झूठ से सुकून: शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

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झूठ से सुकून: भाग 1- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

फ्लैट कल्चर हमें कभी रास नहीं आया. जिस दिन से उस फ्लैट में कदम रखा था, कोई न कोई अनचाही या यों कहिए कि मन के खिलाफ बात हो ही जाती थी. लाख तरीके अपनाने पर भी प्राइवेसी भंग हो जाती थी. दरवाजा भले ही अपनी सहूलियत के लिए भेड़ कर रखा हो, कोई न कोई कौलबैल बजा कर सीधे अंदर घुस आता था किचन और डायनिंगरूम तक, जैसे कि यह कोई घर न हो कर सराय हो. ‘बहनजी, सब्जी वाला आया है, सब्जियां ले लो’, ‘भाभीजी, कपड़े इस्तरी कराने हैं क्या’, ‘मैम, टंकी में पानी फुल कर लेना, वरना 10 बजे बिजली गुल होने के बाद आप को दिक्कत हो जाएगी’ वगैरावगैरा.

मेरी पत्नी को इन बातों से कोई ज्यादा असुविधा नहीं होती थी क्योंकि पड़ोसी खुद हमारी सुविधाओं के लिए चिंतित दिखाई देते थे. पर एक दिन भीमसेनजी ऐन सवेरे का चायनाश्ता करते वक्त, अंदर तक घुसते चले आए, ‘‘भाई साहब, ऊपर वाले उमाकांतजी ने रेलिंग पर गीले कपड़े फैला रखे हैं. बारबार कहने पर भी वे अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं. चलिए, हम मिल कर उन के आगे अपनी आपत्ति दर्ज कराते हैं.’’

‘‘हद हो गई,’’ भुनभुनाते हुए मैं उन के साथ उमाकांतजी से शिकायत करने चला गया.

पर भीमसेनजी की ओर से उमाकांतजी से शिकायत करने का नतीजा बुरा निकला और उन की लौबी वाले उन के चहेते मेरे खिलाफ हो गए. सुबह जब गेट खोला तो पड़ोसी भाभियों की गीली साडि़यां हमारे फ्लैट के ऊपर लटक रही थीं. उन्हें जानबूझ कर ठीक से न निचोड़े जाने के कारण उन से पानी धार से टपक रहा था. मैं ने पत्नी कुलदीपा को हिदायत दी कि इस मसले को तूल मत देना, मैं उन्हें प्यार से समझा दूंगा.

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बहरहाल, इस तरह की आएदिन होने वाली बातों से हम आजिज आ गए और हम ने कौलबैल को बिजली से डिस्कनैक्ट करा दिया. भीतर से दरवाजे पर चटखनी चढ़ा कर अंदर बैडरूम में ही ज्यादातर रहने लगे. लेकिन हमारे इस नकारात्मक रवैए का असर पड़ोसियों पर अच्छा नहीं पड़ा. आखिर टाइमपास के लिए उन्हें हमारा साथ जो चाहिए था. सो, एक शाम जब मैं औफिस से लौट कर हाथमुंह धो रहा था तो दरवाजे के बाहर एक नहीं, कई लोगों के होने की आहट मिली. जब दस्तक हुई तो मैं ने रवाजा खोल दिया. सामने उमाकांतजी हाथ में कोई  फाइल लिए थे और उन के पीछे कोई 7-8 लोग खड़े थे.

‘‘नमस्कार, शशिकांतजी, हम इस अपार्टमैंट में बेहतर सुविधाएं देने के लिए एक वैलफेयर सोसायटी का गठन कर रहे हैं और आप से गुजारिश है कि आप इस में अहम भूमिका निभाएं,’’ उमाकांतजी ने कंधे उचकाउचका कर हमारे सहयोग की गुहार लगाई. भलमनसाहत में मैं भी बागबाग हो उठा, ‘‘अरे, क्यों नहीं, क्यों नहीं, मैं भी तो इसी अपार्टमैंट का एक अभिन्न हिस्सा हूं.’’

‘‘तो फिर, आज शाम आप 8 बजे बी ब्लौक में नीलेशजी के फ्लैट में तशरीफ लाएं,’’ उमाकांतजी मेरी जबान पर लगाम लगा कर चलते बने.

अपने लेटलतीफी स्वभाव के अनुसार मैं ने 8 बजे के बजाय पौने 9 बजे नीलेशजी के फ्लैट में कदम रखा. वहां पहुंचने पर मुझे लगा कि जैसे सबकुछ पहले से तयशुदा था. वहां अपार्टमैंट के रिहाइशदारों की भीड़ में पदाधिकारियों के चुनाव का दौर चल रहा था. मेरे हाजिर होते ही किसी लालजी ने जनरल सैक्रेटरी के पद के लिए मेरे नाम का प्रस्ताव कर दिया. भीड़ के शोरगुल में मेरी नानुकर किसी ने नहीं सुनी और अफरातफरी में बहुमत से मैं वैलफेयर सोसायटी का जनरल सैके्रटरी चुन लिया गया.

मीटिंग से निबटने के बाद जब कंधों पर जिम्मेदारी लादे, मैं मुंह लटकाए घर में दाखिल हुआ तो मेरी पत्नी ने मुझे बधाई दी, ‘‘अजी, जनरल सैके्रटरी बनाए जाने पर आप को लखलख बधाइयां.’’ पत्नी की बात सुन कर मैं आश्चर्य में डूब गया. मेरे आने से पहले यह खबर उन तक ही क्या, पूरे अपार्टमैंट में फैल चुकी थी. तभी तो जब मैं अपार्टमैंट के अंदर से गुजर रहा था तो लोगबाग मेरे बारे में ही खुसुरफुसुर कर रहे थे.

पत्नी कुलदीपा फिर बोल उठी, ‘‘अजी, संतरे सा मुंह क्यों फुला रखा है? कित्ती चंगी गल है कि आप जनरल सैके्रटरी चुने गए हो. अब आप की काबिलीयत इन अपार्टमैंट वालों से तो छिपी नहीं है. सरकारी अफसर होने का फायदा तो इन्हें भी मिलना ही चाहिए.’’

जब कुलदीपा ने ही मुझे ‘जनरल सैके्रटरी’ का तमगा पहना दिया तो इसे कैसे ठुकराया जा सकता था. मैं मन ही मन सोचने लगा, ‘कुलदीपा, अभी तुम्हें यह सब बहुत अच्छा लग रहा है. जब हमारा ड्राइंगरूम नगर निगम के औफिस जैसा एक सार्वजनिक स्थल बन जाएगा तब तुम्हें पता चलेगा आटेदाल का भाव. अरे, हम जैसे बिजी गवर्नमैंट सर्वैंट के लिए ऐसी वैलफेयर सोसायटी जौइन करना कोई आसान बात है क्या?’

खैर, मैं भी तैयार था, यह देखने के लिए कि आगेआगे होता है क्या…

अगले दिन सुबह, बच्चों को स्कूलवैन में बैठाने के बाद जब मैं वापस लौटा तो ड्राइंगरूम में उमाकांतजी, नीलेशजी और भीमसेनजी को देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. वैलफेयर सोसायटी के पदाधिकारियों के साथ अब तो उठनाबैठना लगा ही रहेगा. मैं ने सोचा, ‘लो, इन के साथ कुछ देर तक इन का हालचाल पूछने के बाद ही औफिस के लिए निकलना हो पाएगा, औफिस के लिए एकाध घंटे लेट ही सही.’

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उमाकांतजी, जो कल सोसायटी के प्रैसिडैंट भी चुने गए थे, चाय की चुस्कियों में ही बोल उठे, ‘‘शशिकांतजी, इस अपार्टमैंट का बिल्डर निरंजन निहायत कमीना आदमी निकला. उस ने अपार्टमैंट के चारों ओर फेसिंग कराने का वादा पूरा नहीं किया और यहां से अपना औफिस समेट कर चलता बना.’’ जब मैं ने उस बात पर चिंता जाहिर की तो वे फिर बोल उठे, ‘‘शशिकांतजी, आज मैं भी सदर बाजार काम पर नहीं जा रहा हूं. नीलेशजी ने अपने औफिस से इस काम के लिए पहले ही छुट्टी ले रखी है. भीमसेनजी भी गद्दी में आज नहीं बैठने वाले हैं. यानी, हम सब आज कोर्ट में बिल्डर के खिलाफ एक मुकदमा डालने जा रहे हैं. आप चूंकि खुद एलएलबी हैं और मुझे जानकारी मिली है कि आप कानूनी दांवपेंचों के बड़े जानकार हैं, इसलिए आप का हमारे साथ कोर्ट में मौजूद रहना बेहद जरूरी है.’’

मैं दरवाजे पर खड़ी कुलदीपा के चेहरे को देखते हुए उधेड़बुन में अपनी दाढ़ी खुजलाने लगा कि तभी उस ने आंखों ही आंखों में इशारा किया, ‘अरे, महल्ले की बात है और आप को बड़ी इज्जत से साथ चलने को कह रहे हैं तो कोर्ट से लौटने के बाद कुछ देर से ही औफिस क्यों नहीं चले जाते?’

लिहाजा, कोर्ट में केस की स्टोरी तो मैं ने ही तैयार की जबकि नाममात्र के वकील ने अपने नाम के दस्तावेज और हमारे हलफनामे पर अपनी मुहर लगा कर फाइल पेश की और 3 दिनों बाद हमें फिर हाजिर होने का निर्देश दिया. इस तरह, जब वहां की औपचारिकताओं से निबटने में ही शाम के 4 बज गए तो मैं ने औफिस में फोन कर के उस दिन छुट्टी ले ली. जब मैं कोर्ट में वकील के साथ अपने बिल्डर निरंजन द्वारा किए गए गैरकानूनी मसलों पर बहस कर रहा था तो मेरे साथ आए सोसायटी के पदाधिकारियों को पूरा यकीन हो गया कि मैं सोसायटी की समस्याओं से निबटने के लिए एक सक्षम व्यक्ति हूं. कोर्ट में आ कर मुझे भी अच्छा लग रहा था. वैलफेयर सोसायटी के पदाधिकारियों के रूप में महल्ले में मैं नामचीन हो रहा था. जिधर से मैं गुजरता, लोगबाग मुझे महत्त्व देते हुए मेरा हालचाल जरूर पूछते.

घर लौट कर खाना खाने के बाद मैं ने बैडरूम में आ कर राहत की सांस ली. तभी कुलदीपा ने आ कर बताया कि उमाकांतजी का लड़का राहुल आया है. कह रहा है कि आज अंकल तो औफिस जा नहीं रहे, इसलिए वे हमारे फ्लैट में आ जाएं. पापा उन का इंतजार कर रहे हैं. अपार्टमैंट के कुछ मसलों से संबंधित जरूरी बातें करनी हैं.

मैं ने कुलदीपा की आंखों में बड़े शिकायतभरे अंदाज में देखा और कहा, ‘‘अभी क्या? यह तो खेल का आगाज है. औफिस से लौट कर रोज मुझे इसी तरह सोसायटी के काम के लिए घर से बाहर रहना होगा, वैलफेयर सोसायटी के लोगों के साथ. क्लाइमैक्स तक पहुंचतेपहुंचते नानी याद आ जाएगी.’’

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पर उस ने भी मुसकरा कर और सिर नचा कर मूक अभिनय किया, ‘‘अब आज औफिस नहीं गए तो सोसायटी का ही कुछ काम कर लीजिए. आरामवाराम तो होता रहेगा. अब देखिए, मेरी मरजी के मुताबिक चलेंगे तो एक आदर्श नागरिक के रूप में जाने जाएंगे.’’

मैं टीशर्ट और बरमूडा पहने हुए ही बाहर निकल गया.

आगे पढ़ें- उस शाम जब मैं लखनऊ से पधारे…

झूठ से सुकून: भाग 2- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

उमाकांतजी के ड्राइंगरूम का नजारा ही कुछ अलग था. वहां सबकुछ उलटापलटा पड़ा हुआ था. वे हुड़दंग करने के मूड में लग रहे थे. सोसायटी के कोई दर्जनभर लोग वहां जमे हुए थे. टेबल पर व्हिस्की की बोतलें थीं और कुछ लोग शतरंज के खेल में व्यस्त थे जबकि टीवी पर कोई वल्गर फिल्म चल रही थी. जब मैं ने झिझकते हुए उमाकांतजी के जनानखाने का जायजा लेना चाहा तो वे बोल उठे, ‘‘यार, बीवी को अभीअभी राहुल के साथ उस के मायके भेज दिया है जो यहीं राजनगर में है. अब हमारे ऊपर कोई निगरानी रखने वाला नहीं है. आज कई दिनों बाद तो मौजमस्ती का मूड बना है. सोचा कि तुम्हें भी साथ ले लूं. ऐसा मौका रोजरोज कहां आता है? खूब खाएंगेपीएंगे और एडल्ट फिल्में देखेंगे.’’

चूंकि मैं कभी ऐसे माहौल का आदी नहीं रहा, छात्र जीवन में भी पढ़नेलिखने के सिवा कभी कोई ऐसीवैसी नाजायज हरकत नहीं की, इसलिए मैं वहां काफी देर तक असहज सा रहा. बड़ी घुटन सी महसूस कर रहा था. तभी कुलदीपा ने कहला भेजा कि लखनऊ के ताऊजी सपरिवार पधारे हैं. सो, मुझे वहां से मुक्त होने का एक बहाना मिल गया. मैं ने उस माहौल से विदा होते समय राहत की सांस ली.

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उस शाम जब मैं लखनऊ से पधारे मेहमानों को घंटाघर का मार्केट घुमाने ले जा रहा था तो अपार्टमैंट के ही कुछ बदमिजाज लौंडों के बीच खेलखेल में नोकझोंक के बाद मारपीट हो गई जिस में उमाकांतजी के लड़के राहुल का सिर फट गया. मामला थाने तक जाने वाला था कि मैं ने बीचबचाव कर के झगड़े को निबटाया और अपने मेहमानों को वापस घर में बैठा कर राहुल को मरहमपट्टी कराने अस्पताल चला गया. काफी देर बाद वापस लौटा तो मेहमानों को होटल में डिनर कराने ले गया क्योंकि अपार्टमैंट में पैदा हुए उस माहौल में कुलदीपा के लिए डिनर तैयार करना बिलकुल संभव नहीं था. बहरहाल, मैं यह सोचसोच कर शर्म में डूबा जा रहा था कि आखिर, ताऊताई क्या सोच रहे होंगे कि कैसे वाहियात अपार्टमैंट में हम ने फ्लैट लिया है और कैसे वाहियात लोगों के साथ हम रह रहे हैं. सुबह जब ताऊताईजी टहलने जा रहे थे तो अपार्टमैंट में गजब की गंदगी फैली हुई थी. बोतलें, कंडोम, सिगरेट के पैकेट आदि रास्ते में बिखरे हुए थे.

उस दिन मैं ने मेहमानों की खिदमत के लिए एक दिन की और छुट्टी ले ली. सुबह, नीलेशजी सोसायटी के किसी काम से आए थे, पर मुझे मेहमाननवाजी में व्यस्त देख कर चले गए. उस के बाद भी सोसायटी के कुछ लोग मेरे बारे में पूछने आए. परंतु कुलदीपा ने उन्हें कोई तवज्जुह नहीं दी. उस शाम मेहमानों को वापस लखनऊ जाना था. लिहाजा, शाम को उन्हें ट्रेन में बैठा कर वापस लौटा तो मैं बड़ी राहत महसूस कर रहा था क्योंकि उन के रहते अपार्टमैंट में कोई और ऐसी नागवार वारदात नहीं घटी जिस से कि उन्हें किसी और अजीबोगरीब अनुभव से गुजरना पड़ता. इसी बीच, मैं ड्राइंगरूम में थका होने के कारण सोफे पर लुढ़का हुआ था तभी कुलदीपा मेरे बगल में आ कर बैठ गई. उस ने मेरे बालों में अपनी उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘आप थोड़े में ही थक जाते हैं. देखिए, मैं भी तो कल से मिनटभर को आराम नहीं कर पाई हूं. अब समाज में रहते हैं तो हमें सामाजिक जिम्मेदारियां भी तो निभानी पड़ेंगी.’’

मैं उस का इशारा समझ गया. वह चाहती थी कि मैं औफिस की ड्यूटी के साथसाथ सोसायटी के काम में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता रहूं. मैं ने मन ही मन कहा, ‘कुलदीपा, देखना तुम खुद भी इन निठल्ले सोसायटी वालों से ऊब जाओगी.’ हम बातचीत में मशगूल थे कि तभी मेरी बिटिया तनु ने आ कर बताया कि उमाकांत अंकल बाहर खड़े हैं और वे आप से मिलना चाहते हैं. फिर मैं ड्राइंगरूम में आ गया और तनु से कह दिया कि अंकल को अंदर बुला लाओ.

उमाकांतजी सोफे पर बैठने से पहले ही बोल उठे, ‘‘अजी शशिकांतजी, एक बड़ी कामयाबी हमें मिली है.’’

‘‘अरे हां, बताइए,’’ मुझे लगा कि जैसे वे कोई बड़ी जंग जीत कर आए हैं.

‘‘बिल्डर निरंजन के घर का पता मिल गया है. वह यहीं पास के महल्ले में रहता है. आज शाम हम ने तय किया है कि अपने पदाधिकारियों के साथ अपार्टमैंट के सभी लोग उस से मिलने चलेंगे और उस पर प्रैशर बनाएंगे कि वह अपार्टमैंट के बकाया काम को तुरंत निबटाए, वरना हम उस के खिलाफ ऐसी कानूनी लड़ाई शुरू करेंगे कि उसे छटी का दूध याद आ जाएगा.’’

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‘‘ठीक है, हम सभी उस के घर चलते हैं और उसे डराधमका कर आते हैं,’’ मैं ने कान खुजलाते हुए उन के मनोबल में इजाफा किया.

उस शाम हम निरंजन के घर गए तो बहसाबहसी का दौर इतना लंबा खिंचा कि रात के 11 बज गए. उस के गुंडों के साथ झड़प होने से हम बालबाल बच गए. उस का कहना था कि उस ने अपार्टमैंट में एक भी काम बकाया नहीं छोड़ा है जबकि हम ने कल कोर्ट में जो केस दायर किया था उस में कोई दर्जनभर ऐसे काम दर्शाए थे जिन्हें उस ने अपने वादे के अनुसार पूरा नहीं किया है. बहरहाल, बिल्डर निरंजन की नाराजगी की एक अहम वजह यह थी कि उसे पता चल गया था कि वैलफेयर सोसायटी ने उस के खिलाफ कोर्ट में एक केस डाला है. बस, इसी खुंदक में वह भविष्य में अपार्टमैंट में कोई भी काम कराने से साफ इनकार कर रहा था. उस ने तैश में भुनभुना कर कहा भी, ‘ऐसे कितने केस हम पर चल रहे हैं, एक और केस देख लेंगे. मेरा क्या बिगाड़ लोगे?’

रात के कोई 12 बजे घर लौट कर मैं ने खाना खाया. सोने की कोशिश की तो नींद का आंखों से रिश्ता कायम नहीं हो पाया. लिहाजा, पता नहीं कब आंख लगी और जब सुबह के 8 बजे तो मैं हड़बड़ा कर उठा. कुलदीपा भी घर के सारे कामकाज निबटाने के बाद नहाधो चुकी थी. किसी तरह अफरातफरी में तैयार हो कर मैं औफिस पहुंचा. मैं मुश्किल से अभी अपनी कुरसी पर बैठा ही था कि मैसेंजर ने आ कर बताया कि नीलेश नाम के कोई साहब आए थे और आप से मिलना चाह रहे थे. मैं सोच में पड़ गया. तभी मेरा मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो शशिकांतजी, मैं वैलफेयर सोसायटी से नीलेश बोल रहा हूं. मैं बाहर रिसैप्शन पर खड़ा हूं. आप से एक जरूरी काम था.’’

मेरा माथा ठनका, अच्छा, तो ये अपनी वैलफेयर सोसायटी के नीलेशजी हैं. मतलब यह कि अपनी सोसायटी अब मेरे औफिस तक आ पहुंची है. मैं ने रिसैप्शनिस्ट को फोन कर के बताया कि नीलेशजी को अंदर मेरे चैंबर में भेज दो. वे आए तो एकदम से अपने मतलब की बात पर आ गए, ‘‘शशिकांत, मैं बड़ी मुसीबत में हूं. मेरे बच्चे का सैंट्रल स्कूल में ऐडमिशन नहीं हो पा रहा है. हर मुमकिन कोशिश कर चुका हूं. अधिकारियों से खूब मगजमारी भी कर चुका हूं. अगर आप अपने डीओ लैटर पर सैंट्रल स्कूल के पिं्रसिपल से एक रिक्वैस्ट लिख दें तो मेरा बड़ा उपकार हो जाएगा.’’

वे हाथ जोड़ कर मुझ से बुरी तरह याचना करने लगे. मैं ने सोचा, अपनी वैलफेयर सोसायटी का मामला है, वह भी एक पदाधिकारी का. आखिर, मेरे अनुरोध पर उस के बच्चे का ऐडमिशन हो जाए तो इस में हर्ज ही क्या है. इस तरह वैलफेयर सोसायटी और औफिस की जिम्मेदारियां साथसाथ निबटाते हुए 2 दिन और गुजरे थे कि उमाकांतजी द्वारा एक सूचना मिली कि कल दोपहर बाद उन के यहां कोई खास आयोजन है जिस में मुझे सपरिवार शामिल होना है. कुलदीपा भी सामने आ खड़ी हुई, ‘‘अजी, सोसायटी का मामला है, कोई कोताही मत बरतना. कल कायदे से दोपहर बाद, औफिस से आधी छुट्टी ले कर यहां आ जाना, वरना बहुत बुराई हो जाएगी. लोग कहेंगे कि शशिकांत साहब ऐसे छोटेमोटे आयोजन में कहां आने वाले हैं, आखिर, वे एक बड़े अफसर जो ठहरे.’’

कुलदीपा के आग्रह को टालना मेरे वश की बात नहीं है. सो, उस दिन मैं औफिस से आधी छुट्टी ले कर उमाकांतजी के आयोजन में शामिल होने सपरिवार जा पहुंचा. लेकिन, मैं ने देखा कि वहां कोई बड़ा जश्न नहीं है, जैसे कि किसी का जन्मदिन या मैरिज एनिवर्सरी आदि. बस, नीलेशजी, लालजी और भीमसेनजी के परिवारजन ही वहां मौजूद थे. लिहाजा, उमाकांतजी ने खड़े हो कर स्वागत किया जबकि उन की पत्नी, कुलदीपा को ले कर दूसरे कमरे में चली गईं और मेरे दोनों बच्चे वहां दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद में व्यस्त हो गए. मामूली औपचारिकताओं के बाद चायपान हुआ, फिर 4 बजे के आसपास खाना. मुझे बड़ी कोफ्त हुई. बस, इतने से आयोजन के लिए मुझे औफिस का अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम छोड़ कर वहां से छुट्टी लेनी पड़ी. बहरहाल, जब हम लोग वापस अपने फ्लैट में आए तो कुलदीपा ने बताया कि आज मिसेज उमाकांतजी से मेरी खूब बातचीत हुई. उमाकांतजी घंटाघर के पास एक शराब का ठेका लेना चाहते हैं जिस के लिए उन्हें आप की मदद चाहिए.

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मैं चौंक गया, तो क्या शराब के ठेके के लिए लाइसैंस दिलाने के लिए सारी जुगत मुझे ही करनी होगी? मैं ने कुलदीपा से कहा, ‘‘अब, यह काम मुझ से नहीं हो पाएगा. उमाकांत नाजायज काम करने वाला आदमी है और मेरी उस के साथ नहीं निभने वाली है.’’ पर कुलदीपा उमाकांतजी के ही पक्ष में मुझ से तर्ककुतर्क करने लगी, ‘‘अरे, अब उमाकांतजी यह बिजनैस करना चाहते हैं तो करने दीजिए. हमारा क्या जाता है?’’ ‘‘मतलब यह कि वह हमारे मारफत ठेका खोलेगा, ठेके पर अवैध धंधा करेगा और जब पकड़ा जाएगा तो कानून की गिरफ्त में मैं आऊंगा क्योंकि उस के ठेके की जिम्मेदारी मेरे ऊपर होगी,’’ मैं एकदम से बिफर उठा.

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झूठ से सुकून: भाग 3- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

पर कुलदीपा कहां मानने वाली? वह मुंह फुला कर बड़बड़ाती हुई कोपभवन में चली गई. ‘शराब के धंधे में कुछ गड़बड़झाला होगा तो उमाकांतजी ही भुगतेंगे,’ वह बच्चों की तरह बड़बड़ा रही थी. मैं समझ गया कि अब मुझे उमाकांतजी का काम कराना ही पड़ेगा, नहीं तो, जिद्दी बीवी दानापानी तक के लिए हम सब को परेशान कर देगी.

अपार्टमैंट में आए हुए कोई 3 महीने गुजर गए थे. इस दौरान, मेरी ख्याति अपनी वैलफेयर सोसायटी के एक सफल कार्यकर्ता के रूप में चतुर्दिक फैल गई थी. मेरी मेहनत की बदौलत, बिल्डर निरंजन ने घुटने टेक दिए थे और नगरनिगम के अधिकारी

हमारे अपार्टमैंट में दूसरी कालोनियों की अपेक्षा बेहतर सुविधाएं देने लगे थे. मैं ने अपार्टमैंट के लोगों के कई प्राइवेट काम भी कराए जिस से मैं उन का सब से बड़ा खैरख्वाह बन गया. लोगबाग मेरा फेवर पाने के लिए तरहतरह के तिकड़म अपनाने लगे. कभी चाय पर बुला लेते तो कभी डिनर पर. शाम को औफिस से लौटने के बाद, मैं जैसे ही घर में दस्तक देता, अपार्टमैंट वालों का हुजूम बारीबारी से उमड़ पड़ता. अब तो कुलदीपा भी एकदम से ऊबने लगी थी क्योंकि उसे हर आगंतुक के लिए चायपान जो तैयार करना पड़ता था, उन की बेवक्त खातिरदारी जो करनी पड़ती थी. पर वह भी मजबूर थी, उन के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलती क्योंकि उस ने ही तो मुझे महज कालोनी में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति साबित करने के लिए उन की खिदमत में उन के सामने पेश किया था जिस से वे ढीठ बनते गए. ऐसे में जब मैं उमाकांत, नीलेश, लाल और भीमसेन आदि की नुक्ताचीनी करता तो वह खामोश रहती या अपराधबोध के कारण अंदर रसोई में चली जाती.

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चुनांचे, मेरे साथ सब से बुरी बात यह हुई कि मैं औफिस के काम में कोताही बरतने के कारण एक ऐसे बिगड़े हुए अधिकारी के रूप में जाना जाने लगा जो औफिस में काम को गंभीरता से नहीं लेता है, अपने अधीनस्थों को दबा कर रखता है और अनियमितताएं करने में संकोच नहीं करता. इस का खमियाजा भी मुझे ही भुगतना पड़ा. वर्ष के अंत में, वार्षिक रिपोर्ट में मेरी जो उपलब्धियां दर्शाई गईं, वे अत्यंत निराशाजनक थीं, उस कारण मेरे उच्चाधिकारी मुझ से नाराज रहने लगे और कार्यप्रणाली में बारबार कमियां निकालने लगे, रुकावटें डालने लगे. तनाव इतना बढ़ता गया कि इस बाबत मैं ने कुलदीपा को भी बतलाने की बारबार कोशिश की. पर वह हर बार मुंह बिचका कर कोई जवाब नहीं देती.

एक दिन, एक अजीबोगरीब घटना ने हमें जैसे नींद से जगा दिया. हमारे किशोर बेटे सुमित्र की आलमारी से शराब की बोतल बरामद हुई जो आधी खाली थी. कुलदीपा तो आपे से बाहर हो गई. जब सुमित्र की पिटाई हुई तो उस ने स्वीकार किया कि यह बोतल खुद उमाकांत अंकल ने उसे बुला कर यह कहते हुए दी कि इस के सेवन से कद बढ़ता है और छाती चौड़ी होती है. मैं आवेश में उमाकांत के पास जाने वाला ही था कि कुलदीपा ने मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘‘अब झगड़ाफसाद करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. मैं जानती हूं कि वह शरीफ आदमी नहीं है. आप कुछ कहेंगे तो वह लड़ने पर उतारू हो जाएगा. क्या आप को मालूम नहीं है कि वह अपार्टमैंट में सब को कैसे दबा कर रखता है? कुछ दिनों से वह आप की गैरहाजिरी में मेरे फ्लैट में किसी न किसी बहाने से आने की ताक में रहने लगा है. मुझे उस का इरादा नेक नहीं लगता है.’’

कुलदीपा के शब्द सुन कर मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी. मैं तो यह पहले ही भांप गया था कि उमाकांत गिरा हुआ इंसान है, पर इस बात का बिलकुल अंदाजा नहीं था कि उस की गंदी नजर मेरे ही घर पर है. लिहाजा, उस दिन शाम को जब मैं थकामांदा औफिस से घर लौटा तो मैं ने बेटे सुमित्र को बता दिया कि यदि सोसायटी का कोई आदमी किसी काम से आए तो कह देना कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है और वे सो रहे हैं. अभी मैं ने मुश्किल से आंखें झपकाई ही थीं कि बाहर उठे अचानक शोर से मैं बेचैन हो उठा. कुछ लोगों के बीच लड़ाई के अंदाज में जोरजोर से बातचीत हो रही थी जिस में नीलेश की आवाज ज्यादा ऊंची थी. मैं हड़बड़ा कर बाहर निकला तो यह देख कर दंग रह गया कि नीलेश ने उमाकांत की गरदन जोर से दबोच रखी है. जब मैं उन के पास पहुंचा तो नीलेश, उमाकांत को अपनी पकड़ से मुक्त करते हुए बोल उठा, ‘‘देखिए शशिकांत साहब, उमाकांतजी मेरे साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं. कोई 6 महीने पहले मैं ने इन्हें शराब का ठेका खोलने के लिए 4 लाख रुपए दिए थे, पर अब तो ये साफ कह रहे हैं कि मैं ने इन्हें एक धेला भी नहीं दिया है. दोस्ती के नाम पर मैं ने किसी कागज पर इन से कुछ भी नहीं लिखवाया. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मेरा इतने बड़े दगाबाज आदमी से पाला पड़ेगा.’’

उमाकांतजी ने भी बारबार कहा कि नीलेश दोस्ती का वास्ता दे कर मुझ से झूठमूठ के रुपए ऐंठना चाहता है. मुझे तो दोनों बेहद बेईमान लग रहे थे. पर उस घटना में मैं आखिर तक खामोश रहा. दोनों थाने गए तो भी मैं उन के साथ नहीं गया. दोनों अलगअलग मुझ से पैरवी करने के लिए गिड़गिड़ाए, पर मैं टस से मस नहीं हुआ. आखिर मैं किस का साथ देता? इसी बीच, कुलदीपा ने आ कर इशारे से बुला लिया.

नीलेश और उमाकांत के साथ क्या हुआ, यह जानने की जहमत मैं ने नहीं उठाई. लेकिन उस रात मैं बिलकुल सो नहीं सका. अपार्टमैंट का माहौल बेहद खराब था. बच्चे भी बिगड़ रहे थे. 12 साल की बेटी तनु भी मुझ से कई बार शिकायत कर चुकी थी कि अपार्टमैंट के बच्चे उसे कमीजसलवार में देख कर ‘बहनजी, आंटीजी’ कह कर छेड़ते हैं क्योंकि मैं ने ही उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि उसे सलीके के कपड़े पहनने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि नीलेश और उमाकांत के बीच किसी न किसी तरह सुलह हो चुकी है और दोनों फिर से साथसाथ रहने लगे हैं. इस दरम्यान, मैं वैलफेयर सोसायटी से बारबार कन्नी काट कर कभी किसी मेहमान के यहां चला जाता तो कभी औफिस से काफी देर बाद लौटता. सोसायटी वालों को मुझ से मुलाकात करने का मौका ही न मिलता.

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रविवार का दिन था. कुलदीपा मुझे देख, कुछकुछ अचंभित थी क्योंकि कई दिनों के बाद मैं शाम को घर जल्दी आया था. उस ने आते ही कहा, ‘‘आज दिन में सोसायटी की जनरल बौडी की मीटिंग थी जिस में आप की गैरहाजिरी में आप की सहमति के बिना आप को सोसायटी का प्रैसिडैंट चुना गया है. उमाकांतजी का बेटा राहुल कई बार आप को बुलाने आ चुका है.’’ मैं मुसकरा उठा, ‘‘अब जल्दीजल्दी सारे सामानअसबाब की पैकिंग कर लो, मैं ने यह फ्लैट बेच कर कविनगर में एक नया विला खरीद लिया है. अब मुझे यहां एक पल के लिए भी रहना बरदाश्त नहीं हो रहा है. अभी चंद मिनट में कुछ मजदूर बाहर खड़े ट्रक में हमारा सामान लादने के लिए आ रहे हैं.’’ जब तक कि मजदूर घर में घुस नहीं आए, तनु और सुमित्र सोच रहे थे कि मैं कोई पहेली बुझा रहा हूं. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हम इस गंदे अपार्टमैंट को छोड़ किसी विला में जा रहे हैं और आखिर पापा ने इतना कुछ इतने चुपके से किया.

दरअसल, मैं ने उन्हें कुछ कहनेसुनने का मौका ही नहीं दिया क्योंकि तब तक मजदूर आ कर घर का सामान उठाउठा कर ट्रक में रखने लगे थे और कुलदीपा भी उन्हें सामानों को हिफाजत से रखने की हिदायतें देने लगी थी. आधे घंटे में घर खाली हो गया. तब तक अपार्टमैंट के पड़ोसी मूकदर्शक बने ये सब कुछ देख रहे थे. कुछ लोग फुसफुसा रहे थे कि शशिकांतजी साहब ने तो यह फ्लैट पिछले साल ही खरीदा था, फिर क्या वे इस फ्लैट को किराए पर उठाने जा रहे हैं. तभी नीलेश और उमाकांत आते दिखे. उमाकांतजी मुझे कुछ पल चुपचाप देखते रहे, फिर मैं ने उन की चुप्पी तोड़ी, ‘‘उमाकांतजी, कल इस फ्लैट में एक दूसरे साहब आ रहे हैं. पर वे न तो कोई सरकारी अफसर हैं, न ही कोई कानूनदां. हां, वे बिल्डर निरंजन के साढ़ू भाई हैं. अगर हो सके तो आप लोग उन्हें ही सोसायटी का प्रैसिडैंट चुन लेना.’’

उमाकांतजी हकला उठे, ‘‘पर, शशिकांत साहब, आप हमें छोड़ कर जा कहां रहे हैं? अपना पताठिकाना तो देते जाइए. अभी तो आप के जरिए मुझे ढेरों काम करवाने हैं. आप से अब मिलना कहां होगा? मैं आप से संपर्क में कैसे बना रहूंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘उमाकांतजी, मेरा तबादला तो विदेश में हो गया है. अगर आप वहां आ सकें तो मैं अभी आप को अपना पताठिकाना नोट कराए देता हूं.’’ मैं अपनी जिंदगी का वह पहला झूठ बोल कर इसी शहर के महल्ले में सुकून से रह रहा हूं. कभीकभार उमाकांतजी, भीमसेनजी या नीलेशजी रास्ते में टकरा जाते हैं तो मैं उन से बड़ी सफाई से कतरा कर तेजी से कहीं और निकल जाता हूं और अगर मजबूरन उन से बात करनी भी पड़ जाती है तो मैं एक दूसरा झूठ दाग देता हूं कि अरे भई, किसी जरूरी सरकारी काम से इंडिया आया था. कल सुबह की ही फ्लाइट से वापस जा रहा हूं.

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