हिंदुस्तान को हर साल कम से कम 2 लाख किडनियां चाहिए ताकि किडनी फेल से पीड़ित मरीजों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सके. इसी क्रम में हिंदुस्तान को 50 हजार से ज्यादा दिल या हार्ट तथा इतने ही लिवर भी चाहिए.अगर ये सब उपलब्ध हो जाएं तो हिंदुस्तान में हर साल 5 लाख लोगों को असमय मरने से बचाया जा सकता है. सवाल है ये मानव अंग आखिर कैसे उपलब्ध हो सकते हैं? इसका एक ही तरीका है कि बड़े पैमाने पर लोग अंगदान करें. यूं तो हम ऋषि दाधीचि के विरासतदार हैं जिन्होंने देवताओं को परेशान करने वाले असुर वृत्तासुर के संहार के लिए अपनी अस्थियों का दान दे दिया था ताकि उनकी अस्थियों से देवराज इंद्र के लिए धनुष बनाया जा सके और वृत्तासुर का वध किया जा सके.
लेकिन व्यवहारिक सच यही है कि हमारे यहां दुनिया में सबसे कम अंगदान होता है.10 लाख लोगों में सिर्फ 0.26 लोग ही अंगदान करते हैं.यही वजह है कि अगर किसी व्यक्ति का कोई अंग फेल हो जाता है और उस अंग के बिना जीना संभव नहीं होता तो अकसर ऐसे लोगों को मौत ही गले लगानी पड़ती है.यह समस्या हल हो सकती है, अगर देश में बड़े पैमाने पर अंगदान होने लगे. यूं तो अंगदान के लिए लोगों को जागरूक करने की कोशिश पिछले 5 दशकों से हो रही है,लेकिन इस सबमें अपेक्षित सफलता अभी तक नहीं मिली और न ही मिल रही है. जीवित अंगों को हासिल करने का एक तरीका यह भी है कि ‘ब्रेन डेड’ लोगों के जीवित अंगों का इस्तेमाल उन मरीजों के लिए हो, जो इनके बिना मौत के मुंह में जाने को अभिशप्त हों.
ये भी पढ़ें- बच्चों का उत्पीड़न हो सकता है खतरनाक
लेकिन हिंदू माइथोलाजी के मुताबिक जब तक किसी मरे हुए व्यक्ति का विधिवत अंतिम संस्कार नहीं होता तो कहते हैं वह स्वर्ग नहीं जाता. इसलिए हिंदुओं में अंगदान की परंपरा बहुत कमजोर है.लेकिन मुस्लिमों में तो यह बिल्कुल न के बराबर है.क्योंकि इस्लाम में मान्यता है कि कयामत के दिन सारे मुर्दा जी उठेंगे, इसलिए कोई भी मुस्लिम अंगदान करने से बचता है.इससे कयामत के दिन उसके जी सकने की संभावना खत्म होती है.कुल मिलाकर हिंदुस्तान में अंगदान न होने का बहुत बड़ा कारण यह है कि दोनो बड़े धर्मों के लोग मृत्यु को पाप पुण्य और पुनर्जन्म से जोड़ रखा है.जबकि दुनिया के बाकी देशों में खासकर यूरोप और अमरीका जैसे वैज्ञानिक नजरिये वाले देशों में अंगदान की कोई समस्या नहीं है.
अब भारत सरकार भी ‘ब्रेन डेथ’ की कानूनी स्थिति और मान्यता में बदलाव करके बड़े पैमाने पर मानव अंगों की व्यवस्था करने का मन बनाया है ताकि लाखों लोगों को असामयिक मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सके. गौरतलब है कि केरल ने इस साल जनवरी में ब्रेन डेथ के संबंध में जो दिशानिर्देश जारी किये हैं, उनके अनुसार ब्रेन डेड व्यक्ति से लाइफ सपोर्ट हटाने का निर्णय लेने का अधिकार डॉक्टरों को दिया गया है.कहने का मतलब कि डॉक्टर ऐसा अपनी तरफ से भी कर सकते हैं. इस तरह देखें तो यह अब तक का सबसे साहसी निर्णय है.हालांकि कुछ लोग इसे डरावना भी बता रहे हैं.बहरहाल केरल सरकार ने इसके लिए दस-सूत्रीय सर्टिफिकेशन प्रक्रिया भी जारी की है. केरल की देखा देखी अब महाराष्ट्र भी इसी दिशा में आगे बढ़ने की योजना बना रहा है.
विशेषज्ञों की नजर में केरल की साहसिक कोशिश के बावजूद इस संदर्भ में नैतिकता व प्रैक्टिस को लेकर अनेक प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं.इसलिए जरूरी है कि केंद्र न केवल ब्रेन डेथ को परिभाषित करे बल्कि कानूनन स्पष्ट करे कि एक ब्रेन डेड व्यक्ति के साथ क्या किया जाये और उसकी लाइफ सपोर्ट के बारे में कौन निर्णय ले? भारत में ब्रेन डेथ को केवल मानव अंग प्रत्यारोपण कानून (टीएचओ)-1994 के तहत अंग दान के संदर्भ में ही एक बार परिभाषित किया गया है,जिससे सर्टिफिकेशन को सिर्फ अंगदान प्रक्रिया में मदद करने के रूप में ही देखा जाता है.लेकिन अगर परिवार यह कह दे कि वह अंगदान नहीं करना चाहता, तब क्या होगा? इस पर कोई स्पष्टता नहीं है.कानूनी जटिलताओं से बचने के लिए अधिकतर मामलों में डॉक्टर वेंटीलेटर व सपोर्ट सिस्टम्स को स्विच-ऑफ करने से इंकार कर देते हैं.
बावजूद इसके कि वह जानते हैं कि एक बार ब्रेन डेड डायग्नोज होने पर उपचार जारी रखना ‘बेकार का हस्तक्षेप’ है. परिवार झूठी उम्मीदें पाले रखता है कि रोगी ठीक हो जायेगा और इस प्रकार आईसीयू सुविधाएं, जिनकी भारत में काफी कमी है, अकारण ही घिरी रहती हैं. भारत के अधिकतर राज्यों में जब परिवार ब्रेन डेड रोगी के अंगदान करने पर सहमत होता है तभी टीएचओ नियमों-1995 के तहत सर्टिफिकेशन प्रक्रिया आरंभ होती है. इन नियमों के अनुसार चार मेडिकल विशेषज्ञों को ब्रेन-स्टेम डेथ डायग्नोज करनी होती है। ब्रेन-स्टेम डेथ हो गई है, इसके लिए रोगी का गहरे कोमा में और वेंटीलेटर पर होना आवश्यक है कि स्वतः सांस न ली जा रही हो और सभी ब्रेन-स्टेम रिफ्लेक्स अनुपस्थित हों.छह घंटे के अंतराल पर सभी निर्धारित टेस्टों को दोहराना होता है. ध्यान रहे कि ब्रेन स्टेम दिमाग का वह हिस्सा है, जिससे सभी आवश्यक कार्य जैसे सांस, दिल की धड़कन व ब्लड प्रेशर का नियमन होता है। रोगी का मूल्यांकन केवल उसी समय होता है जब अस्पताल से जुड़े समाज सेवी यह रिपोर्ट करें कि रोगी का परिवार उसके अंगदान करने का इच्छुक है.अगर समिति के मूल्यांकन के बाद परिवार अपनी बात से पीछे हट जाता है तो रोगी का उपचार जारी रहता है.
ये भी पढ़ें- क्या आपने 18 हजार का पान खाया है?
अब केरल ने जो दिशानिर्देश जारी किये हैं, उनका अर्थ यह है कि डॉक्टरों का एक पैनल निर्धारित टेस्ट करेगा, अगर साबित हो जाता है कि रोगी ब्रेन डेड है और उसके ठीक होने की कोई संभावना नहीं है तो सभी उपचार रोक दिए जायें और इसके लिए परिवार की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है. ध्यान रहे कि ब्रेन डेथ अनेक देशों में लीगल व मेडिकल मौत है.लेकिन परिवारों के लिए सपोर्ट स्विच ऑफ करना कठिन होता है क्योंकि रोगी ब्रेन डेड होने के बाद भी जीवन के कुछ चिन्ह प्रदर्शित करता है. केरल ने इस सिलसिले में निर्णय लेने का भार परिवार से हटाकर डाॅक्टरों पर डाल दिया गया है.एक अच्छी बात केरल ने यह की है कि ब्रेन डेथ घोषणा को अंगदान से अलग कर दिया है.इससे वह अस्पष्टता दूर हो गई है जो जनता व डॉक्टरों के मन में थी. अब जरुरत इस बात की है कि ब्रेन डेथ को जन्म व मृत्यु पंजीकरण कानून 1969 के तहत मौत की परिभाषा में शामिल किया जाये, जोकि केंद्र सरकार ही कर सकती है.
इस कानून के तहत मौत को इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि जीवित जन्म के बाद किसी भी समय जब जीवन के तमाम साक्ष्य लुप्त हो जायें तो वह मौत कहलायेगी।.चूंकि ब्रेन डेड व्यक्ति वेंटीलेटर की मदद से सांस ले सकता है, इसलिए इस कानून के तहत वह मृत नहीं होता. विशेषज्ञ लम्बे समय से ब्रेन डेथ को डेथ सर्टिफिकेट में शामिल करने की मांग करते आये हैं.यहां यह बताना आवश्यक है कि व्यक्ति की दो तरह से मौत होती है- कार्डियक डेथ (दिल की धड़कन का बंद हो जाना) और ब्रेन डेथ. इन दोनों मौतों में कभी-कभार कई दिन का अंतर हो जाता है, ऐसे में रोगी के परिवार के समक्ष यह नैतिक उलझन होती है कि वह लाइफ सपोर्ट जारी रखे या नहीं. अब महाराष्ट्र भी केरल का अनुसरण करने की योजना बना रहा है.तमिलनाडु के डॉक्टर भी कह रहे हैं कि ब्रेन डेथ का अर्थ मौत ही है.कर्नाटक के डॉक्टरों का कहना है कि ब्रेन डेड व्यक्ति को वेंटीलेटर पर रखकर हम परिवार पर निर्णय लेने का बोझ डालते हैं जोकि सही नहीं है.