आज बौलीवुड का एक भी कलाकार या निर्देशक जमीन से जुड़ा हुआ नहीं है. परिणामस्वरूप बौलीवुड की फिल्में बौक्स औफिस पर बुरी तरह से औंधे मुंह गिर रही हैं. वर्तमान समय के सभी कलाकार खुद को आम इंसानों से दूर ले जाने के तरीकों पर ही अमल करते हैं. मु झे अच्छी तरह याद है कि एक वक्त वह था, जब हम किसी भी फिल्म के सैट पर कभी भी जा सकते थे और सैट पर स्पौट बौय से ले कर कलाकार तक किसी से भी मिल सकते थे. उन दिनों कलाकारों के फैंस भी सैट पर आ कर उन से मिला करते थे. उन दिनों सैट पर हर किसी का भोजन एकसाथ ही लगता था. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब कलाकार पहली फिल्म साइन करते ही पीआर, मैनेजर व सुरक्षा के लिए बाउंसरों की सेवाएं ले कर खुद को कैद कर लेता है. सैट पर पत्रकारों या फैंस का जाना मना हो चुका है.
अब कलाकार सैट पर ज्यादा देर नहीं रुकता. वह हमेशा अपनीअपनी वैनिटी में बैठा रहता है. सीन के फिल्मांकन के वक्त वैनिटी वैन से निकल कर कैमरे के सामने जा कर परफौर्म करता है और फिर वैनिटी वैन में घुस जाता है.
ऐसे में जमीनी हकीकत से कैसे वाकिफ हो सकता है? उसे कैसे पता चलेगा कि उस की अपनी फिल्म के सैट पर किस स्पौट बौय के साथ किस तरह की समस्याएं हैं अथवा किस स्पौट बौय के पड़ोसी अब किस तरह की फिल्में देखना चाहते हैं.
इस के ठीक विपरीत दक्षिण भाषी कलाकार सदैव ऐसे लोगों के साथ जुड़ा रहता है. जब रामचरन की फिल्म ‘आरआरआर’ ने खूब पैसे कमाए और इस के लिए मुंबई में पांचसितारा होटल में फंक्शन रखा गया, तो मुंबई आने से पहले रामचरन ने इस फिल्म से जुड़े लोगों को अपने घर बुलाया और सभी को 10-10 ग्राम सोने के सिक्के देते हुए उन के साथ लंबी बातचीत की. सभी का हालचाल भी पूछा.
फिल्म के प्रदर्शन से पहले कलाकार पत्रकारों के बड़े समूह से 15-20 मिनट मिलता है, कुछ रटेरटाए शब्द बोल कर गायब हो जाता है. ऐसे में वह कैसे सम झेगा कि उस की परफौर्मैंस को ले कर कौन क्या सोचता है? आजकल पत्रकार भी ‘गु्रप इंटरव्यू’ का हिस्सा बनने के लिए किस हद तक गिर रहे हैं, उस की कहानी भी कम डरावनी नहीं है.
मीडिया से दूरी क्यों
जी हां, बौलीवुड के कलाकारों को पत्रकारों से बात करने का भी समय नहीं मिलता अथवा यह कहें कि ये अपने पीआर के कहने पर दूरी बना कर रखते हैं और एकसाथ 20 से 50 पत्रकारों को ‘गु्रप इंटरव्यू’ देते हैं और फिर उन का मजाक भी उड़ाते हैं.
एक बार जब मैं अक्षय कुमार से उन के घर पर ऐक्सक्लूसिव बात कर रहा था, तो उस बातचीत के दौरान उन्होंने गर्व से बताया कि एक दिन पहले उन्होंने 15 मिनट के गु्रप इंटरव्यू खत्म किया जिस में 57 पत्रकार थे.
हिंदी फिल्म बनाने वाले निर्माता, निर्देशक व कलाकार हिंदी में बात करना पसंद ही नहीं करते. वे तो 4 बड़े अंगरेजी अखबारों के पत्रकारों से बात करने के बाद बाकी लोगों से गु्रप में बात करना चाहते हैं. गु्रप इंटरव्यू में वे बातें कम करते हैं, पत्रकारों का मजाक ही उड़ाते हैं.
मशहूर अभिनेता, निर्माता व निर्देशक राज कपूर ने बतौर बाल कलाकार 1935 में फिल्म ‘इंकलाब’ में अभिनय किया था. उस के बाद जब वे कुछ बड़े हुए तो उन्होंने बतौर सहायक निर्देशक काम करना शुरू किया. लेकिन वे अपने पिता व अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के कहने पर बस व लोकल ट्रेन में यात्रा करते थे, जबकि उस वक्त पृथ्वीराज कपूर के पास सारे सुखसाधन उपलब्ध थे. राज कपूर ने तमाम उपलब्धियां हासिल कीं.
बताते हैं कि वे हर फिल्म के सैट पर हर छोटेबड़े इंसान के साथ गपशप किया करते थे. मगर जब भी उन्हें किसी नई फिल्म की विषयवस्तु पर काम करना होता था, तो वे मुंबई से 300 किलोमीटर दूर पुणे स्थित अपने फार्महाउस चले जाते थे. एक बार इस फार्महाउस से जुड़े कुछ लोगों से हमारी बात हुई, तो उन्होंने बताया कि वहां रहते हुए राज कपूर हर इंसान से लंबी बातचीत करते थे. सभी की जिंदगी के सुखदुख जाना करते थे.
जमीन से जुड़े कलाकार
मशहूर निर्मातानिर्देशक सुनील दर्शन के पिता अपने समय के मशहूर निर्माता व फिल्म वितरक थे. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब सुनील दर्शन ने फिल्म निर्माण में उतरना चाहा, तो उन के पिता ने उन्हें 6 वर्ष के इंदौर के अपने फिल्म वितरण औफिस में काम करने के लिए भेज दिया. 6 वर्ष तक इंदौर में रहते हुए सुनील दर्शन आसपास के गांवों में जा कर लोगों से मिलते रहे.
एक बार मु झ से कहा था कि सिनेमा की सम झ विकसित करने में मेरा 6 वर्ष का इंदौर का प्रवास काफी कारगर रहा. वहां पर गांवों व छोटे कसबों में जा कर लोगों से मिलने, उन से बातचीत करते हुए सही मानों में मेरे अंदर भारतीय सिनेमा की सम झ विकसित हुई.
उस के बाद सुनील दर्शन ने ‘जानवर,’ ‘एक रिश्ता,’ ‘बरसात,’ ‘अंदाज,’ ‘दोस्ती,’ ‘अजय,’ ‘लुटेरा,’ ‘मेरे जीवनसाथी’ व ‘इंतकाम’ जैसी सफलतम फिल्में बनाईं.
आम लोगों की तरह काम
2010 में करीना कपूर, काजोल व अर्जुन रामपाल को ले कर फिल्म ‘वी आर फैमिली’ का निर्देशन करने वाले सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा की परवरिश फिल्मी माहौल में ही हुई. वे सुपरडुपर हिट फिल्म ‘दुल्हन वह जो पिया मन भाए’ के हीरो प्रेम किशन के बेटे हैं. प्रेम किशन चाहते तो सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा को निर्देशन की बागडोर थमा सकते थे, लेकिन सिद्धार्थ को अपने पिता द्वारा निर्मित किए जा रहे सीरियलों के सैट पर आम लोगों की तरह काम करना पड़ा.
लगभग 15 वर्ष तक कई जिम्मेदारियां निभाने और बहुत कुछ अनुभव हासिल करने के बाद उन्हें 2010 में करण जौहर द्वारा निर्मित फिल्म ‘वी आर फैमिली’ को निर्देशित करने का अवसर मिला.
बलदेव राज चोपड़ा उर्फ बीआर चोपड़ा किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. उन्होंने ‘नया दौर,’ ‘कानून,’ ‘साधना,’ ‘गुमराह,’ ‘इंसाफ का तराजू,’ ‘निकाह,’ ‘बाबुल,’ ‘भूतनाथ’ सहित लगभग 60 फिल्में और ‘महाभारत’ जैसा सफलतम धारावाहिक बनाया. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव तक न सिर्फ आम लोगों से जुड़े रहे बल्कि हमेशा जमीन से भी जुड़े रहे. मु झे आज भी याद है कि 2002 में मैं ने उन का इंटरव्यू किया था, जोकि एक पत्रिका में छपा था. तब बीआर चोपड़ा ने मु झे स्वहस्ताक्षर युक्त पत्र कूरियर से भेज कर धन्यवाद ज्ञापन करते हुए पत्र में लिखा था कि वे भी पत्रकार रहे हैं और जिस पत्रिका में उन का इंटरव्यू छपा है, उस पत्रिका की प्रिंटिंग प्रैस में लाहौर में उन्होंने कुछ दिन काम किया था.
समाज से जुड़ी हुई फिल्में
आज हर इंसान संगीत व फिल्म निर्माण कंपनी ‘टी सीरीज’ से भलीभांति परिचित है. इस कंपनी की शुरुआत गुलशन कुमार ने की थी, जो हमेशा जमीन से जुड़े रहे. गुलशन कुमार ने अपने औफिस की इमारत में एक फ्लोर पर कैफेटेरिया बना रखा था, जहां दोपहर के भोजन अवकाश के दौरान सभी कर्मचारी एकसाथ बैठ कर भोजन करते थे. उन्हीं के बीच बैठ कर गुलशन कुमार भी भोजन करते थे.
मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने हमेशा आम इंसानों जैसी जिंदगी जी. वे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक पत्रकारों से ही नहीं बल्कि आम इंसानों, प्रोडक्शन से जुड़े हर छोटेबड़े कर्मचारी से मिलते थे. परिणामस्वरूप उनकी फिल्मों ‘धूल का फूल,’ ‘धर्मपुत्र,’ ‘वक्त,’ ‘दाग,’ ‘दीवार,’ ‘त्रिशूल,’ ‘चांदनी,’ ‘लम्हे,’ ‘परंपरा,’ ‘डर’ व ‘वीर जारा’ की फिल्मों को लोग आज भी बारबार देखना पसंद करते हैं.
बौलीवुड: कहां से चला था, कहां पहुंचा
राजेश खन्ना की फिल्म ‘आनंद’ का एक संवाद है- ‘यह भी एक दौर है, वह भी एक दौर था.’ फिल्म में यह संवाद किसी दूसरे संदर्भ में था, मगर यह संवाद बौलीवुड पर भी एकदम सटीक बैठता है.
बौलीवुड में एक वह दौर था जब ‘आलमआरा,’ ‘दो बीघा जमीन,’ ‘मदर इंडिया,’ ‘बंदिनी,’ ‘शोले,’ ‘मुगले आजम’ के अलावा राज कपूर जैसे फिल्मकार फिल्में बनाया करते थे. वे सभी फिल्में आज भी एवरग्रीन हैं क्योंकि इन में समाज की सचाई थी.
अमिताभ बच्चन की 80 के दशक की फिल्में भी आम लोगों से जुड़ी हुई थीं. ऐंग्री यंग मैन के रूप में अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत फिल्मों में गरीब तबके के मन की बात की गई थी. यानी फिल्में आम लोगों को उन्हीं की दुनिया में ले जाती थीं. बड़ी मुसीबतों का सामना करते हुए इंसान को जीतते हुए देखना इंसानी मन की कमजोरी है. तभी तो बौलीवुड की फिल्में सब से अधिक देखी जाती थीं.
बेसिरपैर की कहानी
लेकिन पिछले 15-20 सालों से बौलीवुड में दक्षिण भाषी सिनेमा की सफलतम फिल्मों के हिंदी रीमेक, ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर, लव टैंगल, सैक्स व हिंसा से सराबोर फिल्मों के अलावा बायोपिक फिल्मों का ही चलन हो गया है. बौलीवुड का सिनेमा जमीनी सचाई से कोसों दूर जा चुका है. बौलीवुड के सर्जक यह भूल चुके हैं कि जिस सिनेमा को मुंबई में कोलाबा से अंधेरी तक देखा जाता है, वही सिनेमा मुंबई के इतर इलाकों में पसंद नहीं किया जाता.
‘यशराज फिल्म’ के आदित्य चोपड़ा आम इंसानों से मिलना तो दूर पत्रकारों से भी नहीं मिलते. वे सदैव अपनी चारदीवारी के अंदर कैद रहते हैं. यदि यह कहा जाए कि वे अपनी जमीन या जड़ों से बहुत दूर जा चुके हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
आम इंसान उस सिनेमा को देखना पसंद करता है, जिस के संग वह रिलेट कर सके. मगर इस कसौटी पर ये फिल्में खरी नहीं उतरीं.
रणवीर सिंह की फिल्म ‘जयेशभाई जोरदार’ सिर्फ भारत को 2200 स्क्रीन्स से महज 3 करोड़ 25 लाख की ही ओपनिंग मिली थी.
गुजरात की पृष्ठभूमि की कहानी वाली इस फिल्म के साथ मुंबई या गुजरात के छोटे शहरों या गांवों के लोग भी रिलेट नहीं कर पा रहे हैं.
स्टूडियो में बैठे हैं एमबीए पास
2001 में नितिन केणी ने सिनेमा के विकास व सबकुछ पारदर्शी तरीके से हो सके, इसलिए जी स्टूडियो के साथ मिल कर हौलीवुड स्टाइल में स्टूडियो संस्कृति की शुरुआत की थी और पहली फिल्म ‘लगान’ का निर्माण हुआ था, जिस के हर कलाकार व तकनीशियन को उन की पारिश्रमिक राशि चैक से दी गई थी.
इस फिल्म ने सफलता का ऐसा परचम लहराया कि देखते ही देखते कुकुरमुत्ते की तरह अनगिनत स्टूडियोज मैदान में आ गए. रिलायंस सहित कई औद्योगिक घराने भी कूद पड़े. पहली बार इन सभी स्टूडियो में किस कहानी पर फिल्म का निर्माण किया जाएगा, इस की जिम्मेदारी नईनई एमबीए की युवा पीढ़ी के हाथों में सौंपा गया था.
जी हां, एमबीए पढ़ कर आए लोग, जिन्हें सिनेमा की सम झ नहीं, जिन्होंने साहित्य नहीं पढ़ा, जिन्हें संगीत या नृत्य की कोई सम झ नहीं, वे फिल्म निर्माण को ले कर निर्णय लेने लगे, जबकि फिल्म निर्माण के लिए साहित्य गीतसंगीत व नृत्य का गहराई से ज्ञान होना आवश्यक है. ये सभी कागज पर फिल्म की सफलता का गणित लिखने लगे और इन स्टूडियोज बिना कहानी वगैरह तय किए सिर्फ स्टार कलाकारों को अपने स्टूडियो के साथ मनमानी कीमत दे कर अनुबंधित करने लगा था.
उस वक्त कलाकारों ने अचानक अपनी कीमत 400-500 गुना बढ़ा दी थी. उस वक्त खबर आई थी कि रिलायंस ने 1500 करोड़ का ऐग्रीमैंट अमिताभ बच्चन के साथ किया है. एक स्टूडियो द्वारा अक्षय कुमार के साथ प्रति फिल्म 135 करोड़ का ऐग्रीमैंट करने की भी खबरें थीं.
बौलीवुड दक्षिण फिल्मों का मुहताज
बौलीवुड हमेशा दक्षिण के सिनेमा का मुहताज रहा है. बौलीवुड के जितेंद्र व अनिल कपूर सहित तमाम स्टार कलाकारों ने दक्षिण के फिल्म सर्जकों के साथ हिंदी फिल्में कर के स्टारडम पाया. इतना ही नहीं, यदि बौलीवुड के पिछले 20-25 सालों के इतिहास पर गौर किया जाए, तो एक ही बात उभर कर आती है कि बौलीवुड केवल दक्षिण या विदेशी फिल्मों का हिंदी रीमेक बनाते हुए अपनी सफलता का परचम लहरा कर अपनी पीठ थपथपाते आ रहा है.
बौलीवुड बायोपिक बना रहा है या एलजीबीटी समुदाय पर फिल्में बना रहा है यानी बौलीवुड मौलिक काम करने के बजाय नकल के सहारे बादशाह बनने की सोचता रहा है.
कहानियों का अकाल
प्राप्त जानकारी के अनुसार आज की तारीख में बौलीवुड करीब 40 फिल्मों का रीमेक बना रहा है. यहां तक कि अजय देवगन के पास भी कहानियों का अकाल है, इसलिए वे बायोपिक फिल्में बना रहे हैं. इस की मूल वजह यह है कि अजय देवगन का आम इंसानों के संग कोई संपर्क ही नहीं रहा.
हम बहुत दूर क्यों जाएं ‘वांटेड,’ ‘किक,’ ‘राउडी राठौर’ जैसी सफल बौलीवुड फिल्में दक्षिण की फिल्मों का रीमेक ही हैं. दक्षिण की जिन फिल्मों का हिंदी रीमेक किया गया, उन में सलमान खान की फिल्म ‘जुड़वां’ भी शामिल है. यह तेलुगु फिल्म ‘हेल्लो ब्रदर’ का हिंदी रीमेक है, जिस में नागार्जुन लीड रोल में थे. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर जम कर कमाई की थी. महज 6 करोड़ में बनी इस फिल्म का बौक्स औफिस कलैक्शन 24 करोड़ रुपए है.
इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दक्षिण की हिंदी रीमेक फिल्मों का हिंदी बौक्स औफिस पर कैसा रिस्पौंस था. इसी तरह मलयालम फिल्म ‘रामजी राव स्पीकिंग’ का हिंदी रीमेक ‘हेराफेरी’ बना. यह फिल्म भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुई थी. इस के बाद ‘हेराफेरी’ फिल्म के निर्देशक प्रियदर्शन ने कौमेडी फिल्मों की लाइन ही लगा दी.
उन्होंने ‘हलचल,’ ‘हंगामा,’ ‘ये तेरा घर ये मेरा घर,’ ‘गरम मसाला,’ ‘क्योंकि,’ ‘छुपछुप के,’ ‘भागमभाग,’ ‘दे दनादन,’ ‘ढोल,’ ‘बिल्लू’ जैसी फिल्में बनाई हैं. इन में ज्यादातर फिल्में कौमेडी, रोमांस और ड्रामा जोनर की हैं.
बौलीवुड पर हावी
इसी तरह ऐक्शन जोनर की फिल्मों का रीमेक दौर भी शुरू हुआ, जिस ने हिंदी प्रदेशों में तहलका मचा दिया. तमिल फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर निर्देशक ए.आर. मुरुगदास 2008 में हिंदी फिल्म ‘गजनी’ ले कर आए, जो इसी नाम से तमिल में सफलता दर्ज करा चुकी थी. आमिर खान, जोया खान और आसिन स्टारर इस फिल्म ने खलबली मचा दी. फिल्म के लिए बनाए गए आमिर खान के सिक्स पैक एब के साथ धांसू ऐक्शन सीन खूब चर्चा में रहे.
जी हां, वास्तव में दक्षिण सिनेमा के बौलीवुड पर हावी होने की मूल वजह यह है कि पिछले 15-20 सालों से बौलीवुड दक्षिण सिनेमा की फिल्मों को हिंदी में रीमेक कर अपने अस्तित्व को बचाए हुए था. दक्षिण सिनेमा की नई पीढ़ी ने इस सच को सम झते हुए अपने ‘बेहतरीन’ सिनेमा को विस्तार देते हुए ‘पैन सिनेमा’ का नाम देने की मंशा से खुद ही अपनी फिल्में हिंदी में डब कर के दर्शकों तक पहुंचाने लगा.
इतना ही नहीं कोविड के वक्त हिंदी भाषी दर्शक अपने घर के अंदर टीवी पर दक्षिण में बनी व हिंदी में डब हुई फिल्में देख कर दक्षिण के कलाकारों को पहचानने भी लगे हैं.
आने वाले वक्त में प्रभास की फिल्म ‘आदिपुरुष,’ विजय देवरकोंडा की फिल्म ‘लीगर,’ वरुण तेज की फिल्म ‘घनी’ पैन इंडिया में रिलीज होने वाली हैं.
सफलता का परचम लहराती दक्षिण की फिल्में
कोरोना आपदा के बाद जब फिल्म इंडस्ट्री एक बार फिर शुरू हुई, देशभर के सिनेमाघर खुले, तब से बौलीवुड की ‘अंतिम,’ ‘83,’ ‘सत्यमेव जयते 2,’ ‘बच्चन पांडे,’ ‘जर्सी,’ ‘रनवे 34्र’ ‘अटैक,’ ‘हीरोपंती 2,’ ‘औपरेशन रोमिया,’ ‘जलसा,’ ‘ झुंड,’ ‘धाकड़’ सहित एक भी फिल्म सफलता दर्ज नहीं करा पाई है. अक्षय कुमार की फिल्म ‘बच्चन पांडे’ भी घटिया फिल्म थी. यह फिल्म 18 मार्च को रिलीज हुई और फिल्म बुरी तरह से पिट गई.
वहीं दक्षिण के सिनेमा की ‘पुष्पा,’ ‘जय भीम,’ ‘आरआरआर,’ ‘वकील साहब’ व ‘केजीएफ चैप्टर 2’ सहित हर फिल्म हिंदी में डब हो कर सफलता दर्ज करा रही है. ‘केजीएफ चैप्टर 2’ ने तो महज हिंदी में हर हिंदी फिल्म को पछाड़ दिया है. अब आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ भी सर्वाधिक कमाई वाली पहली फिल्म नहीं रही. ऐसे में अब बौलीवुड में एक नया जुमला बन गया है कि ‘दक्षिण का सिनेमा बौलीवुड को खा जाएगा.’ मगर एक भी शख्त दक्षिण में रहे सिनेमा की तर्ज पर हिंदी सिनेमा में मौलिक व दर्शकों को पसंद आने वाला सिनेमा बनाने की बात नहीं कर रहा.
बरबादी की ओर बौलीवुड
दक्षिण के फिल्मकारों ने इन हिंदी फिल्मों के कलाकारों की इस कमजोरी को सम झ कर इन्हें अपनी फिल्मों में छोटे किरदार दे कर अपनी फिल्मों को पैन इंडिया पहुंचाने का काम किया.
किसी ने महेश भट्ट की बेटी आलिया भट्ट को सम झा दिया कि उन क ी वजह से दक्षिण की फिल्म ‘आरआरआर’ ने सफलता दर्ज की है और उसी वक्त आलिया को हौलीवुड फिल्म ‘हार्ट औफ स्टोन’ मिल गई.
टौम हार्पर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘हार्ट औफ स्टोन’ अमेरिकी जासूसी फिल्म है, जिस की पटकथा ग्रेग रुका और एलीसन श्रोएडर ने लिखी है. इस फिल्म में आलिया भट्ट के साथ गैल गैडोट, जेमी डोनर्न, सोफी ओकोनेडो, मैथियास श्वेघोफर, जिंग लुसी जैसी हौलीवुड कलाकारों का जमावड़ा है. जो बस आलिया को ऐसा जोश आया कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे अब दक्षिण की किसी फिल्म में काम नहीं करेंगी.
उत्तर में ‘बाहुबली’ और ‘आरआरआर’ के निर्देशक एस राजामौली कहां चुप बैठने वाले थे. उन्होंने भी ऐलान कर दिया कि अब अपनी फिल्मों में बौलीवुड के किसी भी कलाकार को नहीं लेंगे.
बौलीवुड के अहंकारी स्टार
बौलीवुड के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, सलमान खान आदि तो अपने जन्मदिन पर अपने प्रशंसकों को कई घंटे तक अपने घर के सामने धूप में खड़े रखने के बाद घर की बालकनी में आ कर हाथ हिला कर उन का अभिवादन कर इतिश्री सम झ लेते हैं.
बैंगलुरु में एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. लंच के समय अभिनेता दुलकेर सलमान भोजन कर रहे थे. उन की नजर बाहर खड़े कुछ लोगों पर पड़ी. पता चला कि वह उन के प्रशंसक हैं जोकि उन के साथ फोटो खिंचवाना चाहते हैं. दुलकेर सलमान भोजना करना बीच में ही छोड़ कर हाथ धो कर पहले अपने प्रशंसकों से मिले. उन से बातें कीं, उन के साथ फोटो खिंचवाए उस के बाद भोजन किया.
बौलीवुड में कला की बनिस्बत पैसे को ही महत्त्व दिया जाता है. हर कलाकार मेहनताने के रूप में मोटी रकम वसूलता है. उस के बदले में उस से कुछ भी करवा लो. वह झूठा दावा करता है कि वह चुनौतीपूर्ण किरदार और रिलेट करने वाली कहानियां चुनना पसंद करता है.
इस के ठीक विपरीत दक्षिण भारत के कलाकार कहानी व किरदार की बात करते हैं. वहां पर कहानी में हीरो को ग्लोरीफाई किया जाता है, जबकि बौलीवुड में किरदार या कहानी के बजाय कलाकार को ग्लोरीफाई किया जाता है.
वैसे आज जो हालात बन चुके हैं, उन की तरफ अपरोक्ष रूप से इशारा करते हुए 2013 में फिल्म ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ के प्रमोशनल इंटरव्यू के दौरान फिल्म के निर्देशक राजकुमार संतोषी ने बौलीवुड के संदर्भ में मु झ से कहा था, ‘‘जल्द वह वक्त आने वाला है, जब कलाकार खुद दर्शकों के दरवाजे पर जा कर उन से अपनी फिल्म की टिकट खरीदने के लिए कहेगा.’’
9 वर्ष पहले कही गई बात आज सच नजर आ रही है. लगभग यही हालात हो गए हैं. कलाकार अच्छी कहानियां चुनने के बजाय अपनी फिल्म के प्रचार इवेंट में अपने फैंस को बुला कर नौटंकी करता नजर आता है या अपने फैंस को प्रैस शो के वक्त मुफ्त में फिल्में दिखा रहा है.