बुद्धू: अनिल को क्या पता चला था

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बुद्धू- भाग 3: अनिल को क्या पता चला था

‘‘शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. अचानक निवेदिता ने ही गड़बड़ी कर दी. मालूम पड़ा कि वह शादी न करने की जिद कर रही है.

‘‘भाभीजी ने मुझ से कहा था कि अब निवेदिता को भी तुम्हीं जा कर समझओ.

‘‘यह सुन कर मैं सुन्न हो गया और फिर बोला कि एकाएक निवेदिता को यह क्या हो गया है. मैं उसे क्या समझऊं.

‘‘यह सुन कर भाभी बोलीं कि अनिल तुम्हारे समझने से ही कुछ हो सकता है. तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह असल में तुम से प्यार करती है.

‘‘मैं भाभीजी का मुंह देखता रह गया था. मेरा चेहरा लाल हो उठा था. मैं चिंता में डूब गया. ब्याह की बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि अब पीछे हटने में मेरी बदनामी होती. मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी न रहता.

‘‘भाभीजी के कहने से मैं उस के पास गया. वह दूसरी मंजिल के एक कमरे में खिड़की के पास खड़ी रोती मिली. मैं ने उसे पुकारा. इतने दिनों में मेरी उस से यह पहली बार आमनेसामने बात हुई.

‘‘मैं ने कहा कि निवेदिता, बात इतनी आगे बढ़ चुकी है. क्या अब तुम सब को नीचा दिखाओगी.

‘‘उस ने नजरें उठा कर मेरी ओर देखा. फिर तुरंत ही बोली कि और मेरा प्यार, मेरा दिल?

‘‘मैं ने पूछा कि क्या तुम्हें इस रिश्ते में कोई परेशानी है?

‘‘उस का गोल चेहरा शर्म से और ज्यादा झक गया. वह अपनी चुन्नी का छोर लपेटने लगी.

‘‘मैं ने फिर कहा कि क्या तुम फिर एक  बार गंभीरता से इस बात को नहीं सोच सकतीं?

‘‘उस ने नजरें उठा कर कुछ पल मेरी ओर देखा. फिर बोली कि यह आप कह

रहे हैं?

‘‘निवेदिता का प्रश्न सुन कर मैं दंग रह गया. फिर बोला कि तुम्हारी मां, बूआजी आदि सभी की इच्छा है… उधर रोमित भी इंतजार में बैठा था…

‘‘बात अधूरी ही रह गई. मेरा गला भर आया. सहसा अपनेआप को ही सबकुछ वाहियात लगने लगा.

‘‘वह बोली कि यह सब तो मैं जानती हूं, लेकिन क्या आप भी ऐसा ही कह रहे हैं?

‘‘मैं जबरन मुसकरा कर बोला कि मैं तो ऐसा कहूंगा ही.

‘‘मेरी सुन कर वह बोली कि क्यों नहीं कहोगे वरना दोस्त के आगे सिर नीचा नहीं हो जाएगा?

‘‘मैं ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. जो कुछ हो रहा है, तुम्हारी भलाई के लिए ही हो रहा है.

‘‘मेरी बात सुन कर वह बोली कि मेरी भलाई के लिए? बस यही बात है?

‘‘इस के आगे निवेदिता ने मुझे कुछ कहने का मौका नहीं दिया और शीघ्रता से कमरे से निकल फटाफट सीढि़यां उतर कर नीचे चली गई.

‘‘देखतेदेखते शादी का दिन आ गया. सारे घर में लोग होहल्ला मचा रहे थे. मैं दिखाने के लिए व्यस्त सा इधरउधर घूमता रहा, पर मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. बरात दरवाजे पर आ चुकी थी. ऐसे ही समय में भाभीजी को ढूंढ़ता हुआ दोमंजिले के उसी कमरे में जा पहुंचा. वहां महिलाओं का दल निवेदिता को घेरे बैठा था. पर बरात के आने की खबर सुन कर मेरे सामने ही सब 1-1 कर कमरे से बाहर हो गईं.

‘‘लाल रंग की बेहद खूबसूरत साड़ी पहने, माथे पर लाल गोल बिंदी व पैरों में लाल महावर लगा, चेहरे को दोनों घुटनों के बीच झकाए निवेदिता बैठी थी. उस समय वह बड़ी सुंदर लग रही थी. मैं एकटक उसे निहारता रहा. अचानक उस की नजरे ऊपर उठीं. वह कुछ देर मेरे मुंह को ताकती रही. मैं ने देखा, उस की दोनों आंखें बहुत लाल थीं. सुना था, ब्याह की रात सभी लड़कियां रोती हैं. शायद वह भी रोई थी. मुझे उस की लाल आंखें बड़ी भली लगीं.

निवेदिता उठ कर खड़ी हो गई और भारी गले से बोली कि आप की ऐसी ही इच्छा थी न? और उस की आंखों से झरझर आंसू झरने लगे.

‘‘फिर मैं वहां न ठहर सका. सिर झका कर अपराधी सा बाहर आ गया. उस दिन पहली बार मेरी आंखों में आंसू आ गए थे. पता नहीं क्यों इस के बाद उस घर में मेरा मन न लगा.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘श्रद्धा, इस के बाद फिर कुछ नहीं हुआ.’’

‘‘निवेदिता से फिर आप की कोई मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘बड़े आश्चर्य की बात है.’’

‘‘श्रद्धा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा है पर यह सच है कि शादी के 8 दिन बाद ही रोमित अपनी पत्नी को ले कर मुंबई लौट गया. शायद उस को ज्यादा छुट्टी नहीं मिली थी. इधर मेरा भी तबादला लखनऊ हो गया. इस के बाद हमारीतुम्हारी शादी हो गई और मैं भी कामकाज में घिर गया. तब से तो तुम साथ ही हो. लखनऊ के बाद कानपुर, फिर घाटमपुर तबादला हुआ और अब 12 वर्ष बाद फिर दिल्ली आ गया हूं. यद्यपि इन 12 सालों में अपने पास बुलाने के लिए रोमित और भाभीजी ने कई बार आग्रह भरे पत्र लिखे, पर रोमित और भाभीजी के पास जाने की इच्छा अधूरी ही रही.’’

‘‘अब तो हमें दिल्ली आए भी 1 महीना हो चुका है. इस 1 महीने में तुम भाभीजी के घर एक बार भी नहीं गए?’’

‘‘तुम ने यह कैसे समझ लिया कि मैं भाभीजी के घर गया ही नहीं?

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम भाभीजी के घर के चक्कर लगते ही रहते हैं.’’

‘‘नहीं, रोजरोज यह कैसे संभव है?’’

‘‘ओह, तुम से तो कोईर् बात पूछना भी बेवकूफी है. तुम मर्द लोग पता नहीं किस दिमाग के होते हो?’’

‘‘तुम शायद गुस्सा हो गई हो. यहां आने के चौथे दिन ही मैं उन ममतामयी भाभी के दर्शन करने चला गया था. वहां जाने पर निवेदिता की भी याद आई, पर मैं ने भाभीजी से उस का कोई जिक्र नहीं किया.

‘‘बातोंबातों में भाभीजी ने ही बताया कि निवेदिता अपने पति के साथ बहुत सुखी है. दिल्ली आने पर मुझे याद करती है. सुन कर मुझे संतुष्टि अवश्य हुई.

‘‘उस के बाद मैं भाभीजी के घर चाह कर भी न जा सका. लेकिन संयोग से आज भाभीजी सैक्टर 3 के मोड़ पर मिल गईं और…’’

‘‘निवेदिता की मौत का दुखद समाचार

सुना गईं.’’

‘‘हां, यह मैं पहले ही तुम्हें बता चुका हूं.’’

‘‘अनिल, मुझे अफसोस है कि मैं निवेदिता को न देख सकी.’’

‘‘क्या करती देख कर?’’

‘‘यह तो देखने और मिलने के बाद ही बतला सकती थी. तुम ने एक बार भी उसे अपने

यहां नहीं बुलाया. बुरा मत मानना, तुम वाकई बड़े बुद्धू हो…’’

‘‘श्रद्धा, इस में बुरा मानने की क्या बात है? शायद तुम सही कहती हो. सोच रहा हूं, अब बेचारे रोमित का क्या होगा. उसे पत्र लिखना चाहता हूं, पर काफी सोचने पर भी शब्द नहीं मिल रहे हैं. ऐसे शब्द जिन से रोमित निवेदिता के छोड़े हुए अधखिले फूलों को खिला सके और उन की महक से अपनेआप को महका ले.’’

‘‘क्या किसी शब्दकोश में ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन से मरा हुआ आदमी जिंदा हो जाए?’’

‘‘श्रद्धा, मुझ पर व्यंग्य कर रही हो?

पर सुनो, मेरे शब्दों में इतनी शक्ति तो नहीं कि मरे हुए इंसान को पुन: जीवित कर दें. पर मेरे शब्दों से 3 जिंदगियों के होंठों से छिनी मुसकान यदि फिर से वापस आ जाए तो मुझ जैसे बुद्धू आदमी के लिए यह एक महान कार्य ही होगा.’’

बुद्धू- भाग 2: अनिल को क्या पता चला था

‘‘इस के बाद विशेष कुछ नहीं है, पर हां, कभीकभी एक धुंधला सा चित्र आंखों के सामने आ जाता है. ठीक वैसे ही जैसे भोर की अर्धनिद्रा में आया स्वप्न हो, जिस का कोई आकार नहीं होता, पर उस की झलक मात्र से मनमस्तिष्क में बेचैनी सी छा जाती है. यदि तुम सोचती हो कि वह चित्र निवेदिता का होगा तो यह तुम्हारी भूल है. मैं कह नहीं सकता कि तुम स्त्रियों के साथ भी ऐसा होता है क्या?’’

‘‘औरतों की हालत कैसी होती है, यह तुम ने उस समय निवेदिता से पूछा होता तो इस का पता लग गया होगा.’’

‘‘मैं एक बार फिर तुम्हें  बता देता हूं कि हमारी आमनेसामने बातचीत शायद ही कभी हुई हो, यद्यपि जिस दिन भी वहां जाता था, हमारी मुलाकात अवश्य होती थी. भाभीजी, उस की मां और हम सभी शाम के समय अधिकतर लौन में कुरसियां डाल कर बैठ जाते थे. वह अपनी कुरसी कुछ दूर ही रखती थी. पता नहीं क्यों? हां, इतना अवश्य था कि भाभीजी जब भी उस से कहती थीं, वह गाना अवश्य सुना दिया करती थी. कभीकभी वह गीत में इतना खो जाती थी कि एक के बाद एक सुनाती जाती थी. उस का गाना रुक जाने के बाद बहुत देर तक हम लोग बातें करना भूल जाते थे.’’

‘‘वह कैसा गाती थी?’’

‘‘श्रद्धा, यह तो मैं नहीं जानता, वैसे उस के गाने की तारीफ सभी करते थे. लेकिन जब वह गाती थी तब मुझे ऐसा लगता था कि उस के गाने में जो दर्द, जो टीस है, वही मेरे दिल में है. पर मेरे पास उसे प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी. उस के कुछ गाने मैं ने चोरी से रिकौर्ड कर लिए थे.’’

‘‘गाने तो वह तुम्हारे लिए ही गाती थी, यही कहना चाहते हो न?’’

‘‘ऐसी बेतुकी बातें मैं ने कभी नहीं सोचीं. कोई लड़की अगर आंख उठा कर

देख ले और मैं सोचने लगूं कि वह मुझे किसी विशेष कारण से देख रही है तो यह मेरी बेवकूफी के सिवा और क्या होगा? और रही रिकौर्डिंग की बात तो उस के बाद तो न जाने कितनी बार मोबाइल बदले जा चुके हैं. अब कहां मिलेगी वह आवाज.’’

‘‘तुम्हारी यह बात मेरी बुद्धि में नहीं घुसी. खैर, आगे बताओ.’’

‘‘ठीक ही कहा तुम ने. उस की मां को उस की शादी की बड़ी जल्दी थी. पर मैं भाभीजी को अकसर यह कहते सुना करता था कि अरे, ऐसी भी क्या जल्दी है. लड़की अभी बीए तो कर ले. उसे पढ़ने भी दो, समय आने पर शादी हो जाएगी.

‘‘लेकिन उस की मां कहती थी कि शादीब्याह की कोशिश तो पहले से करनी पड़ती है. लड़की की शादी है, कोई हंसीमजाक तो नहीं.

‘‘एक दिन निवेदिता की मां ने मुझे से भी कहा कि अनिल, तुम इतनी अच्छी नौकरी पर हो. क्या निवेदिता के लिए अपने ही जैसे किसी लड़के को नहीं ढूंढ़ सकते?

‘‘तभी भाभीजी मेरा मजक उड़ाती हुई बोलीं कि तुम ने भी बड़े भले आदमी से जिक्र छेड़ा है. अपने छोटों से बात करने में तो यह पसीने में भीग जाता है, यह बिटिया के लिए क्या लड़का ढूंढ़ेगा. हां, इस की निगाह में एक लड़का जरूर है.

‘‘और वह यह कह कर मेरी ओर स्नेहभरी दृष्टि डाल कर मुसकरा पड़ीं.

‘‘उस की मां ने उत्सुकतापूर्वक तुरंत पूछा कि कौन है वह लड़का? कहां रहता है? क्या काम करता है?

‘‘पर भाभीजी मेरी ओर देख कर मुसकरा ही रही थीं. मुझ से वहां एक पल भी न ठहरा गया. मैं तुरंत उठ कर गली में आ गया. मेरा मन यह सोच कर बड़ा खराब हो गया कि भाभीजी ने मेरे विषय में क्या सोच रखा है.

‘‘मैं लज्जा से गड़ा जा रहा था. सोचता, आखिर भाभीजी को किस तरह प्रमाण दूं कि मैं निवेदिता के आकर्षण से उन के घर नहीं आता. किस तरह से उन्हें बताऊं कि मैं इतना गिरा हुआ इनसान नहीं कि भाभीजी के निस्स्वार्थ प्रेम का ऐसा दुरुपयोग करूंगा. निवेदिता के आने से पहले भी मैं अकसर आता था और अब भी कभीकभी चला आता हूं. क्या निवेदिता के आने के बाद मेरे व्यवहार में कोई तबदीली हुई? क्या मैं ने भाभीजी को ऐसा सोचने का मौका दिया? मैं रास्ते भर अपने मन को टटोलता रहा. मैं ने कोई गलती की है? कहीं मेरी किसी हरकत ने अनजाने से ही कुछ ऐसा तो प्रकट नहीं किया जिस से भाभीजी के नारीमन के बारीक परदे पर कुछ झलक गया हो. ऐसा कब हुआ. कैसे हुआ. कुछ भी, किसी भी तरह समझ में नहीं आया.

‘‘घर आ कर मैं आंखें मूंद कर चारपाई पर लेट गया. पर चैन न मिला. मन का

क्लेश बढ़ता ही गया. आखिर मैं ने स्वयं ही फैसला किया, भाभीजी का संदेह दूर करना ही होगा, इस के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े.

‘‘उस के बाद से भाभीजी के घर जाने के लिए अपनेआप को तैयार करने में बड़ा असमर्थ पाने लगा, पर भाभीजी के निस्स्वार्थ प्यार के बारे में सोचसोच कर मेरा दिल भरभर जाता. मगर यह भी डर था कि अचानक जाना बंद करने से कहीं सब को शक न हो जाए. इसलिए बजाय एकदम जाना बंद करने के यह सोचा करता कि क्या किया जाए. तब सहसा मेरे दिमाग में यह बात आईर् कि क्यों न निवेदिता के लिए कोई अच्छा सा वर ढूंढ़ दूं. इस से अच्छा और कोई नेक काम नहीं हो सकता. सच, मैं इतने समय तक बेकार ही परेशान रहा.

‘‘इसी बीच अचानक एक दिनकनाटप्लेस में रोमित मिल गया. उस ने एमएससी मेरे साथ ही की थी. पर पढ़ने में तेज होने के कारण आई.

एएस प्रतियोगिता में चुन लिए जाने से राजपत्रित अधिकारी हो गया था. बातोंबातों में जब पता चला कि रोमित अभी कुंआरा है तो खुशी से मेरा दिल उछल पड़ा.

‘‘मैं ने जिक्र छेड़ने में देर करना उचित नहीं समझ. शुरू में तो बात मजाक में उड़ गई, पर थोड़ी देर बाद रोमित इस मामले में गंभीर दिखाई दिया. दिल्ली से बाहर का जीवन, फिर अकेले में उस का दिल भी नहीं लगता था. मैं ने मौका अच्छा समझ और निवेदिता का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘बात जब लड़की को देखने की आई तो रोमित बोला कि कैसी बात करते हो, अनिल? अगर लड़की तुम्हारी निगाहों में मेरे लायक है तो बस ठीक है. पर मेरी मां लड़की को बिना देखे नहीं मानेंगी.

‘‘मैं ने कहा कि बेशक… बेशक, मुझे इस में क्या परेशानी हो सकती है? जब चाहो माताजी को ले कर आ जाओ.

‘‘वह बोला कि ठीक है, अनिल. मैं अगले चक्कर में कुछ दिनों की छुट्टी ले कर दिल्ली आऊंगा.

‘‘रोमित ने इस से ज्यादा कुछ नहीं कहा था, पर उस के चेहरे के भाव ने मुझे बहुत कुछ समझ दिया था.

‘‘उसी रात तो मैं ने भाभीजी को अकेले में रोमित के विषय में सब कुछ बता दिया. भाभीजी हैरान करती हुई बोलीं कि सच कह रहे हो, अनिल?

‘‘मैं ने कहा कि भाभीजी मैं ने आप से कभी मजाक किया है?

‘‘भाभीजी कुछ देर मेरे चेहरे को एकटक देखने के बाद बोलीं कि ठीक है.

‘‘उन की ओर से मुझे जितनी खुशी की आशा थी उतनी मैं उन के चेहरे पर न देख सका. पर निवेदिता की मां खुशी से फूली न समाईं और मुझे कंधे से पकड़ कर बोलीं कि अनिल, तुम्हें यह रिश्ता शीघ्र ही तय कर देना चाहिए. ऐसे वर बारबार नहीं मिलते.

‘‘कुछ ही दिनों में निवेदिता की शादी तय हो गई. निवेदिता की मां सभी नातेरिश्तेदारों में मेरी तारीफ के पुल बांधा करतीं और उत्तर में वे सब भी मेरी प्रशंसा करने लगे थे. मुझ जैसे बुद्धू व्यक्ति से इतना बड़ा नेक काम भी हो सकता है, किसी को ऐसी आशा तक नहीं थी.

बुद्धू- भाग 1: अनिल को क्या पता चला था

दफ्तर से घर लौटते समय रास्ते में भाभीजी मिल गईं. वे बहुत उदास थीं. पूछने पर उन्होंने बताया, ‘‘मुंबई से रोमित का मैसेज आया है कि निवेदिता अब इस दुनिया में नहीं रही है.’’

सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. घर तक कैसे आया, पता नहीं. आते ही एक बौक्स से निवेदिता का फोटो निकाल कर बैठ गया. तभी श्रद्धा ने आ कर पूछा, ‘‘इतने ध्यान से किस का चित्र देखा जा रहा है?’’

‘‘तुम नहीं जानतीं, श्रद्धा, यह निवेदिता है. महज 32 साल की उम्र में अपने पति और 2 बच्चों को कोविड से पैदा हुए किसी कौंप्लिकेशन की वजह से बिलखता छोड़ कर हमेशा के लिए दुनिया से चली गई है.’’

‘‘उफ, बड़े दुख की बात है. लेकिन तुम निवेदिता को कैसे जानते हो? निवेदिता का फोटो तुम्हारे पास कैसे आया?’’

‘‘तुम गोविंदपुरी वाली भाभीजी को तो जानती ही हो.’’

 

‘‘हां, अपने हनीमून से लौटते वक्त कुछ समय के लिए हम उन्हीं के घर तो रुके थे.’’

‘‘ठीक पहचाना तुम ने. निवेदिता उन्हीं की भतीजी थी.’’

‘‘मगर पहले तो तुम ने निवेदिता का कभी जिक्र नहीं किया?’’

‘‘ऐसी कितनी ही बातें मैं ने तुम्हें अभी तक नहीं बताई होंगी.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम से कोई बात छिपा कर नहीं रखी?’’

‘‘यह क्या तुक हुआ?’’

‘‘अच्छा, तो कोई तुक नहीं हुआ? तुम मर्द लोग पता नहीं कैसे होते हो. अब तो तुम्हारी ही बात से यह स्पष्ट हो गया कि तुम्हारे जीवन में न जाने ऐसी कितनी निवेदिताएं आ चुकी हैं.’’

‘‘तुम फिर गलती कर रही हो.’’

‘‘सही बात सभी को कड़वी लगती है, पति महाशय. भाभी की भतीजी और परेशान तुम हो और फिर भी कहना यह कि उस से कोई रिश्ता नहीं.’’

‘‘पर मैं तुम्हें कैसे समझऊं कि निवेदिता के साथ मैं ने कभी ढंग से बात भी नहीं की थी.’’

‘‘कोई दूसरा कहता तो शायद इस बात का विश्वास भी कर लेती.’’

‘‘मेरी बात का भी तुम्हें विश्वास कर लेना चाहिए क्योंकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारा पति इतना बुद्धू है कि जरूरत पड़ने पर भी झठ नहीं बोल सकता.’’

‘‘बनो मत, मैं जानती हूं कि अंटशंट बकना तुम्हारी आदत है. इसीलिए जिंदगी में कोई उन्नति नहीं कर सके. तुम किसी भी व्हाट्सऐप गु्रप में भी ढंग से ज्यादा दिन नहीं रह पाते.’’

‘‘तुम ने ठीक फरमाया. अपने को धन्य समझे कि तुम्हें मेरे जैसा पति मिला है. मैं शादीशुद पुरुष हो कर भी घिसेपिटे ढंग से जी रहा हूं, इसीलिए आज तक उन्नति नहीं कर सका.’’

‘‘शायद निवेदिता को न पाने के पश्चात्ताप में अब तक तुम घुलते रहे हो.’’

‘‘मुझ पर नहीं तो उस बेचारी लड़की पर तो तरस खाओ. और फिर अब तो वह मर भी गई है.’’

‘‘वाह, क्या कहने तुम्हारी दार्शनिकता के. फिर भी यह तो बताओ कि तुम्हारी उस से जानपहचान कैसे हुई?’’

‘‘तुम जानना ही चाहती हो तो सुनो. बात उन दिनों की है जब एमएससी करने के बाद मुझे दिल्ली  में नौकरी मिल गई थी. गांव छोड़ते समय पिताजी ने मुझे दूर के एक भाई साहब को फोन कर कहा था कि बेटे, ये तुम्हारे दूर के रिश्ते के एक भाई का पता है. दिल्ली में अपनी जानपहचान का इन के अलावा और कोई नहीं है. बड़ा शहर है, वक्तजरूरत इन के पास चले जाया करना.

‘‘दिल्ली पहुंचने के तीसरे दिन ही मैं भाई साहब के घर गया. पहली भेंट में ही मुझे भैया और भाभी के व्यवहार ने मोह लिया. फिर मैं अकसर उन के घर जाने लगा. भाभीजी से मेरी खूब पटने लगी.’’

‘‘चलोजी, बहुत भूमिका हो ली. अब तुरंत नायिका को मंच पर पेश करो.’’

‘‘फिर मैं एक दिन शाम को भाभीजी के घर गया. ड्राइंगरूम में घुसते ही मैं ठिठक

गया. सामने सोफे पर एक लड़की बैठी कशीदा काढ़ रही थी. उस के खुले, काले, घने, लंबे बाल पीठ पर लटक रहे थे. ड्राइंगरूम की खिड़की से ढलते सूरज की धूप उस पर सुनहरे फीते की तरह पड़ रही थी.

‘‘उस लड़की को भाभीजी के घर में मैं ने पहली बार ही देखा था. आहट पा कर कढ़ाई से आंख हटते ही वह सकपका सी गई. उसे उसी हालत में छोड़ कर मैं घर के भीतर चला गया.

‘‘भाभीजी रसोईघर में कुछ बना रही थीं. मुझे देख कर एकदम खिल गईं और बोलीं कि बड़े अच्छे वक्त पर आए हो, अनिल, छोलेभठूरे बनाते हुए तुम्हारी बहुत याद आ रही थी. तुम्हें बहुत अच्छे लगते हैं न.

‘‘भाभीजी के दुलार से मैं बहुत खिल गया और बोला कि भाभीजी, मुझे एक स्टूल दे दो.

‘‘इस पर वे बोलीं कि तुम इस गरमी में यहां बैठोगे.

‘‘मैं ने कहा कि वाह, भाभीजी, आप ऐसी गरमी में छोलेभठूरे बना सकती हैं तो क्या हम यहां बैठ कर उन्हें खा भी नहीं सकते.

‘‘भाभीजी मुसकरा कर आंचल से माथा पोंछने लगीं तो अचानक मैं ने पूछा कि ड्राइंगरूम में जो देवीजी बैठी हैं वे कौन हैं?

‘‘भाभीजी ने बताया कि वह उन की भतीजी है. उस का नाम निवेदिता है. चूंकि उन के भैया का देहांत हो गया है और घर में कोई और सहारा नहीं है, इसलिए उन्होंने अपनी भाभी और भतीजी को अपने पास बुला लिया है.

‘‘थोड़ी देर बाद वह लड़की आ कर रसोई के दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘मैं ने महसूस किया कि वह मुझे भाभीजी से इस तरह घुलमिल कर बातें करते देख कर हैरान है. लेकिन उस ने ऐसा प्रदर्शित किया जैसे उन से मुझे देखा ही न हो. भाभी ने परिचय कराया कि निवेदिता, यह हमारा देवर अनिल है.

‘‘निवेदिता ने नजरें उठा कर मुझे देखा और तुरंत पलट कर ड्राइंगरूम की ओर चली गई.

‘‘इस के बाद उस ने मुझे भाभीजी के घर के एक सदस्य के रूप में ही देखा. वह गांव से इंटर पास कर के आई थी. दिल्ली में आने पर उस का पढ़नालिखना भी अच्छी तरह से हो सकेगा और दूसरे यहां उस के लिए अच्छा घरवर भी आसानी से ढूंढ़ा जा सकता है, कुछ इस प्रकार की इच्छाएं भाभीजी और निवेदिता की मां के मन में थीं, यह मुझे तभी पता लग गया.’’

‘‘वाह, कहानी तो खूब अच्छी गढ़ रखी है तुम ने. खैर, फिर निवेदता से दूर हो कर तुम मरे पास कैसे आ गए? तुम दोनों में प्यार कहां तक हुआ, यह भी तो बताओ?’’

‘‘देखो, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि उन दिनों दिल्ली में उठनेबैठने का मेरा एकमात्र स्थान भाभीजी का घर ही था. उस उम्र में भी मुझे आवारागर्दी पसंद नहीं थी. शेष खाली वक्त में मैं अपने कमरे में बैठ कर बड़ेबड़े लेखकों की किताबें पढ़ा करता था और जब थक जाता था तो भाभी के आंचल की स्निग्धता मुझे उन के पास खींच ले जाती थी. वे मुझ से अकसर मजाक में कहतीं कि अनिल, तुम शाद कर के अपनी बीवी के ऐसे गुलाम बन जाओगे कि बेचारी की जान मुसीबत में पड़ जाएगी. यह तो तुम मानोगी ही कि उन की यह बात कितनी सही थी.’’

‘‘रहने भी दो अपनी बड़ाई, बीवी के गुलाम मर्द भी कहीं अच्छे होते हैं?.’’

‘‘यह तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि पुरुषों की सी कठोरता मुझ में है ही नहीं. मैं कभी गुस्सा नहीं कर सकता. नौकर मुझ से डरते नहीं. किसी के दिल से नहीं खेल सकता. इसलिए एक सुंदर लड़की को बिलकुल नजदीक पा कर भी मैं उस से प्रेम न कर सका.’’

‘‘क्या निवेदिता सुंदर थी? फोटो से तो ऐसा नहीं लगता.’’

‘‘यह फोटो बिलकुल सादी पोशाक में खींचा गया है और फोटो में वह चाहे जैसी भी प्रतीत हो रही है, पर उस का गेहुआं रंग, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और मासूम चेहरा मुझे बहुत भला लगता था.’’

‘‘अरे, इतनी जल्दी क्यों रुक गए. थोड़ी सी कविता और कर डालो.’’

‘‘उपहास न करो, श्रद्धा, यह एक सचाई है.’’

‘‘बाप रे, मेरे बुद्धूराम, जरा सा मजाक भी सहन नहीं तुम को. मामला कुछ गंभीर नजर आता है, सुनाओ भई, आगे सुनाओ.’’

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