युवाओं के टूटते सपने

गिरतअर्थव्यवस्था, कोरोना के कहर और उस के बाद अब चीन के खतरनाक मंसूबों का युवा पीढ़ी पर बहुत असर पड़ेगा. जो पीढ़ी सपने देख रही थी कि इंटरनैट की तकनीक की वजह से दुनिया में सीमाएं नहीं रहेंगी, रंगभेद नहीं रहेगा, काम करने, पढ़ने और घूमने के मौके दुनियाभर में होंगे. यही नहीं, औटोमेशन की वजह से चीजें सस्ती होंगी, घरों में सामान भरा होगा, गरीबअमीर का भेदभाव नहीं होगा, वह सब भी अब सपना ही रह गया है. भारत के ही नहीं दुनियाभर के युवा अब काले कल को देख रहे हैं.

भारत ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है. भ्रष्ट सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद देशवासियों को जो उम्मीद थी कि अच्छे दिन वाली सरकार आएगी, उस पर पानी फिर गया है क्योंकि न सिर्फ सरकार के फैसले एकएक कर के बेहद परेशान करने वाले साबित हो रहे हैं, बल्कि नोटबंदी और जीएसटी की वजह से देश के व्यापार का भट्ठा भी बैठ गया. नई नौकरियां उड़नछू हो गईं. स्कूलकालेज महंगे हो गए. कोरोना से पहले ही इंजीनियरिंग कालेजों में ताले लगने शुरू हो गए थे. सरकारी पढ़ाई भी कोरोना की वजह से महंगी होने लगी थी.

कोरोना ने अब, देश में पढ़ने का मौका न मिले तो, बाहर जा कर पढ़ने के अवसर भी बंद कर दिए. चीन की लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ ने पढ़ाई के लिए चीन जाने के अवसरों को जीरो कर दिया. कोरोना की वजह से वुहान से भारतीय छात्र तो आए ही, अब दूसरे शहरों से भी आएंगे क्योंकि चीन व भारत के संबंध नेताओं की हठधर्मी की वजह से खराब से खराब होते जा रहे हैं.

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लाइन औफ ऐक्चुअल कंट्रोल, एलएसी, का विवाद नया नहीं है. 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद जो भी सीमा तय हुई थी वह सिर्फ कागजों पर थी. वास्तव में कौन से पत्थर कहां लगेंगे, यह तय नहीं हुआ था. इस बारे में छिटपुट गरमागरमी 1962 से अब तक होती रही है. पर दोनों देश समझते थे कि मामले को उभारने का लाभ नहीं है. दोनों देश तैयारी में लगे थे कि अगर युद्ध का माहौल बन ही जाए, तो 1962 वाली हालत न हो.

1962 से 2014 तक अगर चीन-भारत सीमा पर कुछ नहीं हुआ होता, तो बात दूसरी थी. इन सालों में भारत ने बेतहाशा सड़कें बनाईं, सैनिक चौकियां बनाईं, सीमा से थोड़ी दूरी पर फौजियों को जमा कर रखा, फौजियों को लगातार ऊंची पहाडि़यों में लड़ाई का अभ्यास कराया.

पिछली सरकारों ने और वर्तमान सरकार ने चीन से संबंध बिगड़ने नहीं दिए, पर अब जम्मूकश्मीर में हुए बदलाव के बहाने चीन और नेपाल नए भारतीय नकशे को ले कर बहसों पर उतर आए हैं. चीन से हाथापाई में जो 20 सैनिकों को जान देनी पड़ी और कई जवानों को गंभीर सी साधारण चोटें आई हैं, उस ने युवाओं के भविष्य पर एक और काला निशान लगा दिया है.

देश की अर्थव्यवस्था अब और लड़खड़ाएगी. चीन के साथ बिगड़ते आर्थिक संबंधों का मतलब है सस्ते चीनी सामान का न मिलना. हजारों व्यापारियों का धंधा ठप हो जाएगा. सरकार के पास फिलहाल जनता को शांत करने या भड़काए रखने का उपाय चीनी सामान का बहिष्कार का नारा लगाना ही है. चीन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक उतनी आसान नहीं. कमजोर तो पाकिस्तान भी नहीं है, पर चीन की क्षमता का तो अमेरिका तक को पता है. भारत सरकार चीनी सामान और व्यापार की आड़ में अपना निकम्मापन छिपाएगी. जैसे पहले पंडेपुजारी गांव में हैजे का दोषी डायनों को मानते थे, यहां सीमा पर विवाद में सैनिकों की जानों के लिए दोषी चीनी सामान को माना जाएगा.

देशभक्ति के नाम पर यह आदेश सिर पर रखा जाएगा पर हजारोंलाखों नई नौकरियां गायब हो जाएंगी. कोरोना की वजह से पहले ही देश के अनेक धंधे ठप हो रहे थे, अब रहीसही उम्मीद भी समाप्त हो रही है.

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