REVIEW: जानें कैसी है जौन अब्राहम की फिल्म ‘Attack’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः जे ए इंटरटेनमेंट, पेन वीडियो , अजय कपूर फिल्मस

निर्देशकः लक्ष्य राज आनंद

कलाकारः जौन अब्राहम, जैकलीन फर्नांडिस, रकूल प्रीत सिंह, किरण कुमार, एल्हम एहसास,  प्रकाश राज,  रत्ना पाठक शाह, रजित कपूर व अन्य.

अवधिः दो घंटे तीन मिनट

2016 में चल फिर सकने में पूरी तरह से असमर्थ नार्थन नामक एक अमरीकी इंसान के दिमाग में एक चिप बैठाया गया था, जो कि उनके दिमाग को संचालित करता है और वह चलने फिरने लगते हैं. इसी से प्रेरित होकर जौन अब्राहम ने एक सुपर सोल्ज्र की एक्शन प्रधान कहानी लिखी, जिसे वह निर्देशक लक्षय राज आनंद के साथ फिल्म ‘अटैक’ के माध्यम से दर्शको तक लेकर आए हैं. यह काल्पनिक कहानी का सूत्र यह है कि आतंकवादियों से निपटने के लिए देश का ‘डीआरडीओ‘ मशीनी सुपर सोल्जर का निर्माण यानी कि साइबर ट्ानिक हूमनायड का प्रयोग कर रहा है. जौन अब्राहम व लक्ष्य राज आनंद का दावा है कि वह इस फ्रेंचाइजी की कई फिल्में लेकर आने वाले हैं. इस दो घंटे की इस एक्शन फिल्म में जौन अब्राहम ने अर्जुन शेरगिल के रूप में भारत के पहले सुपर सोल्जर का किरदार निभाया है, जिनके दिमाग में ईरा (कुछ हद तक सिरी और एलेक्सा की तरह) नामक एक उच्च- उन्नत चिरपी माइक्रोचिप फिट की गयी है. जो अर्जुन का ज्ञान बढ़ाने के साथ असीमित शक्तियां भी प्रदान करती है.

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कहानीः

भारतीय फौजी अर्जुन शेरगिल (जौन अब्राहम )  के नेतृत्व में भारतीय सेना की एक टुकड़ी सीमा पार एक ठिकाने पर झपट्टा मारकर एक मोस्ट वांटेड आतंकवादी रहमान गुल को पकड़ लेती है. उसके बाद अर्जुन भारत में एक हवाई यात्रा के दौरान एअर होस्टेस आएशा(जैकलीन फर्नांडीस) को दिल दे बैठते हैं. वह एअरपोर्ट पर आएशा के संग रोमांस फरमाने में व्यस्त होते हैं, तभी आतंकवादी हमला हो जाता है. जिसमें आएशा सहित कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं. अर्जुन भी बुरी तरह से घायल हो जाते हैं और फिर सिर से नीचे का उनका पूरा हिस्सा लकवा मार जाता है. अब अर्जुन की मां (रत्ना पाठक शाह )  ही उनकी देखभाल कर रही है.

इधर आरडीओ की एक वैज्ञानिक( रकूल प्रीत सिंह) ने एक चिप को विकसित किया है, जिसे सिर्फ अपाहिज लोगों के दिमाग में ही फिट किया जा सकता है, जिससे वह उन्हे असीमित ताकत मिल जाएगी. काफी विचार के बाद सेना से जुड़े अधिकारी सुब्रमणियम (प्रकाश राज) इसके लिए अर्जुन शेरगिल को चुनते हैं. अर्जुन के दिमाग में चिप के बैठाए जाते ही खबर आती है कि रहमान गुल का बेटा हमीद गुल (एल्हम एहसा) ने अपने शैतानी दिमाग के बल पर अपने सौ आतंकवादी साथियों के साथ भारतीय संसद के अंदर घुसकर तीन पचास संासदों और प्रधानमंत्री को बंधक बना लिया है. अब सुब्रमणियाम, तीनों सेनाध्यक्ष ,  गृहमंत्री(  रजित कपूर) सहित कई लोग बैठके कर इस स्थिति से निपटने का प्रयास करते हुए देश के प्रधानमंत्री को बचाना चाहते है. कई रणनीति अपनायी जाती हैं. सुब्रमणियम के इशारे पर  दिमाग में बैठाए गए चिप यानी कि ईरा की मदद से अकेले ही हमीद गुल व सौ आतंकवादियों से भिड़ने के लिए संसद भवन के अंदर घुस जाता है. और कई घटनाएं तेजी से घटित होती हैं. अंततः हमारे देशभक्त सिपाही अर्जुन शेरगिल की ही जीत होती है.

लेखन व निर्देशनः

जौन अब्राहम की पिछली फिल्मों पर गौर फरमाया जाए, तो वह आतंकवाद के सफाए व देशभक्ति वाली फिल्मों में ही अभिनय करते हुए नजर आते हैं. फिल्म ‘‘अटैक’’ भी उसी श्रेणी की फिल्म है.      फिल्म के शुरूआती आधे घंटे में दो एक्शन दृशें के अलावा प्यार, रोमांस व गाने आ जाते हैं.

लेकिन यह फिल्म एक बेहतरीन कॉसेप्ट पर बनी बहुत कमजोर फिल्म है. कहानी के कई सिरे गडमड हैं. कहानी में कुछ भी नयापन नही है. फिल्म के एक्शन में भी दोहराव है. इंटरवल से पहले की बजाय इंटरवल के बाद की फिल्म काफी कमजोर है. यहां तक कि इंटरवल के बाद संसद के ंअंदर का एक्शन काफी कमजोर है. फिल्म में ऐसा एक्शन नजर नही आता, जो कि सुपर सोल्जर जैसा लगे. दिमाग में चिप के फिट किए जाने को लेकर कथा पटकथा व निर्देशन के स्तर पर बहुत गहराई से काम नहीं किया गया है. रकूल प्रीत सिंह के किरदार को ठीक से विकसित ही नही किया गया. फिल्म में इमोशन का घोर अभाव है.

फिल्म की एडीटिंग काफी गड़बड़ है. क्लायमेक्स भी मजेदार नही है.

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अभिनयः

एक्शन दृश्यों में ही जौन अब्राहम अच्छे लगे हैं. इस फिल्म में भी वह भावनात्मक दृश्यों को अपने अभिनय से उकेरने में असफल रहे है. इस फिल्म में जौन अब्राहम का अभिनय उनकी कई पुरानी फिल्मों की याद दिलाता है. चंचल व चालाक नेता यानी कि गृहमंत्री के किरदार को रजित कपूर ने बड़ी खूबी से निभाया है. जैकलीन फर्नाडिश और रकूल प्रीत सिंह के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नहीं और यह दोनों कहीं भी अपने अभिनय से प्रभावित नहीं करती. किरण कुमार और प्रकाश राज की प्रतिभा को भी जाया किया गया है.

REVIEW: गैंगस्टर व हिंसा का महिमा मंडन है जौन अब्राहम और इमरान हाशमी की फिल्म ‘मुंबई सागा’

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः भूषण कुमार, अनुराधा गुप्ता, संगीता अहिर, किशन कुमार

निर्देशकः संजय गुप्ता

कलाकारः जौन अब्राहम, इमरान हाशमी, सुनील शेट्टी,  काजल अग्रवाल,  रोहित रॉय,  अंजना सुखानी,  महेश मांजरेकर,  प्रतीक बब्बर व अन्य.

अवधिः दो घंटे सात मिनट 31 सेकंड

अस्सी व नब्बे के दशक में मुंबई में गैंगस्टर के कुछ गुटों के बीच आपसी लड़ाई चरम सीमा पर थी, जिन्हे राजनीतिक दलों का वरदहस्त हासिल था. इसी दशक में मुंबई में गवली गैंग, अमर व अश्विन गैंग का बोलबाला था. फिल्मकार संजय गुप्ता ने इसी काल की कुछ सत्य घटनाओं और उस काल के अशांत मुंबई को अपनी फिल्म‘‘मंुबई सागा’’में पिरोया है.

कहानीः

फिल्म‘‘मुंबई सागा’’की कहानी अस्सी के दशक में शुरू होती है. एक भाजी मार्केट में भाजी बेचने वालो से गायतोंडे(अमोल गुप्ते) के गुंडे हफ्ता वसूली करते हैं. जो हफ्ता देने से मना कर दे, उसके साथ मारपीट करते हैं. एक दिन सब्जी की दुकान पर अर्जुन बैठा होता है, वह हफ्ता देने से मना कर देता है, तो गायतोंडे के गुंडे उसे मौत के घाट उतारने के लिए रेल की पटरी पर लिटा देते हैं. सीमा(काजल अग्रवाल) इसकी खबर अर्जुन के भाई अमत्र्य राव(जौन अब्राहम) को देती है, अमत्र्य राव अपने भाई को बचा लेता है, पर अब वह गायतोंडे के गुंडो को सबक सिखाने का मन बना लेता है. दूसरे दिन वह अपने पिता की बजाय खुद सब्जी की दुकान पर बैठता है और गुंडों को हफ्ता देने से इंकार कर देता है. फिर अमत्र्य राव कई गुंडों को पीटता है, एक का हाथ काट देता है. गायतोंडे के इशारे पर पुलिस महकमा हरकत में आता है और अमत्र्य राव को जेल में बंद कर दिया जाता है, जहां गायतोंडे के पालतू गुंडों से अमत्र्य राव की लड़ाई होती है. यहीं जेल में अमत्र्य राव की मुलाकात ड्ग्स के धंधे से जुड़े नारी खान(गुलशन ग्रोवर) से होती है. दूसरे दिन अमत्र्य राव की जमानत हो जाती है. पता चलता है कि यह जमानत भाउ(महेश मांजरेकर) ने करायी है. भाउ एक राजनीतिक दल के सर्वेसर्वा हैं.

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इधर अमत्र्य राव, नारी खान की सलाह पर मुराली शंकर(सुनील शेट्टी ) से मिलता है और मुराली की सलाह पर अमल करते हुए गायतोंडे के अवैध हथियारों पर कब्जा कर अपना गैंग खड़ा कर लेता है. अमत्र्यराव के गैंग में बाबा(रोहित रौय),  सदाशिव,  चंदू वगैरह हैं. अब अमत्र्य राव को भाउ का वरदहस्त हासिल हो जाता है. अंततः दादर का इलाका अमत्र्य राव का हो जाता है. भाउ की मदद से अमत्र्य राव अपने भाई अर्जुन को पढ़ने के लिए बोर्डिंग स्कूल भेज देता है. भाउ दशहरे की रैली में ऐलान करते हैं कि उनके पास दादर का लड़का है. भाउ जो चाहते हैं, वही मुंबई शहर में होता है. भाउ ही बंबई शहर का नाम बदलकर मुंबई करने का ऐलान करते हैं, जिसे सरकार मान लेती है. इधर अमत्र्य राव की वजह से गायतोंडे दादर छोड़कर भायखला इलाके में अपना दबदबा बना लेते हैं. अर्जुन( प्रतीक बब्बर) पढ़ाई पूरी कर वापस आता है, तो अमत्र्य राव उसकी पसंद की लड़की से उसकी शादी कराकर उसे हमेशा के लिए लंदन भेज देता है.

अचानक खेतान मिल को बेचने का निर्णय सुनील खेतान(समीर सोनी) लेते हैं, जिसमें गायतोंडे मदद कर रहे हैं. सुनील खेतान के पिता मिल बेचने से इंकार करते हैं, पर कुछ ही दिन में उनकी रहस्यमय मौत हो जाती है. खेतान मिल के वर्करों को उनके घरों से बेघर करने की जिम्मेदारी गायतोंडे लेेते हैं. भाउ, अमत्र्य राव को बुलाकर कहते है कि मिल वर्करों का नुकसान उन्हें पसंद नहीं. वह मिल वर्करों के वोट हासिल करना चाहते हैं. अमत्र्य राव पहले सुनील खेतान को समझाता है,  फिर सुनील खेतान की हत्या कर देता है. इसी बीच अर्जुन लंदन से वापस आ जाता है. सुनील की हत्या से गुस्से में आकर अर्जुन पर असफल जानलेवा हमला करवाता है. उधर सुनील खेतान की पत्नी मुंबई पुलिस कमिश्नर के दफ्तर में जाकर उनसे कहती है कि वह उस पुलिस अफसर को दस करोड़ रूपए देगी, जो उसके पति के हत्यारे अमत्र्य राव का सिर काटेगा.

अब पुलिस इंस्पेक्टर विजय सावरकर (इमरान हाशमी) , अमत्र्य राव को खत्म करने के पीछे पड़ जाता है. वह सदाशिव को पकड़कर जानकारी हासिल कर अमत्र्य राव गैंग के पांच लोगों को गोली से भून देता है. अर्जुन पुलिस को भेद देने वाले सदाशिव (विवान पाराशर) को बाबा के सामने मार देता है. इससे अमत्र्य राव नाराज भी होता है. भाउ, अमत्र्य राव को कुछ दिन के लिए देश छोड़ देने के लिए कहते हैं. यहां अब गैंग का मुखिया अर्जुन को बनाने के लिए भाउ कह देते हैं. अमत्र्य राव, लंदन नारी खान के पास पत्नी सीमा संग चला जाता है. पुलिस इंस्पेक्टर विजय सावरकर चुप नही है. विजय सावरकर की चाल में अर्जुन फंसता है और विजय की गोली घायल होकर अस्पताल पहुंच जाता है. अर्जुन के बारे में खबर मिलने पर भाउ के मना करने के बावजूद अमत्र्स राव मुंबई वापस आता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अमत्र्य राव को पता चल जाता है कि पुलिस इंस्पेक्टर विजय सावरकार सैलरी सरकार से लेता है, लेकिन वह भाउ के इशारे पर ही काम करता है. अमत्र्य राव, भाउ से मिलकर यह बात बता देता है. भाउ कहते हैं कि अर्जुन को इलाज के लिए विदेश भेजने के रास्ते में इंस्पेक्टर विजय नही आएगा. फिर कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अर्जुन को अपने खास हवाई जहाज में बैठाकर नारी खान ले जाते हैं, मगर उनकी आंखों के सामने ही विजय, अमत्र्य राव को गोलियों से भून देता है. उसके बाद भाउ, बाबा को मुंबई का डॉन बना देते हैं.

लेखन व निर्देशनः

अंडरवल्र्ड व गैंगस्टर की कहानियों पर काम करने में संजय गुप्ता को महारत हासिल है. कहानी में नयापन नही है, यह टिपिकल  गैंगस्टर फिल्म है. यह फिल्म संजय गुप्ता की पहचान के अनुरूप ही है. संजय गुप्ता की इस फिल्म से यह बात उभरकर आती है कि अंडरवल्र्ड और पुलिस विभाग,  राजनेताओं की कठपुतली है. भाउ का किरदार देखकर स्व. बाला साहेब ठाकरे की छवि उभरती है. संजय गुप्ता ने अस्सी व नब्बे के मुंबई को सही अंदाज में पेश किया है. मगर इसमें इमोशन कहीं नही है. सिर्फ मार धाड़ ही है. जबकि जिंदगी बिना इमोशन के नही चलती. इसके अलावा इस फिल्म की कमजोर कड़ी मुराली व नारी खान जैसे किरदार हैं. लगता है जैसे फिल्मकार ने जबरन इन किरदारों को जोड़ा हो. पटकथा के स्तर पर कई अन्य खामियां भी हैं. अस्सी के दशक में एक हीरो,  बीस गुंडों से अकेले लड़ता था, यह बात तब दर्शक पसंद करता था, मगर वर्तमान नई पीढ़ी के गले से यह बात नही उतरती. यह भी इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी है. फिर भी एक्शन प्रेमी दर्शकों को यह फिल्म पसंद आएगी. इंटरवल के बाद फिल्म निर्देशक के हाथ से फिसल गयी है. यहां तक कि क्लायमेक्स को गढ़ने में भी वह बुरी तरह से मात खा गए हैं. इंटरवल के बाद फिल्म को एडीटिंग टेबलपर कसे जाने की जरुरत थी. काश संजय गुप्ता ने सेट आदि  पर पैसा खर्च करने की बजाय लेखन व निर्देशन मे मेहनत की होती.

फिल्म के संवाद काफी अच्छे बन पड़े हैं. मसलन-‘‘बंदूक से निकली गोली न ईद देखती है न होली. ’’, ‘‘मराठी को जो रोकेगा, मराठी उसे ठोकेगा. ’’, ‘‘मेरी गोली से बचने के लिए तुझे बार बार खुशकिस्मत होना पड़ेगा. . और मुझे सिर्फ एक बार. ’’

कहानी अस्सी व नब्बे के दशक की है. इस धरातल पर यो यो हनी सिंह का रैप सॉंग सटीक नही बैठता.

तकनीकी स्तर पर भी फिल्म काफी कमजेार है. कैमरामैन का काम भी बेकार है.

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अभिनयः

जौन अब्राहम का अभिनय अच्छा है, मगर इस फिल्म में वह कुछ नया नही दे पाए. कई दृश्यों में वह खुद को दोहराते हुए नजर आते हैं. एक्शन दृश्यों में वह अच्छे हैं, मगर  इमोशनल दृश्यों में वह नही जमे. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सावरकर के किरदार में इमरान हाशमी ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है. भाउ के किरदार में महेश मांजरेकर का अभिनय शानदार है. अर्जुन के किरदार में प्रतीक बब्बर ने एक बार फिर बुरी तरह से निराश किया है. उनके सपाट चेहरे पर कोई भाव ही नहीं आते. सुनील शेट्टी और गुलशन ग्रोवर की प्रतिभा को जाया किया गया है. गुलशन ग्रोवर इस फिल्म में अतिमहत्वहीन नारी खान का किरदार निभाने के लिए क्यों तैयार हुए, यह बात समझ से परे है. काजल अग्रवाल, रोहित शेट्टी, राजेंद्र गुप्ता, अंजना सुखानी के हिस्से करने को कुछ खास रहा ही नहीं. गायतोंडे के किरदार में अमोल गुप्ते भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

देशभक्ति पर जौन अब्राहम का बयान, कहा- मैं देशभक्त हूं, राष्ट्रवादी नहीं

मौडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता जौन अब्राहम ने फिल्म ‘जिस्म’ से हिंदी फिल्म में डेब्यू किया, जिसमें उनके काम को सराहना मिली और उन्होंने पुरस्कार भी जीता. इसके बाद उनकी आई कई फिल्में फ्लौप रही, लेकिन फिल्म ‘धूम’ ने उन्हें फिर से एक बार दर्शकों का पसंदीदा बना दिया. यही वजह है कि वे अब किसी भी फिल्म को सावधानी से चुनते है. अगर स्क्रिप्ट अच्छी हो तो वे मल्टी स्टारर फिल्मों में काम करने से भी मना नहीं करते, क्योंकि ऐसी फिल्मों में काम करने से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. फिल्म ‘बाटला हाउस’ के प्रमोशन पर उनसे बात हुई पेश है कुछ अंश.

सवाल- रियलिस्टिक फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाना कैसा लगता है ?

बहुत अच्छा लगता है, जब एक कलाकार के देश प्रेम को अभिनय के द्वारा दिखाए जाने का अवसर मिलता है और मेरी कद काठी एक पुलिस अधिकारी से मैच करती है तो और अधिक खुशी मिलती है, क्योंकि मेरे लिए डीसीपी संजीव कुमार यादव की भूमिका निभाना अपने आप में बड़ी बात है. जब निर्देशक निखिल आडवाणी ने इस कहानी को पढ़ने के लिए दिया, तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा. ये आज के जमाने के लिए बहुत ही अच्छी फिल्म है, जिसे दिखाई जानी चाहिए. मैं इसे आंशिक रूप से प्रोड्यूस करने के लिए भी राज़ी हो गया, क्योंकि इस कहानी को मुझे कहनी है.

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सवाल- ऐसी रियल कहानी कहते समय किस बात का ध्यान रखना पड़ता है, ताकि कोई इससे आहत न हो, आपकी कोशिश या रिसर्च किस तरह की होती है?

मैं अपने माता-पिता दोनों तरफ से एक माइनौरिटी बैकग्राउंड से हूं. मैंने कभी भी किसी को आहत करने की कोशिश नहीं की है. रियल लाइफ के चरित्र में क्रिएटिव लिबर्टी तो आप ले सकते है, लेकिन कितनी हद तक आपको लेना है उसे सोचना पड़ता है. मैंने इस फिल्म में थोड़ी सी भी क्रिएटिव लिबर्टी नहीं ली है. असल कहानी जैसे है वैसे ही दिखाने की कोशिश की है. मैं संजीव कुमार यादव से कई बार मिल चुका हूं और उस समय जो बीती थी, उसे समझने की कोशिश किया है. बाटला हाउस के बाद संजीव कुमार का मानसिक स्तर कैसा था उसे जाना, क्योंकि इसके बाद वे काफी दुखी हुए थे और आत्महत्या तक करने की कोशिश की थी. उनका पारिवारिक जीवन भी बहुत ख़राब हो चुका था, उनकी पत्नी घर छोड़ देना चाहती थी. ऐसे में रियल कहानी को डोक्युमेंट्री न बनाकर मनोरंजक बनाने की कोशिश की गयी है, जो बहुत कठिन था.

सवाल- पिछले कुछ समय से आप एक अच्छे कलाकर बन चुके है और अच्छी फिल्में भी कर रहे है ऐसे में प्रोडक्शन में उतरने की वजह क्या रही?

मैं प्रौड्यूसर इसलिए बना, क्योंकि मुझे सही तरह की फिल्में नहीं मिल रही थी, जो मैं करना चाहता था. मेरी प्रतिभा को लोगों ने तब जाना, जब मैं निर्माता बना. फिल्म विकी डोनर बनने के बाद कई इस तरह की फिल्में बनी. फिल्म ‘मद्रास कैफे’ बनने के बाद उस तरह की कई और फिल्में बनी. मैं एक ट्रेंड सेटर बना और सबको लगा कि फिल्मों की ओर मेरी सोच अच्छी है.

सवाल- फिल्म निर्माण करते समय किस बात का खास ध्यान देते है?

मैंने बहुत कम बजट में फिल्में बनाई है और मैंने लक्ज़री पर खर्च नहीं किया. बड़े सेट मैंने नहीं बनाएं, लेकिन अपने दिमाग का इस्तेमाल कर अच्छी कहानी कम बज़ट में कहने की कोशिश की और फिल्में सफल रही. इसके अलावा मैं पहले से अब अपने काम को बहुत अधिक एन्जौय कर रहा हूं. मैं आगे कई और फिल्में अलग-अलग विषयों पर करने की कोशिश कर रहा हूं. मैं किसी कैम्प्स या पार्टी में जाना पसंद नहीं करता.

सवाल-आपकी तुलना अक्षय कुमार से की जाती है, क्योंकि वे भी देश भक्ति पर फिल्में बनाते है, इसे कैसे लेते है?

मैं खुश हूं कि मेरी तुलना अक्षय से की जाती है, लेकिन फिल्म बनाने का कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता. कंटेंट सही नहीं हो, तो कोई भी फिल्म चलती नहीं है. मैं अपने आपको देशभक्त कहलाना पसंद करता हूं, लेकिन राष्ट्रवादी नहीं.

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सवाल- आपकी फिल्म 15 अगस्त को रिलीज हो रही है, स्वतंत्रता दिवस को लेकर आपके बचपन की यादें क्या है?

मुझे ये दिन बहुत खास लगता है और मैंने कई बार अपनी मां से एक बड़े झंडे की सिफारिश की थी, जो मुझे नहीं मिली, पर उस दिन स्कूल जाकर झंडा फहराते हुए देखना बहुत पसंद था. उसके बाद मैं फुटबाल खेलता था. दरअसल उस दिन स्कूल में छुट्टी होने की वजह से आजादी को मैं बहुत एन्जौय करता था.

सवाल- आप यूथ को क्या मेसेज देना चाहते है?

आज के यूथ बहुत समझदार है, पर वे सोशल मीडिया के गुलाम है. उन्हें हमेशा ईमानदारी और मेहनत से आगे बढ़ने की जरुरत है. किसी को धोखा न दें, क्योंकि इससे आपका स्वभाव खराब होता है और आपकी नियत बिगड़ती है.

सवाल- आप फिटनेस फ्रीक माने जाते है, ऐसे में फिटनेस को बानाए रखने के लिए क्या कभी नहीं करते?

मैं कभी भी ड्रग्स, ड्रिंक्स, जंक फूड्स, फ्राइड फूड्स आदि नहीं लेता. ऐसा मैं पिछले 25 साल से करता आ रहा हूं. लोग कहते है कि मेरे टेस्ट बड्स ख़त्म हो गए है, पर ऐसा नहीं है. स्वस्थ शरीर के लिए हमेशा अनुसाशित होना जरुरी है. इसमें सबसे अधिक आपके खान-पान पर ध्यान देने की जरुरत होती है. जो मुझे वैसे खाने औफर करता है, उसे मैं दुशमन मानता हूं. आपको अपने खाने की आदतों को स्ट्रिक्टली फौलो करना चाहिए, क्योंकि जब आप बीमार पड़ते है, तो परिवार के अलावा कोई भी आपके पास नहीं भटकता.

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रिव्यू : फिल्म देखने से पहले जाने कैसी है ‘रोमियो अकबर वाल्टर’

फिल्म: रोमियो अकबर वाल्टर

कलाकार: जौन अब्राहम, मौनी रौय, सिकंदर खेर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति और जैकी श्रौफ

निर्देशक: रौबी ग्रवाल

रेटिंग: दो स्टार

भारत-पाक के बैकग्राउंड पर 2013 में प्रदर्शित निखिल अडवाणी की जासूसी फिल्म ‘‘डी डे’’, 2018 में रिलीज फिल्म ‘‘राजी’’ सहित कई बेहतरीन फिल्में आ चुकी हैं. इन फिल्मों के मुकाबले ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ एक अति सतही और बोर करने वाली लंबी फिल्म है. आर्मी बैकग्राउंड के फिल्मकार रौबी ग्रेवाल का दावा है कि उन्होने इस फिल्म का लेखन व निर्देशन करने से पहले काफी शोध कार्य करते हुए कई जासूस/स्पाई से बात की. मगर फिल्म देखकर उनका दावा कहीं से भी सच के करीब नहीं नजर आता.

हाथियों के अवैध शिकार पर बनी फिल्म ‘जंगली’

कहानी…

फिल्म ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ की कहानी 1971 के भारत पाक युद्ध की है. जब पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटा हुआ था. पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान. पूर्वी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी सेना आजादी की लड़ाई लड़ रही थी. भारत भी इसकी आजादी का पक्षधर था. 1971 के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद होकर बांग्लादेश बन गया. ऐसी ही परिस्थिति में भारतीय जासूसी संस्था ‘रौ’ के मुखिया श्रीकांत राय (जैकी श्राफ) को अपने साथ जोड़ने के लिए ऐसे इंसान की तलाश थी, जो कि आसानी से भीड़ का हिस्सा बन सके या अपने आस पास के इंसान को आसानी से भटका सके. श्रीकांत राय की यह खोज उन्हें आर्मी के शहीद मेजर के बेटे रोमियो अली (जौन अब्राहम) तक ले जाती है. रोमियो एक बैंक कर्मी है. बुजुर्ग बनकर कविताएं पढ़ता है. बैंक में उसकी सहकर्मी हैं पारूल(मौनी रौय), जिससे वो प्यार करता है. एक दिन बैंक में नकली डकैती होती है, जिसके बाद रोमियो अली को श्रीकांत राय के सामने पहुंचा दिया जाता है. रोमियो अली को जासूस बनने की ट्रेनिंग दी जाती है और फिर वह अकबर मलिक (जौन अब्राहम) के नाम से पीओके पहुंचता है. एक होटल में नौकरी करते हुए वह शरीक अफरीदी के करीब पहुंचता है और वह भारत में श्रीकांत तक सारी जानकारी मुहैया करता रहता है कि किस तरह 22 नवंबर को पूर्वी पाकिस्तान से सटे भारतीय गांव को तबाह करने की योजना है. अफरीदी का अपना बेटा नवाब अफरीदी अपने पिता का दुश्मन है, जो कि पाकिस्तान के उप सेनाध्यक्ष के साथ मिला हुआ है. कुछ समय बाद अकबर मलिक की मदद के लिए भारतीय डिप्लोमेट के रूप में श्रद्धा शर्मा (मौनी रौय) पहुंचती है. श्रद्धा शर्मा का फोन पाकिस्तानी आईएसआई टेप कर रही है. इसी के चलते श्रद्धा और अकबर मलिक की मुलाकात की जानकारी आईएसआई आफिसर खुदा बख्श सिंह (सिकंदर खेर) को पता चलती है. फिर खुदाबख्श सिंह, अकबर मलिक के पीछे पड़ जाता है और एक दिन उसे गिरफ्तार कर यातना देकर सच जानने का असफल प्रयास करता है. अफरीदी की मदद से वह छूट जाता है, मगर सेनाध्यक्ष की हत्या हो जाती है और उप सेनाध्यक्ष गाजी खान सेनाध्यक्ष बन जाता है. उसके बाद कहानी में कई मोड़ आते हैं. जिनके लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

फिल्म समीक्षा : नोटबुक

पटकथा लेखक…

पटकथा लेखक की अपनी कमजोरियों के चलते ये जासूसी फिल्म की बजाय एक एक्शन और रोमांस से भरपूर वेब सीरीज नजर आती है. लेखक व फिल्मकार रौबी ग्रेवाल ने बेवजह भावनात्मक, रोमांटिक और सेक्शुअल सीन्स को भरकर एक बौलीवुड मसाला फिल्म बनायी है. फिल्म में जौन अब्राहम और मौनी रौय के बीच रोमांटिक और सेक्शुअल सीन फिल्म में पैबंद नजर आते हैं. इन्ही सीन्स के चलते फिल्म बेवजह लंबी हो गयी है. इतना ही नहीं एडीटिंग में फिल्म को कसने की जरुरत थी. इंटरवल से पहले तो कहानी खिसकती ही नही है. दर्शक कहने पर मजबूर हो जाता है कि कहां फंसा गया.

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एक्टिंग…

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो यह फिल्म जौन अब्राहम के करियर की सबसे कमजोर फिल्म है. मौनी रौय तो महज खूबसूरत गुड़िया के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में अगर कोई किरदार याद रह जाता है, तो वह है श्रीकांत राय का, जिसे जैकी श्राफ ने निभाया है. जैकी श्राफ के अभिनय की जरुर तारीफ की जानी चाहिए. इसके अलावा एक भी कलाकार प्रभावित नहीं कर पाता. रघुबीर यादव सहित कई दिग्गज कलाकारों के कमजोर अभिनय के लिए लेखक व निर्देशक ही पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. किसी भी किरदार को सही ढंग से चित्रित ही नहीं किया गया.

अपनी बायोपिक में टाइगर को देखना चाहता हूं- जैकी श्रौफ

बौलीवुड एक्टर जैकी श्रौफ जल्द ही जौन अब्राहम स्टारर सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म रोमियो अकबर वाल्टर (रा) में अहम रोल में नजर आएंगे. हम आपके लिए लाए हैं उनका लेटेस्ट इंटरव्यू, जिसमें उन्होंने अपने फिल्मी कैरियर, निजी जिंदगी और अपकमिंग प्रोजेक्ट्स के बारे में बात की.

सवाल: बौलीवुड के नए दौर को आप कैसे लेते है?

जवाब:
ये सबसे अच्छा समय है, जहां आपको काम मिल रहा है, लोग आपको सम्मान देते है, हर दिन सुबह काम पर जाने की इच्छा होती है. इसे बनाकर रखना है. मुझे कभी लगा नहीं कि मेरी उम्र हो गयी है. अभी भी काम करते वक्त वही एहसास होता है, वही जुनून अच्छा काम करने की होती है. अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र जैसे कलाकार आज भी बखूबी एक्टिंग करते है. दर्शक उन्हें आज भी देखना पसंद करते है, जो अच्छी बात है.

सिर्फ बौडी बनाना ही काफी नहीं, दूसरों को सम्मान देना सीखें-विद्युत जामवाल

सवाल: आप का नाम किसने बदला था?

जवाब:
मेरे स्कूल का एक दोस्त महेश तोरानी था, उसने ही मेरा नाम जैकी रखा था. मेरे माता-पिता ने संगीत निर्देशक जयकिशन के नाम पर मेरा नाम रखा था. मेरी मां और आस-पास के बच्चे मुझे ‘जग्गू’ कहकर पुकारते थे. मैंने बचपन से आस-पास के सबको सम्हाला है. किसी के साथ किसी तरह का लड़ाई झगड़ा हो, सबको ठीक करता था. मैं चाल से उठकर यहां पहुंचा हूं.

सवाल: आप अपनी जर्नी को कैसे देखते है?  क्या कभी आप पुराने दिनों को याद करते है?  

जवाब:

मेरी यहां एक अच्छी जर्नी रही है. मैंने 250 फिल्में की है, जिसमें अच्छे बुरे सारे अनुभव मेरे साथ है. तब कभी सोचा नहीं था कि यहां तक पहुंच पाऊंगा. तब मैं दिन में दो से तीन फिल्मों की शूटिंग करता था कही जंगलों में बांसुरी बाजा रहा होता था, तो कही जूही चावला के साथ रोमांटिक सौन्ग करता था. वहां से गुजरा हूं. तब थिएटर हौल की संख्या कम थी. देवानंद और शम्मी कपूर की फिल्मों को देखने के लिए मोर्निंग शो में जाता था. आज हौल बहुत है इसलिए हर तरह की फिल्में देखने का मौका मिलता है. फिल्मों के अलावा वेब सीरीज, टीवी धारावाहिक, छोटी फिल्में आदि सब बन रहे है. इससे टेक्नीशियन से लेकर सारे लोगों को काम मिला रहा है और उनका पेट भर रहा है. ये बहुत बड़ी बात है. आज कोई खाली नहीं है, सबको कुछ न कुछ काम मिलता है. ये सबसे अच्छा दौर चल रहा है.

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सवाल: इंडस्ट्री पहले से कितनी बदली है?

जवाब:

मैं आज के बच्चों की मेहनत और काम के प्रति लगन को भी देख रहा हूं. आज बहुत प्रतियोगिता है. हर दिन व्यक्ति को अपने आप को प्रूव करना पड़ता है. हम लकी है कि आज भी अच्छी भूमिका मिल रही है. इस फिल्म में मैंने रॉ एजेंट के भाई की भूमिका निभाई है, जो बहुत अच्छा रहा, क्योंकि इसमें सारे शहीदों को एक बार याद करने और उन्हें जानने का मौका मिला है. फिल्मों के जरिये ही ऐसे लोगों को दर्शक देख पाते है और उन्हें एक सम्मान भी मिलता है.

सवाल: अगर आपकी बायोपिक बने तो उसमें किसे देखना पसंद करेंगे?

जवाब:
मैंने सोचा नहीं है, लेकिन मैं अपने बेटे टाइगर श्रौफ को ही इसमें देखना पसंद करूंगा, क्योंकि वह बहुत कुछ मुझसे मिलता है और वह अच्छा कर भी पायेगा.

सवाल: क्या बेटे के साथ कभी फिल्मों में आने की इच्छा है? किस फिल्म के रीमेक में काम करना चाहते है?

जवाब:
बहुत इच्छा है, पर वैसी कहानी होनी चाहिए, जिसमें दोनों को अभिनय करने का मौका मिले. मैं फिल्म ‘गर्दिश’ के रीमेक में काम करना चाहता हूं.

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सवाल: आप किस तरह के पिता है और बच्चों को कितनी आजादी देते है?

जवाब:

मैंने बचपन में उन्हें सम्हाला है, अभी वे जानते है कि वे क्या कर रहे है, ऐसे में उन्हें अधिक सीख नहीं देता. इतना जरुर है कि जरुरत पड़ने पर वे मुझसे बात कर लेते है. मैं उन्हें पूरी आजादी देता हूं. टाइगर सारे स्टंट पूरी निगरानी में करता है. इसलिए मुझे कोई डर नहीं लगता.

सवाल: आप एक सुलझे हुए कलाकार कहलाते है, किसी भी भूमिका को आप सहजता से कर लेते है, इसकी वजह क्या मानते है?

जवाब:
मैं पानी की तरह बहता हुआ कलाकार हूं, जिसने जो रंग मिला दिया, उसी रंग में रंग जाता हूं. ऐसा मेरा पहली गर्लफ्रेंड आयशा के साथ भी हुआ मैंने उसके रंग को बदलने की कोशिश नहीं की उसके रंग में ही खुद को रंग डाला. असल में मैं एक आलू की तरह हूं, जिसे किसी भी सब्जी में मिला दिया जा सकता है. कभी फिल्म ‘देवदास’ तो कभी ‘मिशन कश्मीर’ जो जैसे आया, उसे करता गया.

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