कहते हैं समय राजा को रंक, रंक को राजा बना देता है. कभी यह अधूरा सच लगता है, जब हम गलतियां करते हैं तब करनी को समय से जोड़ देते हैं. इस कहानी के किरदारों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. 2 सगे भाई एकदूसरे के दुश्मन बन गए. जब तक मांबाप थे, रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा का शहर में बड़ा नाम था. रैस्टोरैंट खुलने से देररात तक ग्राहकों का तांता लगा रहता. फुरसत ही न मिलती. पैसों की ऐसी बरसात मानो एक ही जगह बादल फट रहे हों.
समय हमेशा एक सा नहीं रहता. करवटें बदलने लगा. बाप का साया सिर से क्या उठा, भाइयों में प्रौपर्टी को ले कर विवाद शुरू हो गया. किसी तरह जमापूंजी का बंटवारा हो गया लेकिन पेंच रैस्टोरैंट को ले कर फंस गया. आपस में खींचतान चलती रही. घर में स्त्रियां झगड़ती रहीं, बाहर दोनों भाई. एक कहता, मैं लूंगा, दूसरा कहता मैं. खबर को पंख लगे. उधर रिश्ते के मामा नेमीचंद के कान खड़े हो गए. बिना विलंब किए वह अपनी पत्नी और बड़े बेटे को ले कर उन के घर पहुंच गया. बड़ी चतुराई से उस ने ज्ञानी व्यक्ति की तरह दोनों भाइयों, उन की पत्नियों को घंटों आध्यात्म की बातें सुनाईं. सुखदुख पर लंबा प्रवचन दिया. जब देखा कि सभी उस की बातों में रुचि ले रहे हैं, तब वह मतलब की बात पर आया, ‘‘आपस में प्रेमभाव बनाए रखो. जिंदगी की यही सब से बड़ी पूंजी है. रैस्टोरैंट तो बाद की चीज है.’’ नवीन ने चिंता जताई,
‘‘हमारी समस्या यह है कि इसे बेचेंगे, तो लोग थूथू करेंगे.’’ ‘‘थूथू पहले ही क्या कम हो रही है,’’ नेमीचंद सम झाते हुए बोला, ‘‘रैस्टोरैंट ही सारे फसाद की जड़ है. यदि इसे किसी बाहरी को बेचोगे तो बिरादरी के बीच रहीसही नाक भी कट जाएगी.’’ सभी सोच में पड़ गए. ‘‘रैस्टोरैंट एक है. हक दोनों का है. पहले तो मिल कर चलाओ. नहीं चलाना चाहते तो मैं खरीदने की कोशिश कर सकता हूं. समाज यही कहेगा कि रिश्तेदारी में रैस्टोरैंट बिका है…’’ नेमीचंद का शातिर दिमाग चालें चल रहा था. उसे पता था कि सुलह तो होगी नहीं. रैस्टोरैंट दोनों ही रखना चाहते हैं, यही उन की समस्या है. रैस्टोरैंट बेचना इन की मजबूरी है और उसे सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए. आखिरकार, उस की कूटनीति सफल हुई. दोनों भाई रैस्टोरैंट उसे बेचने को राजी हो गए. नेमीचंद ने सप्ताहभर में ही जमाजमाया रैस्टोरैंट 2 करोड़ रुपए में खरीद लिया. बड़े भाई प्रवीण और छोटे भाई नवीन के बीच मसला हल हो गया,
किंतु मन में कड़वाहट बढ़ गई. नेमीचंद ने ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा’ के बोर्ड के नीचे पुराना नाम बदल कर प्रो. नेमीचंद एंड संस लिखवा दिया. रैस्टोरैंट के पुराने स्टाफ से ले कर फर्नीचर, काउंटर कुछ नहीं बदला. एकमात्र मालिकाना हक बदल गया था. दोनों भाई जब भी रैस्टोरैंट के पास से गुजरते, खुद को ठगा महसूस करते. अब दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. दोनों के परिवार पुश्तैनी मकानों में अलगअलग रहा करते थे. दोनों के प्रवेशद्वार अगलबगल थे. बरामदे जुड़े हुए थे, लेकिन बीच में ऊंची दीवार खड़ी थी. दोनों भाइयों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न देखतीं. बच्चे सम झदार थे, मगर मजबूर. भाइयों के बीच कटुता इतनी थी कि एक बाहर निकलता तो दूसरा उस के दूर जाने का इंतजार करता. सभी एकदूसरे की शक्ल देखना पसंद न करते.
रैस्टोरैंट खरीदने के बाद नेमीचंद के दर्शन दुर्लभ हो गए. पहले कुशलक्षेम पूछ लिया करता था. धीरेधीरे नेमीचंद उन की कहानी से गायब ही हो गया. लेदे कर एक बुजुर्ग थे गोकुल प्रसाद. उन के पारिवारिक मित्र थे. जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो बड़े दुखी हुए. उसी दिन वे दोनों से मिलने उन के घर चले आए. पहुंचते ही उन्होंने दोनों को एकांत में बुला कर अपनी नाराजगी जताई. फिर बैठ कर सम झाया, ‘‘इस झगड़े में कितना नुकसान हुआ, तुम लोग अच्छी तरह जानते हो. नेमीचंद ने चालाकी की है लेकिन इस में सारा दोष तुम लोगों का है.’’ ‘‘गलती हो गई दादा, रैस्टोरैंट हमारे भविष्य में न था, सो चला गया,’’ प्रवीण पीडि़त स्वर में बोला और दोनों हथेलियों से चेहरा ढक लिया. ‘‘मूर्खता करते हो, दोष भविष्य और समय पर डालते हो,’’ गोकुल प्रसाद ने निराश हो कर लंबी सांस ली, ‘‘सारे शहर में कितनी साख थी रैस्टोरैंट की. खूनपसीने से सींचा था उसे तुम्हारे बापदादा ने.’’ नवीन बेचैन हो गया,
‘‘छोडि़ए, अब जी जलता है मेरा.’’ ‘‘रुपया है तुम्हारे पास. अब सम झदारी दिखाओ. दोनों भाई अलगअलग रैस्टोरैंट खोलो. इस की सम झ तुम लोग रखते हो क्योंकि यह धंधा तुम्हारा पुश्तैनी है.’’ प्रवीण को बात जम गई, ‘‘सब ठीक है. पर एक ही इलाके में पहले से ही एक रैस्टोरैंट है?’’ ‘‘खानदान का नाम भी कुछ माने रखता है,’’ गोकुल प्रसाद ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिता का दोस्त हूं, गलत नहीं कहूंगा. खूब चलेगा.’’ ‘‘मैं आप की बात मान लेता हूं,’’ प्रवीण ने कहा, ‘‘इस से भी पूछ लो. इसे रैस्टोरैंट खोलना है या नहीं.’’ नवीन भड़क उठा, ‘‘क्या सम झते हो, तुम खोलो और मैं हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूं? ठीक तुम्हारे ही सामने खोलूंगा, देखना.’’ ‘‘क्या हो गया दोनों को? भाई हो कि क्या हो? इतना तो दुश्मन भी नहीं लड़ते,’’ गोकुल प्रसाद झल्लाए और उठने लगे. ‘‘रुकिए दादा. भोजन कर के जाना,’’ प्रवीण ने आग्रह किया. ‘‘आज नहीं. जब दोनों के मन मिलेंगे तब भोजन जरूर करूंगा.’’ गोकुल प्रसाद ने अपनी छड़ी उठाई और अपने घर के लिए चल दिए. दोनों को आइडिया सही लगा.
घर में पत्नियों की राय ली गई और जल्दी ही किराए की जगह पर रैस्टोरैंट खोल दिए. संयोग ऐसा बना कि दोनों को रैस्टोरैंट के लिए जगह आमनेसामने ही मिली. दोनों रैस्टोरैंट चल पड़े. कमाई पहले जैसी तो नहीं थी, तो कम भी न थी. रुपया आने लगा. लेकिन कटुता नहीं गई. दोनों में प्रतिस्पर्धा भी जम कर होने लगी. तू डालडाल, मैं पातपात वाली बात हो गई. दोनों भाइयों में बड़े का रैस्टोरैंट ज्यादा ग्राहक खींच रहा था. इस बात को ले कर नवीन को खासी परेशानी थी. आखिरकार उस ने एक बोर्ड टांग दिया- ‘लंच और डिनर- 100 रुपए मात्र.’ प्रवीण ने भी देखादेखी रेट गिरा दिया, ‘लंच और डिनर- 80 रुपए मात्र.’ ग्राहक को यही सब चाहिए. शहर के लोग लड़ाई का मजा ले रहे थे. मालिकों में तकरार बनी रहे और अपना फायदा होता रहे. नवीन भी चुप नहीं बैठा रहा. कुछ महीनों बाद ही उस ने फिर रेट 75 रुपए कर दिया.
मजबूरन प्रवीण को 60 रुपए पर आना पड़ा. इस तनातनी में 6-7 महीने गुजर गए और आखिर में दोनों रैस्टोरैंट के शटर गिए गए. प्रवीण से सदमा बरदाश्त न हो पाया, उसे एक दिन पक्षाघात हो गया. पासपड़ोसी समय रहते उसे अस्पताल ले गए. आईसीयू में एक सप्ताह बीता, फिर हालत में सुधार दिखा. मोटी रकम इलाज में खर्च हो गई. घर आया, शरीर में जान आने लगी लेकिन आर्थिक तंगी ने उसे मानसिक रूप से बीमार कर दिया. घर की माली हालत अब पहले जैसी न थी. पहले ही झगड़े में काफी नुकसान हो गया था. नवीन की एक बेटी थी मनु. जब भी उसे अकेला पाती, मिलने चली आती. कई दिनों के बाद बरसात आज थम गई थी. आसमान साफ था. प्रवीण स्टिक के सहारे लौन में टहल रहा था. मनु ने उसे देखा तो गेट खोल कर भीतर आ गई. उस ने स्नेह से मनु को देखा और बड़ी उम्मीद से कहा, ‘‘बेटी, पापा से कहना कि ताऊजी एक जरूरी काम से मिलना चाहते हैं.’’ मनु ने हां में सिर हिलाया और पैर छू कर गेट पर खड़ी स्कूटी को फुरती से स्टार्ट किया और कालेज के लिए निकल गई. धूप ढलने लगी, तब मनु कालेज से लौटी. नवीन तब ड्राइंगरूम में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. मनु ने किताबें रैक पर रखीं और पापा के सामने वाले सोफे पर जा बैठी. ‘‘पापा, आप कल दिनभर कहां थे?’’ उस ने पूछा.
‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘ऐसे ही पूछ रही हूं,’’ मनु ने सोफे पर बैठे हुए आगे की ओर शरीर झुकाते हुए कहा. ‘‘महल्ले में एक बुजुर्ग की डैथ हो गई थी, इसलिए जाना पड़ा,’’ नवीन ने बताया. ‘‘आप को वहां जाने की जरूरत क्या थी? उन के पासपड़ोसी, रिलेटिव्स तो रहे ही होंगे,’’ मनु ने प्रश्न किया. ‘‘कैसी बेवकूफों वाली बातें कर रही हो. समाज में जीना है तो सब के सुखदुख में शामिल होना चाहिए,’’ नवीन ने सम झाया. ‘‘दैट्स करैक्ट. यही सुनना चाहती थी मैं. जब ताऊजी बीमार पड़े तब यह बात आप की सम झ में क्यों नहीं आई?’’ नवीन को काटो तो खून नहीं. भौंचक्का सा मनु को देखता ही रह गया वह. ‘‘आप और मम्मी ताऊजी को देखने नहीं गए. मैं गई थी सीधे कालेज से, लगातार 3 दिन. मनु कहती रही, ‘‘रौकी भैया भी अस्पताल में थे. मैं ने उन्हें घर चलने को कहा तो बोले, ‘यहां से सीधे होस्टल जाऊंगा.
घर अब रहने लायक नहीं रहा.’’’ ‘‘यह सब मु झे क्यों सुना रही हो?’’ नवीन ने प्रश्न किया. ‘‘इसलिए कि ताऊजी कोई पराए नहीं हैं. आज उन्हें आप की जरूरत है. मिलना चाहते हैं आप से.’’ नवीन ठगा सा रह गया. इस उम्र तक वह जो सम झ न सका, वह छोटी सी उम्र में उसे सिखा रही है. मनु उठी और पापा के गले से लग कर बोली, ‘‘समाज के लिए नहीं, रिश्ते निभाने के लिए ताऊजी से मिलिए. आज और अभी.’’ उधर प्रवीण, नवीन से मिलने को बेचैन था. वह बारबार कलाई घड़ी की सुइयों पर नजरें टिका देता. कभी बरामदे से नीचे मेन गेट की ओर देखने लगता. अंधेरा बढ़ने लगा. रोशनी में कीटपतंगे सिर के ऊपर मंडराने लगे. थक कर वह उठने को हुआ, तभी नवीन आते हुए दिखा. उस ने इशारे से सामने की चेयर पर बैठने को कहा. नवीन कुछ देर असहज खड़ा रहा. मस्तिष्क में मनु की बातें रहरह कर दिमाग में आ रही थीं. वह आगे बढ़ा और चेयर को खींच कर अनमना सा बैठ गया. दोनों बहुत देर तक खामोश रहे.
आखिरकार नवीन ने औपचारिकतावश पूछा, ‘‘तबीयत ठीक है अब?’’ उस ने ‘हां’ कहते हुए असल मुद्दे की बात शुरू कर दी, ‘‘मु झे पैसों की सख्त जरूरत है. मैं ने सोचा है कि मेरे हिस्से का मकान कोई और खरीदे, उस से अच्छा, तु झे बेच दूं. जितना भी देगा, मैं ले लूंगा.’’ नवीन खामोश बैठा रहा. ‘‘सुन रहा है मैं क्या कह रहा हूं?’’ उस ने जोर दे कर कहा. ‘‘सुन रहा हूं, सोच भी रहा हूं. किस बात का झगड़ा था जो हम पर ऐसी नौबत आई. हमारा खून तो एक था, फिर क्यों दूसरों के बहकावे में आए.’’ ‘‘अब पछता कर क्या फायदा? खेत तो चिडि़या कब की चुग गई. मैं ऐसी हालत में न जाने कब तक जिऊंगा. तु झ से दुश्मनी ले कर जाना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने उदास हो कर बरामदे की छत को ताकते हुए कहा. ‘‘तुम तो बड़े थे, बड़े का फर्ज नहीं निभा पाए. मैं तो छोटा था,’’ नवीन ने उखड़े स्वर में कहा, फिर चश्मा उतार कर रूमाल से नम आंखें साफ करने लगा. ‘‘बड़ा हूं, तो क्या हुआ. छोटे का कोई फर्ज नहीं बनता? खैर छोड़, जो हुआ सो हुआ. अब बता, मेरा हिस्सा खरीदेगा?’’ ‘‘नहीं,’’ नवीन ने सपाट सा जवाब दिया.
‘‘क्यों, क्या हुआ? रैस्टोरैंट बेच कर हम से गलती हो चुकी है. अब मेरी मजबूरी सम झ. भले ही रुपए किस्तों में देना. मैं अब किसी और को बचाखुचा जमीर बेचना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने फिर दुखी हो कर वजह बताई, ‘‘रौकी की इंजीनियरिंग पूरी हो जाए. यह मेरी अंतिम ख्वाहिश है. शरीर ने साथ दिया तो कहीं किराए पर घर ले कर छोटामोटा धंधा शुरू कर लूंगा.’’ ‘‘हम ने आपस में जंग लड़ी. तुम भी हारे, मैं भी हारा. नुकसान दोनों का हुआ, तो भरपाई भी दोनों को ही करनी है.’’ ‘‘तेरी मंशा क्या है, मैं नहीं जानता. मु झे इतना पता है कि मु झ में अब लड़ने की ताकत नहीं है और लड़ना भी नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने टूटे स्वर में कहा. ‘‘मैं लड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कह रहा हूं,’’ नवीन ने कुछ देर सोचते हुए जोर दे कर अपनी बात रखी, ‘‘हम लोग मिल कर फिर से रैस्टोरैंट खोलेंगे. अब हम बेचेंगे नहीं, खरीदेंगे.’’ नवीन उठते हुए बोला, ‘‘आज मनु मेरी आंखें न खोलती तो पुरखों की एक और निशानी हाथ से निकल जाती.
’’ प्रवीण आश्चर्य से नवीन को देखता रह गया. उस की आंखें एकाएक बरसने लगीं. गिलेशिकवे खरपतवार की तरह दूर बहते चले गए. ‘‘मकान बेचने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. बिजनैस के लायक पैसा है मेरे पास,’’ जातेजाते नवीन कहता गया. इस बात को लगभग 4 मास हो गए. रैस्टोरैंट के शुभारंभ की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इश्तिहार बांटे जा चुके थे. दशहरा का दिन था. रैस्टोरैंट रंगीन फूलों से बेहद करीने से सजा था. शहर के व्यस्ततम इलाके में इस से व्यवस्थित और आकर्षक रैस्टोरैंट दूसरा न था. परिचित लोग दोनों भाइयों को बधाई दे रहे थे. घर की बहुएं वयोवृद्ध गोकुल प्रसाद से उद्घाटन की रस्म निभाने के लिए निवेदन कर रही थीं. गोकुल प्रसाद कोई सगेसंबंधी न थे. पारिवारिक मित्र थे. एक मित्र के नाते उन के स्नेह और समर्पण पर सभी गौरवान्वित हो रहे थे. मनु सितारों जड़े आसमानी लहंगे में सजीधजी आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. रौकी, प्रवीण और नवीन के बीच खड़ा तसवीरें खिंचवा रहा था. सड़क पर गुजरते हुए लोग रैस्टोरैंट के बाहर चमचमाते सुनहरे बोर्ड की ओर मुड़मुड़ कर देख रहे थे, जिस पर लिखा था- ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा ब्रदरहुड.’’