मूवी रिव्यू: नाम की तरह ही फिल्म भी है ‘ब्लैंक’

निर्देशकः बेहजाद खम्बाटा

कलाकारः सनी देओल, करण कापड़िया,करणवीर शर्मा, इषिता

दत्ता और स्पेशल अपीयरेंस अक्षय कुमार

अवधिः एक घंटा, 51 मिनट

रेटिंगः दो स्टार

कहानीः

फिल्म ‘‘ब्लैंक’’ की कहानी के केंद्र में आत्मघाती हमलावर/आतंकवादी हनीफ (करण कापड़िया) है, जो कि फोन पर कुछ लोगों को निर्देश दे रहा है. फिर वह एक दुकान से सिगरेट खरीदता है, सिगरेट जलाने के चक्कर में एक कार से उसका एक्सीडेंट हो जाता हे. उसे अस्पताल पहुंचाया जाता है. डाक्टरों को उसके सीने पर उसके हृदय के साथ जोड़ा गया आत्मघाती बम नजर आता है. एटीएस चीफ सिद्धू दीवान (सनी देओल) को खबर दी जाती है. पूरा पुलिस महकमा हरकत में आ जाता है. डाक्टर का कहना है कि हनीफ के मौत के साथ ही बम फटेगा. उधर एटीएस चीफ दीवान, हनीफ से कुछ भी कबूल करवाने में सफल नहीं होते हैं.तब पुलिस कमिश्नर अरूणा गुप्ता, शहर से दूर वीराने में ले जाकर हनीफ का इनकाउंटर करने का आदेश देती हैं. दीवान खुद इनकाउंटर करने के लिए जाता है. इधर हनीफ की तस्वीर के आधार पर इंस्पेक्टर रोहित (करणवीर शर्मा) और महिला इंस्पेक्टर हुस्ना (इशिता दत्ता) जांच में लगे हुए हैं. रोहित एक अपराधी फारूक को गिरफ्तार करता है, जिसके बैग में बम होता है, जबकि हुस्ना, हनीफ के अड्डे पर पहुंचती है. इधर दीवान, हनीफ के इनकाउंटर के गोली चलाने का आदेश देते हैं, तभी हुस्ना का फोन आता है और वह रूक जाता है, इस बीच हनीफ गैंग के लोग आकर हनीफ को वहां से ले जाते हैं. उधर हनीफ का सरदार आतंकवादी मकसूद (जमील खान) पाकिस्तान में बैठकर आदेश दे रहा होता है. हनीफ के पकड़े जाने की खबर पाते ही वह मुंबई में बशीर से बात करता है और खुद वह भारत आने की तैयारी करता है. पता चलता है कि हनीफ के सीने पर लगे बम के साथ मकसूद के चार स्लीपर सेल के बम भी जुड़े हुए हैं.मकसूद ने छोटे छोटे बच्चों को जन्नत पाने के नाम पर जेहाद के लिए तैयार कर रखा है.उधर मकसूद का मकसद एक साथ 25 बम धमाकों के साथ भारत को दहलाने की है.

कहानी अतीत में जाती है, जब हनीफ दस साल का बच्चा था और उसकी एक बड़ी बहन थी. उन दिनों मकसूद एक गुंडा था, जिसने उसकी बस्ती के सारे घर जला दिए थे और सभी की हत्या कर दी थी. हनीफ के पिता ने पुलिस को फोन किया, पर पुलिस नहीं पहुंची, हनीफ के पिता को यकीन था कि एक पुलिस इंस्पेक्टर जरुर पहुंचेगा, पर उस पुलिस इंस्पेक्टर ने अपना मोबाइल फोन ही नहीं उठाया और हनीफ के पिता मारे गए. उसी दिन हनीफ ने बदला लेने की ठान ली थी. इसके बाद की कहानी जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

कमियां…

बेसिर पैर की कहानी और घटिया पटकथा के चलते यह फिल्म सिर्फ बोर करती है. इंटरवल से पहले अति धीमी गति के बावजूद हनीफ की असलियत जानने को लेकर दर्शकों में उत्सुकता बनी रहती है, जबकि पूरी कहानी बहुत ही कन्फ्यूजन पैदा करती है. इतना ही नहीं एक भी सीन तर्क की कसौटी पर सही नहीं ठहरता. जब डाक्टर कहता है कि हृदय की धड़कन के साथ हनीफ के सीने पर बंधे बम को जोड़ा गया है और यह बम हनीफ के दिन की धड़कन बंद होते ही फटेगा, तो दर्शक को हंसी आती है. मगर इंटरवल के बाद जिस तरह से उसका सच सामने आता है और जिस तरह कहानी बेतरतीब ढंग से चलती है, उसे देखकर कर दर्शक कह उठता है- ‘कहां फंसायो नाथ.’ फिल्म आतंकवाद पर है, मगर अंत में व्यक्तिगत बदले की कहानी के रूप में उभरती है.

निर्देशनः

बतौर निर्देशक बेहजाद खम्बाटा प्रभावित नहीं करते हैं. लेखक व निर्देशक के तौर पर उन्होने कहानी को फैला दिया, पर उसे किस दिशा में ले जाना है और किस तरह समेटना है, यह सब भूल गए हैं. दीवान के बेटे रौनक के ड्रग्स लेने की कहानी गढ़ी, मगर उसका क्या हुआ, दीवान की पत्नी ने क्या किया, सब गायब.

अभिनयः

यूं तो यह फिल्म करण कापड़िया को लांच करने के लिए बनी है, मगर वह बुरी तरह से हताश करते हैं. उनके चेहरे पर एक्सप्रेशन आते ही नहीं है. करण के किरदार के गढ़ने में भी बेहजाद खम्बाटा और प्रणव प्रियदर्षी मात खा गए हैं. पूरी फिल्म अकेले एटीएस चीफ दीवान के कंधो पर ही आ जाती है. इस किरदार में सनी देओल ने जानदार परफार्मेंस दी है. हुश्ना के किरदार में इशिता दत्ता के लिए कुछ जगह खूबसूरत लगने के अलावा करने को कुछ नहीं है. रोहित के किरदार में करणवीर शर्मा ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

फिल्म के अंत में अक्षय कुमार का डांस नंबर ‘अली अली’ मजाक बनकर रह जाता है, दर्शक इस गाने को सुनने व डांस देखने के लिए रूकता ही नहीं है.

Edited By- Nisha Rai

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