किताबें आप का व्यक्तित्व बनाती हैं, निखारती हैं और पथप्रदर्शन भी करती हैं. पुस्तकें हमारी अवधारणा को सही या गलत दिशा में ले जाने की शक्ति रखती हैं. पुस्तकों में वह ताकत होती है जो हमारी सोच को मोड़ प्रदान करती है. हम सफलता की ओर चलें या निराशा के अंधेरे में डूब जाएं, यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम कैसा साहित्य पढ़ते हैं. किताबें पढ़ने से हमारी सोच खुद ही विकसित होती है. सोच और पाठ्य को एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है.
हम जैसा पढ़ते हैं, वैसी ही हमारी सोच बनती है. सोचने से बुद्धि का विकास होता है. इस का सीधा मतलब है कि अपने मस्तिष्क का विकास करना हमारे वश में है. सही साहित्य हमारी सोचनेसमझने की क्षमता को वृद्धि प्रदान करता है, हमारी बौद्धिक शक्ति को अग्रसर करता है. इसीलिए कहा जाता है कि आप कैसी किताबें पढ़ते हैं, वैसे ही आप की पर्सनैलिटी बनती है.
आजकल के तकनीकी युग में मोबाइल के नशे में चूर, हम अकसर अपनेअपने 5-7 इंच के स्क्रीन से चिपके रहते हैं. हमें गलतफहमी हुई रहती है कि हम ने दुनिया को मुट्ठी में कर लिया है. शायद हम सोचते हैं कि कितनी आसानी से हम एक से दूसरी जगह भ्रमण कर रहे हैं. किंतु सचाई यह है कि मोबाइल के अंदर कैद हम केवल एक साइट से दूसरी साइट पर भटक रहे होते हैं.
किताबों के फायदे
हाल ही में किशोर पाठकों पर किए गए एक शोध से पता चला कि जो छपी हुई पुस्तक को पढ़ते हैं उन्हें स्क्रीन पर पढ़नेवालों की अपेक्षा बहुत बेहतर समझ आता है. इस का कारण यह भी हो सकता है कि स्क्रीन पर पढ़ने वालों को टैक्स्ट समझने से ज्यादा जरूरी है स्क्रीन सैवी होना. उन का ध्यान अकसर स्क्रीन की बारीकियों पर अधिक रहता है. जबकि एक किताब पाठक से कमिटमैंट मांगती है, यह गुण स्क्रीन में नदारत है.
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किताब की एकएक लाइन का क्या मतलब है, शब्दों के बीच के भावों में लेखक क्या कहना चाहता है, इस का तानाबाना पाठक अपने मनमस्तिष्क में बुनता है. शायद इसीलिए फैशन डिजाइनर दीपिका गोविंद कहती हैं कि पढ़ने के लिए उन्हें किंडल नहीं, पुराने तौरतरीके की पुस्तकें ही चाहिए.
विशेषज्ञों की राय
द फ्यूचर औफ पब्लिशिंग में पब्लिशिंग एडिटर थेड मैकलौय कहते हैं, ‘‘इलैक्ट्रौनिक तरीके से पढ़ने की तुलना में पुस्तकों से पढ़ना श्रेयस्कर लगता है. पुस्तकों को पढ़ते समय एक टैक्स्ट से दूसरे टैक्स्ट पर जाना आसानी से हो जाता है. कब किस ने क्या कहा था, कहानी में कौन सा चरित्र, कौन सा मोड़ आया था, यह आसानी से रेफर किया जा सकता है. इतनी सुविधा ई बुक में नहीं होती.
यूनिवर्सिटी औफ एरिजोना की एसोसिएट प्रोफैसर सबरीना हेम के अनुसार, ‘‘किताबों के प्रति लोग अकसर मानसिक स्वत्व या स्वामित्व अधिकार अनुभव करते हैं. जबकि ई बुक पर कोई अधिकार की भावना उत्पन्न नहीं होती क्योंकि वह क्लाउड पर मौजूए एक प्रोडक्ट लगती है. पुस्तकें हमारे हाथ में, हमारी बुकशैल्फ में, हमारे जीवन का एक हिस्सा बन जाती हैं.
किताबें सच्ची हमसफर
जब कभी आप को कहीं जाना हो- रैस्तरां में, बस या रेल यात्रा पर या कैब में, तब अपने बैग में रास्ते में पढ़ने हेतु किताब अवश्य पैक करें. यात्रा भी आसानी से कट जाएगी और आप का ज्ञान बढ़ेगा, सो अलग. रास्ते में मोबाइल पर अनर्गल चैट पर वक्त खराब करने से अच्छा है कि किताबों की दुनिया में सैर करें, भिन्न साहित्य के बहाने आप कितने ही पात्रों की ओट में नित नए चरित्रों से मिलते हैं, उन की मानसिकता से परिचित होने का अवसर प्राप्त करते हैं. आप नई परिस्थितियों में उलझते हैं, उन से निबटना सीखते हैं.
टोरंटो यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्रोफैसर कीथ ओटले कहते हैं, ‘‘फिक्शन पढ़ने वाले लोगों को बेहतर समझ सकते हैं. किताब पढ़ने से न केवल हमारा शब्दज्ञान बढ़ता है बल्कि हमारी भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास भी होता है. कोशिश करें कि हर बार एक नई तरह की पुस्तक पढ़ें. इस से आप को बैठेबैठे कितने ही तरह के अनुभव प्राप्त होते रहेंगे. साथ ही, अपने से अलग लोगों व संस्कृतियों के प्रति हमारी सहानुभूति भी जागती है. जबकि मोबाइल पर फालतू गेम खेलने का नशा कब आप का कीमती वक्त खा जाता है, यह बात आप तब समझ पाते हैं जब समय की रेत मुट्ठी से फिसल चुकी होती है.’’
हाथ में अच्छी किताब देख कर कोई भी पुस्तकप्रेमी बिना आप से बात किए नहीं रह सकेगा. और आप को नए मित्र बनाने का अच्छा मौका मिलेगा. इस के विपरीत मोबाइल की दुनिया में कैद हम अपने आसपास बैठे लोगों की शक्लें तक नहीं देखते. इसीलिए अपने पास एक किताब जरूर रखें. यदि अकेले होने की सूरत हो तो किताब आप का साथ पूरी ईमानदारी से निभाएगी. यहां तक कि यदि रैस्तरां में आप के दोस्तसाथी अभी तक नहीं आए हैं तो निकाल लीजिए उस किताब को अपने बैग से और रम जाइए उस पन्ने में जिस में छिपा है ज्ञान का भंडार. तभी तो शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफैसर औफ मैडिसिन, डा, मार्टिन टोबिन, ब्रिटिश मैडिकल जर्नल में प्रकाशित अपने एक आर्टिकल में लिखते हैं, ‘अपना स्मार्टफोन नीचे रखो और किताब उठाओ.’
किताबों से भावनात्मक जुड़ाव
कितने ही लोग बचपन की कहानियों की किताबों को सारी उम्र याद रखते हैं. कौन सी किताब में कहां क्या नोट किया, किस पन्ने में एक सूखा हुआ गुलाब का फूल रखा, या फिर कौन सी किताब को परमप्रिय मित्र ने उपहारस्वरूप दिया, ये सब भूलना मुश्किल होता है.
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बहुत से पाठक यह भी मानते हैं कि पुस्तकों को छू कर पढ़ना हमारे अंदर एक खास स्पर्शनीय याद छोड़ जाता है. बचपन में नए सत्र की नई किताबों के पन्नों की खुशबू कौन भूल पाया है भला. किताब में पढ़ने से पढ़ा गया याद रखने में आसानी रहती है. कैमिस्ट्री में स्नातकोत्तर कर रही शिखा जैन के लिए पन्ना पलट कर किताब पढ़ने का आनंद अद्वितीय है.
बैंक में कार्यरत श्वेग के बैग में कोई न कोई पुस्तक अवश्य मिलेगी. वे कहती हैं, ‘‘मेरे लिए मेरी किताब 3 जगह जरूर मेरा साथ देती है- बाथरूम में, बस में सफर करते समय और बैड पर सोने से पहले.’’
स्क्रीन रीडिंग का सेहत पर असर
यह बात साबित हो चुकी है कि किताबें पढ़ने से स्ट्रैस कम होता है और हम 6 मिनटों के अंदर ही रिलैक्स फील करने लगते हैं. किंतु गैजेट पर पढ़ने से इस का उलटा असर हो सकता है. डिजिटल रीडिंग से अटैंशन स्पैन कम होता है और पढ़ने का फोकस बिगड़ता है. औनलाइन पढ़ते हुए हम एक लिंक से दूसरे पर, फेसबुक से ट्विटर पर, स्नैप से व्हाट्सऐप पर जाते हुए ही इतना थक जाते हैं कि हमारा दिमाग पढ़ने लायक नहीं रहता.
रात को स्क्रीन पर पढ़ने से नींद उचट जाना आज एक आम अनुभव बन गया है. हारवर्ड यूनिवर्सिटी ने एक शोध में इस की वजह मालूम की है- रात को ई बुक पढ़ने के कारण नींद का अहम हार्मोन मैलाटोनिन कम बनता है. साथ ही, स्क्रीन की रोशनी सीधे आंखों में चौंधियाती है. जबकि किताब पढ़ने से नींद आने की संभावना बढ़ जाती है. किताबें हमारा स्ट्रैस कम करती हैं, हमें अपने संसार में ले जा कर अच्छी नींद लाने में मददगार होती हैं. इसी कारण जब मातापिता अपने बच्चों को पढ़ने के लिए कुछ देना चाहते हैं तो किताबें ही उन की पहली पसंद होती हैं न कि डिजिटल बुक्स.
डिजिटल रीडर के नुकसान
जब आज की पीढ़ी किंडल या आईपैड पर कुछ पढ़ती है तो उसे केवल ऐसा प्रतीत होता है कि वह पढ़ रही है. किंतु वाकई में यह केवल पढ़ने का एहसास होता है. दिल्ली में रहने वाली गृहिणी मोइना कहती हैं, ‘‘जब मैं मोबाइल पर कोई ई बुक पढ़ती हूं तो एक चैप्टर पढ़ने के बाद कब मैं औनलाइन ऐड्स की ओर भटक जाती हूं, पता ही नहीं चलता. फिर 2 घंटे बाद ध्यान आता है कि ई बुक तो रह ही गई, और मेरा सारा टाइम वेस्ट हो गया.’’
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गैजेट्स पर पढ़ने से ध्यान भटकने के पूरे चांसेज रहते हैं. हम कब एक एप्लिकेशन से दूसरी में पहुंच जाते हैं. इस का भान तक नहीं होता. होती है तो बस समय की बरबादी.