आज भी किसी औरत से मिलते हुए पहला नहीं तो दूसरा सवाल यही होता है कि आप के पति क्या करते हैं? आज भी औरतों का अकेले होना न समाज को स्वीकार है और न ही कानून को. कानून भी बारबार पूछता है कि आप के पति कौन हैं, कौन थे और अगर नहीं तो पिता कौन हैं? एक आदमी से कभी नहीं पूछा जाता कि आप की पत्नी कौन है, क्या करती है?
इस मामले ने हमेशा ही औरतों को अकेला रखा है मानो यदि पति न हो तो पत्नी की सुरक्षा हो ही नहीं सकती. यह तब है जब निर्भया कांड में बलात्कार की शिकार के साथ एक पुरुष मित्र था यानी पुरुष का सान्निध्य औरत की शारीरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है. आजकल सोशल मीडिया पर सैकड़ों वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिन में 3-4 भगवा गमछाधारियों ने लड़केलड़की को पकड़ कर लड़की का लड़के के सामने बलात्कार किया और लड़का कुछ न कर पाया.
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घरों में चोरी होने पर अकसर ऐसे मामले ही ज्यादा होते हैं जब औरतों के साथ पूरा परिवार होता है. औरतों के साथ किसी पुरुष का होना कोई सुरक्षा की गारंटी नहीं है. सदियों से दलितों की औरतों का उन के पतियों के सामने अपहरण किया जाता रहा है. यहां तक कि हमारी धार्मिक कहानियों में सीता का अपहरण विवाहित होने के बावजूद हुआ था. इस के मुकाबले तो शूर्पणखा अच्छी थी जो अकेले जंगल में राम और लक्ष्मण के साथ प्रेम निवेदन कर सकी थी या हिडिंबा भीम के समक्ष अपनी इच्छानुसार बिना शर्म के संबंध बना सकी थी.
आज अकेली औरतों की संख्या निरंतर बढ़ रही है पर समाज का दृष्टिकोण नहीं बदल रहा और कानून भी बहुत धीरेधीरे बदल रहा है. काफी जद्दोजहद के बाद कानूनी दस्तावेजों में पिता के स्थान पर मां का नाम लिखने की अनुमति मिली है पर अभी भी पत्नी की पहचान पति से ही हो रही है.
विवाह न औरतों की खुशी के लिए होता रहा है न उन की इच्छा पर. यह तो समाज का दबाव है कि पिता बेटी से छुटकारा पाना चाहता है. यदि समाज का दबाव न हो तो पिता बेटी को जिस से मरजी शादी की अनुमति दे देता पर भारत से ले कर तुर्की, इजिप्ट और यहां तक कि चीन और अमेरिका में भी पिताओं को यह चिंता रहती है कि कहीं बेटी का मनचाहा उन के परिवार व स्तर का नहीं हुआ तो क्या होगा.
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आदमियों को छूट है कि वे कुछ दिन खिलवाड़ कर लें किसी भी लड़की के साथ और कहते रहें कि वे सीरियस नहीं हैं पर अगर लड़की किसी के साथ 4 बार चाय भी पी ले तो मांबाप पीछे पड़ जाते हैं कि लड़का शादी लायक मैटीरियल है या नहीं? अकेली औरतों का वजूद ही नहीं है.
जेम्स बौंड की सीरीज में अब तक जेम्स बौंड 007 केवल गोरा पुरुष होता था. अब बदलाव की हवा को देखते हुए एक अश्वेत युवती को जेम्स बौंड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे हमारे देश में नाडिया को कालीसफेद फिल्मों के युग में एक बार किया गया था.
अकेली औरतों की दुर्दशा सभ्य समाजों में ज्यादा हुई है. दुनियाभर में आदिवासी समाजों में औरतों को बराबर के हक मिले हैं. सभ्यता औरतों के हकों और उन के व्यक्तित्व पर भारी पड़ी है, जहां वे गुलाम और खिलौना बन कर रह गई हैं.
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