मेकिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों के बराबर की भागीदारी दी जाए तो साल 2025 तक देश के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं के श्रम की भूमिका 60 फीसदी तक हो सकती है. गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सवा अरब से ज्यादा की आबादी में महिलाओं की तादाद 60 करोड़ है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि देश के 55 करोड़ की श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 5 करोड़ कामगारों की है.
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी हिंदुस्तान में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं के साथ किस तरह का भेदभाव किया जाता है. दो साल पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये गये 188 देशों के महिला श्रमिकों के एक अध्ययन में भारत का स्थान 170वां आया था यानी हम 188 देशों में से नीचे से ऊपर की तरफ 18वें स्थान पर थे. हमसे 17 देश ही ऐसे थे, जहां महिला कामगारों की तादाद प्रतिशत में हमारे यहां से भी कम थी. लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा देश नहीं था, जो भारत का एक चैथाई भी हो, अर्थव्यवस्था तो छोड़िये किसी भी मामले में.
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इससे पता चलता है कि भारत में महिलाओं को या तो नौकरियां मिल नहीं रही हैं या आज भी भारतीय समाज उन्हें नौकरी कराने से हिचकता है. तमाम अध्ययन और विशेषज्ञ बार-बार कहते हैं कि अगर अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बराबरी की हो जाती है तो कोई भी अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा मजबूत हो जाती है. भारत के संबंध में तो तमाम विश्व संगठन लगातार कह रहे हैं कि अगर भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति बनना है तो महिलाओं को बड़ी भूमिका देना होगा. लेकिन हाल के सालों में काफी उलट पुलट स्थितियां देखने को मिली हैं. यह तो तय है कि दक्षिण एशिया में अकेला भारत ही नहीं पाकिस्तान भी उन देशों में शामिल हैं, जहां महिलाओं को बड़ी आर्थिक भागीदारी नहीं दी गई.
हद तो यह है कि भारत में नेपाल, वियतनाम और कंबोडिया जैसे छोटे देशों से भी प्रतिशत में कम महिलाएं श्रम में भागीदारी निभा रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 185देशों में हाल के सालों में जहां महिला कामगारों की संख्या बढ़ी है, वहीं 41 देशों में यह कम हुई है और जिन देशों में कम हुई है उनमें भारत सबसे ऊपर है. आखिर क्या वजह है कि भारत में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या घट रही है? हाल के सालों में जब भारत पूरी दुनिया के विकास के इंजन के रूप में चीन के साथ आगे बढ़कर आया है, उस स्थिति में भारत में महिलाओं की श्रम में भागीदारी की कमी का पहलू क्या है?
इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि हाल के सालों में भारतीय पुरुषों की औसत आय में काफी वृद्धि हुई है जिससे घरों में महिलाओं को खासकर खेतों और निर्माण के क्षेत्र में काम कराने से रोका गया है. देखा जाए तो यह एक सकारात्मक पक्ष है क्योंकि भारत में असंगठित मजदूरों के लिए काम की परिस्थितियां बेहद अमानवीय होती हैं, चाहे फिर वे महिलाएं ही क्यों न हो या बाल श्रमिक ही क्यों न हों? पिछले एक दशक में भारतीय पुरुषों की आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को घर की देखरेख में ज्यादा फोकस करने के लिए प्रेरित किया गया है. हालांकि यहीं पर एक विरोधाभासी आंकड़ा यह भी है कि मनरेगा जैसे रोजनदारी वाले काम के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या न सिर्फ बढ़ी है बल्कि मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी से ग्रामीण क्षेत्र में बेहद गरीब लोगों की सामाजिक स्थिति में काफी सुधार आया है.
इस सुधार के पीछे महिलाओं की आय का बड़ा योगदान है. चूंकि मनरेगा में मजदूरों को नकद और त्वरित भुगतान किया जाता है, इस वजह से मनरेगा की आय ने देश के सबसे कमजोर तबकों में दिखने वाला सुधार किया है. लेकिन जहां यह बात समझ में आती है कि पारिवारिक आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को भारी, जटिल और कठिन श्रम क्षेत्रों से काफी हद तक मुक्ति मिली है, जो उनकी सेहत और सुरक्षा के लिहाज से अच्छी बात है. लेकिन संगठित क्षेत्र में जहां श्रम की स्थितियां कठिन या अमनावीय नहीं हैं, वहां महिलाओं की भागीदारी में कमी क्यों आयी है? इस कमी के दो कारण हंै, एक कारण में महिलाएं खुद जिम्मेदार हैं और दूसरे कारण में अप्रत्यक्ष रूप से इम्प्लायर ही महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित करता है.
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दरअसल हमारे यहां महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कानून कितने भी बन गये हांे, लेकिन आज भी महिलाएं न सिर्फ कार्यस्थल पर बल्कि कार्यस्थल से घर तक की दूरी में भी काफी ज्यादा असुरक्षित हैं. प्राइवेट नौकरियों में जिन कामगारों की सबसे ज्यादा तनख्वाहें इम्प्लाॅयर द्वारा मारी जाती हैं, उनमें महिलाओं की संख्या 90 फीसदी होती है. अगर किसी कंपनी के बंद होने की स्थिति बनती है तो सबसे पहले महिलाओं के आर्थिक हितों का नुकसान होता है. इसका मनोविज्ञान यह है कि आज भी भारतीय समाज में यह माना जाता है कि महिलाओं को आसानी से दबाया जा सकता है, फिर चाहे वो कामगार ही क्यों न हों? लेकिन तमाम खामियां अपनी जगह है. मगर यदि भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरकर आना है, तो महिलाओं के साथ आर्थिक भागीदारी के मामले में होने वाले भेदभाव को जल्द से जल्द खत्म करना होगा.