REVIEW: दोस्ती के जज्बे के साथ फैमिली रिश्तों व मूल्यों की बात करती ‘उंचाई’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः राजश्री प्रोडक्शन और महावीर जैन

निर्देशकः सूरज बड़जात्या

पटकथा लेखकः अभिषेक दीक्षित

कलाकारःअमिताभ बच्चन, सारिका,  अनुपम खेर, नीना गुप्ता, डैनी, बोमन ईरानी, परिणीति चोपड़ा व अन्य.

अवधिः दो घंटे उन्चास मिनट

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ था और उसी दिन स्व. ताराचंद बड़जात्या ने ‘‘राजश्री प्रोडक्शन’’ की शुरूआत की थी. उनका मकसद हर इंसान तक पारिवारिक मूल्यों , रिश्तों और दोस्ती की महत्ता को पहुंचाना ही रहा. पिछले 75 वर्षों के दौरान ‘राजश्री प्रोडक्शन’ ने साठ फिल्मों का निर्माण किया. इन 75 वर्ष से ‘राजश्री प्रोडक्शन’ने कभी भी अपने मूल मकसद से नही भटका. 21 सितंबर 1992 को स्व. ताराचंद बड़जात्या के देहांत के बाद इसकी बागडोर स्व. राज कुमार बड़जात्या ने  अपने भाईयों कमल कुमार बड़जात्या व अजीत कुमार बड़जात्या के साथ मिलकर इसकी बागडोर को संभाला. 21 फरवरी 2019 को राजकुमार बड़जात्या का भी निधन हो गया. इन दिनों स्व. राज कुमार बड़जात्या के बेटे सूरज बड़जात्या ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की परंपरा को आगे ले जाते हुए फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. ‘राजश्री प्रोडक्शन’ के बैनर तले बतौर निर्देशक सूरज बड़जात्या फिल्म ‘उंचाई’ लेकर आए हैं. फिल्म ‘उंचाई’ तीन दोस्तों के रिश्तों व रोड ट्पि की कहानी है. जिसमें सूरज बड़जात्या ने पारिवारिक रिश्तो से भी बड़ा रिश्ता दोस्ती का बताते हुए यह भी कहने का प्रयास किया हे कि परिवर्तन स्थिर नही है ओैर जीवन एकतरफा सड़क नहीं. फिल्म में उन्होने समाज में आए बदलाव को भी चित्रित किया है. मगर वह पुरानी पीढ़ी का चित्रण करते समय चूक गए. शायद इसकी मूल वजह यह है कि युवा पटकथा लेखक अभिषेक दीक्षित को उत्तर भारत के बुजुर्गो के साथ रहने का अवसर न मिला हो. दूसरी चूक फिल्म की लंबाई है.

कहानीः

मूलतः यह कहानी चार दोस्तों बेस्ट सेलर लेखक अमित श्रीवास्तव(अमिताभ बच्चन) अपने दो अन्य लंगोटिया यारों,  लेडीज कपडों की दुकान चलाने वाले जावेद (बोमन ईरानी) और हिंदी किताबों की दुकान चला रहे ओम शर्मा (अनुपम खेर) के साथ अपने दोस्त व अवकाश प्राप्त  सरकारी अफसर भूपेन(डैनी) के जन्म दिन पार्टी में जाते हैं, जहां भूपेन उन लोगो से दो माह बाद एवरेस्ट पर जाने की बात करता है. यह चारों 65 साल से अधिक उम्र के हैं, इसलिए बाकी के तीन नही जाना चाहते. पर भूपेन का बचपन नेपाल में बीता है. इसलिए वह वहां और हिमालय की बातें कर तीनों का तैयार कर लेता है. दूसरे दिन सुबह तीनों दोस्तों को भूपेन के देहांत की खबर मिलती है. भूपेन का इन दोस्तों के अलावा इस दुनिया में कोई नही है. क्योंकि भूपेन ने अपने लड़कपन के प्यार के चलते शादी नही की थी. भूपेन के अंतिम संस्कार के बाद अमित श्रीवास्तव को भूपने के घर से एवरेस्ट बेस कैंप जाने की दो माह बाद की चार टिकटें मिलती है. भूपेन की अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियों का विसर्जन एवरेस्ट बेस कैंप पर किया जाए. अब यह तीनों अपने दिवंगत दोस्त भूपेन (डैनी डेंग्जोंग्पा) को श्रद्धांजलि देने और उसकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए एवरेस्ट के बेस कैंप की ऊंचाई तक पहुंचने के लिए निकल पड़ते हैं. यॅूं तो अब यह सभी दोस्त अपनी बढ़ती उम्र की चुनौतियों के साथ-साथ स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं,  मगर दोस्त की खातिर असंभव को संभव बनाने के लिए निकल पड़ते हैं.  इन सभी दोस्तों की अपनी-अपनी कहानियां भी हैं.  जावेद और उसकी पतिव्रता पत्नी शबाना ( नीना गुप्ता) के बीच एक खूबसूरत रिश्ता है,  उनकी एक शादीशुदा बेटी हीबा कानपुर में रहती है. अमित सोशल मीडिया और युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय लेखक हैं, मगर उनकी असल जिंदगी में भी कुछ ऐसे राज हैं,  जो उन्होने खुद को सबसे आगे रखने के लिए छिपा रखे हैं. यह तीनों दोस्त अपने दिवंगत दोस्त भूपेन के अस्थि कलश को लेकर दिल्ली से आगरा होते हुए कानपुर जावेद की बेटी हीबा के घर पहुचते हैं. फिर लखनउ में उन्हें अपने साथ सहयात्री के रूप में माला त्रिवदेी (सारिका) को भी जोड़ना पड़ता है. कुछ समय बाद पता चलता है कि भूपेन की लड़कपन की प्यार माला त्रिवेदी थीं. वहां से गोरखपुर ओम शर्मा की पुश्तैनी हवेली होते हुए काठमांडू पहुंचते हैं. वहां ट्रैकिंग मार्गदशक दिव्या (परिणीति चोपड़ा ) के नेतृत्व में एवरेस्ट बेस कैंप की यात्रा शुरू होती है. कई कठिनाइयों के बाद यात्रा पूरी हेाती है. वह अपने दिवंगत दोस्त की अस्थियो को एवरेस्ट बेसकैंप पर विसर्जित करते हैं. एवरेस्ट बेस कैंप की चढ़ाई के दौरान यह तीनों जो कुछ सीखते हैं, उससे उनकी जिंदगी में बदलाव आता है.

लेखन व निर्देशनः

‘‘प्रेम रतन धन पाया’’ के का निर्देशन करने के सात  वर्ष बाद सूरज बड़जात्या ‘उंचाई’ लेकर आ हैं. जिसमें उनके दादा स्व. ताराचंद बड़जात्या के समय से चली आ रही ‘राजश्री प्रोडक्शन’ के पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों की महक बरकरार है. मगर इस बार कहानी व पटकथा कुछ कमजोर हो गयी है. मेरी समझ से इसकी मूल वजह इसके पटकथा लेखक का नई पीढ़ी का होना है. फिल्म में एक दृश्य है, जब अनुपम खेर तीस वर्ष बाद गोरखपुर में अपनी पुश्तैनी हवेली अपने दोस्तों के साथ पहुॅचते हैं, तब जिस तरह की प्रतिक्रिया उनके बड़े भाई देते हैं, वह गले नही उतरती. माना कि समाज में बदलाव आए हैं, मगर अभी भी उत्तर भारत के बुजुर्गो में कुछ तहजीब व पारिवारिक मूल्य बाकी हैं. यूं तो फिल्म में उपदेशात्मक भाषणबाजी नही है, मगर कई दृश्यों में सीख देने का प्रयास जरुर किया गया है. लेखक व निर्देशक की इस सोच की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होने पारिवारिक व सामाजिक मूल्यों का चित्रण करने के साथ ही समाज में आए बदलाव व वर्तमान युवा पीढ़ी की सोच और उनकी समस्यायों को भी उपेक्षित चित्रित किया है. मगर एवरेस्ट बेस कैंप की युवा कैप्टन का तीन बुजुर्गो के साथ कुछ दृश्यों में किया गया व्यवहार कहीं गलत लगता है. क्योकि इस तरह की कठिन चढ़ाई के दौरान कैप्टन का काम होता है हर किसी का हौसला बढ़ाना न कि हौसले को खत्म करना.

फिल्म में माता-पिता हमेशा सही नहीं होते,  बच्चे अक्सर गलत नहीं होते,  विवाह में दूरी की आवश्यकता हो सकती है,  और प्यार अक्सर सांसारिक सुखों के आगे झुक सकता है, जैसे मुद्दे भी मनोरंजक तरीके से उठाए गए हैं. फिल्म यह संदेश भी देती है कि किसी भी काम को कल पर मत छोड़ो,  क्योंकि जीवन में कल कभी नहीं आता.

बतौर निर्देशक सूरज बड़जात्या ने जज्बातर दृश्यों में किरदारों के आंसू बहाकर मैलोड्ामा नही बनाया. निर्देशक के तौर पर सूरज बड़जात्या ने बेहतरीन काम किया है. . काश उन्हे पटकथा का पूरा सहयोग मिला होता. . . . .

फिल्म के कुछ संवाद अच्छे बन पड़े हैं. एक संवाद है-‘‘शास्त्रों में लिखा है हमारे पर्वत,  हमारे वेदों के प्रतीक हैं औरयह तो हिमालय है‘,  ‘भले ही हम हिमालय के दर्शन न कर सके,  पर हम ये न भूलें कि हमारे अंदर भी हिमालय की वह शक्ति है, जिससे हम जीवन की हर ऊंचाई पार कर सकते हैं. ‘

एवरेस्ट बेस कैंप की ट्ैकिंग करना यानी कि चढ़ना आसान नही है. उस दौरान आने वाली परेशानियों का भी जिक्र है. तैयारी का भी जिक्र है. पर विस्तार से नही. बीच रास्ते मे दो पहाड़ियों के बीच के पुल को पार करने के दौरान तेज हवाओंे के साथ बारिश के दृश्य का फिल्मांकन बहुत सुंदर है, पर इस दृश्य को आवश्यकता से ज्यादा लंबा रखा गया है. इसे एडीटिंग टेबल पर कसा जा सकता था. प्री क्लायमेक्स के दृश्य भी काफी लंबे है. कम से कम इस फिल्म को तीस मिनट कम किया जा सकता था. इंटरवल से पहले फिल्म जितनी तेज गति से भागती है, इंटरवल के बाद फिल्म शिथिल पड़ जाती है. कहानी भी गडमड हो जाती है.

‘‘राजश्री प्रोडक्शन’’ की हर फिल्म की सफलता में उस फिल्म के गीत व संगीत का बहुत बड़ा योगदान रहा है. मगर ‘उंचाई ’ का उस हिसाब से खरा नही उतरता. माना कि अमित त्रिवेदी का संगीत हर सिच्युएशन के अनुसार सही है, पर वह बात नही बनी, जो बननी चाहिए थी.

अभिनयः

सूरज बड़जात्या ने फिल्म के किरदारो के अनुरूप बेहतरीन कलाकारों का चयन किया है. पर कैप्टन के किरदार में परिणीति चोपड़ा का चयन गलत रहा. वह अपने अभिनय से कहीं प्रभावित नहीं करती. अमित श्रीवास्तव के किरदार में कई परते हैं. जिसे अमिताभ बच्चन ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. अमिताभ बच्चन को नजदीकी से जानने वाले मानते है कि उनके निजी जिंदगी के कुछ तथ्य अमित श्रीवास्तव के किरदार मे हैं. मूलतः पारसी बोमन ईरानी ने मुस्लिम इंसान जावेद का किरदार निभाया है. पर कहीं न कहीं उर्दू संवाद बोलते हुए मात खा गए. पारिवारिक फिल्मों व किरदारों के लिए नीना गुप्ता तो अनिवार्य हो गयी हैं. अपने शबीना के किरदार में वह छा जाती हैं. ओम शर्मा के किरदार में अनुपम खेर का अभिनय बेहतरीन हैं, मगर उनके लहजे व मैनेरिज्म में दोहराव नजर आता है. माला त्रिवेदी के किरदार में सारिका ने कमाल का अभिनय किया है. भूपेन के  छोटे किरदार में भी डैनी अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

REVIEW: जानें कैसी है रणवीर सिंह की फिल्म ‘जयेशभाई जोरदार’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः आदित्य चोपड़ा व मनीष शर्मा

लेखक व निर्देशकः दिव्यांग ठक्कर

कलाकारः रणवीर सिंह, शालिनी पांडेय, बोमन ईरानी,  रत्ना पाठक शाह,  पुनीत इस्सर व अन्य.

अवधिः दो घंटे चार मिनट

‘लिंग परीक्षण के बाद भ्रूण हत्या’ और ‘बेटी बचाओ’ जैसे अति आवश्यक मुद्दे पर कितनी घटिया कथा व पटकथा वाली फिल्म बन सकती है, इसका उदाहरण है फिल्म ‘‘जयेशभाई जोरदार’’.  लेखक व निर्देशक कथा व पटकथा लिखते समय यह भूल गए कि वह किस मुद्दे को उभारना चाहते हैं?वह अपनी फिल्म में ‘लिंग परीक्षण’ व भ्रूण हत्या के खिलाफ जनजागृति लाकर ‘बेटी बचाओ ’ की बात करना चाहते हैं अथवा  इस नेक मकसद की आड़ में दर्शकों को कूड़ा कचरा परोसते हुए उन्हे बेवकूफ बनाना चाहते हैं. फिल्म का नायक जयेश भाई कहीं भी अपनी पत्नी के गर्भ धारण करने पर अपने पिता द्वारा उसका लिंग परीक्षण कराने के आदेश का विरोध नहीं करता. बल्कि वह खुद अस्पताल में डाक्टर के सामने स्वीकार करता है कि ‘वारिस’ यानी कि लड़के की चाहत में उसकी पत्नी को छह बार गर्भपात करवाया जा चुका है. कहने का अर्थ यह कि यह फिल्म बुरी तरह से अपने नेक इरादे में असफल रही है. इस फिल्म के लेखक निर्देशक के साथ ही कलाकार भी कमजोर कड़ी हैं. यह फिल्म इस संदेश को देने में बुरी तरह से असफल रही है कि ‘परिवार में लड़का हो या लड़़की, सब एक समान हैं. ’’यह फिल्म लिंग परीक्षण के खिलाफ भी ठीक से बात नही रख पाती है. अदालती आदेश के बाद जरुर फिल्म मेंे दो तीन जगह लिखा गया है कि ‘लिंग परीक्षण कानूनन अपराध है. ’

फिल्म में दिखाया गया है कि हरियाणा के एक गांव में लड़कियों के जन्म न लेने के चलते गांव के सभी पुरूष अविवाहित हैं. मगर यदि हम सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो 2019 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में प्रति हजार पुरूष के पीछे 905 औरते हैं. जबकि गुजरात में प्रति हजार पुरूष के पीछे 909 औरतें हैं. इस हिसाब से दोनों राज्यों में बहुत बड़ा अंतर नहीं है.

कहानीः

फिल्म की कहानी गुजरात के एक गांव से शुरू होती हैं, जहां सरपंच के पद पर एक पृथ्विश (बोमन ईरानी) के परिवार का कब्जा है. जब सरपंच के लिए दूसरा उम्मीदवार मैदान में आया तो उन्होने ‘महिला आरक्षित सीट’ का हवाला देकर अपने बेटे जयेश भाई (रणवीर सिंह ) की बहू मुद्रा (शालिनी पांडे )को मैदान में उतारकर सरपंच अपने परिवार के अंदर ही रखा है. एक दिन पंचायत में जब गांव की एक लड़की सरपंच से कहती है कि स्कूल के बगल में शराब की बिक्री बंद करायी जाए,  क्योंकि शराब पीकर लड़के,  लड़कियों को छेड़ते हैं, तो पृथ्विश आदेश देते है कि गांव की लड़कियंा व औरतें साबुन से न नहाए. खैर, पृथ्विश को अपनी बहू मुद्रा से परिवार के वारिस के रूप में लड़की चाह हैं. मुद्दा की पहली बेटी सिद्धि(जिया वैद्य) नौ वर्ष की हो चुकी है. सिद्धि के पैदा होने के बाद ‘घाघरा पलटन’ नही चाहिए. वारिस के तौर पर लड़के की चाहत में पृथ्विश के आदेश की वजह से मुद्रा का छह बार लिंग परीक्षण के बाद गर्भपात कराया जा चुका है. मुद्रा अब फिर से गर्भवती हैं. इस बार भी लिंग परीक्षण में जयेश भाई को डाक्टर बता देती है कि लड़की है, तो पत्नी से प्रेम करने वाले जयेशभाई नाटक रचकर बेटी सिद्धि व मुद्रा के साथ घर से भागते हंै. पृथ्विश गांव के सभी पुरूषों के साथ इनकी तलाश में निकलते हैं. पृथ्विश ऐलान कर देते हैं कि अब पकड़कर मुद्रा को हमेशा के लिए खत्म कर जयेशभाई की दूसरी शादी कराएंगे. चूहे बिल्ली के इसी खेल के बीच हरियाणा के एक गांव के सरपंच अमर ताउ(पुनीत इस्सर) आ जाते हैं. जिनके गांव में लड़कियों के अभाव में सभी पुरूष अविवाहित हैं. एक मुकाम पर अमर ताउ अपने गांव के सभी पुरूषों के साथ सिद्धि के बुलाने पर मुद्रा अपनी बेटी को जन्म दे सकें, इसके लिए पहुॅच जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी तो इसके लेखक व निर्देशक दिव्यांग ठक्कर ही हैं. खुद गुजराती हैं, इसलिए उन्होने कहानी गुजरात की पृष्ठभूमि में बुनी. गुजरात पर्यटन विभाग ने अपने राज्य की छवि को सुधारने में पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई सौ करोड़ रूपए खर्च कर दिए, जिसमें पलीटा लगाने में दिव्यांग ठक्कर ने कोई कसर नही छोड़ी. फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद से ही अविश्वसनीय सी लगने लगती है और इंटरवल तक फिल्म का बंटाधार हो चुका होता है. इंटरवल के बाद तो फिल्म नीचे ही गिरती जाती है.

‘शायद दिव्यांग ठक्कर ‘समाज की पिछड़ी सोच, लैगिक असमानता व ‘भ्रूण हत्या’ जैसे गंभीर मुद्दे पर नेक इरादे से कोई डाक्यूमेंट्री बनाना चाहते हांेगे, पर फीचर फिल्म का मौका मिला, तो बिना इस विषय की गहराई में गए अनाप शनाप घटनाक्रम जोड़कर भानुमती का पिटारा बना डाला. फिल्म में एक दृश्य में एक गांव में सरकारी स्तर पर आयोजित ‘‘बेटी बचाओ’ के मेेले का दृश्य दिखाया, पर इसका भी फिल्माकर सही ढंग से उपयोग नही कर पाएं.

फिल्म में एक कहानी जयेशभाई की बहन प्रीती का भी हैं. फिल्म में बताया गया है कि गुजरात की परंपरा के अनुसार जयेशभाई की बहन प्रीती की शादी जयेश की पत्नी मुद्रा के भाई से हुई है. जब जब  प्रीती का पति उसकी पिटायी करता है, तब तब जयेश को भी मुद्रा की पिटायी करने के लिए कहा जाता है. कई दशक पुरानी गुजरात के किसी अति पिछड़े गांव की इस तरह के घटनाक्रम का इस फिल्म की मूल कहानी से संबंध समझ से परे है. इतना ही नही पृथ्विश के गांव के सारे पुरूष पृथ्विश के साथ मुद्रा व सिद्धि पकड़ने की मुहीम में शामिल हैं, मगर इनमें से एक भी पुरूष अपनी पत्नी या बेटी के साथ गलत व्यवहार करते हुए नहीं दिखाया गया. इतना ही नही फिल्मसर्जक फिल्म में सोशल मीडिया की ताकत को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. यह सब जोकर की तरह आता जाता है.

फिल्मकार का दिमागी दिवालियापन उस दृश्य से समझा जा सकता है, जहां प्रसूति गृह यानी कि अस्पताल में मुद्रा बेन द्वारा बेटी को जन्म देने में आ रही तकलीफ से डाक्ठर परेशान हैं, मगर अचानक मुद्राबेन व जयेश भाई एक दूसरे की ‘पप्पी’ यानी कि ‘चंुबन’ लेने लगते हैं और बेटी का जन्म सहजता से हो जाता है. वाह क्या कहना. . .

पूरी फिल्म देखकर यही समझ में आता है कि लेखक व निर्देशक ने महसूस किया कि इन दिनों सरकारी स्तर पर ‘बेटी बचाओ’ मुहीम चल रही है. तो बस उन्होेने इसी पर फिल्म लिख डाली. पर वह विषय की गहराई में नहीं गए. उन्होने कथा पटकथा लिखने से पहले यह तय नही किया कि वह अपनी फिल्म में ‘लिंग परीक्षण’ के खिलाफ बात करने वाले हैं या उनका नजरिया क्या है. . . . उन्होने जो किस्से सुने थे, , उन सभी किस्सों को जोड़कर चूंू चूंू का मुरब्बा परोस दिया. जो कि इतना घटिया है, कि दर्शक सिनेमाघर से निकलते समय अपना माथा पीटता नजर आता है.

अभिनयः

फिल्म में किसी भी कलाकार का अभिनय सराहनीय नही है. लोग सवाल कर रहे हैं कि आखिर रणवीर सिंह जैसे उम्दा कलाकार ने यह फिल्म क्यों की? शायद वह यशराज फिल्मस व आदित्य चोपड़ा को इंकार करने की स्थिति में नही रहे होंगें. पर इस फिल्म से एक बात साफ तौर पर सामने आती है कि रणवीर सिंह जैसे कलाकार से अदाकारी करवाने के लिए संजय लीला भंसाली जैसा निर्देशक ही चाहिए. फिल्म की नायिका शालिनी पांडे भी इस फिल्म की कमजोर कड़ी हैं. उनके चेहरे पर कहीं कोई हाव भाव एक्सप्रेशन आते ही नही है. उन्हे तो नए सिरे से अभिनय क्या होता है, यह सीखना चाहिए. जयेशभाई के पिता के किरदार में बोमन इरानी का चयन ही गलत रहा. रत्ना पाठक शाह भी अपने अभिनय का जलवा नही दिखा पायी. पुनीत इस्सर के हिस्से करने को कुछ था ही नहीं.

ये भी पढ़ें- Anupama- Anuj का रोमांस देख फैंस ने लुटाया प्यार तो वनराज का उतरा चेहरा

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें