Father’s day 2023: पिता और पुत्र के रिश्तों में पनपती दोस्ती

‘‘हाय डैड, क्या हो रहा है? यू आर एंजौइंग लाइफ, गुड. एनीवे डैड, आज मैं फ्रैंड्स के साथ पार्टी कर रहा हूं. रात को देर हो जाएगी. आई होप आप मौम को कन्विंस कर लेंगे,’’ हाथ हिलाता सन्नी घर से निकल गया.

‘‘डौंट वरी सन, आई विल मैनेज ऐवरीथिंग, यू हैव फन,’’ पीछे से डैड ने बेटे से कहा. आज पितापुत्र के रिश्ते के बीच कुछ ऐसा ही खुलापन आ गया है. किसी जमाने में उन के बीच डर की जो अभेद दीवार होती थी वह समय के साथ गिर गई है और उस की जगह ले ली है एक सहजता ने, दोस्ताना व्यवहार ने. पहले मां अकसर पितापुत्र के बीच की कड़ी होती थीं और उन की बातें एकदूसरे तक पहुंचाती थीं, पर अब उन दोनों के बीच संवाद बहुत स्वाभाविक हो गया है. देखा जाए तो वे दोनों अब एक फ्रैंडली रिलेशनशिप मैंटेन करने लगे हैं. 3-4 दशकों पहले नजर डालें तो पता चलता है कि पिता की भूमिका किसी तानाशाह से कम नहीं होती थी. पीढि़यों से ऐसा ही होता चला आ रहा था. तब पिता का हर शब्द सर्वोपरि होता था और उस की बात टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी. वह अपने पुत्र की इच्छाअनिच्छा से बेखबर अपनी उम्मीदें और सपने उस को धरोहर की तरह सौंपता था. पिता का सामंतवादी एटीट्यूड कभी बेटे को उस के नजदीक आने ही नहीं देता था. एक डरासहमा सा बचपन जीने के बाद जब बेटा बड़ा होता था तो विद्रोही तेवर अपना लेता था और उस की बगावत मुखर हो जाती थी.

असल में पिता सदा एक हौवा बन बेटे के अधिकारों को छीनता रहा. प्रतिक्रिया करने का उफान मन में उबलने के बावजूद पुत्र अंदर ही अंदर घुटता रहा. जब समय ने करवट बदली और उस की प्रतिक्रिया विरोध के रूप में सामने आई तो पिता सजग हुआ कि कहीं बागडोर और सत्ता बनाए रखने का लालच उन के रिश्ते के बीच ऐसी खाई न बना दे जिसे पाटना ही मुश्किल हो जाए. लेकिन बदलते समय के साथ नींव पड़ी एक ऐसे नए रिश्ते की जिस में भय नहीं था, थी तो केवल स्वीकृति. इस तरह पितापुत्र के बीच दूरियों की दीवारें ढह गईं और अब आपसी संबंधों से एक सोंधी सी महक उठने लगी है, जिस ने उन के रिश्ते को दोस्ती में बदल दिया है.

पितापुत्र संबंधों में एक व्यापक परिवर्तन आया है और यह उचित व स्वस्थ है. पिता के व्यक्तित्व से सामंतवाद थोड़ा कम हुआ है. थोड़ा इसलिए क्योंकि अगर हम गांवों और कसबों में देखें तो वहां आज भी स्थितियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. बस, दमन उतना नहीं रहा है जितना पहले था. आज पिता की हिस्सेदारी है और दोतरफा बातचीत भी होती है जो उपयोगी है. मीडिया ने रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है. टैलीविजन पर प्रदर्शित विज्ञापनों ने पितापुत्री और पितापुत्र दोनों के बीच निकटता का इजाफा किया है. समाजशास्त्री श्यामा सिंह का कहना है कि आज अगर पितापुत्र में विचारों में भेद हैं तो वे सांस्कृतिक भेद हैं. अब मतभेद बहुत तीव्र गति से होते हैं. पहले पीढि़यों का परिवर्तन 20 साल का होता था पर अब वह परिवर्तन 5 साल में हो जाता है. आज के बच्चे समय से पहले मैच्योर हो जाते हैं और अपने निर्णय लेने लगते हैं. जहां पिता इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं वहां दिक्कतें आ रही हैं. पितापुत्र के रिश्ते में जो पारदर्शिता होनी चाहिए वह अब दिखने लगी है. नतीजतन बेटा अपने पिता के साथ अपनी बातें शेयर करने लगा है.

खत्म हो गई संवादहीनता

आज पितापुत्र संबंधों में जो खुलापन आया है उस से यह रिश्ता मजबूत हुआ है. मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा के अनुसार, अगर पिता अपने पुत्र के साथ एक निश्चित दूरी बना कर चलता है तो संवादहीनता उन के बीच सब से पहले कायम होती है. पहले जौइंट फैमिली होती थी और शर्म पिता से पुत्र को दूर रखती थी. बच्चे को जो भी कहना होता था, वह मां के माध्यम से पिता तक पहुंचाता था. लेकिन आज बातचीत का जो पुल उन के बीच बन गया है, उस ने इतना खुलापन भर दिया है कि पितापुत्र साथ बैठ कर डिं्रक्स भी लेने लगे हैं. आज बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के बारे में बात करते हुए सकुचाता नहीं है.

करने लगा सपने साकार

महान रूसी उपन्यासकार तुरगेनेव की बैस्ट सेलर किताब ‘फादर ऐंड सन’ पीढि़यों के संघर्ष की महागाथा है. वे लिखते हैं कि पिता हमेशा चाहता है कि पुत्र उस की परछाईं हो, उस के सपनों को पूरा करे. जाहिर है, इस उम्मीद की पूर्ति होने की चाह कभी पुत्र को आजादी नहीं देगी. पिता चाहता है कि उस के आदेशों का पालन हो और उस का पुत्र उस की छाया हो. टकराहट तभी होती है जब पिता अपने सपनों को पुत्र पर लादने की कोशिश करता है. पर आज पिता, पुत्र के सपनों को साकार करने में जुट गया है. प्रख्यात कुच्चिपुड़ी नर्तक जयराम राव कहते हैं कि जमाना बहुत बदल गया है. बच्चों की खुशी किस में है और वे क्या चाहते हैं, इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है. यही वजह है कि मैं अपने बेटे की हर बात मानता हूं. मैं अपने पिता से बहुत डरता था, पर आज समय बदल गया है. कोई बात पसंद न आने पर मेरे पिता मुझे मारते थे पर मैं अपने बेटे को मारने की बात सोच भी नहीं सकता. आज वह अपनी दिशा चुनने के लिए स्वतंत्र है. मैं उस के सपने साकार करने में उस का पूरा साथ दूंगा. बहरहाल, अब पितापुत्र के सपने, संघर्ष और सोच अलग नहीं रही है. यह मात्र भ्रम है कि आजादी पुत्र को बिगाड़ देती है. सच तो ?यह है कि यह आजादी उसे संबंधों से और मजबूती से जुड़ने और मजबूती से पिता के विश्वास को थामे रहने के काबिल बनाती है.

Father’s day Special: बेटे को जिंदगी का लक्ष्य मानते हैं तुषार कपूर

फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ से फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश करने वाले अभिनेता तुषार कपूर की पहली फिल्म कामयाब रही, लेकिन इसके बाद उनकी कई फिल्में असफल साबित हुई. करीब दो वर्षों तक उन्होंने इस असफलता का सामना करने के बाद फिल्म ‘खाकी’ से उनका कैरियर ग्राफ चढ़ा और कई सफल फिमें की. इस उतार-चढ़ाव को उन्होंने हमेशा साधारण तरीके से लिया और आगे बढ़ते गए. इस फ़िल्मी जर्नी में उन्होंने माना कि वे टाइपकास्ट के शिकार हुए, जिसका फायदा और नुकसान दोनों उनके साथ हुआ. फिल्मों के अलावा उन्होंने वेब सीरीज में भी काम किया है. तुषार जीवन में आये किसी भी चुनौती को स्वीकार करने से डरते नहीं. 

शांत और हंसमुख स्वभाव के तुषार कपूर सिंगल फादर है और 4 साल के बेटे लक्ष्य के साथ इस फेज को एन्जॉय कर रहे है. उनका कहना है कि मैं सिंगल फादर बना और इसे बहुत एन्जॉय भी कर रहा हूं. मैंने सही समय में इसका निर्णय लिया और पिता बना. कोई रिग्रेट नहीं, बल्कि मैं अपने आपको ब्लेस्ड मानता हूं. मेरी लाइफ अब पूरी हो चुकी है. मेरे लाइफ में एक बदलाव की जरुरत थी जिसे मैंने किया. सभी माता-पिता के लिए लाइफ पार्टनर से अधिक कीमती उसके बच्चे होते है, क्योंकि काम से थककर जब व्यक्ति घर आता है, तो बच्चे ही उसकी थकान को मिनटों में दूर कर देते है. अगर मुझे दूसरा बच्चा भी मिलता है,फिर भी लक्ष्य मेरे लिए पूरी जिंदगी लक्ष्य ही रहेगा. इस लॉक डाउन में मैं उसके साथ खेल रहा हूं और फनी वीडियोज बनाकर समय बिता रहा हूं. मुझे मानसून पहले कभी पसंद नहीं था, पर अब लक्ष्य की वजह से अच्छा लगता है, क्योंकि उसके साथ मुझे पार्क में जाना पड़ता है, क्योंकि दिनभर की बारिश के बाद पार्क में खेलने की उसकी मांग को मैं पूरा कर पाता हूं. 

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तुषार कपूर का अपने पिता जितेन्द्र के साथ एक गहरा सम्बन्ध है, पिता उनके जीवन के आदर्श है, जिनसे वे बहुत सारी बातों को ग्रहण करते है. पिता बनने के बाद लक्ष्य के साथ वैसी ही बोन्डिंग का अनुभव करते है, जैसा उन्होंने अपने पिता के साथ महसूस किया था, लेकिन थोडा अलग है. वे कहते है कि आज के ज़माने में पिता पुत्र के सम्बन्ध में काफी बदलाव आया है. पहले पिता भोजन को बेटे के पास टेबल तक पहुँचाता था, पर आज के पिता बच्चे के खान-पान से लेकर खेलकूद, स्वास्थ्य, कहानियां सुनाना आदि हर चीज में बच्चे के साथ भागीदार बनते है. तब माँ की जिम्मेदारी अधिक होती थी, बच्चे की देखभाल का जिम्मा उनके पास होता था. आज दोनों की जिम्मेदारी होती है. मैं तो माँ और पिता दोनों की भूमिका निभा रहा हूं, जो मुश्किल है पर एन्जॉय कर रहा हूं.

एडॉप्शन को छोड़ सेरोगेसी का सहारा लेने के बारें में तुषार का कहना है कि मैं एडॉप्शन को बढ़ावा देता हूं. बच्चे के साथ किसी के सम्बन्ध को जुड़ने के लिए उसका बायोलॉजिकल माता-पिता होना जरुरी नहीं. कई अडॉप्ट बच्चे भी अडॉप्ट करने वाले माता-पिता की तरह दिखते है. ये हर इंसान की अपनी चॉइस है.

 

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Some Fridays just don’t turn out the way they were expected to! Nevertheless, friyay!

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बेटे लक्ष्य के लिए तुषार ने अभी कुछ सोचा नहीं है. वह किस फील्ड में जायेगा, यह उसपर निर्भर करता है. वे हंसते हुए कहते है कि मैं अपने बच्चे की प्रतिभा के आधार पर आगे बढ़ने में विश्वास रखता हूं. केवल अधिक नंबर लाना मेरे लिए जरुरी नहीं. अगर उसे अभिनय की इच्छा मन से है तो मैं उसमें भी सपोर्ट करूँगा. मेरी बहन एकता कपूर भी उसे बहुत पसंद करती है और परिवार का पहला बच्चा मानती है. 

फादर्स डे पर सिंगल पेरेंट्स के लिए तुषार कहते है कि ये एक बड़ी कदम और जिम्मेदारी होती है. ये आपकी चॉइस होती है. पर ध्यान रखे जब आप पूरी तरह से इसके लिए तैयार हो, तभी ऐसा कदम उठाएं. मुझे पिता बनने की लालच थी. तब मैं किसी से मिला और उन्होंने इसके बारें में गाइड किया और मैंने अपनाया. पिछले कई सालों से ये मेरे दिमाग में चल रहा था. मैंने सुना था कि अमेरिका में ऐसा होता है, वहां जाकर करना पड़ेगा, पर बाद में पता चला कि ये भारत में हो सकता है और एक बड़ी इंडस्ट्री इसके लिए काम करती है. पहले बहुत सारी आलोचनाएं मुझे सुननी पड़ी, पर अब सब ठीक हो चुका है.

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Father’s day Special: सिंगल पैरेंट बनने में स्वैर्गिक आनंद मानते हैं गुलशन ग्रोवर

400 से अधिक हिंदी फिल्मों में काम कर चुके अभिनेता गुलशन ग्रोवर भले ही ‘बैडमैन’ के नाम से परिचित हो, पर वे एक अत्यंत ही सुलझे हुए और संजीदा दिल इंसान है. वे सिंगल फादर है और सिर्फ साढ़े 4 साल की उम्र से अपने बच्चे संजय ग्रोवर की परवरिश की है. इस दौरान उन्हें कई समस्याओं से गुजरना पड़ा, लेकिन उनके माता-पिता, दोस्तों, और शूटिंग टीम के सदस्यों ने उनकी सहायता की, जिसके फलस्वरूप उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया. आज संजय बड़े हो चुके है और अमेरिका में कई सालों से फिल्मों से सम्बंधित विषयों पर पढाई कर लॉस एंजिलस के एम् जी एम् स्टूडियो में फिल्म प्रोड्यूसर है और हॉलीवुड में कई फिल्मों के निर्माण कार्य में लगे है. उनकी इस ग्रोथ में गुलशन ग्रोवर हमेशा साथ रहे और वे हमेशा हर साल अपने बेटे से मिलने अमेरिका जाते रहे. गुलशन ग्रोवर का उनके बेटे के साथ गहरा दोस्ताना सम्बन्ध है, जिसे वे बहुत एन्जॉय करते है. 

वे कहते है कि मैंने सिंगल पैरेंट बनने के बारें में कभी सोचा नहीं था. परिस्थितियां ऐसी बनी कि मुझे ये चुनौती लेनी पड़ी. दरअसल एक बच्चे के परवरिश में माता-पिता दोनों का होना जरुरी होता है. हालात कुछ ऐसी बनी कि उसकी माँ हमें छोड़कर चली गयी. मैंने उस समय निर्णय लिया था कि बच्चे को मैं रखूँगा और इसकी परवरिश करूँगा. उस समय कह तो दिया था, पर बाद में काफी परेशानी हुई. मैं उन सब महिलाओं का आभारी हूं, जिन्होंने मुझे संजय की परवरिश में सहायता की. शूटिंग पर गया और मेरा बेटा उधर आ गया, तो हेयर ड्रेसर से लेकर एक्ट्रेसेस सबने सहायता की. किसी रेस्तरां में गया तो वहां काम करने वालों ने सहायता की. फ्लाइट में गया तो किसी एयर होस्टेज ने और स्कूल में गया तो दूसरे बच्चे की माओं ने गाइड किया. बड़ी अच्छी आया मिली, जो उसकी देखभाल करती रही. इसके बाद जब मेरे माता- पिता ने देखा कि मैं अकेला बहुत मुश्किल में हूं, तो मेरे माता-पिता ने उसकी जिम्मेदारी ली. और बड़ा किया. जब संजय थोडा बड़ा हुआ, तो वह मुंबई आकर मेरे साथ रहने लगा.

 

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बच्चे की बचपन से अधिक किशोरावस्था महत्वपूर्ण होती है, ऐसे में उसकी देखभाल करने के बारें में पूछे जाने पर गुलशन बताते है कि अधिकतर बच्चे मां के साथ अधिक कम्फ़र्टेबल होते है और उनके साथ रिश्ता भी अच्छा रहता है. हमारे यहां पिता एक सेंटी फिगर होते है, जो शाम को आकर बच्चे की हाल चाल पूछते है और कुछ गलत किया तो डांटते है. उपरी ऑब्जरवेशन होता है. उसमें बच्चे का पिता से डर और औरा भी बना रहता है. बहुत करीब होने से औरा और डर दोनों चला जाता है, फिर उसे समझाना पड़ता है कि क्या गलत और क्या सही है. मैं बस इतना लकी था कि उस समय मेरे अंदर और बच्चे में सद्बुद्धि आई और वह दौर धीरे-धीरे निकल गया. अभी भी मेरा वैसा ही सम्बन्ध है और सिंगल पैरेंटहुड ही चल रहा है. संजय अभी अमेरिका के लॉस एंजिलस में एम जी एम (Mertro Goldwyn Mayer) स्टूडियो में फिल्म प्रोड्यूसर है. अभी लॉक डाउन में मेरे साथ मुंबई आया हुआ है, मुझे अच्छा लग रहा है और मैं अभी उसके फिल्म निर्माण में मदद कर रहा हूं.आगे उसकी फिल्मों में भी एक्टिंग करूँगा. फ़िलहाल मैं एक अनुभवी पिता की तरह उसकी हर संभव मदद कर रहा हूं.

आगे वे सिंगल पेरेंट्स के लिए ये मेसेज देना चाहते है कि जब आप जिम्मेदारी लें, तो पूरी तरह से मानसिक रूप से सोच लें, क्योंकि इसमें समय बहुत लगेगा, काम काज के साथ सामंजस्य के अलावा सोशल लाइफ का पूरी तरह से सैक्रिफाइस करना पड़ेगा. जब आप सिंगल पैरेंट बनते है, तो काम के बाद कहीं रुकने का मन ही नहीं करेगा. बच्चा आपका इंतजार कर रहा होगा या उसके साथ रहने में जो मज़ा आयेगा, वह अद्भुत होता है. इन सब त्याग के पीछे आनंद उस बच्चे को बड़े होते हुए देखने में होगा, जिसमें आपके सहयोग और त्याग से ही उस बच्चे में ग्रोथ, उसका आत्मविश्वास, व्यक्तित्व आदि सबकुछ निखरा है, वह एक स्वैर्गिक आनंद है, जिसे बयां करना संभव नहीं. 

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