टि क्या है? मुख्यतया यही कि औरतें शिक्षा न पाएं, वे संस्कारों में बंधी रहें, वे गुरुओं की सेवा करें, पति की सेवा करें, पूजापाठ करें. ‘स्वभाषा, स्वभूषा, स्वसंस्कृति का सम्यक परिचय तथा उस के बारे में गौरव प्रदान करने वाली शिक्षापद्धति हमें चाहिए,’ इन शब्दों का क्या अर्थ है? स्वभूषा यानी औरतें न जींस पहनें न टौप. वे घूंघट में रहें. उन्हें क्या पहनना है वह कोई शास्त्र पढ़ कर बताएगा- मोहन भागवत के अनुसार. स्वभाषा का क्या अर्थ है? आप सिर्फ हिंदी बोलें, पढ़ें भी नहीं. हमारी स्वभाषा तो संस्कृत ही है, जो लिखी जाती है. अन्य भाषाओं को तो लिखने की कला पश्चिम से आई. छपाई की तकनीक पश्चिम से आई. मोहन भागवत इस के विरोधी हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि औरतें, दलित, पिछड़े ही नहीं वैश्य और क्षत्रिय भी पढ़ें. स्वभाषा का सैद्धांतिक अधिकार तो केवल एक विशिष्ट जाति के लिए है न? इस का पाठ भी आज जम कर पढ़ाया जा रहा है स्वसंस्कृति के नाम पर.

स्वसंस्कृति का क्या अर्थ है? यही न कि औरतें घरों में रहें. विधवा होने पर सबकुछ त्याग दें. निपूति हों तो पति को हक हो कि दूसरा विवाह कर ले. यहां तो आज भी यह गाथा सुनाई जाती है कि कैसे एक पत्नी अपने कोढ़ी पति को वेश्या के पास खुशीखुशी ले जाती थी या दूसरी पति के शव को ढकने के लिए अपना अंतिम वस्त्र भी देती है, यह संस्कृति भी हम पर थोपी जाए.

हम किस मुंह से गौरव की बात करें? अगर 1956 में हिंदू विवाह व उत्तराधिकारी कानून नहीं बनते तोे गौरव का अर्थ होता औरतों को सौतनों को सहना और पति या पिता की संपत्ति में हिस्सा न मिलना.

संघ असल में हिंदूमुसलिम विवाद खड़ा कर के औरतों, शूद्रों, अछूतों को गुलाम बनाए रखना चाहता है. उस का कोई निर्णय या कार्यक्रम ऐसा नहीं है, जो हिंदू औरतों को निरंतर धार्मिक चक्रव्यूहों और सामाजिक बंधनों से मुक्ति दिलाए. तीन तलाक पर 3 करोड़ तालियां बजवाने में पीछे नहीं रहता पर हिंदू औरतों के उद्धार की सोचने की उस की इच्छा नहीं, क्योंकि मोहन भागवत के शब्दों में तो ‘परिवारों में संस्कारों का क्षरण हो चुका है’ और आज के परिवार ‘निष्ठा विरहित आचरण’ की समस्याओं से जू झ रहे हैं जबकि सच यह है कि आज की हिंदू औरतें सदियों पुरानी विरासत की गुलामी, दोयमदर्जे का व्यवहार सह रही हैं, क्योंकि वे हिंदू औरतें हैं, पश्चिमी देशों की औरतें नहीं हैं.

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शिक्षा के माध्यम से सरकार और कट्टरपंथी असल में औरतों को प्राचीन संस्कारिक ढांचे में ढालना चाहते हैं जब उन्हें मुंह खोलने की इजाजत न थी और उन की स्वर्ण मृग की इच्छा या मनचाहा पति चाहने पर महाकाव्य लिख डाले गए. उन्हें ही रामायण और महाभारत के युद्धों के लिए दोषी ठहराया गया.

आज ऐसी शिक्षा की जरूरत है कि वह जाति और जैंडर के भेदभाव को भुला कर बराबरी कैसे पाएं का रास्ता बताए. बराबरी होगी तो इज्जत होगी. बराबरी होगी तो जाति आड़े नहीं आएगी. बराबरी होगी तो छेड़खानी और बलात्कार नहीं होंगे, शिक्षा यह दे सकती है.

निजता के अधिकार पर हमला

भाजपा सरकार ने नैशनल इंटैलीजैंस ग्रिड तैयार किया है जिस में एक आम नागरिक की हर गतिविधि को एक साथ ला कर देखा जा सकता है. बिग ब्रदर इज वाचिंग वाली बात आज तकनीक के सहारे पूरी हो रही है. आज के कंप्यूटर इतने सक्षम हैं कि करोड़ों फाइलों और लेनदेनों में से एक नागरिक का पूरा ब्यौरा निकालने में कुछ घंटे ही लगेंगे, दिन महीने नहीं. अब एक नागरिक के घर के सामने गुप्तचर बैठाना जरूरी नहीं है. हर नागरिक हर समय फिर भी नजर में रहेगा.

इसे कपोलकल्पित न सम झें, एक व्यक्ति आज मोबाइल पर कितना निर्भर है, यह बताना जरूरी नहीं है. मोबाइलों का वार्तालाप हर समय रिकौर्ड करा जा सकता है क्योंकि जो भी बात हो रही है वह पहले डिजिटली कन्वर्ट हो रही है, फिर सैल टावर से सैटेलाइटों से होती दूसरे के मोबाइल पर पहुंच रही है. इसे प्राप्त करना कठिन नहीं है. सरकार इसलिए डेटा कंपनियों को कह रही है कि डेटा स्टोरेज सैंटर भारत में बनाए ताकि वह जब चाहे उस पर कब्जा कर सके.

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नागरिक की बागडोर बैंकों से भी बंधी है. हर बैंक एक मेन सर्वर से जुड़ा है, नागरिक ने जितना जिस से लियादिया वह गुप्त नहीं है. अगर सैलरी, इंट्रस्ट, डिविडैंड मिल रहा है तो वह भी एक जगह जमा हो रहा है. सरकार नागरिक के कई घरों का ब्यौरा भी जमा कर रही है ताकि कोई कहीं रहे वहां से जोड़ा जा सके.

सरकार डौक्यूमैंट्स पर नंबर डलवा रही है. हर तरह का कानूनी कागज एक तरह से जुड़ा होगा. बाजार में नागरिक ने नकद में कुछ खरीदा तो भी उसे लगभग हर दुकानदार को मोबाइल नंबर देना होता है, यानी वह भी दर्ज.

सर्विलैंस कैमरों की रिकौर्डिंग अब बरसों रखी जा सकती है. 7 जुलाई, 2005 में जब लंदन की ट्यूब में आतंकी आत्मघाती हमला हुआ था तो लावारिस लाशें किसमिस की थी, यह स्टेशन पर लगे सैकड़ों कैमरों की सहायता से पता चल गया था. आदमी को कद के अनुसार बांट कर ढूंढ़ना आसान हो सकता है. अगर कोई यह कह कर जाए कि वह मुंबई जा रहा है पर पहुंच जाए जम्मू तो ये कंप्यूटर ढूंढ़ निकालेगा कि वह कहां किस कैमरे की पकड़ में आया. सारे कैमरे धीरेधीरे एकदूसरे से जुड़ रहे हैं.

यह भयावह तसवीर निजता के अधिकार पर हो रहे हमले के लिए चेतावनी देने के लिए काफी है. देश की सुरक्षा के नाम पर अब शासक अपनी मनमानी कर सकते हैं, किसी के भी गुप्त संबंध को ट्रेस कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं. इन कंप्यूटरों को चलाने वालों के गैंग बन सकते हैं जो किसी तीसरे जने को डेटा दे कर पैसा वसूलने की धमकी दे सकते हैं. हैकर, निजी लोग, सरकारी कंप्यूटर में घुस कर नागरिक की जानकारी जमा कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं.

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शायद इन सब से बचने के लिए लोगों को काले चश्मे पहनने होंगे, सारा काम नकद करना होगा, चेहरे पर नकली दाढ़ीमूंछ लगा कर चलने की आदत डालनी होगी. सरकार के शिकंजे से बचना आसान न होगा. यह कहना गलत है कि केवल अपराधियों को डर होना चाहिए, एक नागरिक का हक है कि वह बहुत से काम कानून की परिधि में रह कर बिना बताए करें. यह मौलिक अधिकार है. यह लोकतंत्र का नहीं जीवन का आधार है. हम सब खुली जेल में नहीं रहना चाहते न.

यह तो होना ही था

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी जो राहुल गांधी जैसी हस्ती से टक्कर ले सकती हैं, अपनी खुद की बेटी को स्कूल में बुली करने वाले उस के सहपाठियों के आगे लाचार हैं.

स्मृति ईरानी ने बेटी के साथ एक फोटो इंस्टाग्राम पर डाली तो उस के साथी बेटी के लुक्स पर ट्रोल करने लगे और उस का मजाक उड़ाने लगे. भाजपा की पूरी मशीनरी और सरकार की फौज इन ट्रोल्स और मौक्स के खिलाफ कुछ नहीं कर पाई.

दुनियाभर में इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर पर कमैंटों में ट्रोल कर के परेशान करना एक रिवाज सा बन गया है. जो काम पहले रेस्तराओं, पबों, चौराहों और चाय की दुकानों, औफिसों में लंच पर, किट्टी पार्टी में होता था, अब बाकायदा लिखित में सोशल मीडिया की सुविधा के कारण घरघर पहुंचने लगा है. जो भी स्मृति ईरानी को फौलो कर रहा है वह उन कमैंटों को पढ़ सकता है चाहे उसे स्मृति ईरानी और उन की बेटी जानती हों या न जानती हों.

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पहले इस तरह की बातें 8-10 लोगों तक रहती थीं, अब सोशल मीडिया के कारण सैकड़ों तक पहुंचने लगी हैं. प्रिंट मीडिया इस तरह की घटनाओं पर केवल समीक्षात्मक रिपोर्टिंग करता है जबकि सोशल मीडिया पहले पैट्रोल सूंघता है और फिर उस पर आग लगाता है.

स्मृति ईरानी अब शिकायती लहजे में जवाब दे रही हैं पर भारत में बकबक करने की यह छूट उन की पार्टी ने ही अपने कार्यकर्ताओं को दे रखी है.

2014 से पहले कांग्रेस को बरगलाने के लिए सोशल मीडिया का हथियार अपनाया गया था, क्योंकि तब तक प्रिंट मीडिया दकियानूसी भारतीय जनता पार्टी का साथ देने को तैयार न था. सोशल मीडिया पर अति उत्साही, कट्टरपंथी, धर्मसमर्थकों ने धर्म की झूठी खूबियां प्रसारित करनी शुरू कर दी थीं और फिर देखतेदेखते यह प्लेटफौर्म कांग्रेस विरोधी बन गया. अब इस का साइड इफैक्ट उसी पार्टी के जुझारू नेताओं को ही सहना पड़ रहा है.

किसी भी नेता की बेटी या बेटे को अपना निजी जीवन अपने मन से जीने का हक है पर नेताओं के बेटेबेटियों पर यूरोप, अमेरिका में पेपराजी कहे जाने वाले टैबलौयड अखबारों की नजर रहती है. इन बच्चों के स्कूलों, रेस्तराओं, पिकनिक स्पौटों पर फोटो ले कर उन्हें मोटे पैसों में बेचा जाता है. सोशल मीडिया ने यह काम आसान कर दिया है. अब किसी की टांग खींचनी हो तो ट्विटर जैसे प्लेटफौर्म मौजूद हैं, जहां एक गंभीर विचार पर भी सस्ते, मांबहन की गालियों वाले कमैंट दे कर जवाब दिया जा सकता है.

प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने का यह दुष्परिणाम होना ही था. स्मृति ईरानी क्या इस से सबक लेंगी कि इंटरनैट आम व्यक्ति को ज्ञान का खजाना नहीं दे रहा, उसे कीचड़ में धकेल रहा है? फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम यों ही मुफ्त नहीं हैं. इन की महंगी तकनीक का कोई तो पैसा दे रहा है और यह यूजर्स ही दे रहे हैं, क्योंकि चाहे राजनीतिक उद्देश्य हो या व्यावसायिक, अब लोगों को बहकाना, गलत जानकारी देना, लूटना आसान होता जा रहा है.

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स्मृति ईरानी को अब पता चला है कि जो मशीनगनें उन्होंने राहुल गांधी के लिए बनवा कर बंटवाई थीं उन का मुंह उन की ओर भी मुड़ सकता है. सोशल मीडिया को बंद करना सरकारों का काम नहीं है. इस से बचना है तो लोगों को खुद फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर छोड़ना होगा. प्रिंट मीडिया आप को सही विचार देता भी है, आप के विचार लेता भी है. वहां जिम्मेदार संपादक होते हैं जो ऊंचनीच समझते हैं.

बकबक करने वालों को चायवालों की दुकानों पर ही रहने दें, उन्हें अपने ड्राइंगरूम या बैडरूम में सादर निमंत्रित न करें.

अब नहीं चलेगा कोई बहाना

इस बार के लोकसभा चुनावों में औरतों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया  और उन की वोटिंग आदमियों सी रही. स्वाभाविक है कि अगर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी इतने विशाल बहुमत से जीती है तो उस में आधा हाथ तो औरतों का रहा. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब तो औरतों के बारे में कुछ अलग से सोचने की कोशिश करेगी.

जो समस्याएं आदमियों की हैं वही औरतों की भी हैं पर औरतों की कुछ और समस्याएं भी हैं. इन में सब से बड़ी समस्या सुरक्षा की है. जैसे-जैसे औरतें घरों से बाहर निकल रही हैं अपराधियों की नजरों में आ रही हैं. घर से बाहर निकलने पर लड़कियों को डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें कोई छेड़ न दे, उठा न ले, बलात्कार न कर डाले, तेजाब न डाल दे.

घर में भी औरतें सुरक्षित नहीं है. घरों में कभी पति से पिटती हैं तो कभी बहुओं से. दहेज के मामले कम हो गए हैं पर खत्म नहीं हुए हैं. इतना फर्क और हुआ है कि अब अत्याचार छिपे तौर पर किया जाता है, मानसिक ज्यादा होता है, यदि शारीरिक नहीं तो.

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लड़कियां पढ़-लिख कर लड़कों से ज्यादा नंबर ले कर आ रही हैं पर उन्हें नौकरियां नहीं मिल रहीं. लड़कों को कोई कुछ नहीं कहता पर यदि लड़की को नौकरी

न मिले तो उसे जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है. यह बंधन चाहे कुछ दिन खुशी दे पर होता तो अंत में उस में बोझ ही बोझ है. सारा पढ़ालिखा समाप्त हो जाता है.

सरकार को बड़े पैमाने पर लड़कियों के लिए नौकरियों का प्रबंध करना चाहिए चाहे नौकरी सरकारी हो, प्राईवेट हो या इनफौर्मल सैक्टर की. अब भाजपा सरकार के पास बहाना नहीं है कि उस के हाथ बंधे हैं. जनता ने भरभर कर वोट दिए हैं. जनता को वैसी ही अपेक्षा भी है.

इस बार चूंकि कांग्रेस, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल आदि का सफाया हो गया है, सरकार यह नहीं कह सकती कि उसे काम नहीं करने दिया जा रहा. सरकार अब हर तरह के फैसले ले सकती है.

सुरक्षा के साथ-साथ सरकार को साफसफाई भी करनी होगी. देश के शहर 5 सालों में न के बराबर साफ हुए हैं. शहरों में बेतरतीब मकानों व गंदे माहौल में करोड़ों औरतों को बच्चे पालने पड़ रहे हैं. खेलने की जगह नहीं बची. औरतों को सांस लेने की जगह नहीं मिलती. शहर में बागबगीचे होते भी हैं तो बहुत दूर जहां तक जाना ही आसान नहीं होता.

यह डर भी लग रहा है कि सरकार कहीं टैक्स न बढ़ा दे. अगर ऐसा हुआ तो उस की मार औरतों पर ही पड़ेगी. औरतों ने नोटबंदी का जहर पी कर भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया है. अब महंगाई कर के उन का चैन न छिन जाए.

औरतों के लिए बने कानूनों में भी सरलता आनी चाहिए. तलाक लेना कोई अच्छी बात नहीं पर जब लेना ही पड़े तो औरतें सालों अदालतों के गलियारों में भटकती रहें, ऐसा न हो. कहने को औरतों के लिए कानून बराबर है पर आज भी रीतिरिवाजों, परंपराओं के नाम पर औरतों को न जाने क्याक्या सहना पड़ता है. इस सरकार से उम्मीद है कि वह औरतों को इस से निजात दिलाएगी.

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वैसे तो औरतों को धार्मिक क्रियाकलापों में ठेल कर उन की काफी शक्ति छीन ली जाती है पर इस बारे में यह सरकार शायद ही कुछ करे, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है जिस पर सरकार की नीति साफ है, जो 2000 साल पहले होता था वही अच्छा है. फिर भी जो इस बंधन को सहर्ष न अपनाना चाहे कम से कम वह तो अपनी आजादी न खोए.

सरकार को इस बार जो समर्थन मिला है उस में अब केवल वादों की जरूरत नहीं है. 350 से ज्यादा सीटें जीतने का अर्थ है कि देश 350 किलोमीटर की गति से बढ़े और औरतें सब से आगे हों.

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