कागज का रिश्ता: क्या परिवार का शक दूर हुआ

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कागज का रिश्ता- भाग 1: क्या परिवार का शक दूर हुआ

‘‘यह लो भाभी, तुम्हारा पत्र,’’ राकेश ने मुसकराते हुए गुलाबी रंग के पत्र को विभा की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

सर्दियों की गुनगुनी धूप में बाहर आंगन में बैठी विमला देवी ने बहू के हाथों में पत्र देखा तो बोलीं, ‘‘किस का पत्र है?’’

‘‘मेरे एक मित्र का पत्र है, मांजी,’’ कहते हुए विभा पत्र ले कर अपने कमरे में दाखिल हो गई तो राकेश अपनी मां के पास पड़ी कुरसी पर आ बैठा.

कालेज में पढ़ने वाला नौजवान हर बात पर गौर करने लगा था. साधारण सी घटना को भी राकेश संदेह की नजर से देखनेपरखने लगा था. यों तो विभा के पत्र अकसर आते रहते थे, पर उस दिन जिस महकमुसकान के साथ उस ने वह पत्र देवर के हाथ से लिया था, उसे देख कर राकेश की निगाह में संदेह का बादल उमड़ आया.

‘‘राकेश बेटा, उमा की कोई चिट्ठी नहीं आती. लड़की की राजीखुशी का तो पता करना ही चाहिए,’’ विमला देवी अपनी लड़की के लिए चिंतित हो उठी थीं.

‘‘मां, उमा को भी तो यहां से कोई पत्र नहीं लिखता. वह बेचारी कब तक पत्र डालती रहे?’’ राकेश ने भाभी के कमरे की तरफ देखते हुए कहा. उधर से आती किसी गजल के मधुर स्वर ने राकेश की बात को वहीं तक सीमित कर दिया.

‘‘पर बहू तो अकसर डाकखाने जाती है,’’ विमला देवी ने कहा.

‘‘आप की बहू अपने मित्रों को पत्र डालने जाती हैं मां, अपनी ननद को नहीं. जिन्हें यह पत्र डालने जाती हैं उन की लगातार चिट्ठियां आती रहती हैं. अब देखो, इस पिछले पंद्रह दिनों में उन के पास यह दूसरा गुलाबी लिफाफा आया है,’’ राकेश ने तनिक गंभीरता से कहा.

‘‘बहू के इन मित्रों के बारे में मुकेश को तो पता होगा,’’ इस बार विमला देवी भी सशंकित हो उठी थीं. यों उन्हें अपनी बहू से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर, सुघड़ और मेहनती थी. नएनए पकवान बनाने और सब को आग्रह से खिलाने पर ही वह संतोष मानती थी. सब के सुखदुख में तो वह ऐसे घुलमिल जाती जैसे वे उस के अपने ही सुखदुख हों. घर के सदस्यों की रुचि का वह पूरा ध्यान रखती.

इन पत्रों के सिलसिले ने विमला देवी के माथे पर अनायास ही बल डाल दिए. उन्होंने राकेश से पूछा, ‘‘पत्र कहां से आया है?’’

राकेश कंधे उचका कर बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम? भाभी के किसी ‘पैन फ्रैंड’ का पत्र है.’’

‘‘ऐं, यह ‘पैन फ्रैंड’ क्या चीज होती है?’’ विमला देवी ने खोजी निगाहों से बेटे की तरफ देखा.

‘‘मां, पैन फ्रैंड यानी कि पत्र मित्र,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, जब मुकेश छोटा था तब वह भी बाल पत्रिकाओं से बच्चों के पते ढूंढ़ढूंढ़ कर पत्र मित्र बनाया करता था और उन्हें पत्र भेजा करता था,’’ विमला देवी ने याद करते हुए कहा.

‘‘बचपन के औपचारिक पत्र मित्र समय के साथसाथ छूटते चले जाते हैं. भाभी की तरह उन के लगातार पत्र नहीं आते,’’ कहते हुए राकेश ने बाहर की राह ली और विमला देवी अकेली आंगन में बैठी रह गईं.

सर्दियों के गुनगुने दिन धूप ढलते ही बीत जाते हैं. विभा ने जब तक चायनाश्ते के बरतन समेटे, सांझ ढल चुकी थी. वह फिर रात का खाना बनाने में व्यस्त हो गई. मुकेश को बढि़या खाना खाने का शौक भी था और वह दफ्तर से लौट कर जल्दी ही रात का खाना खाने का आदी भी था.

दफ्तर से लौटते ही मुकेश ने विभा को बुला कर कहा, ‘‘सुनो, आज दफ्तर में तुम्हारे भैयाभाभी का फोन आया था. वे लोग परसों अहमदाबाद लौट रहे हैं, कल उन्होंने तुम्हें बुलाया है.’’

‘‘अच्छा,’’ विभा ने मुकेश के हाथ से कोट ले कर अलमारी में टांगते हुए कहा.

अगले दिन सुबह मुकेश को दफ्तर भेज कर विभा अपने भैयाभाभी से मिलने तिलक नगर चली गई. वे दक्षिण भारत घूम कर लौटे थे और घर के सदस्यों के लिए तरहतरह के उपहार लाए थे. विभा अपने लिए लाई गई मैसूर जार्जेट की साड़ी देख कर खिल उठी थी.

विभा की मां को अचानक कुछ याद आया. वे अपनी मेज पर रखी चिट्ठियों में से एक कार्ड निकाल कर विभा को देते हुए बोलीं, ‘‘यह तेरे नाम का एक कार्ड आया था.’’

‘‘किस का कार्ड है?’’ विभा की भाभी शीला ने कार्ड की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘मेरे एक मित्र का कार्ड है, भाभी. नव वर्ष, दीवाली, होली, जन्मदिन आदि पर हम लोग कार्ड भेज कर एकदूसरे को बधाई देते हैं,’’ विभा ने कार्ड पढ़ते हुए कहा.

‘‘कभी मुलाकात भी होती है इन मित्रों से?’’ शीला भाभी ने तनिक सोचते हुए कहा.

‘‘कभी आमनेसामने तो मुलाकात नहीं हुई, न ऐसी जरूरत ही महसूस हुई,’’ विभा ने सहज भाव से कार्ड देखते हुए उत्तर दिया.

‘‘तुम्हारे पास ससुराल में भी ऐसे बधाई कार्ड पहुंचते हैं?’’ शीला ने अगला प्रश्न किया.

‘‘हांहां, वहां भी मेरे कार्ड आते हैं,’’ विभा ने तनिक उत्साह से बताया.

‘‘क्या मुकेश भाई भी तुम्हारे इन पत्र मित्रों के बधाई कार्ड देखते हैं?’’ इस बार शीला भाभी ने सीधा सवाल किया.

‘‘क्यों? ऐसी क्या गलत बात है इन बधाई कार्डों में?’’ प्रत्युत्तर में विभा का स्वर भी बदल गया था.

‘‘अब तुम विवाहिता हो विभा और विवाहित जीवन में ये बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं. मैं मानती हूं कि तुम्हारा तनमन निर्मल है, लेकिन पतिपत्नी का रिश्ता बहुत नाजुक होता है. अगर इस रिश्ते में एक बार शक का बीज पनप

गया तो सारा जीवन अपनी सफाई देते हुए ही नष्ट हो जाता है. इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम यह पत्र मित्रता अब यहीं खत्म कर दो,’’ शीला ने समझाते हुए कहा.

‘‘भाभी, तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम लोग यह बधाई कार्ड सिर्फ एक दोस्त की हैसियत से भेजते हैं. इतनी साधारण सी बात मुकेश और मेरे बीच में शक का कारण बन सकती है, मैं ऐसा नहीं मानती,’’ विभा तुनक कर बोली.

शाम ढल रही थी और विभा को घर लौटना था, इसलिए चर्चा वहीं खत्म हो गई. विभा अपना उपहार ले कर खुशीखुशी ससुराल लौट आई.

लगभग पूरा महीना सर्दी की चपेट में ठंड से ठिठुरते हुए कब बीत गया, कुछ पता ही न चला. गरमी की दस्तक देती एक दोपहर में जब विभा नहा कर अपने कमरे में आई तो देखा, मुकेश का चेहरा कुछ उतरा हुआ सा है. वह मुसकरा कर अपनी साड़ी का पल्ला हवा में लहराते हुए बोली, ‘‘सुनिए.’’

विभा की आवाज सुन कर मुकेश ने उस की तरफ पलट कर देखा. विभा ने मुकेश की दी हुई गुलाबी साड़ी पहन रखी थी. उस पर गुलाबी रंग खिलता भी खूब था. कोई और दिन होता तो

मुकेश की धमनियों में आग सी दौड़ने लगती, पर उस समय वह बिलकुल खामोश था.

कागज का रिश्ता- भाग 2: क्या परिवार का शक दूर हुआ

चिंता की गहरी लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट उभर आई थीं. उस ने एक गुलाबी लिफाफा अपनी पत्नी के आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा पत्र आया है.’’

‘‘मेरा पत्र,’’ विभा ने आगे बढ़ कर वह पत्र अपने हाथ में उठाया और चहक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मोहन का पत्र है.’’

मुसकरा कर विभा वह पत्र खोल कर पढ़ने लगी. उस के चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग थिरकने लगे थे.

मुकेश पत्नी पर एक दृष्टि फेंक कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘‘यह मोहन कौन है?’’

‘‘मेरे पत्र मित्रों में सब से अधिक स्नेहशील और आकर्षक,’’ विभा पत्र पढ़तेपढ़ते ही बोली.

विभा पत्र पढ़ती रही और मुकेश चोर निगाहों से पत्नी को देखता रहा. पत्र पढ़ कर विभा ने दराज में डाल दिया और फिल्मी धुन गुनगुनाती हुई ड्रैसिंग टेबल के आईने में अपनी छवि निहारते हुए बाल संवारती रही.

मुकेश ने घड़ी में समय देखा और विभा से बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

‘‘खाना तो लगभग तैयार है,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ चल दी. जब रसोई से बरतनों की उठापटक की आवाज आनी शुरू हो गई तो मुकेश ने दराज से वह पत्र निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया.

हिमाचल के चंबा जिले के किसी गांव से आया वह पत्र पर्वतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता हुआ, विभा को सपरिवार वहां आ कर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दे रहा था.

विभा के द्वारा भेजे गए नए साल के बधाई कार्ड और पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर भी उस पत्र में दिए गए थे. पत्र की भाषा लुभावनी और लिखावट सुंदर थी.

विभा ने मेज पर खाना लगा दिया था. पूरा परिवार भोजन करने बैठ चुका था, पर मुकेश न जाने क्यों उदास सा था. राकेश बराबर में बैठा लगातार अपने भैया के मर्म को समझने की कोशिश कर रहा था. उसे अपनी भाभी पर रहरह कर क्रोध आ रहा था.

राकेश ने मटरपनीर का डोंगा भैया के आगे सरकाते हुए कहा, ‘‘आप ने मटरपनीर की सब्जी तो ली ही नहीं. देखिए तो, कितनी स्वादिष्ठ है.’’

‘‘ऐं, हांहां,’’ कहते हुए मुकेश ने राकेश के हाथ से डोंगा ले लिया, पर वह बेदिली से ही खाना खाता रहा.

मुकेश की स्थिति देख कर राकेश ने निश्चय किया कि वह इस बार भाभी के नाम आया कोई भी पत्र मुकेश के ही हाथों में देगा. जितनी जल्दी हो सके, इन पत्रों का रहस्य भैया के आगे खुलना ही चाहिए.

राकेश के हृदय में बनी योजना ने साकार होने में अधिक समय नहीं लिया. एक दोपहर जब वह अपने मित्र के यहां मिलने जा रहा था, उसे डाकिया घर के बाहर ही मिल गया. वह अन्य पत्रों के साथ विभा भाभी का गुलाबी लिफाफा भी अपनी जेब के हवाले करते हुए बाहर निकल गया.

राकेश जब घर लौटा तब मुकेश घर पहुंच चुका था. भाभी रसोई में थीं और मांजी बरामदे में बैठी रेडियो सुन रही थीं. राकेश ने अपनी जेब से 3-4 चिट्ठियां निकाल कर मुकेश के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भैया, शायद एक पत्र आप के दफ्तर का है और एक उमा दीदी का है. यह पत्र शायद भाभी का है. मैं सतीश के घर जा रहा था कि डाकिया रास्ते में ही मिल गया.’’

‘‘ओह, अच्छाअच्छा,’’ मुकेश ने पत्र हाथ में लेते हुए कहा. अपने दफ्तर का पत्र उस ने दफ्तरी कागजों में रख लिया और उमा का पत्र घर में सब को पढ़ कर सुना दिया. विभा के नाम से आया पत्र उस ने तकिए के नीचे रख दिया.

रात को कामकाज निबटा कर विभा लौटी तो मुकेश ने गुलाबी लिफाफा उसे थमाते हुए कहा, ‘‘यह लो, तुम्हारा पत्र.’’

‘‘मेरा पत्र, इस समय?’’ विभा ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आया तो यह दोपहर की डाक से था, जब मैं दफ्तर में था. लेकिन अभी तक यह आप के देवर की जेब में था,’’ मुकेश ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा.

विभा ने मुसकरा कर वह पत्र खोला और पढ़ने लगी. शायद पत्र में कोई ऐसी बात लिखी थी, जिसे पढ़ कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी. मुकेश ने इस बार पलट कर पूछा, ‘‘मोहन का
पत्र है?’’

‘‘हां, लेकिन आप ने कैसे जान लिया?’’ विभा ने हंसतेहंसते ही पूछा.

‘‘लिफाफे को देख कर. कुछ और बताओगी इन महाशय के बारे में?’’ मुकेश ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मोहन एक सुंदर नवयुवक है. उस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है. मुझे तो उस की शरारती आंखों की मुसकराहट बहुत भाती है,’’ विभा ने सहज भाव से कहा पर मुकेश शक और ईर्ष्या की आग में जल उठा.

मुकेश ने फिर पत्नी से कोई बात नहीं की और मुंह फेर कर लेट गया. विभा ने एक बार मुकेश की पीठ को सहलाया भी, पर पति का एकदम ठंडापन देख कर वह फिर नींद की आगोश में डूब गई.

घरगृहस्थी की गाड़ी ठीक पहले जैसी ही चलती रही पर मुकेश का स्वभाव और व्यवहार दिनोंदिन बदलता चला गया. अब अकसर वह देर रात घर लौटता. पति के इंतजार में भूखी बैठी विभा से वह ‘बाहर से खाना खा कर आया हूं’ कह कर सीधे अपने कमरे में घुस जाता. मांजी और राकेश भी मुकेश का व्यवहार देख कर परेशान थे. मुकेश और विभा के बीच धीरेधीरे एक ठंडापन पसरने लगा था. दोनों के बीच वार्त्तालाप भी अब बहुत संक्षिप्त होता था. मुकेश अब अगर दफ्तर से समय पर घर लौट भी आता तो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता.

आखिर एक शाम विभा ने मुकेश के हाथ से सिगरेट छीनते हुए तुनक कर कहा, ‘‘आप मुझे देखते ही नजरें क्यों फेर लेते हैं? क्या अब मैं सुंदर नहीं रही?’’

मुकेश ने विभा की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘आप किस सोच में डूबे रहते हैं? देखती हूं, आप आजकल सिगरेट ज्यादा ही पीने लगे हैं. बताइए न?’’ विभा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘तुम तो उतनी ही सुंदर हो जितनी शादी के समय थीं, पर मैं न तो मोहन की तरह सुंदर हूं न ही बलिष्ठ. न मैं उस की तरह योग्य हूं न आकर्षक,’’ मुकेश ने रूखे स्वर में जवाब दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं अब तुम्हें साफसाफ बता देना चाहता हूं कि अब मैं तुम्हारे साथ अधिक दिनों तक नहीं निभा सकता. मैं बहुत जल्दी ही तुम्हें आजाद करने की सोच रहा हूं जिस से तुम मोहन के पास आसानी से जा सको,’’ मुकेश ने अत्यंत ठंडे स्वर से कहा.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’ विभा घबरा कर बोली. उसे लगा, संदेह के एक नन्हे कीड़े ने उस के दांपत्य की गहरी जड़ों को क्षणभर में कुतर डाला है.

‘‘मैं वही सच कह रहा हूं जो तुम नहीं कह सकीं और छिप कर प्रेम का नाटक खेलती रहीं,’’ अब मुकेश के स्वर में कड़वाहट घुल गई थी.

कागज का रिश्ता- भाग 3: क्या परिवार का शक दूर हुआ

‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.

‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.

‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.

‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.

‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.

विभा देर तक सुबकती रही.

अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.

विभा मुकेश को दूर तक जाते हुए देखती रही, नाश्ते की प्लेट अब तक उस के हाथों में थी.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’ दरवाजे के बाहर खड़ी उस की सास ने भीतर आते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मांजी,’’ विभा ने सास से आंसू छिपाते हुए कहा.

‘‘मुकेश क्या नाश्ता नहीं कर के गया?’’ उन्होंने विभा के हाथ में प्लेट देख कर पूछा.

‘‘जल्दी में चले गए,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ मुड़ गई.

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी कि आदमी घर से भूखा ही चला जाए. मैं देख रही हूं, तुम दोनों में कई दिनों से कुछ तनाव चल रहा है. बात बढ़ने से पहले ही निबटा लेनी चाहिए, बहू. इसी में समझदारी है.’’

शाम को मुकेश दफ्तर से लौटा तो मां ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा, ‘‘मुकेश, आजकल इतनी देर से क्यों लौटता है?’’

‘‘मां, दफ्तर में आजकल काम कुछ ज्यादा ही रहता है.’’

‘‘आजकल तू उदास भी रहता है.’’

‘‘नहींनहीं, मां,’’ मुकेश ने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘आज कोई पुरानी फिल्म डीवीडी पर लगाना,’’ मां ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए मुकेश उठ कर अपने कमरे में चला गया.

दिनभर के थके और भूख से बेहाल हुए मुकेश ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, उसे अपने बिस्तर पर शादी का अलबम नजर आया. कपड़े उतारने को बढ़े हाथ अनायास ही अलबम की तरफ बढ़ गए. वह अलबम देखने बैठ गया. हंसीठिठोली, मानमनुहार, रिश्तेदारों की चुहलभरी बातें एक बार फिर मन में ताजा हो उठीं. तभी विभा ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए.’’

मुकेश का गुस्सा अभी भी नाक पर चढ़ा था, पर उस ने पत्नी के हाथ से चाय का प्याला ले लिया. विभा फिर रसोईघर में चली गई.

मुकेश जब तक हाथमुंह धो कर बाथरूम से निकला, परिवार रात के खाने के लिए मेज पर बैठ चुका था. विमला देवी ने बेटे को पुकारा, ‘‘मुकेश, आओ बेटे, सभी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

कुरसी पर बैठते हुए मुकेश सामान्य होने का प्रयत्न कर रहा था, पर उस का रूखापन छिपाए नहीं छिप रहा था. सभी भोजन करने लगे तो विमला देवी बोलीं, ‘‘आज मुकेश जल्दीजल्दी में नाश्ता छोड़ गया तो विभा ने भी पूरे दिन कुछ नहीं खाया.’’

‘‘पतिव्रता स्त्रियों की तरह,’’ राकेश ने शरारत से हंसते हुए कहा.

विमला देवी भी मुसकराती रहीं, पर मुकेश चुपचाप खाना खाता रहा. गरम रोटियां सब की थालियों में परोसते हुए विभा ने यह तो जान लिया था कि मुकेश बारबार उस को आंख के कोने से देख रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्द न मिल रहे हों.

रात में बिस्तर पर बैठते हुए विभा बोली, ‘‘देखिए, मेरे दिल में कोई ऐसीवैसी बात नहीं है. हां, आज तक मैं अपने बरसों पुराने पत्र मित्रों के पत्रों को सहज रूप में ही लेती रही. मेरे समझने में यह भूल अवश्य हुई कि मैं ने कभी गंभीरता से इस विषय पर सोचा नहीं…’’

मुकेश चुपचाप दूसरी तरफ निगाहें फेरे बैठा रहा. विभा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘आज दिनभर मैं ने इस विषय पर गहराई से सोचा. मेरी एक साधारण सी भूल के कारण मेरा भविष्य एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. हम दोनों की सुखी गृहस्थी अलगाव की तरफ मुड़ गई है. मैं आज ही आप के सामने इन कागज के रिश्तों को खत्म किए देती हूं.’’

यह कहते हुए विभा ने बरसों से संजोया हुआ बधाई कार्डों व पत्रों का पुलिंदा चिंदीचिंदी कर के फाड़ दिया और मुकेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मैं सिर्फ आप की हूं.’’

शक के कारण अपनत्व की धुंधली पड़ती छाया मुकेश की पलकों को गीला कर के उजली रोशनी दे गई. वह पत्नी के हाथ को दोनों हाथों में दबाते हुए बोला, ‘‘मुझे अब तुम से कोई शिकायत नहीं है, विभा. अच्छा हुआ जो तुम्हें अपनी गलती का एहसास समय रहते ही हो गया.’’

‘‘जो कुछ हम ने कहासुना, उसे भूल जाओ,’’ विभा ने पति के समीप आते हुए कहा.

‘‘मुझे गुस्सा तुम्हारी लापरवाही ने दिलाया. एक के बाद एक तुम्हारे पत्र आते चले गए और मेरी स्थिति अपने परिवार में गिरती चली गई. जरा सोचो, अगर घर के बुजुर्ग इन पत्रों को गलत नजरिए से देखने लगते तो परिवार में तुम्हारी क्या इज्जत रह जाती?’’ मुकेश ने धीमे स्वर में कहा.

विभा कुछ नहीं बोली. मुकेश ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘उस शाम जब राकेश ने तुम्हारा वह पत्र मेरे हाथों में दिया था तो तुम नहीं जानतीं, वह कैसी विचित्र निगाहों से तुम्हें ताक रहा था. वह लांछित दृष्टि मैं बरदाश्त नहीं कर सकता, विभा. हम ऐसा कोई काम करें ही क्यों जिस में हमारे साथसाथ दूसरों का भी सुखचैन खत्म हो जाए?’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं,’’ विभा ने इस बार मुकेश की आंखों में देखते हुए कहा. उस ने मन ही मन अपने पति का धन्यवाद किया. जिस तरह मुकेश ने भविष्य में होने वाली बदनामी से विभा को बचाया, यह सोच कर वह आत्मविभोर हो उठी. फिर लाइट बंद कर सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई.

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