जीवनज्योति: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

जीवनज्योति- भाग 1: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की बारह घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं.

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए सिंह की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झुलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थी. उस ने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का…’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है? नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलक्टर, गवर्नर है.’’

‘‘छि:छि:, अब इन बच्चों के साथसाथ आप मुझे भी गाली दे रहे हैं जी, कहां जाएंगे ये? अब आप से अपनी जरूरतों को नहीं कहेंगे तो क्या दूसरे से कहेंगे?’’

‘‘तो क्या करूं मैं? चोरी करूं, डाका डालूं या आत्महत्या कर लूं इन की जरूरतों की खातिर…और यह सब तुम्हारी शह का नतीजा है. बच्चे अच्छे स्कूल- कालिज में पढ़ेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, सिर ऊंचा कर के जिएंगे? कुछ नहीं करेंगे ये तीनों. बस, मुझे बेमौत मारेंगे.’’

एक पल को पसर आए सन्नाटे के बाद दूसरे ही पल यह बवंडर ज्योति की ओर बढ़ चला था, ‘‘और तू, किस ने कहा था तुझ से हर महीने फार्म भरने, परीक्षा देने के नाम पर पैसे उड़ाने को? कभी रिटेन, कभी पीटी तो कभी इंटरव्यू, हर महीने मेमसाहब की सवारी तैयार. कभी दिल्ली, कभी पटना, कभी कोलकाता…’’

तिरस्कार का यह अपदंश बिलकुल नया था ज्योति के लिए. बाबूजी का यह विकराल रूप उसे पहले कभी देखने को नहीं मिला था. बड़ीबड़ी आंखों में पानी की एक परत उमड़ आई थी जिसे पलकों पर ही संभाल लिया था ज्योति ने.

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भावनाओं की यह उमड़घुमड़ सुमित्रा की नजरों से छिप न सकी थी. कचोट उठा था मां का दिल, ‘‘देखिए, जो कहना है आप मुझ से कहिए न…ज्योति अब बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई है. एक जवान बेटी को भला इस तरह दुत्कारना…’’

‘‘हां… हां, जवान हो गई है तभी तो कह रहा हूं कि क्यों बोझ बन कर जिंदा है ये मेरी जिंदगी में. किसी नदी, तालाब में जा कर डूब क्यों नहीं मरती. कम से कम एक दायित्व से तो मुझे मुक्ति मिलती.’’

सर्वस्व झनझना उठा था ज्योति का. आहत भावनाएं इस से पहले कि रुदन बन कर बाहर आतीं, दुपट्टे से भींच कर दबा दिया था उस ने अपने मुंह को.

स्वयं को रोकतेथामते सुमित्रा भी बिफर उठी थीं, ‘‘कुछ होश भी है आप को?’’

‘‘होश है, तभी तो बोल रहा हूं कि आज अगर इस की जगह घर में बेटा होता तो कमा कर लाता. परिवार का सहारा होता. मगर यह लड़की तो अभिशाप है, एक अभिशाप.’’

‘‘हद करते हैं आप भी, अगर यह लड़की है तो क्या यह इस का दोष है?’’

‘‘हां, यह लड़की है. यही दोष है इस का. मुझ गरीब की कुटिया में सांसें ले कर इतनी जल्दी जवान हो गई, यह दोष है इस का. और इस घर में 3-3 लड़कियां ही पैदा कीं तुम ने. यह दोष है तुम्हारा,’’ कहतेकहते मुंशीजी का स्वर रुंधने लगा था.

‘‘आज पता नहीं क्या हो गया है आप को. आप जैसा धैर्यवान और समझदार इनसान भी ऐसी घटिया बात सोच सकता है. इस मानसिकता के साथ बोल सकता है, मैं ने तो कभी कल्पना तक नहीं की थी.’’

‘‘तो मैं ने कब कल्पना की थी कि सीमित आय की जरूरतें इतनी असीमित हो जाएंगी. तुम्हीं बताओ कि खानेदाने के लिए अपनी पगार खर्च करूं या पेट पर पत्थर बांध कर इस के ब्याह के लिए रोकड़े जमा करूं. उस पर से इस लड़की के यह चोंचले कि बड़ा आफीसर ही बनना है. कंगले की ड्योढ़ी पर बैठ कर आसमान झुकाने चली है. जब तक जिंदा रहेगी इस बाप की छाती पर बैठ कर मूंग ही तो दलेगी…’’ और इसी के साथ फफक पड़े थे स्वयं मुंशीजी भी.

मुंशीजी की यह हुंकार आर्तनाद बन इस कमरे में पसर गई थी और वहां खड़ा हर व्यक्ति सन्नाटे की चादर को ओढ़ कर खुद को इस हादसे का कारण मान बैठा था.

ज्योति इस बार दिल्ली से सिविल सर्विसेज का साक्षात्कार दे आई थी. संतुष्ट तो थी ही इस परीक्षा से, मगर उस के भरोसे ही बैठ जाना, संघर्षों की इतिश्री करना न तो बुद्धिमानी थी न ही उस की मानसिकता. बैंक प्रोबेशनरी आफीसर का फार्म भरना था, कल 150 रुपए का ड्राफ्ट बनवाना है उसे, बस, इतना ही तो मां से बाबूजी को कहलवाया था कि वह हत्थे से उखड़ गए थे. क्याक्या नहीं कह डाला उन्होंने.

नीतू और पिंकी ने भी बाबूजी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा था. दोनों अब तक भीतर ही भीतर कांप रही थीं.

इस हादसे ने ज्योति की हर आकांक्षा, हर उम्मीद का गला घोंट दिया था. सकते का आवरण ढीला पड़ते ही मनोबल और धैर्य भी साथ छोड़ गए थे. अचानक टीसने लगा उस का अंतर्मन. सुबकती, सिसकती ज्योति एक चीत्कार के साथ रो पड़ी थी. और इन असह्य परिस्थितियों का बोझ उठाए सरपट वह अपने कमरे की ओर भागी थी.

‘‘चैन मिल गया आप को. दूर हो गया सारा पागलपन, क्याक्या नहीं कह डाला आप ने ज्योति को?

‘‘एक छोटी सी बात पर इतना बड़ा कुहराम…जवान बेटी है, इतना भी नहीं सोचा आप ने. यदि उस ने कुछ ऊंचनीच कर लिया तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे हम…’’ सुमित्रा के रुंधते गले ने शब्दों का दामन छोड़ दिया था. टपकते आंसुओं को पोंछती हुई वह भी कमरे से निकल गई थी. नीतू और पिंकी भी मां के पीछेपीछे चल पड़ी थीं.

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इस कमरे में अकेले मुंशीजी ठगे से रह गए थे. एक ऐसा दावानल जिस की तपिश में झुलस कर सभी अपने उन से दूर हो गए थे. आंखें अब भी नम थीं. मुंशीजी खुद ब खुद ही बुदबुदा उठे थे, ‘ताना मारेगी, दुनिया मुझ पर थूकेगी. एक मैं ही तो बचा हूं सारी दुनिया में अकेला. सब का दोषी है ये मुंशी रामप्यारे सहाय. ढाई हजार पगार पाने वाला, 3-3 लड़कियों का गरीब, लाचार बाप.’

उधर कमरे में कुहनियों के बीच मुंह छिपा कर ज्योति रोती ही जा रही थी. मां का स्नेहिल स्पर्श भी आज उसे ममता- विहीन लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे वह सचमुच एक लाश है, एक चेतना -शून्य देह. कोई बाहरी स्पर्श, कोई अनुभूति, कोई संवेदना, कोई सांत्वना उसे अर्थहीन लग रही थी. बस, कलेजे में रहरह कर एक हूक सी उठती थी और अविरल अश्रुधार निकल पड़ती थी.

सुमित्रा ने खूब सहलायासमझाया था उसे. वस्तुस्थिति के इस पीड़ादायक धरातल पर बाबूजी की मनोदशा विश्लेषित करती हुई सुमित्रा ने यह जताने की कोशिश की थी कि किसी भी व्यक्ति के लिए इस तरह अचानक बरस पड़ना कोई असामान्य बात नहीं थी. नीतू और पिंकी ने भी दीदी को बहलाने, गुदगुदाने, रिझाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सब व्यर्थ.

जिज्ञासावश नीतू ने मां से एक संजीदा सा सवाल पूछ ही लिया, ‘‘मां, लड़की होना क्या सच में एक सामाजिक अभिशाप है?’’

‘‘नहीं, बेटी, इस संसार में लड़की हो कर पैदा होना बड़े सौभाग्य की बात है, गर्व की बात है. हां, ‘औरत’ जाति नहीं नीतू, ‘गरीबी’ अभिशाप है… गरीबी?’’ यह वाक्य सुमित्रा का सिर्फ उत्तर ही नहीं, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ था.

शरद की सर्द रात. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. नीतू और पिंकी तो गहरी नींद में थीं मगर ज्योति, सुमित्रा और मुंशीजी की बंद आंखों में शाम की घटना का असर अब तक भरा था. मुंशीजी बारबार करवट बदल रहे थे. सुमित्रा ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ना उचित नहीं समझा था.

कहने को तो मुंशीजी सबकुछ कह गए थे मगर अब अवसादों ने उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया था. उन के मुंह से निकला एकएक शब्द उन्हें नागफनी के बड़ेबड़े झाड़ में तब्दील हो कर उन की आत्मा तक को छलनी कर रहा था.

मुंशीजी की आंखों के सामने ज्योति का रोताबिलखता चेहरा जितनी बार घूम जाता उतनी बार वह कलप उठते थे.

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जीवनज्योति- भाग 2: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

ज्योति तो उन के दिल का टुकड़ा थी, उसे मर जाने तक को कह दिया उन्होंने. कैसे निकली यह बात उन की जबान से. खुद को धिक्कारते हुए बिस्तर से उतर कर विक्षिप्तों की तरह टहलने लगे थे मुंशीजी. बारबार एक ही यक्षप्रश्न, आखिर कैसे हुआ यह हादसा?

आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन का सर्वस्व. यह सोच कर अपने कमरे से निकल गए थे कि ज्योति बिटिया को सारा अंतर्द्वंद्व, सारी व्यथा सुना कर पश्चात्ताप कर लेंगे.

…इस बार मुंशीजी की व्यथा सुमित्रा नहीं सह सकी. लौट कर बिस्तर पर उन के लेटते ही धीरे से उन के सीने पर हाथ रखा था सुमित्रा ने. करवट बदल कर मुंशीजी ने भी देखा था सुमित्रा की बंद पलकों से सहानुभूति की बूंदें अब भी लुढ़क रही थीं.

आंख लगी ही थी कि अचानक चिहुंक कर जाग गई ज्योति.

बाबूजी का क्रोध एवं आवेश में फुंफकारता चेहरा अवचेतन से निकल कर बारबार उसे डरा रहा था. प्रतिध्वनित हो रही थी वही सारी दिल दरकाती बातें जो उस के अंतस में बहुत दूर जा कर धंस गई थीं. इस असह्य पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ज्योति कईकई प्रयास कर चुकी थी, पर सब बेकार.

अचानक ही उस का चेहरा सख्त हो गया. आंखों में बेगानेपन का एक ऐसा मरुस्थल उतर आया था जहां मोहमाया, वेदनासंवेदना, मानअपमान के न तो झाड़झंखाड़ थे और न ही आंसूअवसाद का कोई अस्तित्व. एक निर्णय ने उस के भय के सारे अंतर्द्वंद्वों को धो डाला था और दरवाजे का सांकल खोल, अमावस की इस काली निशा में वह गुम हो गई थी.

वह अपने घर से जितनी दूर होती जा रही थी, बाबूजी का स्वर अनुगूंज अंतस में और अधिक शोर मचाने लगा था. वह जल्द से जल्द उस पुल पर पहुंच जाना चाहती थी जहां नदी का अथाह पानी उसे इन तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिला कर अपने आगोश में बहा ले जाता. दूर, बहुत दूर.

इस धुन में उस की चाल तेज, और तेज होती जा रही थी. बाहर में गूंजते बाबूजी के शब्द ‘मरती क्यों नहीं…नदी, तालाब में डूब क्यों नहीं जाती…बोझ है…अभिशाप है…’ और अंदर में जान दे देने की, खुद को मिटा देने की एक खीझभरी जिद.

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अचानक ज्योति को लगा कि बाबूजी की आवाज के साथसाथ कहीं से कोई दूसरा स्वर भी घुलमिल कर आ रहा है. उस ने थोड़ा थम कर उस आवाज को गौर से सुननेसमझने की चेष्टा की थी. हां, कोई तो था जो दबे स्वर में उसे बारबार पुकार रहा था, ‘ज्योति…ज्योति…ज्योति…’

एक पल को ठिठक गई ज्योति. पलट कर उस ने चारों ओर देखा तो कोई नहीं था दूरदूर तक. तो फिर कौन है इस निर्जन वन में जो उसे आवाज दे रहा था.

‘‘आत्महत्या करने जा रही हो ज्योति,’’ करीब आता स्वर सुनाई दिया ज्योति को.

ज्योति ने खीज कर पूछा था, ‘‘देखो, तुम जो भी हो मेरे सामने आ कर बात करो. मुझे डराने की कोशिश मत करो. आखिर कौन हो तुम?’’ ज्योति ने अपना मन कड़ा किया था.

‘‘मौत के जिस रास्ते पर तुम जा रही हो उसी रास्ते में मैं तुम्हारे सामने हूं, ज्योति.’’

कानों पर तो यकीन हो रहा था, मगर कहीं आंखें तो धोखा नहीं दे रही हैं उसे. पलकों को कस कर भींचा और झपकाया था ज्योति ने. विस्फारित नेत्रों से इस अंधेरे की खाक छान रही थी वह. कुछ भी तो नहीं था आसपास.

‘‘सामने? खड़े हो तो दिखाई क्यों नहीं देते?’’

‘‘इसलिए कि तुम मुझे देखना नहीं चाहतीं. देखो, मैं ठीक तुम्हारे सामने आ कर खड़ा हो गया हूं देख रही हो मुझे?’’

‘‘नहीं…मगर तुम चाहते क्या हो, कौन हो तुम?’’ गहराते रहस्य ने ज्योति की व्यग्रता को और उत्प्रेरित किया था.

‘‘मुझे अनदेखा कर रही हो तुम. जरा दिल की गहराइयों में मन की आंखों से देखो, ज्योति…मैं जीवन हूं.’’

‘‘जीवन, कौन जीवन? मैं किसी जीवन को नहीं जानती…’’

‘‘तुम जैसी समझदार लड़की के मुंह से इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगतीं. मुझे पहचानो. मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन.’’

‘‘बकवास बंद करो और हट जाओ मेरे रास्ते से.’’

अदृश्य तत्त्व का स्वर फिर ज्योति के कानों से टकराया था, ‘‘ठीक है, तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगा, मगर मुझे बता दो कि क्या तुम सचमुच आत्महत्या करने जा रही हो या…’’

‘‘जी हां, मैं सच में आत्महत्या ही करने जा रही हूं. पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगी, और कुछ?’’

एक क्षण की खामोशी और फिर, ‘‘अरे हां, सुनो? ज्योति, जब तक तुम मर नहीं जातीं, तब तक क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूं? इस बीच बातें करते हुए तुम्हारा यह अंतिम सफर भी अच्छे से कट जाएगा…तो चलूं तुम्हारे साथ?’’

‘‘तुम आओ या जाओ, मेरी बला से,’’ एकदम से भन्ना कर बोली ज्योति.

और एक झटके के साथ आगे बढ़ी तो अनजान रास्ता और उस पर से किसी अदृश्य रहस्य की उपस्थिति का आभास. इसी घबराहट में किसी कटे पेड़ के ठूंठ से जा टकराई और दर्द से बिलबिला उठी थी.

फिर वही आवाज, ‘‘चोट लग गई न. बिना सोचेसमझे तुम कितने दुर्गम रास्ते पर निकल पड़ी हो, ज्योति.’’

‘मर नहीं जाऊंगी इन छोटीमोटी ठोकरों से,’ क्रोध के मनोवेग से चीखती हुई बड़बड़ाने लगी थी, ‘…बहुत चोटें सही हैं मैं ने अपने कलेजे पर…मर तो नहीं गई मैं. हां, मरूंगी…आत्महत्या करूंगी. मुझे चोट लगे, तुम्हें इस से क्या मतलब?’

‘‘नहीं, कोई मतलब नहीं. मगर मैं नहीं चाहता कि मरने से पहले तुम्हारे शरीर पर कोई चोट लगे. क्योंकि तुम्हारी चोट से मैं भी आहत होता हूं. जानती हो ज्योति, आत्महत्या में ऐसा भी होता है कि कई बार आदमी मर नहीं पाता. टूटफूट कर एक लंगड़ेलूले, अपंगता की जिंदगी जीता है. तब वह दोबारा आत्महत्या का प्रयास भी नहीं करता. क्योंकि एक बार के प्रयास का कठोर एहसास जो उसे होता है.’’

खामोश रहना ही उचित समझा था उस ने. कदम और तेज हो गए थे उस के संकल्पित लक्ष्य की ओर. तभी जीवन ने फिर पूछा, ‘‘तुम आत्महत्या क्यों करना चाहती हो?’’

इस तरह चुप रह कर आखिर कब तक वह इस आफत को टालती. गरज उठी थी, ‘‘क्या बताऊं मैं, क्या दुखड़ा रोऊं मैं, तुम जैसे अनजान, अदृश्य, गैर के सामने? यह बताऊं कि एक गरीब मुनीम के घर हम 3 बेटियां अभिशाप हैं, एक बोझ हैं हम. सब से बड़ी बोझ मैं, ज्योति सहाय, एम.ए. फर्स्ट क्लास. फर्स्ट… मगर नौकरी के लिए मोहताज…’’

‘‘मगर बेरोजगारी की समस्या तो सिर्फ तुम्हारे अकेले की समस्या नहीं है. यह तो एक आम सामाजिक बीमारी है जिस से हर कोई जूझ रहा है.’’

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‘‘हां, बेरोजगारी मेरे अकेले की समस्या नहीं. मगर मैं एक समस्या हूं, गरीब बाप के सर पर पड़ी एक बोझ, क्या तुम नहीं जानते कि समाज में मध्य वर्गीय लड़कियों के लिए कई वर्जनाएं हैं. बातबात में मातापिता की पगडि़यां उछलती हैं. हर वक्त खानदान की इज्जत और भविष्य के सामने बदनामी, लोकलज्जा, मुंह चिढ़ाता समाज नजर आता है और वैसे भी लोग एक मजबूर, जरूरतमंद, गरीब और जवान लड़की को सिर्फ देखते ही नहीं, बल्कि निर्वस्त्र कर के महसूस भी करते रहते हैं. लेकिन तुम हो कौन, जो परत दर परत मुझ से सब कुछ जान लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने कहा न, मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन. बिलकुल सत्य और संघर्षों से भरा हूं. कोई मुझे प्यार का गीत समझ कर गुनगुनाता है तो कोई पहेली, कोई जंग समझता है. मैं तो एक सच हूं, ज्योति, मगर इतना कमजोर कि स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता. मौत के कू्रर पंजे एक झटके में मुझे शरीर से अलग कर देते हैं. मेरी भौतिकता ही खत्म कर देते हैं. और जबजब अपने अस्तित्व पर मुझे खतरा महसूस होता है, लोगों के सामने आता हूं, बातें करता हूं, खुद को तसल्ली देता हूं. आज भी तो इसीलिए आया हूं तुम्हारे पास, मेरी रक्षा करोगी न.’’

विचारों की इस उमड़घुमड़ में ज्योति इतना गुम हो गई कि जंगल कब खत्म हो गया पता तक नहीं चला. सड़क पर और तेज कदमों से उस पुल की दिशा में बढ़ गई थी वह जो अब ज्यादा दूर नहीं था. अचानक एक झटका सा लगा ज्योति को कि इतनी देर से जीवन ने कुछ कहा नहीं, कहां गया वह? इतना चुप तो रहने वाला नहीं था वह. कहीं चला तो नहीं गया अचानक.

सुनसान रात में जिस भय की उपस्थिति से भी नहीं घबराई थी ज्योति, अचानक उस के न होने की कल्पना मात्र से कांप गई थी वह. एक हांक लगाई थी ज्योति ने, ‘‘ज…ज…जीवन?…मिस्टर जीवन, चले गए क्या?’’

‘‘गलत सोच रही हो, ज्योति. मैं तो तुम्हारा जीवन हूं और तुम्हारी खातिर मौत से भी लड़ने को तैयार हूं. अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं तो तुम्हें तभी छोड़ं ूगा जब मुझे यह विश्वास हो जाएगा कि मौत की गोद में तुम गहरी नींद सो गई हो.’’

‘‘अच्छा, फिर तुम गायब कहां हो गए थे?’’

‘‘गायब तो नहीं, हां चुप जरूर हो गया था. क्यों मेरा चुप हो जाना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’’

अब क्या जवाब दे ज्योति इस प्रश्न का. एकदम से कोई बहाना नहीं सूझ रहा था उसे.

‘‘ऐ ज्योति, सच क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें मुझ से यानी अपने इस जीवन से पे्रम हो गया है.’’

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जीवनज्योति- भाग 3: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

अचानक ठठा कर हंस पड़ी ज्योति. कुछ ऐसा कि एक क्षण तक कुछ बोल नहीं पाई. किसी तरह खिलखिलाते हुए एकएक शब्द जोड़जोड़ कर बोल पड़ी वह, ‘‘तुम्हारा मतलब प्यार,’’ और इसी के साथ हंसती हुई वह दोहरी होती जा रही थी.

‘‘हंसो ज्योति, इतना हंसो कि अवसाद का अंधेरा छंट जाए, निराशा भरी इस निशा का अंत हो जाए. आशा की एक नई सुबह आए, उम्मीदों की किरणें फूटें, उमंग और उत्साह के पक्षी चहचहाने लगें.’’

हांफती हुई ज्योति ने स्वयं को कुछ नियंत्रित किया और आंखों की नमी को पोंछती हुई कह उठी थी, ‘‘पता नहीं मैं इतना क्यों हंसने लगी?’’

‘‘इसलिए कि तुम्हारा जीवन बहुत प्यारा है. वह तुम्हें हंसाना चाहता है. जिंदा देखना चाहता है क्योंकि जीवन ही हंसी है, खुशी है, आशा है, प्रेम है और मौत निराशा है, खामोशी है.’’

ज्योति ने गंभीरता ओढ़ ली थी. लेकिन जीवन गंभीर नहीं था. उस ने एक के बाद एक कई सवाल कर डाले.

‘‘अच्छा ज्योति, यह तो बता दो कि तुम ने अपने घर वालों के नाम कोई संदेश, कोई चिट्ठी छोड़ी है या नहीं? तुम्हारे इस तरह चले जाने से क्या बीतेगी तुम्हारे मांबाप पर, बहनें क्या सोचेंगी, इस बारे में भी तुम ने कुछ सोचा है? वह बेचारा मुनीम, क्या तुम्हारी मौत और समाज की उठती उंगलियों को एकसाथ झेल पाएगा?’’

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सच के एकएक बड़े पत्थर बारबार जीवन व्यावहारिकता के उस तालाब में फेंक रहा था जिस की ऊपरी परत पर बर्फ का एक बड़ा आवरण पसर गया था. ऐसा भी नहीं था कि बर्फ के नीचे का पानी हिलोरे नहीं ले रहा था. क्षोभ की तरंगें उठ रही थीं ज्योति के अंतस में भी. पर सोच लिया था उस ने कि अब किसी बात की कोई सफाई नहीं देगी वह.

‘‘वाह, ज्योति वाह, जिंदगी भर तुम्हारी खुशी के लिए जीतेमरते तुम्हारे बाप ने अपने दिल का बोझ कम करने के लिए दो कड़वे बोल बोल दिए जो तुम्हें इतने चुभ गए कि अब आत्महत्या कर के यह जताना चाहती हो कि बेटी के बाप को हर वक्त पश्चात्ताप की आग में ही जलते रहना चाहिए. अरे, वह तो एडि़यां घिसघिस कर तुम तीनों बहनों की शादी करने और गृहस्थी बसा देने के बाद ही मरेगा मगर तुम अभी से ही उसे जीतेजी क्यों मारना चाहती हो?

‘‘सोच लो ज्योति, तुम्हारी मौत की खबर पा कर जमाने के ताने सुन कर तो तुम्हारे पिताजी किसी सेठ की ड्योढ़ी पर मुनीमगीरी के लायक भी नहीं रहेंगे. फिर क्या तुम्हारा बाप, मुंशी रामप्यारे सहाय, किसी मंदिर या रेलवे स्टेशन की सीढि़यों पर बैठ कर भीख मांगेगा? क्या तुम्हारी मां, सुमित्रा देवी इस बुढ़ापे में पेट के लिए घरघर जा कर झाड़ूबर्तन, चूल्हेचौके का काम करेंगी? नीतू और पिंकी अपनी तमन्नाओं का गला घोंट कर किसी नाचनेगाने वाली गली के कोठे की जीनत बनेंगी?’’

ऐसे सख्त पत्थरों की वार से दरक गया था ज्योति का मन. बर्फ का आवरण था, कोई लोहे की चादर नहीं. बिलबिला कर बाहर आ गया था भीतर का सारा गुबार, झल्ला कर चीख पड़ी थी ज्योति अपना फैसला सुनाते हुए, ‘‘तो जहन्नुम में जाएं? कोई जिए या मरे मुझे क्या? मैं सिर्फ इतना जानती हूं कि लड़की होना अभिशाप है और मैं अपनी जीवनलीला समाप्त कर खुद को इस अभिशाप से मुक्त करना चाहती हूं, सुन रहे हो तुम? मैं खुद को मार देना चाहती हूं.’’

और इसी झल्लाहट में पुल के आखिरी किनारे पर अपना कदम बढ़ा गई थी ज्योति.

जीवन भी चुप नहीं था. जताना चाहता था कि सचमुच जिंदगी की आखिरी सांस तक वह उस के साथ है. उस की आवाज अब भी गूंज रही थी, ‘‘ज्योति, जीवन एक जंग है. इस से भागने वाले कायर कहलाते हैं. जिन में विश्वास, उत्साह, साहस और लगन होती है वह मौत को धत्ता बता कर जीवन को गले लगाते हैं. निराशा को नहीं आशा को गले लगाते हैं. वैसे तुम आत्महत्या कर रही हो तो करो, मगर मुझे यकीन है कि अनिश्चितताओं और हताशा के अंधेरे में भी राह दिखाने के लिए एक ज्योति जरूर जगमगाती रहेगी. याद रखना इस रात की भी एक सुबह जरूर होगी, इस निशा का अंत होगा, ज्योति.’’

हर रात की सुबह होती है. उस रात की भी सुबह हुई और सूर्य भी कब सिर पर चढ़ आया. पता नहीं चला. मुंशीजी के घर में व्याप्त खामोशी को किसी ने झंझोड़ा था, सांकल पीटपीट कर खटखट खट्टाक…खट…

आंखों पर चश्मा चढ़ाते मुंशीजी ने थके कदमों से चल कर दरवाजा खोला था. पोस्टमैन लिफाफा थामे बड़बड़ाया, ‘‘रजिस्ट्री डाक है, लीजिए और यहां दस्तखत कर दीजिए.’’

लिफाफे में से कागज निकाल कर पढ़ते ही मुंशी रामप्यारे सहाय की आंखें आश्चर्य से फैलती चली गईं. सहसा विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मुंशीजी को, उस आशय पर जो इस पत्र में लिखा था. झुरझुरी ले कर स्वयं को सामान्य किया तो आंखें बरस पड़ीं. रुंधे गले से भावातिरेक में उन्होंने पुकारा, ‘‘अजी सुनती हो, सुमित्रा… नीतू, पिंकी…जानता था मैं कि ज्योति एक न एक दिन जरूर कुछ न कुछ ऐसा करेगी. अरे, सुनती हो…सुमित्रा…’’

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बाबूजी का इस तरह सुबहसुबह चिल्लाना सब को एक घबराहट दे गया था. बदहवासी के कुछ ऐसे ही आलम में सभी दौड़तेकूदते बाबूजी के पास आ गए थे. सुमित्रा, नीतू, पिंकी सब की आंखों में एक सवालिया निशान और मन में बेचैनी कि आखिर हुआ क्या?

बाबूजी, बच्चों की भांति बिलखते हुए बोले, ‘‘कितना गलत कहा था मैं ने सुमित्रा, काश, इतनी कड़वी बातें उसे कल न कहता तो इतनी आत्मग्लानि, इतना पछतावा तो मुझे न होता, ज्योति… ज्योति…कहां हो ज्योति?’’

‘‘जी, मैं यहां हूं, बाबूजी…’’ कमरे के अंदर, दरवाजे की ओट से लगी, ज्योति सामने आ कर खड़ी हो गई थी. बाबूजी के बचेखुचे शब्द ज्योति के करीब आते ही तरलता में परिवर्तित हो कर मुंह के अंदर ही उमड़ने लगे थे. क्या कहें, कैसे कहें, बाबूजी की इस भावविह्वलता को देख कर ज्योति की आंखें अपनेआप छलक आई थीं.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है, बाबूजी. आप मन में ग्लानि क्यों लाते हैं. आप की जगह कोई भी होता तो वही कहता जो आप ने कहा था. दरअसल, गलती हमें समझने में हुई, बाबूजी.’’

खुशी से चहक उठे थे मुंशीजी, ‘‘अरे, गोली मार अलतीगलती को. सुमित्रा…3-3 बेटियों का बाप, यह मुनीम रामप्यारे सहाय ग्लानि क्यों करेगा? सीना ठोक कर चलेगा जमाने के सामने…सीना ठोक कर.’’

पत्र दिखाते हुए ज्योति के ठीक सामने तन कर खड़े हो गए थे बाबूजी, ‘‘ये देख, तेरा नियुक्तिपत्र. पढ़ न? पुलिस की सब से बड़ी आफीसर की नौकरी मिल गई है तुझे, ज्योति सहाय, आई.पी.एस. जयहिंद, मैडम.’’

जमीन पर पांव धमका कर एक जोरदार सैल्यूट दिया था मुंशीजी ने अपनी ज्योति बिटिया को.

पुलक उठी थी सुमित्रा, नीतू और पिंकी भी. सचमुच कंगले की ड्योढ़ी पर आसमान भी झुक गया था आज. और इस आसमान को झुका लाई थी एक बेटी, ज्योति.

कुछ खुशियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें सब के साथ बांटा तो जा सकता है, मगर उन्हें महसूस करने, आत्मसात करने के लिए किसी एकांत की आवश्यकता होती है. एक ऐसा एकांत जहां आंखें मूंद कर गुजरे वक्त के एकएक क्षण का हिसाबकिताब तो होता ही है, आने वाले समय के गर्भ में छिपे कई पहलुओं को सजायासंवारा भी जाता है.

ज्योति भाग कर अपने कमरे में चली गई. कभी हंसतेहंसते रोई, तो कभी रोतेरोते हंसती रही. मनोभावों का प्रवाह कम हुआ तो वह आईने के पास आ खड़ी हुई जहां अब ज्योति नहीं, बल्कि आई.पी.एस. ज्योति सहाय का अक्स उभर आया था. भरेपूरे गोरे बदन पर कसी खाकी वरदी, कंधे पर चमचमाता अशोक स्तंभ, सिर पर आई.पी.एस. बैज लगा हैट, चौड़े लाल बेल्ट में लटका रिवाल्वर, लाल बूट और चेहरे पर शालीनता से भरा एक अद्वितीय रौब.

शायद इसी अक्स को देख कर किसी ने बहुत करीब आ कर कहा था उसे, ‘‘बधाई हो, ज्योति.’’

मनप्राण में रचबस गई इस आवाज को अंतस में महसूस किया था ज्योति ने. आंखें बंद कर के वह अपने मन के अंदर झांक आई थी. जहां सचमुच मुसकराता हुआ उस का प्यारा जीवन था और जहां जल रही थी एक जीवनज्योति.

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