बाबा का भूत: क्या था बाबा की मौत का रहस्य

परदा उठता है. मंच पर अंधेरा है. दाएं पार्श्व पर धीमी रोशनी गिरती है. वहां 2 कुरसियां रखी हैं. एक अधेड़ सा व्यक्ति जोगिया कपड़ों में और एक युवक वहां बैठा है.

परदे के पीछे से आवाजें आती हैं :

‘‘बाबा बीमार है, अब तो चलाचली है, बैंड वालों को बता दिया है. विमान निकलेगा. आसपास के संतों को भी सूचना दी जा चुकी है. उदयपुर से भाई साहब रवाना हो चुके हैं. महामंडलेश्वर श्यामपुरीजी भी आने वाले हैं, पर बाबाओं में झगड़ा है, रामानंदी मंजूनाथ कह रहे हैं, अंतिम संस्कार हमारे ही अखाड़े के तरीके से होगा.’’

आवाजें धीरेधीरे शोर में बढ़ती जाती हैं फिर अचानक परदे के पीछे की आवाजें धीमी पड़ती जाती हैं.

शास्त्रीजी- भैया, अपना आश्रम तो बन गया है, अब पिंकीजी आगे का प्रबंध आप को करना है.

पिंकी- जी वह, बिजली का बिल.

शास्त्रीजी-(इशारा करते हुए) आश्रम का लगा दो.

पिंकी- पर वह तो बाबा के नाम है.

शास्त्रीजी- तो क्या हुआ, अभी तो पूरा आश्रम एक ही है.

पिंकी- यह आश्रम तो अलग बना है.

शास्त्रीजी- (हंसता है) पर बाबा का कोई भरोसा नहीं. मेरा पूरा जीवन यहां निकल गया. (दांत भींचता है) आज क्या कह रहा है, कल क्या कहेगा, मरता भी नहीं है, और मर गया तो ट्रस्ट वाले अलग ऊधम मचाएंगे. जहां गुड़ होता है, हजार चींटे चले आते हैं.

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पिंकी- पर आप तो ट्रस्टी हैं और महामंत्री भी.

शास्त्रीजी- अरे, यह तो बाबाओं का मामला है. मैं ने तो बाबा से वसीयत पर दस्तखत भी ले रखे हैं. बात अपने तक रखना…पर वह शिवा है न, बाबा की चेली. सुना है, उस के पास भी वसीयत है. पता नहीं, इस बाबा ने क्याक्या कर रखा है. वह चेली चालाक है, ऊधम मचा देगी.

पिंकी- महाराज, आप तो वर्षों से यहां हैं?

(तभी मोबाइल की घंटी बजती है.)

शास्त्रीजी- हांहां, मैं बोल रहा हूं. क्या खबर है?

उधर से आवाज- हालत गंभीर है.

शास्त्रीजी- (बनावटी) अरे, बहुत बुरी खबर है. मैं कामेसर से कहता हूं, वह प्रेस रिलीज बना देगा, महाराज हमारे पूज्य हैं.

(तभी फोन कट जाता है.)

(पिंकी अवाक् शास्त्रीजी की ओर देख रहा है.)

शास्त्रीजी- यार, तुम भी क्या सुन रहे हो, अपना काम करो. लाइटें लगवा दो. पैसे की फिक्र नहीं. ऐडवांस चैक दे देता हूं. बाद में खातों पर पाबंदी लग सकती है. अभी मैं सचिव हूं. ए.सी., गीजर, फैन सब लगवा लो. फिर दूसरे खर्चे आएंगे. 13 दिन तक धमाका होगा. सारे बिल आज की तारीख में काट दो. यह बाबा… (दांत भींचता है.)

(तभी जानकी का प्रवेश, वह एक प्रौढ़ सुंदर महिला है, बड़ी सी बिंदी लगा रखी है, वह घबराई सी आती है और शास्त्रीजी के पास पिंकी को बैठा देख कर जाने लगती है.)

शास्त्रीजी- तुम कहां चलीं?

जानकी- (रोते हुए) आप ने सुना नहीं, बाबा की तबीयत बहुत खराब है… जा रहे हैं.

शास्त्रीजी- बाबा जा रहे हैं तो तुझे क्या उन के साथ सती होना है?

जानकी- क्या? (उस की त्योरियां चढ़ जाती हैं, वह पिंकी की ओर देखती है. पिंकी घबरा कर चल देता है. उस के जाते ही वह गुर्रा कर कहती है,) वे दिन भूल गए जब तुम भूखे मर रहे थे. टके का तीन कोई पूछता ही नहीं था. मुझे भी क्या काम सौंपा था. यजमानों को ठंडा पानी पिलाना. यहां ठाट किए, मकान बन गए. शास्त्रीजी कहलाते हो. (हंसती है)

शास्त्रीजी- जा, चली जा, उस की आंखें तेरे लिए तरस रही होंगी. उस ढोंगी बाबा के प्राण भी नहीं निकलते.

जानकी- बहुरूपिए तो तुम पूरे हो. बाबा के सामने आए तो ढोक लगाते हो, चमचे की तरह आगेपीछे घूमते हो, पीठ पीछे गाली.

शास्त्रीजी- तुझे क्यों आग लग गई?

जानकी- आग क्यों लगेगी, तुम तो लगा नहीं पाए, सुनोगे, बस तुम क्या सुनोगे? बरसाने की हूं, लट्ठमार होली खेली है.

शास्त्रीजी- चुप कर…जैसा समझाया है, वैसा करना. बाबा के दस्तखत तो कामेसर की जमीन के लिए ले ले. उधर की जमीन तो बाबा शिवा को दे चुका है. वह वहां अपना योग केंद्र बना रही है. इधरउधर के स्वामी उस के ही साथ हैं, कामेसर से कहना…

जानकी- क्या?

शास्त्रीजी- रहने दे, वहां जाने की जरूरत ही नहीं है, मरता है, मरने दे.

(जानकी अवाक् सी शास्त्री की ओर देखती है. तभी मोबाइल की घंटी बजती है.)

शास्त्रीजी- हैलो, हैलो बोल रहा हूं.

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उधर से आवाज- बाबा की हालत गंभीर है. स्वामी शिवपुरी उन से मिलना चाहते हैं.

शास्त्रीजी- क्या कहा… आईसीयू में, नहीं, उन से मना कर दो. आप किस लिए वहां हैं, वहां चिडि़या भी न जाने पाए, ध्यान रखो.

(फोन कट जाता है)

(तभी शिवा का प्रवेश, तेजतर्रार साध्वी, माथे पर लंबा टीका है, आंखों में आंसू हैं.)

शिवा- (रोते हुए) शास्त्रीजी.

शास्त्रीजी- क्या हुआ?

शिवा- बाबा जा रहे हैं, मैं गई थी. आईसीयू में. अंदर जाने नहीं दिया. यही कहा जाता रहा, वे समाधि में हैं.

शास्त्रीजी- हां, (सुबकता है. धोती के छोर से आंसू पोंछता है.) शिवा, अब सारी जिम्मेदारी तुम पर है.

शिवा- नहीं शास्त्रीजी, आप महंत हैं, यह आश्रम आप ने ही अपने खूनपसीने की कमाई से सींचा है.

(फिर इधरउधर देखती है. घूमती है, कोने में रखे बोर्ड को देख कर चौंक जाती

है – ‘पुनीत आश्रम.’)

शिवा- यह क्या, शास्त्रीजी. क्या कोई नया पुनीत आश्रम इधर आ गया है?

शास्त्रीजी- नया नहीं पुराना ही है.

शिवा- (चौंकती है) क्या आप अपना नया आश्रम बनवा रहे हैं. अभी तो बाबा जीवित हैं फिर भी…

शास्त्रीजी- हां, तो क्या हुआ? तू ने भी तो अपना हिस्सा ले कर पंचवटी बनवा ली है. क्या वह अलग आश्रम नहीं है? कल की लड़की क्या सारा ही हड़प जाएगी?

शिवा- बाबा के साथ यह धोखा.

शास्त्रीजी (कड़वाहट से)- बाबा से तेरा बहुत पे्रम है.

शिवा (दांत भींचती है)- और तेरा.

शास्त्रीजी- सब के सामने तू मेरे पांव पर पड़ती है, गुरुजी कहती है, और यहां…

शिवा- जाजा. कम से कम अतिक्रमण कर के तो मैं ने कोई काम नहीं किया. सब हटवा दूंगी… (हंसती है) 10-15 दिन की बात है. सारे स्वामी मेरे साथ हैं.

(वह तेजी से चली जाती है. शास्त्री अवाक् उसे जाते देखता है.)

(मंच पर अंधेरा है. सारंगी बजती है. करुण संगीत की धुन. मंच पर प्रकाश, पलंग बिछा है. वहां बाबा सोए हुए हैं. अस्पताल का कोई कमरा. 2 व्यक्ति डाक्टर की वेशभूषा में खड़े हैं.)

पहला- इस की हालत गंभीर है.

दूसरा- पर है कड़कू.

पहला- इस के आश्रम में नेता बहुत आते हैं.

दूसरा- हां, मेरा तबादला इसी ने करवाया था.

पहला- पर यार, इस का सचिव तो…

दूसरा- मुझे भी पता है.

पहला- बात सही है.

दूसरा- यह तो गलत है.

पहला- पर वह 1 लाख रुपए देने को राजी है.

दूसरा- उस की चेली.

पहला- वह भी राजी है, वह भी आई थी.

दूसरा- क्या वह भी यही चाहती है?

पहला- बाबा को अपनी मौत मरने दो, हम क्यों मारें.

दूसरा- चलें.

(तभी दूसरे कोने से कामेसर का प्रवेश. सीधासादा लड़का है. बाबा के प्रति अत्यधिक आदर रखता है.)

कामेसर- (रोता हुआ) बाबा सा, बाबा सा.

बाबा- (कोई आवाज नहीं. कामेसर बाबा को हिलाता है, फिर चिकोटी काटता है.) हाय. (धीमी आवाज आती है.)

कामेसर- बाबा, कैसे हैं?

बाबा- कौन, कामेसर?

कामेसर- हां.

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बाबा- कामेसर, मुझे ले चल. ये यहां मुझे जरूर मार डालेंगे, मरूं तो वहीं मरूं, यहां नहीं.

कामेसर- बाबा कैसे? मैं तो यहां आईसीयू में ही बड़ी मुश्किल से आया हूं. 2 डाक्टर वहां बैठे हैं. अंदर आने नहीं देते हैं. वे पास वाले मौलाना बहुत गंभीर हैं. उन से लोग मिलने आए थे. मैं साथ हो लिया.

बाबा- कुछ कर कामेसर. पता नहीं कौन सी दवा दी है, नींद ही नींद आती है.

कामेसर- वहां सब यही कहते हैं कि आप समाधि मेें हैं, वहां तो विमान की तैयारी की जा रही है. बैंड वालों को भी बुक कर लिया गया है.

बाबा- (कुछ सोचता है) हूं, जानकी मिली?

कामेसर- कौन, मां? वे तो आई थीं, पर बापू ने ही रोक लिया.

बाबा- (गंभीर स्वर में) ठीक ही किया.

(बाबा की आंखें मुंदने लगती हैं और वे लुढ़क जाते हैं.)

(पास के कमरे से रोने की आवाज. कामेसर उधर जाता है. 2 व्यक्ति स्ट्रैचर लिए हुए, जिस पर सफेद कपड़े से ढका कोई शव है, उधर से जा रहे हैं.)

कामेसर- रुको यार.

पहला व दूसरा- क्या बात है?

कामेसर- इसे कहां ले जा रहे हो?

पहला व दूसरा- यह लावारिस है, इसे शवगृह ले जा रहे हैं.

कामेसर- कौन था यह?

पहला- कोई फकीर था, भीख मांगता होगा, मर गया.

कामेसर- वहां क्या होगा?

दूसरा- वहां रख देंगे, और क्या. लावारिस है.

(कामेसर पहले वाले के कान में धीरेधीरे फुसफुसा कर कुछ कहता है.)

पहला- नहीं.

दूसरा- क्या?

(पहला दूसरे के कान में फुसफुसाता है. सौदा 50 में तय होता है. वे दोनों रुक जाते हैं, बाबा को स्ट्रैचर पर लिटा कर उस व्यक्ति को बाबा के बिस्तर पर लिटा कर उसे चादर से ढक देते हैं. कामेसर दूसरे दरवाजे से बाबा को ले कर बाहर हो जाता है.)

(मंच पर अंधेरा, पार्श्व संगीत में सितार बज रहा है. अचानक प्रकाश, मोबाइल की घंटी बज रही है.)

शास्त्रीजी- हां, हां क्या खबर है?

उधर से आवाज आ रही है- पंडितजी, बाबा नहीं रहे, कब गए पता नहीं, पर उन के बिस्तर पर बाबा का शरीर सफेद चादर से ढका हुआ है, उन की ड्यूटी पर आया हूं, कुछ कह नहीं सकता. बाबा कब शांत हुए, पर बाबा अब नहीं रहे.

(इधरउधर से लोग दौड़ रहे हैं, मंच पर कुछ लोग शास्त्री के पास ठहर जाते हैं. शिवा रोती हुई आती है और मंच पर धड़ाम से गिर जाती है.)

शिवा- बाबा नहीं रहे, मुझे भी साथ ले जाते. (करुण विलाप)

शास्त्रीजी- (रोते हुए) जानकी… बाबा नहीं रहे.

(रोती हुई जानकी आती है. मंच पर अफरातफरी मच गई है.)

शास्त्रीजी- हांहां, तैयारी करो, कामेसर कहां है? प्रेस वालों को बुलाओ, विमान निकलेगा, बैंड बाजे बुलाओ, सभी अखाड़े वालों को फोन करो, बाबा नहीं रहे, चादर तो संप्रदाय वाले ही पहनाएंगे.

(स्वामी चेतनपुरी, जो कोने में खड़ा है, आगे बढ़ता है.)

चेतनपुरी- क्या कहा? बाबा पुरी थे. हमारे दशनामी संप्रदाय के थे. सारी रस्में उसी तरह से होंगी. दशनामी अखाड़े को मैं ने खबर दे दी है. श्यामपुरीजी आने वाले हैं. जब तक वे नहीं आते, आप यहां की किसी चीज को हाथ न लगावें. यह आश्रम हमारे पुरी अखाड़े का है.

शिवा- (दहाड़ती है) तू कौन है मालिक बनने वाला?

चेतनपुरी- (गुर्राता है) जबान संभाल कर बात कर. इतने दिनों तक हम ने मुंह नहीं खोला, इस का यह मतलब नहीं कि हम कायर हैं. हम तुझ जैसी गंदी औरत के मुंह नहीं लगते.

शिवा- (गरजती है) तू यहां हमारा अपमान करता है अधर्मी, तेरा खून पी जाऊंगी.

शास्त्रीजी- आप संन्यासी हैं, आप लडि़ए मत, यह दुख की घड़ी है, लोग क्या कहेंगे?

चेतनपुरी- (हंसता है) लोग क्या कहेंगे…तू ने अपने परिवार का घर भर लिया. यहां की सारी संपत्ति लील गया. क्या हमें नहीं पता. बरसाने में कथा बांचने वाला यहां का मठाधीश बन गया.

शास्त्री- चुप कर, नहीं तो…

(मंच पर तेज शोर मच जाता है. धीरेधीरे अंधेरा हलका होता है. दाएं पार्श्व से किसी का चेहरा मंच पर झांकता हुआ दिखाई पड़ता है. दूसरी तरफ धीमी रोशनी हो रही है.)

(शिवा डरते हुए, तेज आवाज में हनुमान चालीसा गाती है. सब लोग उस के साथ धीरेधीरे गाते हैं.)

शास्त्रीजी- कोई था.

चेतनपुरी- हां, एक चेहरा तो मैं ने भी देखा था.

शास्त्रीजी- कितना डरावना चेहरा था.

(पीछे से थपथपथप की आवाज आ रही है जैसे कोई चल रहा हो…कोई इधर ही आ रहा है. मंच पर फिर अंधेरा हो जाता है, दाएं पार्श्व में बाबा का प्रवेश. थका हुआ, धीरेधीरे चल रहा है.)

बाबा- क्या हो गया यहां? पहले कैसी खुशहाली थी. सब उजड़ गया. अरे, सब चुप क्यों हैं?

नेपथ्य से आवाजें आ रही हैं –

‘शास्त्रीजी, बैंड वाले आ गए हैं.’

‘अभी विमान भी आ गया है.’ (पोंपोंपों वाहनों की आवाजें.)

‘बाबा श्यामपुरी पधारे हैं.’

बाबा- इतने लोग यहां आए हैं. यहां क्या हो रहा है?

शास्त्रीजी- (उठ कर खड़ा हो जाता है… घबराते हुए) आप… आप, आप…

बाबा- नहीं पहचाना, शास्त्री, मैं बाबा हूं, बाबा.

शास्त्रीजी- बाबा…बाबा (उस का गला भर्रा जाता है, वह बेहोश हो कर नीचे गिर जाता है.)

(शिवा खड़ी होती है, बाबा को देखती है और चीखती हुई भाग जाती है.)

बाबा- अरे, सब डर गए. मैं बाबा हूं, बाबा.

(तभी कामेसर का प्रवेश)

कामेसर- बाबा, आप आ गए, मैं तो वहां आप की तलाश कर रहा था. वे सफाई वाले आ गए हैं, उन्हें 50 हजार रुपए देने हैं.

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शास्त्रीजी- कामेसर.

बाबा- शास्त्री, मैं मर कर भूत हो गया हूं. मुझ से डरो…डरो…डरो…डरो.

कामेसर- बाबा, आप बैठ जाओ, गिर पड़ोगे. (और वह दौड़ कर कुरसी लाता है.)

बाबा- मैं भूत हूं… डरो मुझ से. भूत मर कर भी जिंदा है. (बाबा जोर से हंसता है.) बजाओ, बैंड बजाओ, नाचो. कामेसर, मिठाई बांट, देख तेरा बाबा मर कर भूत बन गया है. भूत, भूत..

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Short Story: इक विश्वास था

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

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मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

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‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

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इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

Short Story: यह कैसा सौदा

जैसे ही उस नवजात बच्चे ने दूध के लिए बिलखना शुरू किया वैसे ही सब सहम गए. हर बार उस बदनसीब का रोना सब के लिए तूफान के आने की सूचना देने लगता है, क्योंकि बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही संगीता पर जैसे पागलपन का दौरा सा पड़ जाता है. वह चीखचीख कर अपने बाल नोचने लगती है. मासूम रिया और जिया अपनी मां की इस हालत को देख कर सहमी सी सिसकने लगती हैं. ऐसे में विक्रम की समझ में कुछ नहीं आता कि वह क्या करे? उस 10 दिन के नवजात के लिए दूध की बोतल तैयार करे, अपनी पत्नी संगीता को संभाले या डरीसहमी बेटियों पर प्यार से हाथ फेरे.

संगीता का पागलपन हर दिन बढ़ता ही जा रहा है. एक दिन तो उस ने अपने इस नवजात शिशु को उठा कर पटकने की कोशिश भी की थी. दिन पर दिन स्थिति संभलने के बजाय विक्रम के काबू से बाहर होती जा रही थी. वह नहीं जानता था कि कैसे और कब तक वह अपनी मजदूरी छोड़, घर पर रह कर इतने लोगों के भोजन का जुगाड़ कर पाएगा, संगीता का इलाज करवा पाएगा और दीक्षित दंपती से कानूनी लड़ाई लड़ पाएगा. आज उस के परिवार की इस हालत के लिए दीक्षित दंपती ही तो जिम्मेदार हैं.

विक्रम जानता था कि एक कपड़ा मिल में दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह कभी भी इतना पैसा नहीं जमा कर पाएगा जिस से संगीता का अच्छा इलाज हो सके और इस के साथ बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा और विवाह आदि की जिम्मेदारियां भी निभाई जा सकें. उस पर कोर्टकचहरी का खर्चा. इन सब के बारे में सोच कर ही वह सिहर उठता. इन सब प्रश्नों के ऊपर है इस नवजात शिशु के जीवन का प्रश्न, जो इस परिवार के लिए दुखों की बाढ़ ले कर आया है जबकि इसी नवजात से उन सब के जीवन में सुखों और खुशियों की बारिश होने वाली थी. पता नहीं कहां क्या चूक हो गई जो उन के सब सपने टूट कर ऐसे बिखर गए कि उन टूटे सपनों की किरचें इतनी जिंदगियों को पलपल लहूलुहान कर रही हैं.

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कोई बहुत पुरानी बात नहीं है. अभी कुछ माह पहले तक विक्रम का छोटा सा हंसताखेलता सुखी परिवार था. पतिपत्नी दोनों मिल कर गृहस्थी की गाड़ी बखूबी चला रहे थे. मिल मजदूरों की बस्ती के सामने ही सड़क पार धनवानों की आलीशान कोठियां हैं. उन पैसे वालों के घरों में आएदिन जन्मदिन, किटी पार्टियां जैसे छोटेबड़े समारोह आयोजित होते रहते हैं. ऐसे में 40-50 लोगों का खाना बनाने के लिए कोठियों की मालकिनों को अकसर अपने घरेलू नौकरों की मदद के लिए खाना पकानेवालियों की जरूरत रहती है. संगीता इन्हीं घरेलू अवसरों पर कोठियों में खाना बनाने का काम करती थी. ऐसे में मिलने वाले खाने, पैसे और बख्शिश से संगीता अपनी गृहस्थी के लिए अतिरिक्त  सुविधाएं जुटा लेती थी.

पिछले साल लाल कोठी में रहने वाले दीक्षित दंपती ने एक छोटे से कार्यक्रम में खाना बनाने के लिए संगीता को बुलाया था. संगीता सुबहसुबह ही रिया और जिया को अच्छे से तैयार कर के अपने साथ लाल कोठी ले गई थी. उस दिन संगीता और उस की बेटियां ढेर सारी पूरियां, हलवा, चने, फल, मिठाई, पैसे आदि से लदी हुई लौटी थीं. तीनों की जबान श्रीमती दीक्षित का गुणगान करते नहीं थक रही थी. उन की बातें सुन कर विक्रम ने हंसते हुए कहा था, ‘‘सब पैसों का खेल है. पैसा हो तो दुनिया की हर खुशी खरीदी जा सकती है.’’

संगीता थोड़ी भावुक हो गई. बोली, ‘‘पैसे वालों के भी अपने दुख हैं. पैसा ही सबकुछ नहीं होता. पता है करोड़ों में खेलने वाले, बंगले और गाडि़यों के मालिक दीक्षित दंपती निसंतान हैं. शादी के 15 साल बाद भी उन का घरआंगन सूना है.’’

‘‘यही दुनिया है. अब छोड़ो इस किस्से को. तुम तीनों तो खूब तरमाल उड़ा कर आ रही हो. जरा इस गरीब का भी खयाल करो. तुम्हारे लाए पकवानों की खुशबू से पेट के चूहे भी बेचैन हो रहे हैं,’’ विक्रम ने बात बदलते हुए कहा.

संगीता तुरंत विक्रम के लिए खाने की थाली लगाने लगी और रिया और जिया अपनेअपने उपहारों को सहेजने में लग गईं.

अगले ही दिन श्रीमती दीक्षित ने अपने नौकर को भेज कर संगीता को बुलवाया था. संदेश पाते ही संगीता चल दी. वह खुश थी कि जरूर कोठी पर कोई आयोजन होने वाला है. ढेर सारा बढि़या खाना, पैसे, उपहारों की बात सोचसोच कर उस के चेहरे की चमक और चाल में तेजी आ रही थी.

संगीता जब लाल कोठी पहुंची तो उसे मामला कुछ गड़बड़ लगा. श्रीमती दीक्षित बहुत उदास और परेशान सी लगीं. संगीता ने जब बुलाने का कारण पूछा तो वे कुछ बोली नहीं, बस हाथ से उसे बैठने का इशारा भर किया. संगीता बैठ तो गई लेकिन वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही. फिर धीरे से अपने आंसू पोंछते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारी शादी को 15 साल हो गए लेकिन हमें कोई संतान नहीं है. इस बीच 2 बार उम्मीद बंधी थी लेकिन टूट गई. विदेशी डाक्टरों ने बहुत इलाज किया लेकिन निराशा ही हाथ लगी. अब तो डाक्टरों ने भी साफ शब्दों में कह दिया कि कभी मां नहीं बन पाऊंगी. संतान की कमी हमें भीतर ही भीतर खाए जा रही है.’’

संगीता को लगा श्रीमती दीक्षित ने अपना मन हलका करने के लिए उसे बुलवाया है. संगीता तो उन का यह दर्द कल ही उन की आंखों में पढ़ चुकी थी. वह सबकुछ चुपचाप सुनती रही.

‘‘संगीता, तुम तो समझ सकती हो, मां बनना हर औरत का सपना होता है. इस अनुभव के बिना एक औरत स्वयं को अधूरा समझती है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं बीबीजी, आप तो पढ़ीलिखी हैं, पैसे वाली हैं. कोई तो ऐसा रास्ता होगा जो आप के सूने जीवन में बहार ले आए?’’ श्रीमती दीक्षित के दुख में दुखी संगीता को स्वयं नहीं पता वह क्या कह रही थी.

‘‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है,’’ कह कर श्रीमती दीक्षित चुप हो गईं.

‘‘मैं…मैं…भला आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’ संगीता असमंजस में पड़ गई.

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‘‘तुम अपनी छोटी बेटी जिया को मेरी झोली में डाल दो. तुम्हें तो कुदरत ने 2-2 बेटियां दी हैं,’’ श्रीमती दीक्षित एक ही सांस में कह गईं.

यह सुनते ही जैसे संगीता के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उस का दिमाग जैसे सुन्न हो चला था. वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई, ‘‘बीबीजी, आप मुझ गरीब से कैसा मजाक कर रही हैं?’’

‘‘नहींनहीं, संगीता, यह कोई मजाक नहीं. हम सचमुच तुम्हारी जिया को पूरी कानूनी कार्यवाही के साथ अपनी बेटी बनाना चाहते हैं.’’

संगीता के सामने कीमती कपड़ों और गहनों से लदी एक धनवान औरत आज अपनी झोली फैलाए बैठी थी लेकिन वह न तो उस की खाली झोली भर सकती थी और न ही अपनी झोली पर गुमान ही कर सकती थी. उस की आंखों से आंसू बह चले.

श्रीमती दीक्षित जानती हैं कि उन्होंने एक मां से उस के दिल का टुकड़ा मांगा है लेकिन वे भी क्या करें? अपने सूने जीवन और सूने आंगन में बहार लाने के लिए उन्हें मजबूर हो कर ऐसा फैसला लेना पड़ा है. वरना सालों से वे (दीक्षित दंपती) किसी दूसरे का बच्चा गोद लेने के लिए भी कहां तैयार हो रहे थे. कल जिया को देख कर पता नहीं कैसे उन का मन इस के लिए तैयार हो गया था.

उन्होंने संगीता की गरीबी पर एक भावुकता भरा पैंतरा फेंका, ‘‘संगीता, क्या तुम नहीं चाहोगी कि तुम्हारी बेटी बंगले में पहुंच जाए और राजकुमारी जैसा जीवन जिए?’’

‘‘हम गरीब हैं बीबीजी, हमारे जैसे साधन, वैसे ही सपने. हमें तो सपनों में भी फांके और अभाव ही आते हैं,’’ संगीता अपने आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘इसलिए कहती हूं कि कीमती सपने देखने का एक अवसर मिल रहा है तो उस का लाभ उठा और अपनी छोटी बेटी मेरी झोली में डाल दे,’’ श्रीमती दीक्षित ने फिर अपना पक्ष रखा.

‘‘कोई कितना भी गरीब क्यों न हो बीबीजी, अपनी जरूरत के वक्त गहना, जमीन, बरतन आदि बेचेगा, पर औलाद तो कोई नहीं बेचता न?’’ कहते हुए संगीता उठ कर चल दी.

‘‘ऐसी कोई जल्दी नहीं है संगीता, तू अपने आदमी से भी बात कर, हो सकता है उसे हमारी बात समझ में आ जाए,’’ श्रीमती दीक्षित ने संगीता को रोकते हुए कहा.

‘‘नहीं बीबीजी, मरद से क्या पूछना है? हमारी बेटियां हमारी जिम्मेदारी बेशक हैं, बोझ नहीं हैं. मैं तो कुछ और ही सोच कर आई थी,’’ कहते हुए संगीता तेज कदमों से बाहर निकल गई.

घर पहुंचते ही संगीता रिया और जिया को सीने से चिपटा कर फूटफूट कर रो पड़ी. विक्रम को समझ नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है. वह कुछ पूछता इस से पहले संगीता ने ही उसे सारी कहानी सुना दी.

सब सुन कर विक्रम को अपनी गरीबी पर झुंझलाहट हुई. फिर भी अपने को संयत कर उस ने संगीता को समझाया कि जब वह अपनी जिया को देने के लिए तैयार ही नहीं है तो कोई क्या कर लेगा. लेकिन मन ही मन वह डर रहा था कि पैसे वालों का क्या भरोसा. कहीं जिया को अगवा कर विदेश ले गए तो वह कहां फरियाद करेगा और कौन सुनेगा उस गरीब की?

वह रात संगीता और विक्रम पर बहुत भारी गुजरी. कितने ही बुरेबुरे खयाल रात भर उन्हें परेशान करते रहे. उन का प्यार और जिया का भविष्य रात भर तराजू में तुलता रहा. रात भर आंखें डबडबाती रहीं, दिल डूबता रहा.

सुबह होते ही दीक्षित साहब ने विक्रम को कोठी पर बुलवाया. बुलावे के नाम पर तिलमिला गया और वहां पहुंचते ही चिल्लाया, ‘‘नहीं दूंगा मैं अपनी बेटी. नहीं चाहता मैं कि मेरी बेटी राजकुमारी सा जीवन जिए. आप इतने ही दयावान हैं तो दुनिया भरी है गरीबों से, अनाथों से, हम पर ही इतनी मेहरबानी क्यों?’’

उस की बात सुन कर दीक्षित दंपती को जरा भी बुरा नहीं लगा. बड़े प्यार से उस का स्वागत किया और उसे अपने बराबर सोफे पर बिठाया. बड़ी सहजता से उन्होंने पूरी बात समझाते हुए अपनी याचना उस के सामने रखी, लेकिन विक्रम बारबार मना ही करता रहा. तब उन्होंने विक्रम के सामने एक ऐसा प्रस्ताव रख दिया जिसे सुन कर वह हैरान रह गया. उस ने तो पहले इस बारे में कभी सुना ही नहीं था.

दीक्षित दंपती ने विक्रम के सामने संगीता की कोख किराए पर लेने का प्रस्ताव रखा था. विक्रम का चेहरा बता रहा था कि वह कुछ नहीं समझा है तो उन्होंने विक्रम को समझाया कि जैसे आजकल हम जरूरतमंदों को अपना खून, आंखें, दान करते हैं वैसे ही किसी निसंतान दंपती को संतान का सुख देने के लिए कोख का भी दान किया जा सकता है. ऐसे निसंतान मातापिता को किसी की संतान गोद नहीं लेनी पड़ती बल्कि वे अपनी ही संतान पा सकते हैं.

विक्रम तब भी कुछ नहीं समझा तो दीक्षित साहब ने उसे फिर समझाया, ‘‘बस, तुम इतना समझो कि ऐसे में डाक्टरों की मदद से संतान के इच्छुक पिता का बीज किराए की कोख में रोप दिया जाता है जिसे 9 महीने तक गर्भ में रख कर शिशु का रूप देने वाली मां, सैरोगेट मां कहलाती है. हमारी सरकार ने इसे कानूनी तौर पर वैध भी घोषित कर दिया है.’’

इतना ही नहीं उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस दौरान वे संगीता के इलाज, दवाइयों, अस्पताल के खर्च के अलावा उस की खुराक आदि का पूरा खयाल रखेंगे. संगीता भले ही लड़के को जन्म दे या लड़की को उन्हें वह बच्चा स्वीकार्य होगा और वे उसे ले कर विदेश जा बसेंगे. यह सब पूरी लिखापढ़ी और कानूनी कार्यवाही के साथ होगा. संगीता जिस दिन डाक्टरी प्रक्रिया से गुजर कर गर्भवती हो जाएगी उन्हें पहली किस्त के रूप में 50 हजार रुपए दे दिए जाएंगे. उस के बाद बच्चे के जन्म पर उन्हें 2 लाख रुपए और दिए जाएंगे.

दीक्षित साहब ने सबकुछ विक्रम को कुछ इस तरह समझाया कि उस ने संगीता को इस काम के लिए राजी कर लिया. एक परिवार का सूना आंगन बच्चे की किलकारियों से गूंज उठेगा और उन का अपना जीवन अभावों की दलदल से निकल कर खुशियों से भर जाएगा. जल्दी ही पूरी डाक्टरी प्रक्रिया और कागजी कार्यवाही से गुजर कर विक्रम और संगीता अपनी बेटियों के साथ दीक्षित की कोठी के पीछे नौकरोें के क्वार्टर में रहने को आ गए. उन्हें पहली किस्त के रूप में 50 हजार रुपए भी मिल गए थे.

समय सपनों की तरह बीतने लगा था. संगीता की हर छोटीबड़ी खुशी का खयाल दीक्षित दंपती रखने लगे थे. संगीता की सेवा के लिए अलग से एक आया रखी गई थी. रिया और जिया अच्छी तरह रहने लगी थीं. विक्रम यह सब देख कर खुश था कि उस का परिवार सुखों के झूले में झूलने लगा था.

संगीता अपनी बेटियों के खिले चेहरों को देख कर, अपने पति को निश्चिंत देख कर खुश थी लेकिन अपने आप से खुश नहीं हो पाती थी. पता नहीं क्यों, अपने अंदर पल रहे जीव से वह जुड़ नहीं पा रही थी. उसे वह न अपना अंश लगता था न उस के प्रति ममता ही जाग रही थी. उसे हर पल लगता कि वह एक बोझ उठाए ड्यूटी पर तैनात है और उसे अपने परिवार के सुनहरे भविष्य के लिए एक निश्चित समय तक यह बोझ उठाना ही है.

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भले ही अपनी दोनों बेटियों के जन्म के दौरान संगीता ने बहुत कष्ट व कठिनाइयां झेली थीं. तब न डाक्टरी इलाज था और न अच्छी खुराक ही थी. उस पर घर का सारा काम भी उसे करना पड़ता था फिर भी उसे वह सब सुखद लगता था, लेकिन अब कदमकदम पर बिछे फूल भी उसे कांटों जैसे लगते थे. अपने भीतर करवट लेता नन्हा जीव उसे रोमांचित नहीं करता था. उस के दुनिया में आने का इंतजार जरूर था लेकिन खुशी नहीं हो रही थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जिस का दीक्षित दंपती को बहुत बेसब्री से इंतजार था. सुबह लगभग 4 बजे का समय था, संगीता प्रसव पीड़ा से बेचैन होने लगी. घबराया सा विक्रम दौड़ कर कोठी में खबर करने पहुंचा. संगीता को तुरंत गाड़ी में बिठा कर नर्सिंगहोम ले जाया गया. महिला डाक्टरों की एक पूरी टीम लेबररूम में पहुंच गई जहां संगीता दर्द से छटपटा रही थी.

प्रसव पूर्व की जांच पूरी हो चुकी थी. अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि लेबर रूम से एक नर्स बाहर आ कर बोली कि संगीता ने बेटे को जन्म दिया है. यह खबर सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई जबकि विक्रम का चेहरा लटक गया कि काश, 2 बेटियों के बाद संगीता की कोख से जन्म लेने वाला यह उन का अपना बेटा होता, लेकिन पराई अमानत पर कैसी नजर? विक्रम अपने मन को समझाने लगा.

गुलाबी रंग के फरवाले बेबी कंबल में लपेट कर लेडी डाक्टर जैसे ही बच्चे को ले कर बाहर आई श्रीमती दीक्षित ने आगे बढ़ कर उसे गोद में ले लिया. संगीता ने आंखों में आंसू भर कर मुंह मोड़ लिया. दीक्षित साहब ने धन्यवादस्वरूप विक्रम के हाथ थाम लिए. जहां दीक्षित साहब के चेहरे पर अद्भुत चमक थी वहीं विक्रम का चेहरा मुरझाया हुआ था.

तभी श्रीमती दीक्षित चिल्लाईं, ‘‘डाक्टर, बच्चे को देखो.’’

डाक्टरों की टीम दौड़ती हुई उन के पास पहुंची. बच्चे का शरीर अकड़ गया. नर्सें बच्चे को ले कर आईसीयू की तरफ दौड़ीं. डाक्टर भी पीछेपीछे थे. बच्चा ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था. पल भर में ही आईसीयू के बाहर खड़े चेहरों पर दुख की लकीरें खिंच गईं.

एक डाक्टर ने बाहर आ कर बड़े ही दुख के साथ बताया कि बच्चे की दोनों टांगें बेकार हो गई हैं. बहुत कोशिश के बाद उस की जान तो बच गई है लेकिन अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह सामान्य बच्चे की तरह होगा या नहीं क्योंकि अचानक उस के दिमाग में आक्सीजन की कमी से यह सब हुआ है.

डाक्टर की बात सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लग गया. विक्रम को वहां छोड़ कर वे वहां से चले गए. एक पल में आया तूफान सब की खुशियां उड़ा ले गया था. 3 दिन बाद संगीता की नर्सिंगहोम से छुट्टी होनी थी. नर्सिंगहोम का बिल और संगीता के नाम 2 लाख रुपए नौकर के हाथ भेज कर दीक्षित साहब ने कहलवाया था कि वे आउट हाउस से अपना सामान उठा लें.

पैसे वालों ने यह कैसा सौदा किया था? पत्नी की कोख का सौदा करने वाला विक्रम अपने स्वाभिमान का सौदा न कर सका. उसे वे 2 लाख रुपए लेना गवारा न हुआ. उस ने पैसे नौकर के ही हाथ लौटा कर अमीरी के मुंह पर वही लात मारी थी जो दीक्षित परिवार ने संगीता की कोख पर मारी थी.

नर्सिंगहोम से छुट्टी के समय नर्स ने जब बच्चा संगीता की गोद में देना चाहा तो वह पागलों की तरह चीख उठी, ‘‘यह मेरा नहीं है.’’ 9 महीने अपनी कोख में रख कर भी इस निर्जीव से मांस के लोथड़े से वह न तो कोई रिश्ता जोड़ पा रही थी और न तोड़ ही पा रही थी. उस की छाती में उतरता दूध उसे डंक मार रहा था. उस के परिवार के भविष्य पर अंधकार के काले बादल छा गए थे.

उस दिन जब विक्रम आउट हाउस से अपना सामान उठाने गया तो कोठी के नौकरों से पता लगा कि दीक्षित दंपती तो विदेश रवाना हो गए हैं.

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कोहरा: राघव का काम क्यों अच्छा चल रहा था?

जनवरी में कड़ाके की ठंड और कोहरे के चलते दोपहर के बाद ही लगता है दिन ढल गया. पिछले एक महीने से कोहरे की यही स्थिति है. लगता है इस बार सर्दी पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगी.

शव यात्रा की बस जैसे ही श्मशान घाट पहुंची, कई लोगों ने आ कर बस को घेर लिया. बस के साथ 20-25 गाडि़यों का काफिला भी था. लगता था कि किसी बड़े आदमी का श्मशान पर आना हुआ है वरना आजकल 10-15 आदमी भी मुश्किल से जुट पाते हैं. अब किसे फुरसत है जो दो कदम जाने वाले के साथ चल सके.

अपनीअपनी गाडि़यों में से निकल कर लोग शव वाहन के पास आ कर जमा हो गए. अच्छी दक्षिणा मिलने की उम्मीद में राघव की आंखों में चमक आ गई. वह पिछले 20 सालों से अपने पूरे परिवार के साथ यहां है. अब तो उस का बेटा भी उस के काम में सहयोग करता है. बड़े बेटे खिल्लू ने तो चाय की गुमटी में एक छोटामोटा होटल ही खोल लिया है. अंदर बैठने की भी व्यवस्था है. 8-10 लोग कुरसियों पर बैठ कर आराम से चाय पी सकते हैं. दुकान में बीड़ी, सिगरेट, माचिस और बिस्कुट सभी कुछ मिलता है.

दुकान के करीब एक नल भी है. लोग हाथमुंह धो कर अकसर चाय की फरमाइश कर ही देते हैं. गरमियों में ठंडा भी मिलता है. कई बार भीड़ ज्यादा हो तो खिल्लू आवाज लगा कर जीवन को भी बुला लेता है. जीवन 14-15 साल का उस का छोटा भाई है. मां भी अकसर हाथ बंटाती रहती हैं. एक नौकर भी दुकान पर है. आजकल ठंड के कारण लोग भट्ठी के पास सिमट आते हैं और हाथ सेंकते रहते हैं. चाय का आर्डर भी खूब मिलता है. एक मुर्दे को जलाने में 3 साढ़े 3 घंटे तो लग ही जाते हैं.

राघव हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया, ‘‘बाबूजी, इधर आइए. यह शेड खाली है.’’

शव वाहन के साथ आए आदमियों में से एक जा कर शेड देख आया. लोग अरथी को उठा कर कंधों पर रखते तभी एक लाला टाइप आदमी ने टोक दिया :

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‘‘बाबूजी, 10 मन लकडि़यां काफी होंगी?’’

तभी राघव चीखा, ‘‘अरे, पूछता क्या है? तुझे नहीं पता कि एक मुर्दे के लिए कितनी लकडि़यां चाहिए. बाबूजी क्या मोलभाव करेंगे? कौन रोजरोज मरने आता है. बस, यही एक अंतिम खर्चा है.’’

राघव की बातें सुन कर वह आदमी जाने लगा. राघव ने फिर कहा, ‘‘रज्जो, ध्यान रखना लकडि़यां सूखी हों.’’

‘‘और बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘फूल, बताशे, घी, गंगाजल आदि?’’

‘‘नहीं, हमारे पास सब हैं,’’ शव के साथ आए एक अन्य व्यक्ति ने उत्तर दिया.

‘‘और पंडित?’’

एक व्यक्ति ने गाड़ी में अंदर झांक कर मालूम किया तो पता चला कि पंडित साथ नहीं आया था.

‘‘घबराने की बात नहीं है बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘यहां सब व्यवस्था हो जाएगी,’’ फिर आवाज लगाई, ‘‘अरे, जीवन, जा जरा पंडितजी को बुला ला.’’

सबकुछ पल भर में तैयार. एक आवाज पर हर काम में पारंगत आदमी मिल जाता है. कोई झंझट नहीं. बस, कुछ पैसे चाहिए. पंडित भी कुछ मिनटों में हाजिर हो गया.

अरथी को एक टिन शेड के नीचे ले जाया गया. पंडित ने जमीन पर गंगाजल छिड़का, थोड़ा दूध भी छिड़का, कुछ फूलों की पंखडि़यां और बताशे डाले. फिर अरथी को नीचे रखने का इशारा किया. इस दौरान वह मंत्रों जैसा कुछ संस्कृत में बुदबुदाता रहा. इसी समय लकडि़यां भी आ गईं. साथ आए लोग चिता तैयार करने के लिए आगे बढ़े तभी 2 लोगों ने टोका :

‘‘बाबूजी, यह हमारा काम है. अभी किए देते हैं.’’

उन दोनों ने टिन शेड के एक कोने में चिता तैयार कर दी. अरथी खोल कर उस पर पड़ी चादर, कफन, रूमाल, गोले, रुपए चिता तैयार करने वालों ने समेट लिए. पंडित ने फिर गंगाजल छिड़का, फूल चढ़ाए और साथ आए लोगों से अरथी को चिता पर रखने को कहा. पंडित कर्मकांड कराता रहा और कपाल क्रिया तक वहीं बना रहा. साथ आए लोग चिता के पूरी तरह जलने के इंतजार में इधरउधर छिटक कर बैठ गए. कुछ चाय की गुमटी पर रुक गए. ठंड भी खूब पड़ रही है. कोहरा भी खूब छाया है. चाय की भट्ठी पर कुछ लोग हाथ सेंकने लगे. राघव घूमघूम कर देखता कि चिता की आग कहीं से धीमी तो नहीं पड़ गई. हाथ में पकड़े बांस से जलते लट्ठों को कुरेद देता. आग और तेज हो जाती. शेड के दूसरे कोने में भी चिता जल रही थी. राघव उधर भी जा कर देख आता और वहां भी उलटपुलट कर देता.

5 बड़ेबड़े शेड थे और सभी में 2-2, 3-3 चिताएं जल रही थीं. वैसे भी एक शेड में 5-6 चिताएं आराम से जल सकती थीं. चिताओं की लपटों की गरमी से ठंड में ठंड का एहसास नहीं होता. राघव की तरह ही बनवारी, श्यामू, जग्गू और काले खां के भी शेड्स हैं. किसी को पलक झपकाने की भी फुरसत नहीं है.

कोहरे के कारण खूब ऐक्सीडैंट हो रहे हैं. खूब चिताएं जल रही हैं. ठंड या बीमारी से जाड़ों में अधिक मौत नहीं होतीं, लेकिन इस बार सभी पर लक्ष्मी की अपार कृपा बरस रही है. लगता है पूरे साल की कमाई कुछ ही दिनों में हो जाएगी. इन सब के लिए मरने वाला आदमी 1,000-500 का नोट है. कोई मोहममता नहीं. अपने काम में मोहममता कैसी? आदमी अपना व्यवसाय देखता है. वे सभी व्यवसाय से बंधे हैं. पंडित को भी पूजा कराने की फुरसत नहीं. सभी के रेट निश्चित हैं. चाय की गुमटी के बाहर की दीवार पर रेटलिस्ट लगी है. मुर्दे के घरवाले उसी के मुताबिक सब के पैसे गिन कर खिल्लू को थमा देते हैं. वही सब का हिसाब चुकता कर देता है.

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खिल्लू ने एक मोटरसाइकिल भी ले ली है. राघव का पक्का दोमंजिला मकान बन गया है. पत्नीबच्चे अब भूख से नहीं बिलखते. चिता की आग में उन की भूख जल गई है. कितना कुछ बदल गया है. शुरूशुरू में मुर्दे को छूते राघव के हाथ कांपे थे, दिल रोया था. सारा दिन मन खराब रहा कि मुर्दे की कमाई खाएगा. कफन ओढ़ेगा बिछाएगा, लेकिन धीरेधीरे आदत बन गई.

कफन और चादरें साप्ताहिक बाजार में बिक जाती हैं. सोच को एक तरफ झटक राघव जल्दीजल्दी बांस चलाने लगा. मुर्दा पूरा फूंकने की गारंटी उसी की है. परसों अस्थियां चुनी जाएंगी. राघव पूरी तरह चुस्तदुरुस्त है. तभी ‘राम-नाम-सत्य है’ की आवाज कानों में पड़ी. एक और अरथी आ कर रुक गई. पहली अरथी के लोग धीरेधीरे खिसकने लगे. राघव भी बांस एक तरफ टिका आने वाली अरथी की ओर लपक लिया.

पुलिस वैरीफिकेशन का चक्कर

किसी भी अच्छे काम को अंजाम देने में तमाम कठिनाइयां तो आती ही हैं. मानवाधिकारों के लिए बेचारे अमेरिका ने किसकिस से बैर नहीं ले डाला? हमारा मुल्क इसीलिए भेडि़याधसान कहलाता है क्योंकि हम दूसरों के कहे में जल्दी आ जाते हैं, अपना दिमाग खर्च ही नहीं करना चाहते. हमारे यहां गांव से ले कर कसबों तक, शहरों से ले कर संसद तक तमाम बड़ेबड़े कांड हो रहे हैं पर हर विफलता के लिए कोई न कोई बढि़या सा बहाना गढ़ कर मामला रफादफा कर दिया जाता है.

नक्सलवाद की समस्या पर एक माननीय महोदय का कहना था कि उस से प्रभावित क्षेत्रों में लोग तीरकमान चलाने में बहुत अच्छे हैं लिहाजा, वे इस समस्या से निबटने के लिए खुद ही काफी हैं. एक अन्य ने वहां विकास योजनाओं पर जोर देने की बात कही है.

देश के तमाम हिस्सों में होने वाले अन्य अपराधों में सफलता भले ही न मिले पर एक नया नुक्ता उछाल दिया जाता है कि अमुक संस्था ने अपने कर्मचारियों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं कराया था. मकानमालिकों को किराएदारों के लिए उन के स्थायी पते पर जा कर पुलिस वैरीफिकेशन कराए जाने के निर्देश हैं. अगर आप कोई घरेलू नौकर रखना चाहते हैं तो पहले उस का पुलिस वैरीफिकेशन कराइए.

अमेरिका इतना अच्छा देश है कि हर संदर्भ वहां एक आदर्श उदाहरण पेश करता हुआ मिलता है. अब इस वैरीफिकेशन को ही ले लीजिए. हमारा कोई भी नागरिक, भले ही वह कोई बड़े नाम वाला मंत्री या अभिनेता ही क्यों न हो, जैसे ही उन के देश की सीमा में प्रवेश करता है, पुलिस वैरीफिकेशन शुरू हो जाता है और वह इतनी ईमानदारी से होता है कि कभीकभी हमारा मीडिया काफी दिन तक तिलमिलाया रहता है. अगर उसे शक हो जाए तो वे हमारा ऐक्सरे करवाने में भी नहीं हिचकेंगे.

हम न तो अपनों से ईमानदारी बरतते हैं और न ही बाहर वालों से. हम किसी भी विदेशी हस्ती के आने की खबर से ही इतना अभिभूत हो जाते हैं कि उस का वैरीफिकेशन करने के बजाय यह सोचने लगते हैं कि भेंट में उस से क्या मिल सकता है. किस मद में कितना लोन या दान मिल सकता है. ऐसे में ईमानदारी से उस की जांच का प्रश्न ही कहां रह पाता है.

उन की ईमानदारी का दायरा देखिए कि उन का राष्ट्रपति हमारे यहां महात्मा गांधी की समाधि पर अगर फूल भी चढ़ाना चाहे तो उन के कुत्ते पहले कई बार चक्कर लगा कर मुतमईन हो लेते हैं कि कहीं उस समाधि में उन के साथ ही उन की लाठी न दबी रह गई हो. वे कतई नहीं चाहते कि उन के अलावा कोई भी मानव विनाशकारी हथियार रखे. आखिर यह हक तो केवल मानव अधिकार के पोषक के पास ही रहना चाहिए न.

अपने यहां किसी होटल में कोई हत्या या चोरी हो जाए तो मुख्य मुद्दा यह हो जाता है कि यहां ठहरने वालों के पते का वैरीफिकेशन करवाया गया था या नहीं. अब सोचिए कि कोई दिल्ली से लुधियाना जाए और अगली यात्रा के लिए उसे वहां 8-10 घंटे रुकना ही पड़ जाए तो पहले अपने पते का सुबूत पेश करे. अगर आप किसी स्कूटर स्टैंड पर अपना स्कूटर खड़ा करें तो अपने पते का सुबूत दिखाएं क्योंकि वह मामला भी एक तरह से किराएदारी का ही हो जाता है.

मेरे शहर में मात्र 9 दिन में बड़ीबड़ी दुकानों में चोरी की 7 वारदातें हो गईं तो एक बात खुल कर सामने आई कि उन के मालिकों ने अपने नौकरों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं करवाया था जबकि सभी चोरियों में उन के नौकरों का हाथ ही पाया गया था. अब बेचारे दुकानमालिकों का ध्यान बजाय अपने नुकसान के इस कानूनी दांवपेंच में उलझ कर रह गया.

इसी तरह होटलों में होने वाले कांडों पर अंकुश के लिए उन को ताकीद की गई कि वे बिना वैरीफिकेशन के किसी को भी अपने होटल में न ठहरने दें. इन सब के चलते जब एक बहुत बूढ़े जोड़े ने बजाय होटल के रेलवे स्टेशन पर ही रात बिताने की सोची तो वहां जी.आर.पी. वाले उन से वैरीफिकेशन के नाम पर अच्छीखासी रकम की उगाही कर ले गए. जब अपनी पत्नी को बाहर खड़ा कर उस के पति पास के सुलभ शौचालय में शौच के लिए जाने लगे तो वहां तैनात कर्मचारी ने उन को बाहर ले जा कर उन का वैरीफिकेशन करना चाहा. वे बेचारे कहते रहे कि बहुत जोर से लगी है, पर वह कर्मचारी फिर भी नहीं पिघला और सख्त लहजे में बोला, ‘‘बिना पुलिस वैरीफिकेशन आप शौच के लिए नहीं जा सकेंगे.’’

संयोग ही था कि इतने में एक सज्जन जो शौच से निवृत्त हो कर निकले थे, इस तकरार को देख कर ठिठक से गए. उन्होंने उन वृद्ध महोदय को अपने द्वारा खाली किए गए लैट्रिन बौक्स में जबरदस्ती प्रवेश करवा दिया. पर अब वह आफत उस सज्जन के सिर आ गई. वह कर्मचारी उन से भिड़ गया तो वे बोले, ‘‘मैं यहीं बैठा हूं, यह मेरा पता है. जाओ, करा लाओ पुलिस वैरीफिकेशन.’’

इस पर वह कर्मचारी बोला, ‘‘पुलिस वैरीफिकेशन कराने में तो 500 रुपए लगते हैं, वह कौन देगा?’’

‘‘जिस को गरज होगी या जिस को शक होगा,?’’ उन सज्जन ने पलट कर जवाब दिया.

इतनी देर में वृद्ध महोदय बाहर आ चुके थे, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि इस को 50 रुपए दे दो. उन की पत्नी ने 50 रुपए का नोट उस कर्मचारी के हवाले किया.

50 के नोट पर गांधीजी को हंसता देख कर कर्मचारी की वैरीफिकेशन की जरूरत पूरी हो चुकी थी. वह बस, मुसकरा दिया. इसे कहते हैं वैरीफाइड मुसकान.

एक दिन का सुलतान

मुझे उन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया. उन की मरजी, वे जानें कि क्यों दिया? कैसे दिया? मैं तो नहीं कहता कि मैं कोई बहुत बढि़या अध्यापक हूं. हां, यह तो कह सकता हूं कि मुझे पढ़ने और पढ़ाने का शौक है और बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं. यदि पुरस्कार देने का यही आधार है, तो कुछ अनुचित नहीं किया उन्होंने, यह भी कह सकता हूं.

जिस दिन मुझे पुरस्कार के बाबत सूचना मिली तरहतरह के मुखौटे सामने आए. कुछ को असली खुशी हुई, कुछ को हुई ही नहीं और कुछ को जलन भी हुई. अब यह तो दुनिया है. सब रंग हैं यहां, हम किसे दोष दें? क्या हक है हम को किसी को दोष देने का? मनुष्य अपना दृष्टिकोण बनाने को स्वतंत्र है. जरमन दार्शनिक शापनहोवर ने भी तो यही कहा था, ‘‘गौड भाग्य विधाता नहीं है, वह तो मनुष्य को अपनी स्वतंत्र बुद्धि का प्रयोग करने की पूरी छूट देता है. उसे जंचे सेब खाए तो खाए, न खाए तो न खाए. अब बहकावट में आदमी ने यदि सेब खा लिया और मुसीबत सारी मानव जाति के लिए पैदा कर दी तो इस में ऊपर वाले का क्या दोष.’’

हां, तो पुरस्कार के दोचार दिन बाद ही मुझे गौर से देखने के बाद एक सज्जन बोले, ‘‘हम ने तो आप की चालढाल में कोई परिवर्तन ही नहीं पाया. आप के बोलनेचालने से, आप के हावभाव से ऐसा लगता ही नहीं कि आप को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.’’

मैं सुन कर चुप रह गया. क्या कहता? खुशी तो मुझे हुई थी लेकिन मेरी चालढाल में परिवर्तन नहीं आया तो इस का मैं क्या करूं? जबरदस्ती नाटक करना मुझे आता नहीं. मेरी पत्नी को तो यही शिकायत रहती है कि यदि आप पहले जैसा प्यार नहीं कर सकते तो प्यार का नाटक ही कर दिया करो, हमारा गुजारा तो उस से ही हो जाएगा. हम हंस कर कह दिया करते हैं कि पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट जाएंगे ट्रेनिंग लेने और वह खीझ कर रह जाती है.

पुरस्कार मिलने के बारे में कई शंकाएंआशंकाएं व प्रतिक्रियाएं सामने आईं. उन्हीं दिनों मैं स्टेशन पर टिकट लेने लंबी लाइन में खड़ा था. मेरा एक छात्र, जो था तो 21वीं सदी का पर श्रद्धा रखता?था महाभारतकाल के शिष्य जैसी, पूछ बैठा :

‘‘सर, आप तो राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. क्या आप को भी इस प्रकार लाइन में खड़ा होना पड़ता है? आप को तो फ्री पास मिलना चाहिए था, संसद के सदस्यों की तरह.’’

उसे क्या पता, कहां हम और कहां संसद सदस्य. वे हम को तो खुश करने की खातिर राष्ट्रनिर्माता कहते?हैं पर वे तो भाग्यविधाता हैं. उन का हमारा क्या मुकाबला. छात्र गहरी श्रद्धा रखता?था सो उसे यह बात समझ में नहीं आई. उस ने तुरंत ही दूसरा सवाल कर डाला.

‘‘सर, आप को पुरस्कार में कितने हजार रुपए मिले? नौकरी में क्या तरक्की मिली? कितने स्कूटर, कितनी बीघा जमीन वगैरह?’’

यह सब सुन कर मैं चौंक गया और पूछा, ‘‘बेटे, यह तुम ने कैसे सोच लिया कि मास्टरजी को यह सब मिलना चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, क्रिकेट खिलाडि़यों को तो कितना पैसा, कितनी कारें, मानसम्मान, सबकुछ मिलता है, आप को क्यों नहीं? आप तो राष्ट्रनिर्माता हैं.’’

मुझे उस के इस प्रश्न का जवाब समझ में नहीं आया तो प्लेटफार्म पर आ रही गाड़ी की तरफ मैं लपका.

उन्हीं दिनों एक शादी में मेरा जाना हुआ. वहां मेरे एक कद्रदान रिश्तेदार ने समीप बैठे कुछ लोगों से कहा, ‘‘इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है. तपाक से एक सज्जन बोले, ‘‘मान गए उस्ताद आप को, बड़ी पहुंच है आप की, खूब तिकड़म लगाई. कुछ खर्चावर्चा भी हुआ?’’

मैं उन की बातें सुन कर सकते में आ गया. उन्होंने मेरी उपलब्धि अथवा अन्य कार्यों के संबंध में न पूछ कर सीधे ही टिप्पणी दे डाली. पुरस्कार के पीछे उन की इस अवधारणा ने मुझे झकझोर दिया. और पुरस्कार के प्रति एक वितृष्णा सी हो उठी. क्यों लोगों में इस के प्रति आस्था नहीं है? कई प्रश्न मेरे सामने एकएक कर आते गए जिन का उत्तर मैं खोजता आ रहा हूं.

एक दिन अचानक एक अध्यापक बंधु मिले. उन की ग्रेडफिक्सेशन आदि की कुछ समस्या थी. वे मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, आप तो राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त शिक्षक हैं. आप की बात का तो वजन विभाग में होगा ही, कुछ मेरी भी सहायता कीजिए.’’

मैं ने उन को बताया कि मेरे खुद के मामले ही अनिर्णीत पड़े हैं, कौन जानता है मुझे विभाग में. कौन सुनता है मेरी. मैं ने उन्हें यह भी बताया कि एक बार जिला शिक्षा अधिकारी से मिलने गया था. मैं ने अपनी परची में अपने नाम के आगे ‘राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त’ भी लिख दिया था. मुझे पदवी लिखने का शौक नहीं है पर किसी ने सुझा दिया था. मैं ने भी सोचा कि देखें कितना प्रभाव है इस लेबल का. सो, आधा घंटे तक तो बुलाया ही नहीं. बाद में डेढ़ बजे बाहर निकलते हुए मेरे पूछने पर कहा, ‘‘आप साढ़े 3 बजे मिलिएगा.’’ और फिर उस दिन वे लंच के बाद आए ही नहीं और हम अपने पुरस्कार को याद करते हुए लौट आए.

मुझे अफसोस है कि मुझे पुरस्कार तो दिया गया पर पूछा क्यों नहीं जाता है, पहचाना क्यों नहीं जाता है, सुना क्यों नहीं जाता है? क्यों यह मात्र एक औपचारिकता ही है कि 5 सितंबर को एक जलसे में कुछ कर दिया जाता है और बस कहानी खत्म.

एक बार मैं ऐसे ही पुरस्कार समारोह के अवसर पर बैठा था. मेरी बगल में बैठे शिक्षक मित्र ने पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक हैं, आप को तो आगे बैठना चाहिए. आप का तो विशेष स्थान सुरक्षित होगा?  आप को तो हर वर्ष बुलाते होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई मेरे, मुझे ही शौक है लोगों से मिलने का सो चला आता हूं. निमंत्रण तो इन 10 वर्षों में केवल 2 बार ही पहुंच पाया है और वह भी इसलिए कि निमंत्रणपत्र भेजने वाले मेरे परिचित एवं मित्र थे.

समारोह में कुछ व्यवस्थापक सदस्य आए और कुछ लोगों को परचियां दे गए, और कहा, ‘‘आप लोग समारोह के बाद पुरस्कृत शिक्षकों के साथ अल्पाहार लेंगे.’’ मेरे पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक?हैं, आप को क्यों नहीं दे रहे हैं यह परची?’’ मैं ने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अरे, भाई साहब, यह पुरस्कार तो एक औपचारिकता है, पहचान थोड़े ही है. एक महान पुरुष ने चालू कर दिया सो चालू हो गया. अब चलता रहेगा जब तक कोई दूसरा महापुरुष बंद नहीं कर देगा.’’

बगल वाले सज्जन ने पूछा, ‘‘तो क्या ऐसे महापुरुष भी हैं जो बंद कर देंगे.’’

‘‘अरे, साहब, क्या कमी है इस वीरभूमि में ऐसे बहादुरों की. देखिए न, पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों को 3 वर्षों की सेवावृद्धि स्वीकृत थी पर बंद कर दी न किसी महापुरुष ने.’’

‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि लोग क्या देते हैं आप को? क्या केवल 1 से 5 हजार रुपए ही?’’

‘‘जी हां, यह क्या कम है? सच पूछो तो वे क्या देते हैं हम को, देते तो हम हैं उन्हें.’’

‘‘ वह क्या?’’

‘‘अजी, हम धन्यवाद देते हैं कि वे भले ही एक दिन ही सही, हमारा अभिनंदन तो करते हैं और हम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाए जाने की बात याद कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन उस को तो फुल पावर मिली थी और उस ने चला दिया था चमड़े का सिक्का.’’

‘‘इतनी पावर तो हमें मिलने का प्रश्न ही नहीं. पर हां, उस दिन तो डायरेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर सभी हाथ मिलाते हैं हम से, हमारे साथ चाय पी लेते हैं, हम से बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’’ इसी बीच राज्यपाल महोदय आ गए और सब खड़े हो गए. बाद में सब बैठे भी, लेकिन कम्बख्त सवाल हैं कि तब से खड़े ही हैं.

बीमारी की बिसात

‘जोर लगा के हैया, पत्नी बीमार है मन लगा कर काम करो सैंया.’

पिछले एक सप्ताह से इस लाइन का मनन बेहद सत्यनिष्ठा के साथ कर रहा हूं, ठीक उसी तरह जैसे भक्त भगवान का करते हैं. इस लाइन को भूलना भी चाहूं तो बेचारे बिस्तर को 24 घंटे कष्ट दे रही हमारी श्रीमतीजी की गुब्बारे सी काया हमें भूलने नहीं देती है. इस लाइन को अभी से भूल गया तो आने वाले 3 सप्ताह का सामना कैसे करूंगा, क्योंकि डाक्टर ने कम से कम 4 सप्ताह तक उन्हें पूर्ण आराम की सलाह दी है और उन की संपूर्ण देखरेख की हिदायत मुझे दी है.

आप यह मत सोचिए कि उन्हें कोई गंभीर, खानपान से परहेज वाली बीमारी है. ऐसा बिलकुल नहीं है. उन्हें तो बस, काम से मुक्त आराम करने वाला प्रसाद के रूप में एक अचूक झुनझुना मिल गया है जिस का नाम है ‘स्लिप डिस्क.’

इस की प्राप्ति भी उन्हें कोई गृह कार्यों के बोझ तले दब कर नहीं हुई बल्कि अपनी ढोल सी काया को कमसिन बनाने के लिए की जा रही जीतोड़ उलटीसीधी एक्सरसाइज के कारण हुई है. वैसे तो इस प्रसाद को उन के साथसाथ मैं भी चख रहा हूं. लेकिन दोनों के स्वाद में जमीनआसमान का अंतर है. जहां श्रीमतीजी के सुखों का कारवां फैल कर दोगुना हो गया है वहीं हमारे घरेलू अधिकारों की अर्थी उठने के साथसाथ कर्तव्यों की फसलें सावन में हरियाली की तरह लहलहा रही हैं.

श्रीमतीजी अपनी रेपुटेशन एवं खुशनुमा दिनचर्या के लिए जिन्हें आधार मानती हैं वे मेरे लिए कर्तव्यों की फसल में खरपतवार के समान हैं. यानी उन का हालचाल पूछने व इधरउधर की सनसनीखेज खबरें बताने के लिए दिन भर थोक में आने वाली और श्रीमतीजी पर हम से कई गुना ज्यादा प्रेम बरसा कर हमदर्दी जताने वाली कोई और नहीं उन की प्रिय सहेलियां हैं.

बेमौसम सहेलियों की बाढ़ से घर की अर्थव्यवस्था निरंतर क्षतिग्रस्त होती जा रही है. मेरी समस्या असार्वजनिक होने के कारण दूरदूर तक मुआवजे की भी कोई उम्मीद नहीं है. कपप्लेट, गिलास और ट्रे के साथ मैं भी फुटबाल की तरह दिन भर इधर से उधर टप्पे खाता फिर रहा हूं.

फुटबाल के खेल में दोनों पक्ष गुत्थमगुत्था मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर एक पक्ष को जीत नसीब होती है लेकिन यहां तो अंधेर नगरी चौपट राजा है, कमरतोड़ मेहनत भी हम करें और हारें भी हम ही. उधर हमारी श्रीमतीजी की पौबारह है. पांचों उंगली घी में और सिर कड़ाही में है. काम से परहेज किंतु कांवकांव से कोई परहेज नहीं.

अकेले में हलके से हिलना भी हो तो हमारी हाजरी लिफाफे पर टिकट की तरह बेहद जरूरी है. वहीं 4-6 ने आ कर जैसे ही बाहरी दुनिया का बखान शुरू किया नहीं कि यहांवहां की स्वादिष्ठ बातों का श्रवण कर बातबात पर स्ंिप्रग की भांति उन का उछलना तथा आहें भरभर कर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कभी खिसियाना या कभी खीसें निपोरना देखने लायक होता है.

‘‘कल किटी पार्टी में किस ने किस की आरती उतारी, किस ने अध्यक्षा को अपने कोमल हाथों से चरण पादुकाएं पहनाईं, किस ने किस को मक्खन लगाया, पकवानों में कौनकौन से दुर्गुण थे, चाय के नाम पर गरम पानी पिलाया आदि.’’

यह देख हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहता कि एक से बढ़ कर एक जहर से लिपटे शब्दबाण हमारी श्रीमतीजी को घायल करने के बजाय इतना स्फूर्तिदायक बना देते जैसे वह अमृत का प्याला हों. वाह रे खुदा, तेरी खुदाई देख कर लगता है कि इन महिलाओं के लिए निंदा रस से बढ़ कर और कोई मिठाई नहीं है. इन की महफिल से जो परिचिता गायब है, समझ लो वही इन सब के हृदय में निंदा रस प्रज्वलित करने का माध्यम है और इस निंदा रस में डुबकी लगा कर उन सभी के चेहरे एकदम तरोताजा गुलाब की तरह खिल जाते हैं.

निंदा रस के टौनिक से फलती- फूलती इन महिलाओं को लगता है आज किसी की नजर लग गई क्योंकि कमरे के अंदर से आते हुए सभी का सुर अचानक एकदम बदल गया है. ऐसा लग रहा था मानो हमारे बेडरूम में विधानसभा या संसद सत्र चल रहा हो.

हम ने भीगी बिल्ली की तरह चुपके से अंदर झांका तो सभी की भवें अर्जुन के धनुष सी तनी हुई थीं. माथे पर पसीने की बूंदें रेंगती हुई, जबान कौवे की सी कर्कश, चेहरा तपते सूरज सा गरम और हाथ अपनी स्वामिनी के पक्ष में कला- बाजियां खाते इधरउधर डोल रहे थे.

सभी नारियों के तीनइंची होंठ एकसाथ हिलने के कारण अपने कानों व दिमाग की पूर्ण सक्रियता के बावजूद यह समझ नहीं पाए कि इस विस्फोटक नजारे के पीछे किस माचिस की तीली का हाथ है. वह तो भला हो गरमी की छुट्टियों का जिस की वजह से फिलहाल अड़ोसपड़ोस के मकान खालीपन का दुख झेल रहे हैं.

कोई घंटे भर की चांवचांव के बाद लालपीली, शृंगारिकाएं एकएक कर बाहर का रास्ता नापने लगीं. जब श्रीमतीजी इकलौती बचीं तब हम ने उन से व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, ‘‘आज क्या सामूहिक रूप से तबीयत गरम होने का दिन था?’’

‘‘यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है.’’

‘‘क्या?’’ हमारा मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘और नहीं तो क्या…तुम आ कर इतना भी नहीं बता सकते थे कि मधु मेरी तबीयत देखने के बहाने अंदर आ रही है. हम उसी की बात कर रहे थे और वह कमरे के बाहर कान लगा कर खड़ी हो गई. फिर क्या, ये सब तो होना ही था. अब कोईर् नहीं आएगा मेरा हालचाल पूछने, पड़ी रहूंगी अकेली दिन भर टूटे हुए पत्ते की तरह.’’

इतना कहतेकहते नयनों से झरना फूट पड़ा. ऊपरी मन से हम भी श्रीमतीजी के असह्य दुख में शामिल हो उन्हें सांत्वना देने लगे.

‘‘कोई नहीं आता है तो न आए, मैं तो हूं, सात जन्मों तक तुम्हारी सेवा करने के लिए. मेरे रहते क्यों इतनी दुखी होती हो, प्रिय.’’

लेकिन हमारी इस सांत्वना से बेअसर श्रीमतीजी का बोझिल मन उन के आंसुओं में लगातार इजाफा कर रहा था. हम ने श्रीमतीजी को वहीं, उसी हाल में छोड़ कर पुरानी पेटी से चवन्नी ढूंढ़ घर के देवता को सवा रुपया चढ़ा, उन की चरण वंदना करते हुए कहा, ‘‘हे कुल के देवता, तुझे लाखलाख प्रणाम, जो तुम ने मेरे घर को सहेलियों की बाढ़ से समय पर बचा लिया. अगर इस बाढ़ पर अब शीघ्र अंकुश नहीं लगता तो अनर्थ हो जाता. श्रीमतीजी तो थोड़ी देर में रोधो कर चुप हो जाएंगी लेकिन मैं जितने दिनों दुकान के कर्ज को भरता, रोता ही रहता.’’

सुखी जीवन के लिए सही आसन

आजकल योग फैशन की तरह लोकप्रिय होता जा रहा है. हर गलीमहल्ले में कोई न कोई योगगुरु शिविर चलाता हुआ मिल जाएगा. भू्रण हत्या से देश में गड़बड़ा गए स्त्रीपुरुष अनुपात की तरह योग सिखाने वाले और सीखने वालों का अनुपात भी ऐसा गड़बड़ा गया है कि अब योग सिखाने वाले ज्यादा और सीखने वाले कम पड़ते जा रहे हैं. इसलिए अब सिखाने वाले योगगुरु विदेशों में खपाए जा रहे हैं.

हम भी आप से योगासनों की बात करेंगे लेकिन घबराइए नहीं. हम आप का ऐसे लेटेस्ट योगासनों से परिचय कराएंगे जिन से आप के मुरझाए वैवाहिक जीवन में वसंतबहार आ जाएगी. विश्वास नहीं है तो खुद ही आजमा कर देख लीजिए. आप के मुख से खुदबखुद निकलेगा कि वाह, योगासन हों तो ऐसे.

बेड टी भार्या नमस्कार : सुबह जल्दी उठ कर गरमागरम चाय बना कर पत्नी के बेड पर ले जाएं. पहले शब्दों को अच्छी तरह चाशनी में डुबोएं फिर पत्नीवंदना करें. सुबहसुबह उठने में सब को कष्ट होता है, आप की पत्नी को भी होगा. वह गुस्सा होंगी लेकिन आप धीरज धरें.

जैसे ही सूर्यमुखी आभा कंबल या रजाई से उदय हो, आप दोनों हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में मिलाएं, गरदन को झुकाएं. फिर धीरेधीरे कमर को झुकाते हुए दोनों हाथ जमीन पर टिकाएं. पहले दायां पैर पीछे ले जाएं फिर बायां. हाथों की स्थिति दंड लगाने वाली हो. 3 बार नाक को जमीन पर रगडे़ं फिर धीरेधीरे पहले की स्थिति में आ जाएं.

शुरू में यह आसन 1 या 2 बार करें. अभ्यास होने पर इसे बढ़ाएं. तत्पश्चात गरमागरम चाय का प्याला पत्नी के हाथों में थमाएं. इस से पत्नी की खुशी बढ़ेगी और आप के पेट की चर्बी घटेगी. हाथों को बल मिलेगा. सीना मजबूत बनेगा, जिस पर आप बेलन आदि का वार भी आसानी से झेल सकेंगे.

एक टांगासन : इस आसन में आप खडे़ तो अपनी दोनों टांगों पर ही रहेंगे लेकिन आप की श्रीमतीजी को यह लगना चाहिए कि आप उन के हर आदेश का पालन एक टांग पर खडे़ रह कर करते हैं. इधर उन का मुंह खुला और उधर आप ने आदेश का पालन किया.

यह बहुपयोगी आसन है. इसे आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि आप की श्रीमतीजी सदा प्रसन्न रहेंगी जिस से घर का माहौल खुशहाल बनेगा. आप का रक्तसंचार ठीक रहेगा. शरीर चुस्तदुरुस्त बनेगा और आप इतने थक जाएंगे कि मीठी नींद के रोज भरपूर मजे लेंगे.

मुक्त कंठ प्रशंसा आसन : इस आसन में आप को अपनी पत्नी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी होती है मसलन, उन की साड़ी, लिपस्टिक, सैंडिल आदि की. याद रखें, आप की पत्नी की पसंद चाहे जितनी घटिया हो और चाहे जितने फूहड़ तरीके से वह सजतीसंवरती हों, इस से आप को कोई मतलब नहीं होना चाहिए. आप को तो बस, प्रशंसा करनी है.

कई लोग शिकायत करते हैं कि हमारी पत्नी तो किसी एंगल से भी खूबसूरत नहीं लगती. ऐसे में भला हम कैसे प्रशंसा करें, हमें बहुत तकलीफ होती है. तो ऐसे लोगों को सलाह है कि शुरू में तकलीफ जरूर होती है लेकिन अभ्यास होने पर सब ठीक हो जाता है.

अंगरेजी में कहते हैं ‘प्रेक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट.’ यह आसन जितना मुश्किल लगता है, जीवन में इस के उतने ही लाभ हैं. इसे भी आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस के बहुत आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं. इस से आप की पत्नी इतनी प्रसन्न होती हैं कि आप के वारेन्यारे हो जाते हैं. साथ ही आप की वाक्शक्ति बढ़ती है और कंठ मधुर होता है.

उठकबैठक कान पकड़ासन : आप आफिस से आते वक्त सब्जी, पप्पू की चड्डीबनियान, मुनिया का फ्राक लाना भूल गए हों. पत्नी के भाईबहन, मातापिता का जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ विस्मृत कर गए हों और आप को लगता है कि घर की फिजा बिगड़ जाएगी और उस का परिवार के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पडे़गा तो ऐसे में तुरंत इस आसन को करें.

याद रखें, यह आसन तभी लाभदायक है जब पत्नी आप के सामने हों. पहले दोनों हाथ उठा कर कानों की मालिश करें. दोनों पैरों को एकदूसरे के समानांतर रखें तथा कमर सीधी हो. चेहरे पर ऐसे भाव लाएं जैसे आप से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और आप आत्महत्या करने ही वाले हों. फिर गहरी सांस खींच कर सौरी, माफी, क्षमा आदि शब्दों को दोहराएं और धीरेधीरे सांस छोड़ते जाएं. इस के बाद कान पकड़ कर आहिस्ता से पैरों पर बैठें और तुरंत खडे़ हो जाएं. शुरू में यह 11 बार ही करें, बाद में संख्या बढ़ा सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि श्रीमतीजी को लगेगा कि आप को अपने बच्चे और उन के भाईबहन व मातापिता की बहुत चिंता है. क्राकरी टूटने से बच जाएगी, अलमारी के बर्तन खड़खड़ाएंगे नहीं और कलह टल जाएगी.

उठकबैठक से आप का पेट नियंत्रित रहेगा जिस से आप स्मार्ट लुक पाएंगे. टांगें बलशाली होंगी जिस से आप गृहस्थी का बोझ उठा कर ठीक से चल सकेंगे. कानों की खिंचाई से आप की श्रवणशक्ति बढे़गी.

मक्खन लगनासन : यह आसन बहुत नजाकत वाला है. इस में बहुत अभ्यास की जरूरत पड़ती है. थोड़ी सी जबान फिसली कि बड़ा नुकसान हो सकता है. इस का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि इस में पारंगत न हो जाएं. अकसर अपना काम निकालने के लिए इस आसन का उपयोग किया जाता है.

श्रीमतीजी की हथनी जैसी काया को हिरणी जैसी बताना. उन की मिचमिची आंखों को ऐश्वर्या सी दिखाना. भले ही उन की एडि़यां फटी हों लेकिन आप को यह कह कर मक्खन लगाना है, ‘आप के पैर देखे, बडे़ सुंदर हैं. इन्हें जमीन पर मत रखना वरना गंदे हो जाएंगे.’  साथ ही सास और ससुर को महान बताना. सालेसालियों की बढ़चढ़ कर प्रशंसा करना आदि बातें इस आसन में सम्मिलित हैं. इस से ससुराल वाले खुश होंगे और भविष्य में खतरे की आशंका भी टल जाएगी.

कर्ण खोल जबान बंदासन : इस आसन का उपयोग तब लाभकारी होता है जब आप की श्रीमतीजी एंग्री यंग वूमेन का रूप धर लें. आप को लगे कि अब गरम हवा चलेगी और स्थिति बरदाश्त से बाहर हो जाएगी तब तुरंत अपने दोनोें कान खोल कर और चंचला जबान में गांठ लगा कर पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाएं.

जब तक धर्मपत्नी अपने शब्दकोष के समस्त कठोर शब्दों का अनुसंधान न कर ले तब तक एकाग्रचित्त हो कर उन के प्रवचन सुनते रहें. ऐसा करने पर अंत में वह प्रसन्न हो जाएंगी कि आप ने उन की बातों को बहुत गंभीरता से कर्णसात किया. बादल बरसने के बाद मौसम ठंडा और ताजगीपूर्ण हो जाएगा. इस से पत्नी का मन हलका होगा और आप के कानोें का मैल साफ होगा, आप की आत्मा धुल जाएगी और जबान पर नियंत्रण रखने की शक्ति उभर कर आएगी.

इस तरह ऊपर बताए हमारे अचूक योगासनों को जो भी अपनाएगा वह सुख- समृद्धि के साथ चैन की बंशी बजाएगा. वैसे तो ये योगासन पतियों के लिए हैं लेकिन शासकीय सेवक और नेता भी अपने बौस या हाईकमान को खुश करने के लिए इन में से कुछ योगासनों का सदुपयोग करें तो ये उन के लिए भी लाभदायी साबित होंगे.

टेलीविजन बच्चों का दुश्मन

मिश्राजी पत्नी के साथ घर लौटे तो देखा कि उन का छोटा बेटा निशांत हाथ में सौस की टूटी बोतल पकड़े अपने बड़े भाई के कमरे के बाहर गुस्से में तन कर खड़ा है. यह देख कर मिश्रा दंपती हैरत में पड़ गए. उन के बारबार आवाज लगाने पर बड़े बेटे प्रशांत ने दरवाजा खोला. पूछताछ करने पर पता चला कि उन की गैरमौजूदगी में दोनों भाइयों में घमासान हुआ था और निशांत मेज पर रखी सौस की बोतल तोड़ कर प्रशांत को मारने के लिए उस के पीछे दौड़ा था.

एक शाम जब अंकित के मातापिता किसी पार्टी में गए थे तो उस ने टेलीविजन पर एक ऐसे हत्यारे पर बना कार्यक्रम देखा जिस ने उस की उम्र के 9 बच्चों का अपहरण कर उन की हत्या कर दी थी. अंकित बुरी तरह डर गया. अब वह अकेले अपने कमरे में सोने के बजाय अपने मातापिता के साथ सोने की जिद करने लगा. उस ने हकलाना शुरू कर दिया और वह लगभग रोज ही बिस्तर गीला करने लगा.

आज निशांत, प्रशांत और अंकित जैसे न जाने कितने बच्चे हैं जो टेलीविजन पर दिखाई जा रही हिंसा, सेक्स और नशे के दृश्यों को देख कर उन से प्रभावित हो रहे हैं. इस प्रकार के कार्यक्रम बच्चों के संवेदनशील दिमाग पर क्या प्रभाव डालेंगे और आगे चल कर किन मानसिक रोगों का वे शिकार होंगे यह सोचना अब बहुत जरूरी हो गया है.

ज्यादातर मातापिता अपने बच्चों की टेलीविजन देखने की लत से परेशान हैं. आमतौर पर हर परिवार में टेलीविजन पर रोक लगाने के लिए जंग छिड़ती रहती है पर क्या हम सब ऐसा कर पाते हैं.

बच्चों को क्या दोष दें. हम खुद भी टीवी पर दिखाए जा रहे बेसिरपैर के धारावाहिकों को देखने के लिए बेचैन रहते हैं और बातें करते हैं सासबहू के उन पैतरों की जिन का कोई अंत ही नहीं है.

मेरी दिली तमन्ना है कि मैं अपने घर से टेलीविजन को हटा दूं या फिर कम से कम ‘केबल’ का तार तो नोच कर फेंक ही दूं. मेरे जैसे सोचने वाले कई समझदार परिवार और भी हैं, लेकिन हम ऐसा कर नहीं पाते हैं, क्योंकि घर में टेलीविजन का न होना हमारी सामाजिक मर्यादा के खिलाफ है. अगर घर में टीवी नहीं होगा तो बच्चे अपने साथियों के बीच बुद्धू नजर आएंगे क्योंकि वे कार्टून चैनल पर दी जा रही अतिउपयोगी जानकारी से वंचित रह जाएंगे.

यह सही है कि कभीकभार टेलीविजन पर दिखाए जा रहे कुछ कार्यक्रम काफी मनोरंजक और शिक्षाप्रद होते हैं लेकिन अधिकतर कार्यक्रम नका- रात्मक ही होते हैं. बच्चे उन्हें न ही देखें तो अच्छा है.

अधिक टेलीविजन देखने वाले बच्चे सृज- नात्मक क्षेत्रों में पिछड़ जाते हैं. उन में सहज स्वाभाविक ढंग से कुछ नए के बारे में जानने और कल्पना करने की शक्ति की कमी होती है तथा वे दिमागी कसरत कराने वाली समस्याओं को सुलझाने में आमतौर पर असमर्थ साबित होते हैं.

टेलीविजन खोलते ही दिमाग का दरवाजा बंद हो जाता है और आप दुनिया से बेखबर स्क्रीन पर आंखें गड़ाए घंटों एक से दूसरे चैनल पर भटकते रहते हैं. ज्यादा टीवी देखने वाले बच्चे, जवान व बूढ़े अपनेआप में सिमट जाते हैं.

पिछले कुछ सालों में बच्चों एवं युवाओं में कई मानसिक विकृतियां बढ़ी हैं. इन में से प्रमुख हैं एकाग्रता की कमी, उत्तेजना, नर्वसनेस, घबराहट और असामाजिक व्यवहार आदि. लगातार टीवी देखने से आंखों पर जोर पड़ता है जिस से सिरदर्द एवं माइग्रेन की शिकायत हो सकती है. नींद पूरी न होने से बच्चों में पढ़ाई के प्रति अरुचि बढ़ती है.

आजकल कई मातापिता यह शिकायत ले कर डाक्टरों के पास आते हैं कि उन के बच्चे ने 2 साल का हो जाने के बावजूद बोलना शुरू नहीं किया. चिकित्सकों का कहना है कि देर से बोलने का कारण मातापिता का उन से कम बोलना है. अगर मातापिता दोनों ही कामकाजी हैं और उन का शाम का सारा समय टीवी के सामने गुजरता है तो बच्चे में ‘स्पीच डिले’ होना कोई अचरज की बात नहीं है.

आप यह बात अच्छी तरह समझ लें कि छोटे बच्चे टेलीविजन देख कर भाषा नहीं सीख सकते. ‘स्पीच डिले’ वाले बच्चों के मातापिता को चाहिए कि वे अपने बच्चे से अधिकाधिक बोलें, उस से ‘बातचीत’ का कोई भी मौका हाथ से न जाने दें. रंगीन चित्रों वाली किताबों से उसे कहानियां सुनाएं, दुनिया के बारे में जानकारी दें.

बच्चों पर टेलीविजन के दुष्प्रभाव के बारे में अनेक शोध प्रकाशित हो चुके हैं. टेलीविजन पर दिखाए जा रहे हिंसात्मक कार्यक्रमों और नई पीढ़ी में बढ़ रही उद्दंडता व आक्रामक व्यवहार में सीधा रिश्ता है. टीवी कार्यक्रमों की नकल कर अपराध करने के कई मामले प्रकाश में आए हैं.

दूसरी तरफ कुछ बच्चों को टीवी पर दिखाए जा रहे ‘स्टंट्स’ के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी. शक्तिमान की नकल हो या सुपरमैन की तरह उड़ने की चाह, अकारण कई मासूमों ने छतों से कूद कर मौत को गले लगा लिया.

टेलीविजन एक अति प्रभावशाली माध्यम है जोकि शिक्षित भी करता है और भ्रमित भी. इस के जरिए बच्चे उन बातों पर भी सहज भरोसा कर लेते हैं जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसलिए टीवी जगत की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनावश्यक, उत्तेजक, अतिहिंसक और बच्चों को बरगलाने वाले कार्यक्रमों पर रोक लगाए.

आज हकीकत यह है कि आप को टेलीविजन से समझौता करना ही पड़ेगा क्योंकि यह अब आप के घर से बाहर जाने वाला नहीं है. आप चाहें तो भी इसे अपनी जिंदगी से हटा नहीं सकते परंतु टेलीविजन हम सब की जिंदगी चलाए यह भी जरूरी नहीं.

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