सावधान ! बदल गई है जॉब मार्केट, खुद को काम का बनाए रखने की कोशिश करें  

यह कहने की जरूरत नहीं है कि कोरोना ने बहुत कुछ ही नहीं बल्कि सब कुछ ही बदल दिया है. पिछले लगभग दो सालों से जिस तरह से पूरी दुनिया कोरोना महामारी के शिकंजे में है, उसका ग्लोबल जॉब मार्केट में जबरदस्त असर हुआ है, इसका खुलासा एमआई यानी मैकिंजे इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे से हुआ है. दुनिया के आठ देशों में जहां धरती की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी रहती है और जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था का 62 फीसदी जीडीपी का उत्पादन होता है. ऐसे आठ देशों में मैकिंजे इंटरनेशनल ने पिछले दो सालों में बदले हुए जॉब ट्रेंड एक सर्वे किया है और कॅरियर शुरु करने के इंतजार में खड़ी पीढ़ी को सावधान किया है कि वे जल्द से जल्द अपने आपको नयी परिस्थितियों के मुताबिक ढालें वरना अप्रासंगिक हो जाएंगे.

मैकिंजे इंटरनेशनल ने जिन आठ देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर रखी है और वहां के जॉब मार्केट में सर्वे किया है, उसमें चीन, भारत, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, जापान, यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमरीका शामिल हैं. इन सभी देशों में कम या ज्यादा मगर पिछले दो सालों में नौकरियां कम हुई हैं. कहीं 8 से 10 फीसदी तक तो कहीं 20 से 25 फीसदी तक और इन नौकरियों के कम होने में सबसे बड़ी भूमिका है आटोमेशन की. शोध अध्ययन से पता चला है कि बड़े पैमाने पर जॉब  कुछ विशेष क्षेत्रों में समाहित हो गये हैं. मैकिंजे के विस्तृत अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो सालों में 800 से ज्यादा प्रोफेशन, 10 कार्यक्षेत्रों में समाहित हो गये हैं और खरीद-फरोख्त के मामले में तो ऐसा उलटफेर कर देने वाला परिवर्तन हुआ है कि कोरोना से पहले जहां ग्लोबल शोपिंग में ऑनलाइन  शोपिंग की हिस्सेदारी 35 से 40 फीसदी थी, वहीं पिछले दो सालों में यह बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है.

हालांकि यह स्थायी डाटा नहीं रहने वाला. क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर ऑनलाइन, शोपिंग इसलिए भी इन दिनों हुई  से क्योंकि इस दौरान दुनिया के ज्यादातर देशों में लॉकडाउन लगा हुआ था. बावजूद इसके मैकिंजे इंटरनेशनल शोध अध्ययन की पहली किस्त का साफ तौरपर निष्कर्ष है कि खरीद-फरोख्त की दुनिया में कोरोना महामारी ने आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है. इस महामारी के खत्म होने के बाद भी यह परिवर्तन लौटकर पहली वाली स्थिति में नहीं आने वाला. आज की तारीख में राशन से लेकर सिरदर्द की टैबलेट तक लोग बड़ी सहजता से ऑनलाइन मंगवा रहे हैं. आश्चर्य तो इस बात का भी है कि बड़ी तेजी से इन लॉकडाउन के दिनों में अलग अलग शहरों के मशहूर स्नैक्स तक 24 से 48 घंटों के अंदर देश के एक कोने से दूसरे कोने में डिलीवर होने लगे हैं. इलाहाबाद के पेड़े (अमरूद) ही नहीं अब समोसे भी 24 घंटे के अंदर नागपुर, भोपाल, मुंबई, पुणे और विशाखापट्टनम में खाये जा सकते हैं.

वैसे कभी न कभी तो यह सब होना ही था. लेकिन कोरोना महामारी ने इसकी रफ्तार बहुत तेज कर दी है. पिछले दो सालों में ई-कॉमर्स  और आटोमेशन में जबरदस्त इजाफा हुआ है और इस इजाफे में कैटेलेटिक एजेंट की भूमिका कामकाजी लोगों का बड़े पैमाने पर घर में रहना यानी वर्क फ्राम होम की स्थिति ने निभाया है. पिछले दो सालों के भीतर औसतन पूरी दुनिया में करीब 25 फीसदी सेवा क्षेत्र की नौकरियों में इंसानों की उपस्थिति खत्म हो चुकी है,उनकी जगह या तो रोबोट ने ले ली है या कम स्टाफ ने. शायद इस महामारी के खत्म होने के कुछ सालों बाद ही दुनिया आश्चर्यजनक ढंग से इस महामारी के दौरान दुनिया में हुए रातोंरात तूफानी परिवर्तनों को महसूस करे, अभी तो यह सब कुछ बहुत तात्कालिक लगता है और कहीं न कहीं यह भी लगता है कि महामारी के जाते ही दुनिया शायद पुरानी जगह लौट आयेगी. लेकिन इतिहास इस अनुमान का, इस भरोसे का साथ नहीं देता.

इतिहास बताता है कि किसी भी क्षेत्र में हुआ कोई भी बदलाव आसानी से पहले की स्थिति में नहीं लौटता. यूरोप में और अमरीका में पिछले दो सालों के भीतर सफाई के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मशीनों का आगमन हुआ है. आज की तारीख में अमरीका में 18 से 20 फीसदी तक और यूरोप में 12 से 15 फीसदी तक रोबोट सफाई कर्मचारियों के रूप में मोर्चा संभाले हुए हैं. कोरोना संकट खत्म होने के बाद विशेषज्ञों को नहीं लगता कि रोबोट वापस शो रूम में चले जाएंगे. मैकिंजे की मानें तो आने वाले सालों में रोबोट इंसानों को अनुमान से 50 फीसदी ज्यादा चुनौती देने जा रहे हैं. हां, कुछ क्षेत्र इस दौरान ऐसे भी उभरकर सामने आये हैं, जहां मैनपावर यानी इंसानों की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस हुई है. इसमें सबसे प्रमुख क्षेत्र निःसंदेह चिकित्सा का है . दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहां कोरोना त्रासदी के दौरान, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की कमी महसूस न हुई हो. भारत, चीन जैसे जनसंख्या प्रधान देशों में डॉक्टरों को सामान्य समय के मुकाबले कोरोनाकाल में करीब 2.5 से 3 गुना तक कमी महसूस कराई गई है.

यही हाल चिकित्सा क्षेत्र में देखरेख का मुख्य आधार नर्सों का भी है. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जो आज की तारीख में अपनी कुल जरूरत की 80 फीसदी तक नर्सें रखता हो. दुनिया के बहुत सारे देशों में भारत से ही नर्सें जाती हैं या उनकी बड़ी जरूरत को किसी हद तक पूरा करते हैं. लेकिन इस कोरोना महामारी के दौरान भारत में 300 फीसदी से ज्यादा नर्सों की कमी महसूस की गई. हालांकि नर्से उपलब्ध हो जाएं तो भी भारत के चिकित्सा क्षेत्र के पास इतने संसाधन नहीं है कि वह उन्हें नौकरी दे सके. लेकिन कोरोना की रह-रहकर आयी लहरों ने साबित किया है कि डॉक्टर, नर्स और इस क्षेत्र के दूसरे सहायकों की आज पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है और आने वाले भविष्य में भी यह जरूरत बनी रहने वाली है.

डाक्टर के बजाय चपरासी क्यों बनना चाहते हैं युवा

2017 में मध्य प्रदेश और 2018 में उत्तर प्रदेश के बाद इस साल खबर गुजरात से आई है कि गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालतों में वर्ग-4 यानी चपरासी की नौकरी के लिए 7 डाक्टर और 450 इंजीनियरों सहित 543 ग्रेजुएट और 119 पोस्टग्रेजुएट चुने गए. इस खबर के आते ही पहली आम प्रतिक्रिया यह हुई कि क्या जमाना आ गया है जो खासे पढ़ेलिखे युवा, जिन में डाक्टर भी शामिल हैं, चपरासी जैसी छोटी नौकरी करने के लिए मजबूर हो चले हैं. यह तो निहायत ही शर्म की बात है.

गौरतलब है कि चपरासी के पदों के लिए कोई 45 हजार ग्रेजुएट्स सहित 5,727 पोस्टग्रेजुएट और बीई पास लगभग 5 हजार युवाओं ने भी आवेदन दिया था. निश्चितरूप से यह गैरमामूली आंकड़ा है, लेकिन सोचने वालों ने एकतरफा सोचा कि देश की और शिक्षा व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चली है कि कल तक चपरासी की जिस पोस्ट के लिए 5वीं, 8वीं और 10वीं पास युवा ही आवेदन देते थे, अब उस के लिए उच्चशिक्षित युवा भी शर्मोलिहाज छोड़ कर यह छोटी नौकरी करने को तैयार हैं. सो, ऐसी पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या.

शर्म की असल वजह

जाने क्यों लोगों ने यह नहीं सोचा कि जो 7 डाक्टर इस पोस्ट के लिए चुने गए उन्होंने डाक्टरी करना गवारा क्यों नहीं किया. वे चाहते तो किसी भी कसबे या गांव में क्लीनिक या डिस्पैंसरी खोल कर प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसी तरह इंजीनियरों के लिए भी प्राइवेट कंपनियों में 20-25 हजार रुपए महीने वाली नौकरियों का टोटा बेरोजगारी बढ़ने के बाद भी नहीं है, लेकिन उन्होंने सरकारी चपरासी बनना मंजूर किया तो बजाय शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के गिरते स्तर को कोसने के, इन युवाओं की मानसिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए.

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दरअसल, बात शर्म की इस लिहाज से है कि इन उच्चशिक्षित युवाओं ने अपनी सहूलियत और सरकारी नौकरी के फायदे देखे कि यह नौकरी गारंटेड है जिस में एक बार घुस जाने के बाद आसानी से उन्हें निकाला नहीं जा सकता. तनख्वाह भी ठीकठाक है और ट्रांसफर का भी ?ां?ाट नहीं है. अलावा इस के, सरकारी नौकरी में मौज ही मौज है जिस में पैसे काम करने के कम, काम न करने के ज्यादा मिलते हैं. रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलती है और छुट्टियों की भी कोई कमी नहीं रहती. घूस की तो सरकारी नौकरी में जैसे बरसात होती है और इतनी होती है कि चपरासी भी करोड़पति बन जाता है.

इन युवाओं ने यह भी नहीं सोचा कि उन के हाथ में तकनीकी डिगरी है और अपनी शिक्षा का इस्तेमाल वे किसी भी जरिए से देश की तरक्की के लिए कर सकते हैं. निश्चित रूप से इन युवाओं में स्वाभिमान नाम की कोई चीज या जज्बा नहीं है जो उन्होंने सदस्यों को चायपानी देने वाली, फाइलें ढोने वाली और झाड़ू पोंछा करने वाली नौकरी चुनी.

देश में खासे पढ़ेलिखे युवाओं की भरमार है लेकिन डिगरी के बाद वे कहते क्या हैं, इस पर गौर किया जाना भी जरूरी है. इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी के इस युग में करोड़ों युवा प्राइवेट कंपनियों में कम पगार पर नौकरी कर रहे हैं जो कतई शर्म की बात नहीं क्योंकि वे युवा दिनरात मेहनत कर अभावों में रह कर कुछ करगुजरने का जज्बा रखते हैं और जैसेतैसे खुद का स्वाभिमान व अस्तित्व दोनों बनाए हुए हैं.

ऐसा नहीं है कि उन युवाओं ने एक बेहतर जिंदगी के ख्वाब नहीं बुने होंगे लेकिन उन्हें कतई सरकारी नौकरी न मिलने का गिलाशिकवा नहीं. उलटे, इस बात का फख्र है कि वे कंपनियों के जरिए देश के लिए कुछ कर रहे हैं.

इस बारे में इस प्रतिनिधि ने भोपाल के कुछ युवाओं से चर्चा की तो हैरत वाली बात यह सामने आई कि मध्य प्रदेश के लाखों युवाओं ने चपरासी तो दूर, शिक्षक, क्लर्क और पटवारी जैसी मलाईदार सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन ही नहीं किया. उन के मुताबिक, इस से उन की पढ़ाई का मकसद पूरा नहीं हो रहा था.

एक नामी आईटी कंपनी में मुंबई में नौकरी कर रही 26 वर्षीय गुंजन का कहना है कि उस के मातापिता चाहते थे कि वह भोपाल के आसपास के किसी गांव में संविदा शिक्षक बन जाए. लेकिन गुंजन का सपना कंप्यूटर साइंस में कुछ करगुजरने का था, इसलिए उस ने विनम्रतापूर्वक मम्मीपापा को दिल की बात बता दी कि अगर यही करना था तो बीटैक में लाखों रुपए क्यों खर्च किए, बीए ही कर लेने देते.

यही रोना भोपाल के अभिषेक का है कि पापा चाहते थे कि वह एमटैक करने के बाद कोई छोटीमोटी सरकारी नौकरी कर ले जिस से घर के आसपास भी रहे और फोकट की तनख्वाह भी मिलती रहे. लेकिन उन की बात न मानते हुए अभिषेक ने प्राइवेट सैक्टर चुना और अब नोएडा स्थित एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में अच्छे पद और पगार पर काम कर रहा है.

गुंजन और अभिषेक के पास भले ही सरकारी नौकरी न हो लेकिन एक संतुष्टि जरूर है कि वे ऐसी जगह काम कर रहे हैं जहां नौकरी में मेहनत करनी पड़ती है और उन का किया देश की तरक्की में मददगार साबित होता है. सरकारी नौकरी मिल भी जाती तो उस में सिवा कुरसी तोड़ने और चापलूसी करने के कुछ और नहीं होता.

लेकिन इन का क्या

गुजरात की खबर पढ़ कर जिन लोगों को अफसोस हुआ था उन्हें यह सम?ाना बहुत जरूरी है कि गुजरात के 7 डाक्टर्स और हजारों इंजीनियर्स के निकम्मेपन और बेवकूफी पर शर्म करनी चाहिए.

इन लोगों ने मलाईदार रास्ता चुना जिस में अपार सुविधाएं और मुफ्त का पैसा ज्यादा है. घूस भी है और काम कुछ करना नहीं है. डाक्टर्स चाहते तो बहुत कम लागत में प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, इस से उन्हें अच्छाखासा पैसा भी मिलता और मरीजों को सहूलियत भी रहती. देश डाक्टरों की कमी से जू?ा रहा है गांवदेहातों के लोग चिकित्सकों के अभाव में बीमारियों से मारे जा रहे हैं और हमारे होनहार युवा डाक्टर सरकारी चपरासी बनने को प्राथमिकता दे रहे हैं.

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क्यों इन युवाओं ने किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी की नौकरी स्वीकार नहीं कर ली, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि इन की मंशा मोटी पगार वाली सरकारी चपरासी की नौकरी करने की थी. यही बात इंजीनियरों पर लागू होती है जिन्हें किसी बड़े शहर में 30-40 हजार रुपए महीने की नौकरी भार लगती है, इसलिए ये लोग इतनी ही सैलरी वाली सरकारी चपरासी वाली नौकरी करने के लिए तैयार हो गए. हर साल इन्क्रिमैंट और साल में 2 बार महंगाईभत्ता सरकारी नौकरी में मिलता ही है जिस से चपरासियों को भी रिटायर होतेहोते 70 हजार रुपए प्रतिमाह तक सैलरी मिलने लगती है.

गुंजन और अभिषेक जैसे देशभर के लाखों युवाओं के मुकाबले ये युवा वाकई किसी काम के नहीं, इसलिए ये सरकारी चपरासी पद के लिए ही उपयुक्त थे. इन्हीं युवाओं की वजह से देश पिछड़ रहा है जो अच्छी डिगरी ले कर कपप्लेट धोने को तैयार हैं लेकिन किसी प्रोजैक्ट इनोवेशन या नया क्रिएटिव कुछ करने के नाम पर इन के हाथपैर कांपने लगते हैं, क्योंकि ये काम और मेहनत करना ही नहीं चाहते.  इस लिहाज से तो बात वाकई शर्म की है.

पेशा तय करता है भविष्य

ज़्यादातर लोग नौकरी को ही रोजगार मानने लगे हैं. विशेषकर, शिक्षितवर्ग में इस के प्रति आकर्षण बहुत बढ़ा है. व्यापार में परिश्रम तो अधिक है, पर उसी तुलना में उस में पैसा व सम्मान भी बहुत अधिक है. दुनिया में जितने भी संपन्न लोग हैं, सब व्यापारी हैं. नौकरी में अकसर अफसर की धौंस सुननी पड़ती है, जबकि व्यापार में इंसान खुद मालिक होता है.

पेशा इंसान के लिए ऐसा जरिया है जिस से वह काफी ज्यादा मालूमात हासिल करने के साथसाथ पैसे कमा सकता है और अपनी जीवनशैली को बेहतर कर सकता है. पेशे का सही चुनाव करना बहुत ही जरूरी है. पेशे यानी कैरियर के चयन के लिए सब से पहली शर्त यह है कि आप को अपनी ताकत व कमजोरी पता होनी चाहिए.

जीवनशैली का नेतृत्व :

पेशा इंसान की जीवनशैली का नेतृत्व करता है जिस से समाज में उस की स्थिति तय होती है. वहीं, सिर्फ काम शुरू करने या नौकरी पा जानेभर से आप का लक्ष्य पूरा नहीं होता. आप को सीखने की प्रक्रिया लगातार जारी रखनी है. भविष्य के लक्ष्य को आप को हमेशा आगे बढ़ाते रहना चाहिए. पेशा आप के भविष्य को तय करता है.

दुनिया अब डिजिटल हो रही है और आप को डिजिटल स्किल्स के हिसाब से खुद को अपग्रेड करना चाहिए, भले ही आप किसी भी फील्ड में काम कर रहे हों. उदाहरण के लिए, सेल्स और मार्केटिंग का काम करने वाले लोगों को अब औनलाइन सेल्स और मार्केटिंग कैंपेन के बारे में जानना चाहिए. बैंकिंग प्रोफैशनल को मोबाइल बैंकिंग और डिजिटल पेमैंट को बढ़ावा देने के लिए नई तकनीक की जानकारी होनी चाहिए. इसी तरह फिजिकल क्लासरूम की जगह अब टीचर्स को औनलाइन प्लेटफौर्म पर आने की जरूरत है. एचआर प्रोफैशनल को अब हायरिंग के परंपरागत तरीके की जगह लिंक्डइन जैसे औनलाइन प्लेटफौर्म पर शिफ्ट होना चाहिए.

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भ्रमित रहता है युवा :

आज के दौर में बहुत ज्यादा औपशंस यानी विकल्प होने के चलते विद्यार्थी भ्रमित रहता है कि वह कौन से विषय का चुनाव करे.  दरअसल, यह उलझन हर उस विद्यार्थी की है जो विषयों के विकल्पों के बीच अपना भविष्य तलाश रहा है. समय था जब सीमित विकल्प होते थे, जैसे इंजीनियरिंग, मैडिकल और सिविल सर्विसेस. अच्छे विद्यार्थी इन्हीं की ओर रुख करते थे. लेकिन आज, उस के सामने इतने विकल्प हैं कि वह भ्रमित हो जाता है.

पेशा यानी कैरियर आमतौर पर विद्यार्थी/युवा की जिंदगी के पेशेवर पहलू से जुड़ा होता है. इसलिए, कैरियर का चयन करना एक बड़ा फैसला है और हालत यह है कि जब विद्यार्थी को ऐसे निर्णय लेने की ज़रूरत होती है तो वह इस तरह के बड़े फैसले लेने के लिए तैयार नहीं होता. युवा अभी स्कूली जीवन में है जहां उसे विज्ञान, वाणिज्य और मानविकी स्ट्रीम के बीच चयन करना पड़ता है जो मुख्यरूप से उस के भविष्य के कैरियर के रास्ते को प्रभावित करता है.

प्रोफैशनल भविष्य की प्लानिंग :

पेशे या कैरियर का चयन करते वक्त विद्यार्थी के विचारों व इच्छाओं को समझ कर उन का सम्मान करना चाहिए. आमतौर पर इस पहलू को अनदेखा किया जाता है कि उन की रुचि किस ओर है. कैरियर का चयन करते समय इस बात पर गौर किया जाए तो नौकरी करने या कोई काम शुरू करने के बाद उन्हें उस क्षेत्र में काम करने में कोई दिक्कत नहीं होगी.

आज हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है. व्यावसायिक विषयों में सीमित प्रवेश संख्या होती है, प्रतिस्पर्धियों की संख्या ज्यादा है. आप में भले ही बहुत प्रतिभा या क्षमता हो, मेरिट हो, लेकिन मुमकिन है कि पसंद के कोर्स या पसंद के कालेज में दाखिला न मिले. इस के लिए जरूरी है कि एक अलग योजना भी तैयार रहे.

अपनेआप को जांचें : कभीकभी ऐसा भी होता है कि आप अपनी पहचान करने में भी गलती कर जाते हैं, खुद को सही से पहचान नहीं पाते. हो सकता है आप वैज्ञानिक  बनना चाहते हों पर आप की गणित कमजोर हो, आप गायक बनना चाहते हों पर आप की आवाज लड़खड़ाती हो, आप चार्टर्ड अकाउंटैंट बनना चाहते हों पर अकाउंटिंग में रुचि नहीं और आप रिपोर्टर बनना चाहते हों पर आप को धूप से एलर्जी हो.  सो, खुद को अच्छे से पहचानें, फिर उस फील्ड के बारे में गहराई से मालूमात हासिल करें और तब कोई फैसला लें.

आप एयरहोस्टेस बनना चाहती हैं तो ध्यान रहे परिवार से दूर रहने के लिए आप को तैयार रहना होगा. वहीं, अगर आप रिपोर्टर बनना चाहते हैं तो याद रहे, टीवी के ग्लैमर से दूर उन्हें न्यूज़ के लिए दिनरात दौड़ना भी पड़ता है, कभीकभी देररात तक भी काम करना पड़ता है. इसलिए अपनी स्ट्रीम को बारीकी से जानें, समझें, फिर फैसला लें.

ग्रूमिंग को इग्नोर न करें : नौकरी ढूंढ़ रहे लोगों को उन मसलों पर भी गौर करने की जरूरत है जो पेशे से सीधे जुड़े नहीं होते, लेकिन उन का महत्त्व कम नहीं होता. शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना ऐसी ही एक जरूरत है.

एबीसी कंसल्टैंट्स के एमडी शिव अग्रवाल कहते हैं, “’अधिकतर एंप्लौयर यह मानते हैं कि अगर आप खुद का खयाल नहीं रख सकते तो आप कंपनी के बारे में क्या सोचेंगे.”  एपियरेंस यानी ठीक से कपड़े पहनना और आकर्षक सीवी/बायोडाटा  ऐसे फैक्टर हैं जिन का ध्यान रखा जाना जरूरी है. आप का एंप्लौयर इन बातों पर ध्यान क्यों देगा, दरअसल, आप के बारे में धारणा ही हकीकत है और आप के बारे में बनी धारणा पर ही एंप्लौयर आप को जौब देता है. आप बहुत अच्छे हैं, फिर भी आप की धारणा अच्छी होनी जरूरी है. अगर 2 कैंडिडेट्स एकजैसे ही हैं तो जो फिजिकली फिट होगा, एंप्लौयर उसे तरजीह देगा, बजाय मोटे या दुबले कैंडिडेट के.

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लब्बोलुआब यह है कि प्रोफैशन का चुनाव सोचसमझ कर कीजिए और किसी नौकरी को ही अपना कैरियर बनाने की मत सोचिए. नौकरी होती है नौकरी और अपना काम अपना ही होता है. हर काम के लिए बड़ी रकम की ज़रूरत नहीं होती. सोच क्रिएटिव है तो स्टार्टअप शुरू कीजिए, पैसे लगाने वाले भी मिल जाएंगे. यह सच है कि व्यापार में कुछ तो पूंजी चाहिए,  पर पूंजी का अर्थ केवल नकद धन नहीं होता. शिक्षा, परिश्रम, धैर्य और दिमाग भी बहुत बड़ी पूंजी है. इन के सदुपयोग से भी कामयाबी मिलती है. सालदोसाल कष्ट उठाने पड़ सकते हैं, पर फिर केवल अपना ही नहीं, भावी पीढ़ी का भविष्य भी सुरक्षित हो जाता है.

डैमोक्रेसी और भारतीय युवा

हौंगकौंग और मास्को में डैमोक्रेसी के लिए हजारों नहीं, लाखों युवा सड़कों पर उतरने लगे हैं. मास्को पर तानाशाह जैसे नेता व्लादिमीर पुतिन का राज है जबकि हौंगकौंग पर कम्युनिस्ट चीन का. वहां डैमोक्रेमी की लड़ाई केवल सत्ता बदलने के लिए नहीं है बल्कि सत्ता को यह जताने के लिए भी है कि आम आदमी के अधिकारों को सरकारें गिरवी नहीं रख सकतीं.

अफसोस है कि भारत में ऐसा डैमोक्रेसी बचाव आंदोलन कहीं नहीं है, न सड़कों पर, न स्कूलोंकालेजों में और न ही सोशल मीडिया में. उलटे, यहां तो युवा हिंसा को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं. वे सरकार से असहमत लोगों से मारपीट कर उन्हें डराने में लगे हैं. यहां का युवा मुसलिम देशों के युवाओं जैसा दिखता है जिन्होंने पिछले 50 सालों में मिडिल ईस्ट को बरबाद करने में पूरी भूमिका निभाई है.

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डैमोक्रेसी आज के युवाओं के लिए जरूरी है क्योंकि उन्हें वह स्पेस चाहिए जो पुराने लोग उन्हें देने को तैयार नहीं. जैसेजैसे इंसानों की उम्र की लौंगेविटी बढ़ रही है, नेता ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह रहे हैं. वे अपनी जमीजमाई हैसियत को बिखरने से बचाने के लिए, स्टेटस बनाए रखने का माहौल बना रहे हैं. वे कल को अपने से चिपकाए रखना चाह रहे हैं, वे अपने दौर का गुणगान कर रहे हैं. जो थोड़ीबहुत चमक दिख रही है उस की वजह केवल यह है कि देश के काफी युवाओं को विदेशी खुले माहौल में जीने का अवसर मिल रहा है जहां से वे कुछ नयापन भारत वापस ला रहे हैं. हमारी होमग्रोन पौध तो छोटी और संकरी होती जा रही है. देश पुरातन सोच में ढल रहा है. हौंगकौंग और मास्को की डैमोक्रेसी मूवमैंट भारत को छू भी नहीं रही है.

नतीजा यह है कि हमारे यहां के युवा तीर्थों में समय बिताते नजर आ रहे हैं. वे पढ़ने की जगह कोचिंग सैंटरों में बिना पढ़ाई किए परीक्षा कैसे पास करने के गुर सीखने में लगे हैं. वे टिकटौक पर वीडियो बना रहे हैं, डैमोक्रेसी की रक्षा नहीं कर रहे.

उन्हें यह नहीं मालूम कि बिना डैमोक्रेसी के उन के पास टिकटौक की आजादी भी नहीं रहेगी, ट्विटर का हक छीन लिया जाएगा, व्हाट्सऐप पर जंजीरे लग जाएंगी. हैरानी है कि देशभर में सोशल मीडिया पोस्टों पर गिरफ्तारियां हो रही हैं और देश का युवा चुप बैठना पसंद कर रहा है. वह सड़कों पर उतर कर अपना स्पेस नहीं मांग रहा, यह अफसोस की बात है. देश का भविष्य अच्छा नहीं है, ऐसा साफ दिख रहा है.

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