कड़वी गोली: बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर क्यों बड़बड़ा रही थी मीना

बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर मीना बड़बड़ा रही है. दोष किसी इनसान का नहीं, एक छोटे से पंछी का है जिसे पंजाब में ‘घुग्गी’ कहते हैं. किस्सा इतना सा है कि सामने कोने में ‘घुग्गी’ के एक जोड़े ने अपना छोटा सा घोंसला बना रखा है जिस में उन के कुछ नवजात बच्चे रहते  हैं. अभी उन्हें अपने मांबाप की सुरक्षा की बेहद जरूरत है.

नरमादा दोनों किसी को भी उस कोने में नहीं जाने देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि हम उन के बच्चे चुरा लेंगे या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाएंगे. काम वाली बाई सफाई करने गई तो चोंच से उस के सिर के बाल ही खींच ले गए. इस के बाद से उस ने तो उधर जाना ही छोड़ दिया. मीना घूंघट निकाल कर उधर गई तो उस के सिर पर घुग्गी के जोड़े ने चोंच मार दी.

‘‘इन्हें किसी भी तरह यहां से हटाइए,’’ मीना गुस्से में बोली, ‘‘अजीब गुंडागर्दी है. अपने ही घर में इन्होंने हमारा चलनाफिरना हराम कर रखा है.’’

‘‘मीना, इन की हिम्मत और ममता तो देखो, हमारा घर इन नन्हेनन्हे पंछियों के शब्दकोष में कहां है. यह तो बस, कितनी मेहनत से अपने बच्चे पाल रहे हैं. यहां तक कि रात को भी सोते नहीं. याद है, उस रोज रात के 12 बजे जब मैं स्कूटर रखने उधर गया था तो भी दोनों मेरे बाल खींच ले गए थे.’’

रात 12 बजे का जिक्र आया तो याद आया कि मीना को महेश के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया. महेश का फोन न मिल पाने के कारण हम पतिपत्नी परेशान जो थे.

‘‘सुनो मीना, महेश का फोन तो कटा पड़ा है. बच्चों ने बिल ही जमा नहीं कराया. कहते हैं सब के पास मोबाइल है तो इस लैंडलाइन की क्या जरूरत है…’’

बुरी तरह चौंक गई थी मीना. ‘‘मोबाइल तो बच्चों के पास है न, महेश अपनी बातचीत कैसे करेंगे? वैसे भी महेश आजकल अपनेआप में ही सिमटते जा रहे हैं. पिछले 2 माह से दोपहर का खाना भी दफ्तर के बाहर वाले ढाबे से खा रहे हैं क्योंकि सुबहसुबह खाना  बना कर देना बहुओं के बस का नहीं है.’’

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मीना के बदलते तेवर देख कर मैं ने गरदन झुका ली. 18 साल पहले जब महेश की पत्नी का देहांत हुआ था तब दोनों बेटे छोटे थे, उम्र रही होगी 8 और 10 साल. आज दोनों अच्छे पद पर कार्यरत हैं, दोनों का अपनाअपना परिवार है. बस, महेश ही लावारिस से हैं, कभी इधर तो कभी उधर.

एक दिन मैं ने पूछा था, ‘तुम अपनी जरूरतों के बारे में कब सोचोगे, महेश?’

‘मेरी जरूरतें अब हैं ही कितनी?’

‘क्यों? जिंदा हो न अभी, सांस चल रही है न?’

‘चल तो रही है, अब मेरे चाहने से बंद भी तो नहीं होती कम्बख्त.’

यह सुन कर मैं अवाक् रह गया था. बहुत मेहनत से पाला है महेश ने अपनी संतान को. कभी अच्छा नहीं पहना, अच्छा नहीं खाया. बस, जो कमाया बच्चों पर लगा दिया. पत्नी नहीं थी न, क्या करता, मां भी बनता रहा बच्चों की और पिता भी.

माना, ममता के बिना संतान पाली नहीं जा सकती, फिर भी एक सीमा तो होनी चाहिए न, हर रिश्ते में एक मर्यादा, एक उचित तालमेल होना चाहिए. उन का सम्मान न हो तो दर्द होगा ही.

महेश ने अपना फोन कटा ही रहने दिया. इस पर मुझे और भी गुस्सा आता कि बच्चों को कुछ कहता क्यों नहीं. फोन पर तो बात हो नहीं पा रही थी. 2 दिन सैर पर भी नहीं आया तो मैं उस के घर ही चला गया. पता चला साहब बीमार हैं. इस हालत में अकेला घर पर पड़ा था क्योंकि दोनों बहुएं अपनेअपने मायके गई थीं.

‘‘हर शनिवार उन का रात का खाना अपनेअपने मायके में होता है.’’

‘‘तो तुम कहां खाते हो? बीमारी में भी तुम्हें उन की ही वकालत सूझ रही है. फोन ठीक होता तो कम से कम मुझे ही बता देते, मैं ही मीना से खिचड़ी बनवा लाता…’’

महेश चुप रहा और उस का पालतू कुत्ता सूं सूं करता उस के पैरों के पास बैठा रहा.

‘‘यार, इसे फ्रिज में से निकाल कर डबलरोटी ही डाल देना,’’ महेश बोला, ‘‘बेचारा मेरी तरह भूखा है. मुझ से खाया नहीं जा रहा और इसे किसी ने कुछ दिया नहीं.’’

‘‘क्यों? अब यह भी फालतू हो गया है क्या?’’ मैं व्यंग्य में बोल पड़ा, ‘‘10 साल पहले जब लाए थे तब तो आप लोगों को मेरा इसे कुत्ता कहना भी बुरा लगता था, तब यह आप का सिल्की था और आज इस का भी रेशम उतर गया लगता है.’’

‘‘हो गए होंगे इस के भी दिन पूरे,’’ महेश उदास मन से बोला, ‘‘कुत्ते की उम्र 10 साल से ज्यादा तो नहीं होती न भाई.’’

‘‘तुम अपनी उम्र का बताओ महेश, तुम्हें तो अभी 20-25 साल और जीना है. जीना कब शुरू करोगे, इस बारे में कुछ सोचा है? इस तरह तो अपने प्रति जो तुम्हारा रवैया है उस से तुम जल्दी ही मर जाओगे.’’

कभीकभी मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि महेश किस मिट्टी का बना है. उसे कभी कोई तकलीफ भी होती है या नहीं. जब पत्नी चल बसी तब नाते- रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था कि दूसरी शादी कर लो.

तब महेश का सीधा सपाट उत्तर होता था, ‘मैं अपने बच्चों को रुलाना नहीं चाहता. 2 बच्चे हैं, शादी कर ली तो आने वाली पत्नी अपनी संतान भी चाहेगी और मैं 2 से ज्यादा बच्चे नहीं चाहता. इसलिए आप सब मुझे माफ कर दीजिए.’

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महेश का यह सीधा सपाट उत्तर था. हमारे भी 2 बच्चे थे. मीना ने साथ दिया. इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि यदि वह न चाहती तो शायद मैं भी चाह कर कुछ नहीं कर पाता.

एक तरह से महेश, मैं और मीना, तीनों ने मिल कर 4 बच्चों को पाला. महेश के बच्चे कबकब मीना के भी बच्चे रहे समझ पाना मुश्किल था. मैं यह भी नहीं कहता महेश के बच्चे उस से प्यार नहीं करते, प्यार कहीं सो सा गया है, कहीं दब सा गया है कुछ ऐसा लगता है. सदा पिता से लेतेलेते  वे यह भूल ही गए हैं कि उन्हें पिता को कुछ देना भी है. छोटे बेटे ने पिता के नाम पर गाड़ी खरीदी जिस की किश्त पिता चुकाता है और बड़े ने पिता के नाम पर घर खरीदा है जिस की किश्त भी पिता की तनख्वाह से ही जाती है.

‘‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तुम्हारे हाथ आते हैं. उस में तुम्हारा दोपहर का खाना, कपड़ा, दवा, टेलीफोन का बिल कैसे पूरा होगा, क्या बच्चे यह सब- कुछ सोचते हैं? अगर नहीं सोचते तो उन्हें सोचना पड़ेगा, महेश.

‘‘यह कुत्ता भी आज तुम्हारे परिवार में फालतू है क्योंकि घर में तुम्हारे पोतेपोतियां हैं जो एक जानवर के साथ असुरक्षित हैं. कल कुत्ता तुम्हारी जरूरत था क्योंकि बच्चे अकेले थे. दोनों बच्चे तुम्हारे साथ किस बदतमीजी से पेश आते हैं तुम्हें पता ही नहीं चलता, कोई भी बाहर का व्यक्ति झट समझ जाता है कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इज्जत नहीं कर रहे और तुम कबूतर की तरह आंखें बंद किए बैठे हो. महेश, अपनी सुधि लेना सीखो. याद रखो, मां भी बच्चे को बिना रोए दूध नहीं पिलाती. तकलीफ हो तो रोना भी पड़ता है और रोना भी चाहिए. इन्हें वह भाषा समझाओ जो समझ में आए.’’

‘‘मैं क्या करूं? कभी अपने लिए कुछ मांगा ही नहीं.’’

‘‘तुम क्यों मांगो, अभी तो 20 हजार हर महीने तुम इन पर खर्च कर रहे हो. अभी तो देने वालों की फेहरिस्त में तुम्हारा नाम आता है. तुम्हें अपने लिए चाहिए ही क्या, समय पर दो वक्त का खाना और धुले हुए साफ कपड़े. जरा सी इज्जत और जरा सा प्यार. बदले में अपना सब दे चुके हो बच्चों को और दे रहे हो.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता मेरा.’’

‘‘चाहो तो सब हो सकता है. तुम जरा सी हिम्मत तो जुटाओ.’’

वास्तव में उस दिन महेश बेचैन था और उस की पीड़ा हम भी पूरी ईमानदारी से सह रहे थे. बिना कुछ भी कहे पलपल हम महेश के साथ ही तो थे. एक अधिकार था मीना के पास भी, मां की तरह ममत्व लुटाया था मीना ने भी बच्चों पर.

‘‘जी चाहता है कान मरोड़ दूं दोनों के,’’ मीना ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘‘आज किसी लायक हो गए तो पिता की जरूरतों का अर्थ ही नहीं रहा उन के मन में.’’

‘‘पहल महेश को करने दो मीना, यह उस की अपनी जंग है.’’

‘‘इस में जंग वाली क्या बात हुई?’’

‘‘जंग का अर्थ सिर्फ 2 देशों के बीच लड़ाई ही तो नहीं होता, विचारों के बीच जब तालमेल न हो तब भी तो मन के भीतर एक घमासान चलता रहता है न. उस के घर का मसला है, उसी को निबटने दो.’’

किसी तरह मीना को समझा- बुझा कर मैं ने शांत तो कर दिया लेकिन खुद असहज ही रहा. अकसर सोचता, महेश बेचारे ने गलती भी तो कोई  नहीं की. एक अच्छा पिता और एक समर्पित पति बनना तो कोई अपराध नहीं है. महेश ने जब दूसरी शादी न करने का फैसला लिया था तब उस का वह फैसला उचित था. आज यदि वह अकेला है तो हम सोचते हैं कि उस का निर्णय गलत था, तब शादी कर लेता तो कम से कम आज अकेला तो न होता.

अकसर जीवन में ऐसा ही होता है. कल का सत्य, आज का सत्य रहता ही नहीं. उस पल की जरूरत वह थी, आज की जरूरत यह है. हम कभी कल के फीते से आज को तो नहीं नाप सकते न.

संयोग ऐसा बना कि कुछ दिन बाद, सुबहसुबह मैं उठा तो पाया कि बरामदे का वह कोना साफसुथरा है जहां घुग्गी ने घोंसला बना रखा था. बाई पोंछा लगा रही थी.

‘‘बच्चे उड़ गए साहब,’’ बाई ने बताया, ‘‘वह देखिए, उधर…’’

2 छोटेछोटे चिडि़या के आकार के नन्हेनन्हे जीव इधरउधर फुदक रहे थे और नरमादा उन की खुली चोंच में दाना डाल रहे थे.

‘‘अरे मीना, आओ तो, देखो न कितने प्यारे बच्चे हैं. जरा भाग कर आना.’’

मीना आई और सहसा कुछ ऐसा कह गई जो मेरे अंतरमन को चुभ सा गया.

‘‘हम इनसानों से तो यह परिंदे अच्छे, देखना 4 दिन बाद जब बच्चों को खुद दाना चुगना आ जाएगा तो यह नरमादा इन्हें आजाद छोड़ देंगे. हमारी तरह यह नहीं चाहेंगे कि ये सदा हम से ही चिपके रहें. हम सब की यही तो त्रासदी है कि हम चाहते हैं कि बच्चे सदा हमारी उंगली ही पकड़ कर चलें. हम सोचना ही नहीं चाहते कि बच्चों से अपना हाथ छुड़ा लें.’’

‘‘क्योंकि इनसान को बुढ़ापे में संतान की जरूरत पड़ती है जो इन पक्षियों को शायद नहीं पड़ती. मीना, इनसान सामाजिक प्राणी है और वह परिवार से, समाज से जुड़ कर जीना चाहता है.’’

मीना बड़बड़ा कर वहीं धम से बैठ गई. मैं मीना को पिछले 30 सालों से जानता हूं. अन्याय साथ वाले घर में होता हो तो अपने घर बैठे इस का खून उबलता रहता है. महेश के बारे में ही सोच रही होगी. एक बेनाम सा रिश्ता है मीना का भी महेश के साथ. वह मेरा मित्र है और यह मेरी पत्नी, दोनों का रिश्ता भला क्या बनता है? कुछ भी तो नहीं, लेकिन यह भी एक सत्य है कि मीना महेश के लिए बहुत कुछ है, भाभी, बहन, मित्र और कभीकभी मां भी.

‘‘महेश को अपने घर ला रही हूं मैं, ऊपर का कमरा खाली करा कर सब साफसफाई करा दी है. बहुत हो चुका खेलतमाशा…बेशर्मी की भी हद होती है. अस्पताल से सीधे यहीं ला रही हूं, सुना आप ने…’’

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मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. अस्पताल से सीधा? तो क्या महेश अस्पताल में है? याद आया…मैं तो 2 दिन से यहां था ही नहीं, कार्यालय के काम से दिल्ली गया था. देर रात लौटा था और अब सुबहसुबह यह सब. पता चला महेश के शरीर में शुगर की बहुत कमी हो गई थी जिस वजह से उसे कार्यालय में ही चक्कर आ गया था और दफ्तर के लोगों उसे अस्पताल पहुंचा दिया था.

‘‘नहीं मीना, यह हमारी सीमा में नहीं आता. घर तो उस का वही है, कोई बात नहीं, आज देखते हैं अस्पताल से तो वह अपने ही घर जाएगा.’’

उस दिन मैं दफ्तर से आधे दिन का अवकाश ले कर उसे अस्पताल से उस के घर ले गया. दोनों बेटे जल्दी में थे और बहुएं बच्चों में व्यस्त थीं. सहसा तभी उन का कुत्ता छोटे बच्चे पर झपट पड़ा, शायद वह भूखा था. उस के हाथ का बिस्कुट छिटक कर परे जा गिरा. महेश के पीछे उस ने 2 दिन कुछ खाया नहीं होगा क्योंकि महेश के बिना वह कुछ भी खाता नहीं. महेश को देखते ही उस की भूख जाग उठी और बिस्कुट लपक लिया.

‘‘पापा, आप ने इसे ढंग से पाला नहीं. न कोई टे्रनिंग दी है न तमीज सिखाई है. 2 दिन से लगातार भौंकभौंक कर हम सब का दिमाग खा गया है. न खाता है न पीता है और हमारे पास इस के लिए समय नहीं है.’’

‘‘समय तो आप के पास अपने बाप के लिए भी नहीं है, कुत्ता तो बहुत दूर की चीज है बेटे. रही बात तमीज की तो वह महेश भैया ने तुम दोनों को भी बहुत सिखाई थी. यह तो जानवर है. बेचारा मालिक के वियोग में भूखा रह सकता है या भौंक सकता है फिर भी दुम हिला कर स्वागत तो कर सकता है. तुम से तो वह भी नहीं हुआ…जिन के पास जबान भी है और हाथपैर भी. घंटे भर से हम देख रहे हैं मुझे तो तुम दोनों में से कोई अपने पिता के लिए एक कप चाय लाता भी दिखाई नहीं दिया.’’

मीना बोली तो बड़ा बेटा अजय स्तब्ध रह गया. कुछ कहता तभी टोक दिया मीना ने, ‘‘तुम्हारे पास समय नहीं कोई बात नहीं. महेश नौकर रख कर अपना गुजारा कर लेंगे. कम से कम उन की तनख्वाह तो तुम उन के पास छोड़ दो…बाप की तनख्वाह तो तुम दोनों भाइयों ने आधीआधी बांट ली, कभी यह भी सोचा है कि वह बचे हुए 2 हजार रुपयों में कैसे खाना खाते हैं? दवा भी ले पाते हैं कि नहीं? फोन तक कटवा दिया उन का, क्यों? क्या उन का कोई अपना जानने वाला नहीं जिस के साथ वह सुखदुख बांट सकें. क्या जीते जी मर जाए तुम्हारा बाप?’’

मीना की ऊंची आवाज सुन छोटा बेटा विजय और उस की पत्नी भी अपने कमरे से बाहर चले आए.

‘‘तुम दोनों की मां आज जिंदा होतीं तो अपने पति की यह दुर्गति नहीं होने देतीं. हम क्या करें? हमारी सीमा तो सीमित है न बेटे. तुम मेरे बच्चे होते तो कान मरोड़ कर पूछती, लेकिन क्या करूं मैं तुम्हारी मां नहीं हूं न.’’

रोने लगी थी मीना. महेश और उस के परिवार के लिए अकसर रो दिया करती है. कभी उन की खुशी में कभी उन की पीड़ा में.

‘‘कभी कपड़े देखे हैं विजय तुम ने अपने पापा के. हजारों रुपए अपनी कमीजों पर तुम खर्च कर देते हो. कभी देखा है इतनी गरमी में उन के पास कोई ढंग की सूती कमीज भी है…

‘‘आफिस के सामने वाले ढाबे पर दोपहर का खाना खाते हैं. क्या तुम दोनों की बीवियां वक्त पर ससुर को टिफिन नहीं दे सकतीं. अरे, सुबह नहीं तो कम से कम दोपहर तक पहुंचाने का इंतजाम ही करवा दो.

‘‘बहुएं तो दूसरे घरों से आई हैं. हो सकता है इन के घर में मांबाप का ऐसा ही आदर होता हो. कम से कम तुम तो अपने पिता की कद्र करना अपनी पत्नियों को सिखाओ. क्या मैं ने यही संस्कार दिए थे तुम लोगों को? ऐसा ही सिखाया था न?’’

दोनों भाई चुप थे और उन की बीवियां तटस्थ थीं. अजयविजय आगे कुछ कहते कि मीना ने पुन: कहा, ‘‘बेटा, अपने बाप को लावारिस मत समझना. अभी तुम जैसे 2-4 वह और भी पाल सकते हैं. नहीं संभाले जाते तो यह घर छोड़ कर चले जाओ, अजय तुम अपने फ्लैट में और विजय तुम किराए के घर में. अपनीअपनी किस्तें खुद दो वरना आज ही महेश फ्लैट और गाड़ी बेचने को तैयार हैं…इन्हीं के नाम हैं न दोनों चीजें.’’

महेश चुपचाप आंखें मूंदे पड़े थे. जाहिर था उसी के शब्द मीना के होंठों से फूट रहे थे.

‘‘मीना, अब बस भी करो. आओ, चलें.’’

आतेआते दोनों बच्चों का कंधा थपक दिया. मुझ से आंखें मिलीं तो ऐसा लगा मानो वही पुराने अजयविजय सामने खड़े हों जो स्कूल में की गई किसी शरारत पर टीचर की सजा से बचने के लिए मेरे या मीना के पास चले आते थे. आंखें मूंद कर मैं ने आश्वासन दिया.

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जब जागे तभी सवेरा. संभालो अपने पापा को…’’

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डबडबा गई थीं दोनों की आंखें. मानो अपनी भूल का एहसास पहली बार उन्हें हुआ हो. मैं कहता था न कि हमारे बच्चे संस्कारहीन नहीं हैं. हां, जवानी के जोश में बस जरा सा यह सत्य भूल गए हैं कि उन्हें जवान बनाने में इसी बुढ़ापे का खून और पसीना लगा है और यही बुढ़ापा बांहें पसारे उन का भी इंतजार कर रहा है.

कहा था न मैं ने कि उन का प्यार कहीं सो सा गया है. उसी प्यार को जरा सा झिंझोड़ कर जगा दिया था मीना ने. सच ही कहा था मैं ने, रो पड़े थे दोनों और साथसाथ मीना भी. जरा सा चैन आ गया मन को, अंतत: सब अच्छा ही होगा, यह सोच मैं ने और मीना ने उन के घर से विदा ली. क्या करते हम, कभीकभी मर्ज को ठीक करने के लिए मरीज को कड़वी गोली भी देनी पड़ती है.

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