फिल्म ‘विकी डोनर’ से सफलता की सीढ़ी चढ़ने वाली लेखिका जूही चतुर्वेदी से आज कोई अपरिचित नहीं. उन्होंने बहुत कम समय में अपनी एक अलग पहचान बनायी है. उन्होंने हमेशा कोशिश की है कि कहानी आम लोगों से जुड़कर कही जाय, जिससे लोग अपने आपको उससे जोड़ सकें और वे इसमें कामयाब भी रही. उनके हिसाब से कहानी को सही तरीके से पर्दे पर लाना भी बहुत मुश्किल होता है, पर निर्देशक सुजीत सरकार बड़ी सफलता पूर्वक इसे अंजाम देते है. उनकी इस सफलता में उनके माता पिता और परिवार का भी काफी सहयोग रहा. गृहशोभा जूही की मां हमेशा लखनऊ में पढ़ती है. जूही की कई यादें इस पत्रिका से जुड़ी है. जूही ने फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ लिखी है, जो मजेदार फिल्म है. आइये जानते है क्या कहती है, जूही अपनी जर्नी के बारें में,
सवाल-‘गुलाबो सिताबो’ की कहानी का कांसेप्ट आपने कैसे सोचा?
जिंदगी हमें बहुत सारी किस्से कहानियां और लोगों से मिलवाती है, ऐसे में कुछ लोग आपकी जिंदगी में एक छाप छोड़ जाते है, जिसे आप भुला नहीं सकते. कोई अकेला व्यक्ति कोई कहानी नहीं कह सकता. ये समाज के मिले जुले लोगों के साथ ही निकलता है, जिसकी परछाई हमें मिलती है और उसे लेखक, लेखनी के द्वारा एक आकार देता है, जिसे निर्देशक दर्शकों तक पहुंचाता है. असल में ऐसे लोग जब आपके आसपास होते है तो कहानी अनायास ही जन्म ले लेती है.अपने अनुभव के साथ, खुद की कल्पना को जोड़कर कहानी लिखती हूं. गुलाबो सिताबो भी ऐसी ही कहानी है.
सवाल-ये फिल्म बड़े पर्दे पर आने वाली थी, पर अब डिजिटल पर आ रही है, इसका मलाल है क्या?
बड़े पर्दे पर रिलीज होती तो अच्छा होता, जिसमें आप पॉपकॉर्न के साथ किसी अंजान व्यक्ति के साथ बैठकर ठहाके लगाकर हँसते हुए फिल्म देख पाते, लेकिन घर पर बैठकर देखने में भी कोई समस्या नहीं. निर्माता, निर्देशक ने फिल्म को दर्शकों के लिए बनायीं और जब ये पूरी हो चुकी है तो दिखाने में कोई हर्ज़ नहीं. कैसे भी ये दर्शकों तक पहुँच जाए बस वही अच्छी बात है.
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सवाल-लेखन की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
बचपन में मेरे घर का माहौल ही ऐसा था, जहाँ घर में बुजुर्गों की बातचीत, बहस आदि को मैंने देखा है. मेरे घर में ऐसे किस्से, कहानियां, टिका टिप्पणी चलती रहती थी. बड़े-बड़े लेखकों की लिखाई पर आलोचनाएं चलती रहती थी. कहानियों को सोते-जागते सुनना, वैसी बातचीत करना, आदि सबकुछ ने मेरे अंदर एक प्रेरणा को जन्म दिया. इसके अलावा बड़े बुजुर्गों ने अच्छा लेखक बनने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन लखनऊ रहते-रहते ये काम नहीं हो पाया, क्योंकि मौका नहीं मिला. मुझे उस समय ड्राइंग का बहुत शौक था. उसमे सारी कलाकारी और भाव को निकाला करती थी. इसके बाद आर्ट कॉलेज गयी, वहां भी पेंटिंग की. तब तक ये समझ में आ गया था कि क्रिएटिविटी ही मेरी दुनिया है. इसे मैं लिखकर या पेंटिंग कर किसी भी रूप में कर सकती हूं. इसके बाद दिल्ली गयी पर वहां अधिक मौका नहीं मिला. जब मैं मुंबई आई और एडवरटाइजिंग कंपनी में काम करने लगी तो वहां लिखने का मौका मिला. बाँध खुलने के बाद ही पानी की गहराई का पता लगता है, वैसा मेरे साथ भी हुआ है. इससे पहले मुझे भी पता नहीं था कि मैं लिख सकती हूं. लिखने के बाद अब लगता है कि यही मेरी मंजिल है और रुकना आसान नहीं.
सवाल-परिवार का सहयोग कितना रहा?
ये सही है कि लेखक की भावनाओं को लोग कम समझ पाते है, लेकिन अब मेरे परिवार वालों ने समझ लिया है कि मैं कुछ अच्छा सोच सकती हूं, क्योंकि उन्हें मेरी इस कला को देख लिया है. इसमें कई बार नोंक-झोंक भी हो जाती है. लेखक आप बाहर के लिए है. घरवालों के लिए नहीं. जिम्मेदारियां वैसी ही चलती रहती है. उनकी उम्मीद मुझसे उतनी ही रहती है. वही दुनिया है. लिखना और पढना अलग है, जो मैं करती हूं. मैं घर या बाहर कही भी राइटर बनकर नहीं घूमती. मैं दो साल में एक फिल्म लिखती हूं.
सवाल-आपकी जोड़ी निर्देशक सुजीत सरकार के साथ अच्छी रही, क्या लेखक के दिमाग को पढने के लिए एक अच्छे निर्देशक का होना जरुरी है?
ये बिल्कुल सही बात है. कुछ भी लिखने के लिए एक अच्छे मार्ग दर्शक की जरुरत होती है. लेखक जब कुछ भी अपने भावनाओं के ताने-बाने से लिखता है और पब्लिशर के पास जाता है, तो वहां भी एक अच्छे पब्लिशर की जरुरत होती है जो आप पर और आपके लेखन पर विश्वास रखे. उसको उसी तरह से पब्लिश करवाकर उस लेखक को सपोर्ट करें. इसमें सिनेमा तो एक बहुत बड़ा प्लेटफॉर्म है, जहाँ केवल लेखन ही नहीं, उसे पर्दे पर कैसे ढालना है, उसकी परख होने की भी जरुरत होती है, क्योंकि इसमें एक बड़ा फाइनेंस जुड़ा होता है. निर्देशक कि सोच का लेखक के लेखन के साथ सही तालमेल का होना बहुत जरुरी है. उसका परिणाम पर्दे पर दिखता है. कहानी के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए केवल निर्देशक ही नहीं एक्टर, कैमरामैन, म्यूजिशियन, कॉस्टयूम डिज़ाइनर आदि सभी का एक दूसरे से तालमेल होना जरुरी है. इसके लिए एक गहरा रिश्ता कहानी से सबको बनाने की जरुरत पड़ती है. नहीं तो कहानी कुछ है और आप कह कुछ और रहे है. फिल्म सफल नहीं हो पाती.
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सवाल-फिल्म की कहानी में लेखक को महत्व दिया जाना कितना अवशयक है, जो अधिकतर नहीं दिया जाता ?
किसी भी सोच को एक लेखक ही जन्म देता है. फिर चाहे वह उपन्यास हो या छोटी कहानी. उसे बहुत गहराई में जाकर उस बारें में सोचना पड़ता है, जो आसान नहीं होता. इसमें सोचना ये भी पड़ता है कि लेखक की इच्छा क्या है? क्या वह अपने आप को पाठक के सामने लाना चाहता है या अपनी बात या सोच को उनतक पहुँचाना चाहता है. अगर आपके अंदर एक आवाज है, जिसे आप निकलने के लिए आतुर है तो उसे कोई भी रोक नहीं सकता. वह कैसे भी निकलकर पहुँच ही जाएगी.
सवाल-लॉक डाउन में आप क्या कर रही है?
लॉक डाउन में मैं आम घरेलू महिला की तरह घर की पूरी देखभाल कर रही हूं. मेरे पिता और मेरी बेटी मेरे साथ रहते है. घर की सारी जिम्मेदारियां निभानी पड़ रही है. हर दिन क्या खाना बनेगा, इस पर विचार करती रहती हूं. समय मिलता है तो कुछ लिखने की कोशिश करती हूं.
सवाल-लॉक डाउन के बाद फिल्मों की कहानियों में किस तरह के बदलाव की उम्मीद कर रही है?
ये पेंड़ेमिक का समय भी गुजर जायेगा. इसका असर सबके अंदर गहरा हुआ होगा. हर परिवार और सदस्य में डर आया है. समझ लोगों में आई है. अभी लेखक को उसी समझ और सेंसेटिवनेस के साथ कहानियां लिखने की जरुरत है, इसमें जो दिशा निर्देश फिल्मों की शूटिंग के लिए है, उसे पालन सबको करने की जरुरत है. इस समय को जाया न करते हुए, आतंरिक सोच को निखार कर कर आगे लाने की जरुरत है.
सवाल-गृहशोभा के ज़रिये क्या मेसेज देना चाहती है?
गृहशोभा के साथ मेरी बहुत पुरानी यादें है. महिलाये घर में हो या बाहर, समाज का अहम् हिस्सा है. कभी भी अपने आप को खुद की नज़रों में कम न समझे. अच्छाइयों को देखिये और जो कमियां है ,उन्हें पूरा कर लीजिये.