premium बस एक बार आ जाओ: क्यों दूर चली गई थी सुमि

प्यार का एहसास अपनेआप में अनूठा होता है. मन में किसी को पाने की, किसी को बांहों में बांधने की चाहत उमड़ने लगती है, कोई बहुत अच्छा और अपना सा लगने लगता है और दिल उसे पूरी शिद्दत से पाना चाहता है, फिर कोई भी बंधन, कोई भी दीवार माने नहीं रखती, पर कुछ मजबूरियां इंसान से उस का प्यार छीन लेती हैं, लेकिन वह प्यार दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है. हां सुमि, तुम्हारे प्यार ने भी मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी है. हमें बिछड़े 10 वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी बीता हुआ समय सामने आ कर मुंह चिढ़ाने लगता है.

सुमि, तुम कहां हो. मैं आज भी तुम्हारी राहों में पलकें बिछाए बैठा हूं, यह जानते हुए भी कि तुम पराई हो चुकी हो, अपने पति तथा बच्चों के साथ सुखद जीवन व्यतीत कर रही हो और फिर मैं ने ही तो तुम से कहा था, सुमि, कि य-पि यह रात हम कभी नहीं भूलेंगे फिर भी अब कभी मिलेंगे नहीं. और तुम ने मेरी बात का सम्मान किया. जानती हो बचपन से ही मैं तुम्हारे प्रति एक लगाव महसूस करता था बिना यह सम झे कि ऐसा क्यों है. शायद उम्र में परिपक्वता नहीं आई थी, लेकिन तुम्हारा मेरे घर आना, मु झे देखते ही एक अजीब पीड़ा से भर उठना, मु झे बहुत अच्छा लगता था.

तुम्हारी लजीली पलकें  झुकी होती थीं, ‘अनु है?’ तुम्हारे लरजते होंठों से निकलता, मु झे ऐसा लगता था जैसे वीणा के हजारों तार एकसाथ  झंकृत हो रहे हों और अनु को पा कर तुम उस के साथ दूसरे कमरे में चली जाती थीं.’

‘भैया, सुमि आप को बहुत पसंद करती है,’ अनु ने मु झे छेड़ा.

‘अच्छा, पागल लड़की फिल्में बहुत देखती है न, उसी से प्रभावित होगी,’ और मैं ने अनु की बात को हंसी में उड़ा दिया, पर अनजाने में ही सोचने पर मजबूर हो गया कि यह प्यारव्यार क्या होता है सम झ नहीं पाता था, शायद लड़कियों को यह एहसास जल्दी हो जाता है. शायद युवकों के मुकाबले वे जल्दी युवा हो जाती हैं और प्यार की परिभाषा को बखूबी सम झने लगती हैं. ‘संभल ऐ दिल तड़पने और तड़पाने से क्या होगा. जहां बसना नहीं मुमकिन, वहां जाने से क्या होगा…’

यह गजल तुम अनु को सुना रही थी, मु झे भी बहुत अच्छा लगा था और उसी दिन अनु की बात की सत्यता सम झ में आई और जब मतलब सम झ में आने लगा तब ऐसा महसूस हुआ कि तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. कैशौर अपना दामन छुड़ा चुका था और मैं ने युवावस्था में कदम रखा और जब तुम्हें देखते ही अजीब मीठीमीठी सी अनुभूति होने लगी थी. दरवाजे के खटकते ही तुम्हारे आने का एहसास होता और मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता था. कभी मु झे महसूस होता था कि तुम अपलक मु झे देख रही हो और जब मैं अपनी नजरें तुम्हारी ओर घुमाता तो तुम दूसरी तरफ देखने लगती थी, तुम्हारा जानबू झ कर मु झे अनदेखा करना मेरे प्यार को और बढ़ावा देता था. सोचता था कि तुम से कह दूं, पर तुम्हें सामने पा कर मेरी जीभ तालु से चिपक जाती थी और मैं कुछ भी नहीं कह पाता था कि तभी एक दिन अनु ने बताया कि तुम्हारा विवाह होने वाला है. लड़का डाक्टर है और दिल्ली में ही है. शादी दिल्ली से ही होगी. मैं आसमान से जमीन पर आ गिरा.

यह क्या हुआ, प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया, ऐसा कैसे हो सकता है, क्या आरंभ और अंत भी कभी एकसाथ हो सकते हैं. हां शायद, क्योंकि मेरे साथ तो ऐसा ही हो रहा था. मेरा मैडिकल का थर्ड ईयर था, डाक्टर बनने में 2 वर्ष शेष थे. कैसे तुम्हें अपने घर में बसाने की तुम्हारी तमन्ना पूरी करूंगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही तुम ने मेरे घर में बसने की इच्छा जाहिर कर दी थी, मैं विवश हो गया था.  दिसंबर के महीने में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. इसी माह तुम्हारा ब्याह होने वाला था. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन दोनों ही जुदा हो चले थे. तुम चली जाओगी यह सोचते ही हृदय चीत्कार करने लगता था, ऐसी ही एक कड़कड़ाती ठंड की रात को कुहरा घना हो रहा था. मैं अपने कमरे से तुम्हारे घर की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. आंसू थे कि पलकों तक आआ कर लौट रहे थे. मैं ने अपना मन बहुत कड़ा किया हुआ था कि तभी एक आहट सुनाई दी, पलट कर देखा तो सामने तुम थी. खुद को शौल में सिर से लपेटे हुए. मैं तड़प कर उठा और तुम्हें अपनी बांहों में भर लिया. तुम्हारी आवाज कंपकंपा रही थी.

‘मैं ने आप को बहुत प्यार किया, बचपन से ही आप के सपने देखे, लेकिन अब मैं दूर जा रही हूं. आप से बहुत दूर हमेशाहमेशा के लिए. आखिरी बार आप से मिलने आई हूं,’ कह कर तुम मेरे सीने से लगी हुई थी.

सुमि, कुछ मत कहो. मु झे इस प्यार को महसूस करने दो,’ मैं ने कांपते स्वर में कहा.

‘नहीं, आज मैं अपनेआप को समर्पित करने आई हूं, मैं खुद को आप के चरणों में अर्पित करने आई हूं क्योंकि मेरे आराध्य तो आप ही हैं, अपने प्यार के इस प्रथम पुष्प को मैं आप को ही अर्पित करना चाहती हूं, मेरे दोस्त, इसे स्वीकार करो,’ तुम्हारी आवाज भीगीभीगी सी थी, मैं ने अपनी बांहों का बंधन और मजबूत कर लिया. बहुत देर तक हम एकदूसरे से लिपटे यों ही खड़े रहे. चांदनी बरस रही थी और हम शबनमी बारिश में न जाने कब तक भीगते रहे कि तभी मैं एक  झटके से अलग हो गया. तुम कामना भरी दृष्टि से मु झे देख रही थी, मानो कोई अभिसारिका, अभिसार की आशा से आई हो. नहींनहीं सुमि, यह गलत है. मेरा तुम पर कोई हक नहीं है, तुम्हारे तनमन पर अब केवल तुम्हारे पति का अधिकार है, तुम्हारी पवित्रता में कोई दाग लगे यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता हूं. हम आत्मिक रूप से एकदूसरे को समर्पित हैं, जो शारीरिक समर्पण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, तुम मु झे, मैं तुम्हें समर्पित हूं.

हम जीवन में कहीं भी रहें इस रात को कभी नहीं भूलेंगे. चलो, तुम्हें घर तक छोड़ दूं, किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी. तुम कातर दृष्टि से मु झे देख रही थी. तुम्हारे वस्त्र अस्तव्यस्त हो रहे थे, शौल जमीन पर गिरा हुआ था, तुम मेरे कंधों से लगी बिलखबिलख कर रो रही थी. चलो सुमि, रात गहरा रही है और मैं ने तुम्हारे होंठों को चूम लिया. तुम्हें शौल में लपेट कर नीचे लाया. तुम अमरलता बनी मु झ से लिपटी हुई चल रही थी. तुम्हारा पूरा बदन कांप रहा था और जब मैं ने तुम्हें तुम्हारे घर पर छोड़ा तब तुम ने कांपते स्वर में कहा, ‘विकास, पुरुष का प्रथम स्पर्श मैं आप से चाहती थी. मैं वह सब आप से अनुभव करना चाहती थी जो मु झे विवाह के बाद मेरे पति, सार्थक से मिलेगा, लेकिन आप ने मु झे गिरने से बचा लिया. मैं आप को कभी नहीं भूल पाऊंगी और यही कामना करती हूं कि जीवन के किसी भी मोड़ पर हम कभी न मिलें, और तुम चली गईं.

10 वर्ष का अरसा बीत चला है, आज भी तुम्हारी याद में मन तड़प उठता है. जाड़े की रातों में जब कुहरा घना हो रहा होता है, चांदनी धूमिल होती है और शबनमी बारिश हो रही होती है तब तुम एक अदृश्य साया सी बन कर मेरे पास आ जाती हो. हृदय से एक पुकार उठती है. ‘सुमि, तुम कहां हो, क्या कभी नहीं मिलोगी?’

नहीं, तुम तड़पो, ताउम्र तड़पो,’ ऐसा लगता है जैसे तुम आसपास ही खड़ी मु झे अंगूठा दिखा रही हो. सुमि, मैं अनजाने में तुम्हें पुकार उठता हूं और मेरी आवाज दीवारों से टकरा कर वापस लौट आती है, क्या मैं अपना पहला प्यार कभी भूल सकूंगा?

मेरे ख्वाबों में जो आए

तलाकशुदा अनुपा अपनी जिंदगी दोबारा शुरू करना चाहती थी, मगर जब मनीष नाम के शख्स से उस की शादी की बात चली तो फिर क्या हुआ कि उसे शादी से ही नफरत होने लगी. अनुपाबहुत देर तक जीवनसाथी की वैबसाइट पर कमल का प्रोफाइल चैक करती रही. कमल का 3 वर्ष पहले डाइवोर्स हुआ था और उस का 12 साल का बेटा था. अनुपा का खुद विवाह के 5 वर्षों के बाद ही अपने पति से अलगाव हो गया था, मगर डाइवोर्स की प्रक्रिया इतनी लंबी थी कि पूरे सात वर्ष लग गए. आज अनुपा 38 वर्ष कीहो चुकी थी.

मगर शरीर की बनावट के कारण वह 30 वर्ष से अधिक की नहीं लगती थी. घर में उस के भाई, बहन सब अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त थे. बूढ़े मातापिता को अनुपा के पास छोड़ कर वे अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर चुके थे. मम्मी, पापा भी जबतब सब रिश्तेदारों के सामने अनुपा की जिम्मेदारी का दुखड़ा रोते थे, मगर कौन किस की जिम्मेदारी उठा रहा है यह बस अनुपा ही जानती थी.

कभी मम्मी का डाक्टर से अपौइंटमैंट होता तो कभी पापा का. बड़ी बहन और छोटा भाई भी छुट्टियों में आ कर मम्मी, पापा की खैरखबर ले लेते थे, मगर अपनी प्राइवेसी में वे उन का दखल नहीं चाहते थे.

आज मम्मीपापा ने फिर से अनुपा के लिए एक रिश्ता ढूंढ़ कर रखा था. मगर अनुपा कैसे अपने मम्मीपापा को सम झाए कि वह दोबारा शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहती. पहली शादी में वह सब पा चुकी थी. उस के बहुत से पुरुष मित्र थे और वह ऐसे ही हंसतेखेलते जिंदगी काटना चाहती थी.

आर्थिक रूप से अनुपा स्वभावलंबी थी. पहली शादी के टूटने के बाद, कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने के कारण अब भावनात्मक रूप से भी स्वतंत्र थी और शारीरिक जरूरतों को पूरी करने के लिए उस के पास औप्शंस की कमी

नहीं थी.

मगर उसे हंसताखेलता देख कर अनुपा के परिवार को शक होने लगता था. परिवार अनुपा को शादी के खूंटे से बांधना चाहता था. अनुपा का प्रोफाइल उस के परिवार ने मैट्रिमोनियल साइट्स पर डाला हुआ था और कमल का इंट्रैस्ट वहीं आया था. अनुपा का मन नहीं था पर फिर भी मम्मीपापा के कारण अनुपा ने कमल से मिलना निश्चित कर लिया.

अनुपा ने शनिवार की शाम को कमल से मिलने के लिए चुना. उस ने आसमानी रंग की साड़ी पहनी थी और बाल खुले ही छोड़ दिए थे. छोटी सी बिंदी और हलकी लिपस्टिक में वह दिलकश लग रही थी.

अनुपा के मन में ढेर सारी बातें थीं. जब अनुपा ने रंगोली होटल का दरवाजा खोला तो कमल वहां पहले से ही बैठा था. कमल के

बराबर में एक 12 वर्ष के करीब का लड़का भी बैठा था.

अनुपा को देख कर कमल उठ गया. उस ने अनुपा को ठीक से देखा भी नहीं. पूरा समय अपने बेटे युग के बारे में ही बात करता रहा. अनुपा को ऐसा महसूस हुआ, कमल को अपने लिए बीवी नही, अपने बेटे युग के लिए एक केयरटेकर चाहिए. उसे लगा जैसे अगर थोड़ी देर वह और बैठी तो उस का दम घुट जाएगा.

कमल के जाते ही अनुपा ने अपने लिए एक ड्रिंक और्डर किया. पहले ड्रिंक के बाद उस का मन फूल सा हलका हो गया, दूसरे ड्रिंक के बाद अनुपा के ऊपर ऐसा नशा छाया कि वह उठ कर डांस करने लगी.

कुछ ही देर बाद एक आकर्षक नौजवान अनुपा के साथ थिरकने लगा. लगभग आधे घंटे बाद दोनों ने 1-1 ड्रिंक और लिया और फिर थिरकने लगे. लड़के का नाम कशिश था और वह सौफ्टवेयर कंपनी में प्रोजैक्ट मैनेजर था. अनुपा और कशिश लगभग 12 बजे तक साथ बैठे रहे. जब 12 बजे कशिश ने अनुपा को छोड़ा तो अनुपा के मम्मीपापा जगे हुए थे.

मम्मी चहकते हुए बोलीं, ‘‘कैसा रहा?’’

अनुपा बोली, ‘‘कुछ नहीं, उसे पत्नी नहीं अपने बच्चे के लिए मां चाहिए.’’

पापा बोले, ‘‘तो ठीक है न तुम्हें भी मां कहने वाला कोई मिल जाएगा.’’

अनुपा मुसकराते हुए बोली, ‘‘मु झे बेटा नहीं, जीवनसाथी चाहिए,’’ इस से पहले मम्मी कुछ बोलतीं, अनुपा ने दरवाजा बंद कर लिया.

कपड़े बदलते हुए कशिश के कौंप्लिमैंट्स याद कर के मन ही मन मुसकरा उठी थी.

आज की रात बेहद हसीन थी. अभी बैड पर

लेटी ही थी कि कशिश का मैसेज आ गया. वह अनुपा को दोपहर लंच के लिए इनवाइट कर

रहा था.

अनुपा जब अगले दिन लंच के लिए

तैयार हो रही थी तभी मम्मी बोलीं, ‘‘मु झे

थोड़ा जहर दे दे अनुपा, तू क्यों नहीं अपना घर बसाना चाहती है? क्या इस उम्र में तु झे कोई राजकुमार मिलेगा?’’

अनुपा बोली, ‘‘राजकुमार नहीं मम्मी हमसफर चाहिए और अगर नहीं मिला तो मैं ऐसे ही खुश हूं.’’

मम्मी कड़वाहट के साथ बोलीं, ‘‘न जाने कौन होगा तेरे ख्वाबों का राजकुमार.’’

रेस्तरां में कशिश पहले से ही बैठा था. लंच के बाद थोड़ी इधरउधर की बातें हुईं और फिर कशिश और अनुपा लौंगड्राइव के लिए निकल गए.

कार को एक सुनसान जगह पर रोक कर कशिश के हाथ धीरेधीरे अनुपा के शरीर के ऊपर रेंगने लगे. अनुपा ने पहले धीरे से मना किया, मगर जब कशिश के हाथ रुक ही नहीं रहे थे तो अनुपा ने कशिश का हाथ पकड़ कर जोर से  झटक दिया.

कशिश गुस्से में फुफकारते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे जैसी बूढ़ी औरत के साथ मु झे मजा ही क्या आएगा.’’

अनुपा कार से उतरती हुई बोली, ‘‘तुम्हारे जैसे थर्डग्रेड लोफर के साथ किसी 20 साल की लड़की को भी मजा नही आएगा.’’

उस के बाद अनुपा ने वहीं से अजय को

कौल किया. अजय करीब 15 मिनट

बाद पहुंच गया. अजय अनुपा का फ्रैंड था या

यों कहें फ्रैंड से कुछ ज्यादा था. दोनों के पास जब भी समय होता तो वो लौंगड्राइव पर निकल जाते थे. अजय एक तरह से अनुपा का पार्टटाइम हसबैंड था.

अजय का भी अपनी पत्नी से कुछ वर्ष पहले अलगाव हो गया था. मगर अजय और अनुपा दोनों ही एक बार शादी का लड्डू चखने के बाद दोबारा उसे खा कर अपनी जिंदगी खराब नही करना चाहते थे.

अनुपा को कार में बैठाते हुए अजय

बोला, ‘‘आज क्या हो गया, किस के साथ

आई थी?’’

अनुपा आंखों में पानी भरते हुए बोली, ‘‘मु झे बूढ़ी बोल रहा था जब मैं ने उसे उस की सीमा लांघने को मना कर दिया तो.’’

अजय हंसते हुए बोला, ‘‘देखा  25 साल

के लड़के के लिए तो तू बूढ़ी ही होगी. मगर यह तुम ने बिलकुल सही किया और आगे से हर किसी पर इतनी जल्दी विश्वास करने की जरूरत नहीं है.’’

फिर अजय अनुपा को कौफी पिलाने के लिए ले गया. जब शाम 6 बजे अनुपा लौटी तो मम्मी गुस्से में भरी बैठी थीं और अनुपा को देखते ही बोलीं, ‘‘क्या सोच रखा है तुम ने? हम तेरे कारण अपना घरवार छोड़ कर बैठे हुए हैं. बहू की सेवा और पोतेपोतियों के साथ न खेल पा रहे हैं पर तू तो 16 साल की लड़की को भी मात कर रही है.’’

पहले अनुपा इन बातों पर आंखों में पानी भर लेती थी और पूरापूरा दिन घर में खुद को कैद कर के रखती थी. मगर जब वह धीरेधीरे डिप्रैशन में जाने लगी तो उस की एक सहकर्मी उसे काउंसलर के पास ले गई. वहीं अनुपा की अजय से मुलाकात हुई थी.

अजय के साथ धीरेधीरे अनुपा की गहरी दोस्ती हो गई थी. जब से अजय अनुपा की जिंदगी में आया था अनुपा का जिंदगी जीने

का नजरिया ही बदल गया था. अनुपा के परिवार और समाज की नजरों में अनुपा पथभ्रष्ठा हो

गई थी.

आज जब अनुपा दफ्तर से घर पहुंची तो उस की बड़ी दीदी शिखा आई हुई थी. शिखा अपने दूर के देवर का रिश्ता ले कर आई थी जिस की हाल ही में पत्नी की मृत्यु हो गई थी.

शिखा चहकते हुए बोली, ‘‘अनु, सब से अच्छी बात यह कि वह इसी शहर में रहता है तो न तु झे नौकरी बदलनी पड़ेगी और मम्मीपापा को भी तू आराम से देख पाएगी.’’

अनुपा को लगा ऐसी शादी के बाद तो उस की दोहरी जिम्मेदारी हो जाएगी, मगर अनुपा अपने परिवार को मना नहीं कर पाई थी.

शाम को जब अनुपा ने अजय को इस रिश्ते के बारे में बताया तो अजय बोला, ‘‘देख ले हो सकता है वह वाकई तुम्हारे काबिल हो.’’

शाम को शिखा का देवर मनीष अपने

परिवार के साथ आया. मनीष का

अपना व्यापार था और उस के 10 और 12 साल के दो बच्चे थे.

जब अनुपा तैयार हो कर आई तो मनीष लगातर अनुपा को क्षुधा भरी नजरों से घूर रहा था.

अनुपा इतने पुरुषों से मिल चुकी थी, मगर

मनीष की आंखें न जाने क्यों उसे असहज कर रही थी.

थोड़ी देर बाद मनीष ने शिखा से कहा, ‘‘भाभी, मैं अनुपा को थोड़ी देर घुमा कर ले आऊं क्या?’’

शिखा ने खुश होते हुए कहा, ‘‘क्यों नहीं.’’

कार में बैठते ही मनीष अनुपा से बोला, ‘‘तुम ऐसे क्यों छुईमुई सी

हुई जा रही हो? एक बार शादी

हो चुकी है…

और क्या तुम्हारे जीवन में कोई पुरुष नहीं है?’’

अनुपा को मनीष की बातें सुन कर  झुर झुरी सी हो गई थी. फिर धीरे से मनीष ने अनुपा की थाई पर हाथ रख दिया.

अनुपा का मन वितृष्णा से भर उठा. उस ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मनीष कार रोक दो.’’

मनीष गुस्से में बोला, ‘‘सब पता है

तुम्हारी जैसी औरतों का… 36 जगह

मुंह मारने के बाद मेरे सामने सतीसावित्री बनने का नाटक कर रही है.’’

अनुपा बिना कोई जवाब दिए कार से उतर गई और सामने वाले कैफे में बैठ गई. बारबार अनुपा यही मनन कर रही थी कि क्या शादी वाकई उस के लिए जरूरी है, क्या वह ऐसे लोगों के साथ अपनी जिंदगी बिता सकती है?

जब शाम को अनुपा घर पहुंची तो शिखा दीदी गुस्से में बोली, ‘‘इतनी मुश्किल से मैं ने मनीष को मनाया था पर तुम्हें तो शायद चिडि़या की तरह हर डाली पर फुदकने की आदत पड़ गई है. तुम घोंसला कैसे बना सकती हो.’’

उधर मम्मीपापा का भी इमोशनल ड्रामा

शुरू हो गया था, ‘‘हम अपना घरद्वार छोड़े

बैठे हैं.’’

अनुपा ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मम्मीपापा आप कुछ दिनों के लिए दीदी या भाई के

यहां चले जाएं. आप मेरे बारे में चिंता न करें.

मैं अपनी जिंदगी अपने हिसाब से गुजारना

चाहती हूं.’’

अनुपा की बात सुन कर जहां मम्मी ने रोनाधोना शुरू कर दिया वहीं शिखा

दीदी ने एकाएक पैतरा बदल लिया, ‘‘अरे, तु झे मम्मीपापा अकेला कैसे छोड़ सकते हैं. अभी हम तु झे शादी के लिए फोर्स नही करेंगे पर अनुपा तेरे ख्वाबों के सपनों का राजकुमार तो अब इस उम्र में तो नहीं मिलेगा.’’

अनुपा हंसते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे ख्वाबों में कोई राजकुमार नहीं आता है. मेरे ख्वाबों में बस मैं ही मैं हूं, जो हर दिन से कुछ नया सीख कर एक साहसी महिला के रूप में खुद को पहचान रही है.’’

‘‘कभी कोई ऐसा मिला जो मेरे साथ मेरे ख्वाब सा झा कर सकेगा तो जरूर शादी करूंगी.’’

शिखा दीदी और मम्मीपापा अनुपा की

बातें सुन कर उसे अजीब नजरों से देख रहे थे, मगर वे लोग भी तो अपनेअपने स्वार्थ के कारण मजबूर थे.

कैसी दूरी: क्या शीला की बेचैनी रवि समझ पाया?

आधी रात का गहरा सन्नाटा. दूर कहीं थोड़ीथोड़ी देर में कुत्तों के भूंकने की आवाजें उस सन्नाटे को चीर रही थीं. ऐसे में भी सभी लोग नींद के आगोश में बेसुध सो रहे थे.

अगर कोई जाग रहा था, तो वह शीला थी. उसे चाह कर भी नींद नहीं आ रही थी. पास में ही रवि सो रहे थे.

शीला को रहरह कर रवि पर गुस्सा आ रहा था. वह जाग रही थी, मगर वे चादर तान कर सो रहे थे. रवि के साथ शीला की शादी के15 साल गुजर गए थे. वह एक बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी.

शादी के शुरुआती दिन भी क्या दिन थे. वे सर्द रातों में एक ही रजाई में एकदूसरे से चिपक कर सोते थे. न किसी का डर था, न कोई कहने वाला. सच, उस समय तो नौजवान दिलों में खिंचाव हुआ करता था.

शीला ने तब रवि के बारे में सुना था कि जब वे कुंआरे थे, तब आधीआधी रात तक दोस्तों के साथ गपशप किया करते थे.

तब रवि की मां हर रोज दरवाजा खोल कर डांटते हुए कहती थीं, ‘रोजरोज देर से आ कर सोने भी नहीं देता. अब शादी कर ले, फिर तेरी घरवाली ही दरवाजा खोलेगी.’रवि जवाब देने के बजाय हंस कर मां को चिढ़ाया करते थे.

जैसे ही रवि के साथ शीला की शादी हुई, दोस्तों से दोस्ती टूट गई. जैसे ही रात होती, रवि चले आते उस के पास और उस के शरीर के गुलाम बन जाते. भंवरे की तरह उस पर टूट पड़ते. उन दिनों वह भी तो फूल थी. मगर शादी के सालभर बाद जब बेटा हो गया, तब खिंचाव कम जरूर पड़ गया.

धीरेधीरे शरीर का यह खिंचाव खत्म तो नहीं हुआ, मगर मन में एक अजीब सा डर समाया रहता था कि कहीं पास सोए बच्चे जाग न जाएं. बच्चे जब बड़े हो गए, तब वे अपनी दादी के पाससोने लगे.

अब भी बच्चे दादी के पास ही सो रहे हैं, फिर भी रवि का शीला के प्रति वह खिंचाव नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. माना कि रवि उम्र के ढलते पायदान पर है, लेकिन आदमी की उम्र जब 40 साल की हो जाती है, तो वह बूढ़ा तो नहीं कहलाता है.

बिस्तर पर पड़ेपड़े शीला सोच रही थी, ‘इस रात में हम दोनों के बीच में कोई भी तो नहीं है, फिर भी इन की तरफ से हलचल क्यों नहीं होती है? मैं बिस्तर पर लेटीलेटी छटपटा रही हूं, मगर ये जनाब तो मेरी इच्छा को समझ ही नहीं पा रहे हैं.

‘उन दिनों जब मेरी इच्छा नहीं होती थी, तब ये जबरदस्ती किया करते थे. आज तो हम पतिपत्नी के बीच कोई दीवार नहीं है, फिर भी क्यों नहीं पास आते हैं?’

शीला ने सुन ही नहीं रखा है, बल्कि ऐसे भी तमाम उदाहरण देखे हैं कि जिस आदमी से औरत की ख्वाहिश पूरी नहीं होती है, तब वह औरत दूसरे मर्द के ऊपर डोरे डालती है और अपने खूबसूरत अंगों से उन्हें पिघला देती है. फिर रवि के भीतर का मर्द क्यों मर गया है?

मगर शीला भी उन के पास जाने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही है? वह क्यों उन की चादर में घुस नहीं जाती है? उन के बीच ऐसा कौन सा परदा है, जिस के पार वह नहीं जा सकती है?

तभी शीला ने कुछ ठाना और वह रवि की चादर में जबरदस्ती घुस गई. थोड़ी देर में उसे गरमाहट जरूर आ गई, मगर रवि अभी भी बेफिक्र हो कर सो रहे थे. वे इतनी गहरी नींद में हैं कि कोई चिंता ही नहीं.

शीला ने धीरे से रवि को हिलाया. अधकचरी नींद में रवि बोले, ‘‘शीला, प्लीज सोने दो.’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही है,’’ शीला शिकायत करते हुए बोली.

‘‘मुझे तो सोने दो. तुम सोने की कोशिश करो. नींद आ जाएगी तुम्हें,’’ रवि नींद में ही बड़बड़ाते हुए बोले और करवट बदल कर फिर सो गए.

शीला ने उन्हें जगाने की कोशिश की, मगर वे नहीं जागे. फिर शीला गुस्से में अपनी चादर में आ कर लेट गई, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर जा चुकी थी.

सुबह जब सूरज ऊपर चढ़ चुका था, तब तक शीला सो कर नहीं उठी थी. उस की सास भी घबरा गईं. सब से ज्यादा घबराए रवि.

मां रवि के पास आ कर बोलीं, ‘‘देख रवि, बहू अभी तक सो कर नहीं उठी. कहीं उस की तबीयत तो खराब नहीं हो गई?’’

रवि बैडरूम की तरफ लपके. देखा कि शीला बेसुध सो रही थी. वे उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘शीला उठो.’’

‘‘सोने दो न, क्यों परेशान करते हो?’’ शीला नींद में ही बड़बड़ाई.

रवि को गुस्सा आ गया और उन्होंने पानी का एक गिलास भर कर उस के मुंह पर डाल दिया.शीला घबराते हुए उठी और गुस्से से बोली, ‘‘सोने क्यों नहीं दिया मुझे? रातभर नींद नहीं आई. सुबह होते ही नींद आई और आप ने उठा दिया.’’

‘‘देखो कितनी सुबह हो गई?’’ रवि चिल्ला कर बोले, तब आंखें मसल कर उठते हुए शीला बोली, ‘‘खुद तो ऐसे सोते हो कि रात को उठाया तो भी न उठे और मुझे उठा दिया,’’ इतना कह कर वह बाथरूम में घुस गई.यह एक रात की बात नहीं थी. तकरीबन हर रात की बात थी.मगर रवि में पहले जैसा खिंचाव क्यों नहीं रहा? या उस से उन का मन भर गया? ऐसा सुना भी है कि जिस मर्द का अपनी औरत से मन भर जाता है, फिर उस का खिंचाव दूसरी तरफ हो जाता है. कहीं रवि भी… नहीं उन के रवि ऐसे नहीं हैं.

सुना है कि महल्ले के ही जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी का चक्कर उन के ही पड़ोसी अरुण के साथ चल रहा है. यह बात पूरे महल्ले में फैल चुकी थी. जमना प्रसाद को भी पता थी, मगर वे चुप रहा करते थे.

रात का सन्नाटा पसर चुका था. रवि और शीला बिस्तर में थे. उन्होंने चादर ओढ़ रखी थी.रवि बोले, ‘‘आज मुझे थोड़ी ठंड सी लग रही है.’’

‘‘मगर, इस ठंड में भी आप तो घोडे़ बेच कर सोते रहते हो, मैं कितनी बार आप को जगाती हूं, फिर भी कहां जागते हो. ऐसे में कोई चोर भी घुस जाए तो पता नहीं चले. इतनी गहरी नींद क्यों आती है आप को?’’

‘‘अब बुढ़ापा आ रहा है शीला.’’

‘‘बुढ़ापा आ रहा है या मुझ से अब आप का मन भर गया है?’’

‘‘कैसी बात करती हो?’’

‘‘ठीक कहती हूं. आजकल आपको न जाने क्या हो गया,’’ यह कहते हुए शीला की आंखों में वासना दिख रही थी. रवि जवाब न दे कर शीला का मुंह ताकते रहे.

शीला बोली, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो? कभी देखा नहीं है क्या?’’

‘‘अरे, जब से शादी हुई है, तब से देख रहा हूं. मगर आज मेरी शीला कुछ अलग ही दिख रही है,’’ शरारत करते हुए रवि बोले.

‘‘कैसी दिख रही हूं? मैं तो वैसी ही हूं, जैसी तुम ब्याह कर लाए थे,’’ कह कर शीला ने ब्लाउज के बटन खोल दिए, ‘‘हां, आप अब वैसे नहीं रहे, जैसे पहले थे.’’

‘‘क्यों भला मुझ में बदलाव कैसे आ गया?’’ अचरज से रवि बोले.

‘‘मेरा इशारा अब भी नहीं समझ रहे हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी बन जाऊं.’’

‘‘अरे शीला, जमना प्रसाद तो ढीले हैं, मगर मैं नहीं हूं,’’ कह कर रवि ने शीला को अपनी बांहों में भर कर उस के कई चुंबन ले लिए.

मरहम: क्या पूरा हुआ गुंजन का बदला

गुंजन जल्दी जल्दी काम निबटा रही थी. दाल और सब्जी बन चुकी थी बस फुलके बनाने बाकी थे. तभी अभिनव किचन में दाखिल हुआ और गुंजन के करीब रखे गिलास को उठाने लगा. उस ने जानबूझ कर गुंजन को हौले से स्पर्श करते हुए गिलास उठाया और पानी ले कर बाहर निकल गया.

गुंजन की धड़कनें बढ़ गईं. एक नशा सा उस के बदन को महकाने लगा. उस ने चाहत भरी नजरों से अभिनव की तरफ देखा जो उसे ही निहार रहा था. गुंजन की धड़कनें फिर से ठहर गईं. लगा जैसे पूरे जहान का प्यार लिए अभिनव ने उसे आगोश में ले लिया हो और वह दुनिया को भूल कर अभिनव में खो गई हो.

तभी अम्मांजी अखबार ढूंढ़ती हुई कमरे में दाखिल हुईं और गुंजन का सपना टूट गया. नजरें चुराती हुई गुंजन फिर से काम में लग गई.

गुंजन अभिनव के यहां खाना बनाने का काम करती है. अम्मांजी का बड़ा बेटा अनुज और बहू सारिका जौब पर जाते हैं. छोटा बेटा अभिनव भी

एक आईटी कंपनी में काम करता है. उस की

अभी शादी नहीं हुई है और वह गुंजन की तरफ आकर्षित है.

22 साल की गुंजन बेहद खूबसूरत है और वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता ने उसे बहुत लाड़प्यार से पाला है. इंटर तक पढ़ाया भी है. मगर घर की माली हालत सही नहीं होने की वजह से उसे दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम शुरू करना पड़ा.

गुंजन जानती है कि अभिनव ऊंची जाति का पढ़ालिखा लड़का है और अभिनव के साथ उस का कोई मेल नहीं हो सकता. मगर कहते हैं न कि प्यार ऐसा नशा है जो अच्छेअच्छों की बुद्धि पर ताला लगा देता है. प्यार के एहसास में डूबा व्यक्ति सहीगलत, ऊंचनीच, अच्छाबुरा कुछ भी नहीं समझता. उसे तो बस किसी एक शख्स का खयाल ही हर पल रहने लगता है और यही हो रहा था गुंजन के साथ भी. उसे सोतेजागते हर समय अभिनव ही नजर आने लगा था.

धीरेधीरे वक्त गुजरता गया. अभिनव की हिम्मत बढ़ती गई और गुंजन भी उस के आगे कमजोर पड़ती गई. एक दिन मौका देख कर अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया.

गुंजन ने खुद को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘अभिनवजी, अम्मांजी ने देख लिया तो क्या सोचेंगी?’’

‘‘अम्मां सो रही हैं गुंजन. तुम उन की चिंता मत करो. बहुत मुश्किल से आज हमें ये पल मिले हैं. इन्हें यों ही बरबाद न करो.’’

‘‘मगर अभिनवजी, यह सही नहीं. आप का और मेरा कोई मेल नहीं,’’ गुंजन अब भी सहज नहीं थी.

‘‘ऐसी बात नहीं है गुंजन. मैं तुझ से प्यार करने लगा हूं. प्यार में कोई छोटाबड़ा नहीं होता. बस मु?ो इन जुल्फों में कैद हो जाने दे. गुलाब की पंखुड़ी जैसे इन लबों को एक दफा छू लेने दे.’’

अभिनव किसी भी तरह गुंजन को पाना चाहता था. गुंजन अंदर से डरी हुई थी, मगर अभिनव का प्यार उसे अपनी तरफ खींच रहा था. आखिर गुंजन ने भी हथियार डाल दिए. वह एक प्रेयसी की भांति अभिनव के सीने से लग गई. दोनों एकदूसरे के आलिंगन में बंधे प्यार की गहराई में डूबते रहे. जब होश आया तो गुंजन की आंखें छलछला आईं. वह बोली, ‘‘आप मेरा साथ तो दोगे न? जमाने की भीड़ में मु?ो अकेला तो नहीं छोड़ दोगे?’’

‘‘पागल है क्या? प्यार करता हूं. छोड़ कैसे दूंगा?’’ कह कर उस ने फिर से गुंजन को चूम लिया.

गुंजन फिर से उस के सीने में दुबक गई. वक्त फिर से ठहर गया.

अब तो ऐसा अकसर होने लगा. अभिनव प्यार का दावा कर के गुंजन को करीब

ले आता. दोनों ने प्यार के रास्ते पर बढ़ते हुए मर्यादा की सीमारेखाएं तोड़ दी थीं. गुंजन प्यार के सुहाने सपनों के साथ एक सुंदर घरसंसार के सपने भी देखने लगी थी.

मगर एक दिन वह यह देख कर हैरान रह गई कि अभिनव के रिश्ते की बात करने के लिए एक परिवार आया हुआ है. मांबाप के साथ एक आधुनिक, आकर्षक और स्टाइलिश लड़की बैठी थी.

अम्मांजी ने गुंजन से कुछ खास बनाने की गुजारिश की तो गुंजन ने सीधा पूछ लिया, ‘‘ये कौन लोग हैं अम्मांजी?’’

‘‘ये अपने अभि को देखने आए हैं. इस लड़की से अभि की शादी की बात चल रही है. सुंदर है न लड़की?’’ अम्माजी ने पूछा तो गुंजन ने हां में सिर हिला दिया.

उस के दिलोदिमाग में तो एक भूचाल सा आ गया था. उस दिन घर जा कर भी गुंजन की आंखों के आगे उसी लड़की का चेहरा घूमता रहा. आंखों से नींद कोसों दूर थी.

अगले दिन जब वह अभिनव के घर खाना बनाने गई तो सब से पहले मौका देख कर उस ने अभिनव से बात की, ‘‘ये सब क्या है अभिनवजी? आप की शादी की बात चल रही है? आप ने अपने घर वालों को हमारे प्यार की बात क्यों नहीं बताई?’’

‘‘नहीं गुंजन अपने प्यार की बात मैं उन्हें नहीं बता सकता.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘क्योंकि हमारा प्यार समाज स्वीकार नहीं करेगा. मेरे मांबाप कभी नहीं मानेंगे कि मैं एक नीची जाति की लड़की से शादी करूं,’’ अभिनव ने बेशर्मी से कहा.

‘‘तो फिर प्यार क्यों किया था आप ने? शादी नहीं करनी थी तो मु?ो सपने क्यों दिखाए?’’ तड़प कर गुंजन बोली.

‘‘देखो गुंजन, समझने का प्रयास करो. प्यार हम दोनों ने किया है. प्यार के लिए केवल हम दोनों की रजामंदी चाहिए थी. मगर शादी एक सामाजिक रिश्ता है. शादी के लिए समाज की अनुमति भी चाहिए. शादी तो मु?ो घर वालों के कहे अनुसार ही करनी होगी.’’

‘‘यानी प्यार नहीं, आप ने प्यार का नाटक खेला है मेरे साथ. मैं नहीं केवल मेरा शरीर चाहिए था. क्यों कहा था मुझ से कि कभी अकेला नहीं छोड़ोगे?’’

‘‘मैं तुम्हें अकेला कहां छोड़ रहा हूं गुंजन? मैं तो अब भी तुम से प्यार करता हूं मेरी जान. यकीन करो हमारा यह प्यार हमेशा बना रहेगा. शादी भले ही उस से कर लूं, मगर हम दोनों पहले की तरह ही मिलते रहेंगे. हमारा रिश्ता वैसा ही चलता रहेगा. मैं हमेशा तुम्हारा बना रहूंगा,’’ अभि ने गुंजन को कस कर पकड़ते हुए कहा.

गुंजन को लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने उसे पकड़ रखा हो. वह खुद को अभिनव के बंधन से आजाद कर काम में लग गई. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे और दिल रो रहा था.

घर आ कर वह सारी रात सोचती रही. अभिनव की बेवफाई और अपनी मजबूरी उसे रहरह कर कचोट रही थी. अभिनव के लिए भले ही यह प्यार तन की भूख थी, मगर उस ने तो मन से चाहा था. तभी तो अपना सबकुछ समर्पित कर दिया था. इतनी आसानी से वह अभिनव को माफ नहीं कर सकती थी. उस के किए की सजा तो देनी ही होगी. वह पूरी रात यही सोचती रही कि अभिनव को सबक कैसे सिखाया जाए.

आखिर उसे समझ आ गया कि वह अभिनव से बदला कैसे ले सकती है. अगले दिन से ही उस ने बदले की पटकथा लिखनी शुरू कर दी.

उस दिन वह ज्यादा ही बनसंवर कर अभि के घर खाना बनाने पहुंची. अभि शाम 4 बजे की शिफ्ट में औफिस जाता था. अम्मांजी हर दूसरे दिन 12 से 4 बजे तक के लिए मंदिर जाती थीं. पिताजी के पैर में तकलीफ थी, इसलिए वे बिस्तर पर ही रहते थे.

आज अम्मांजी का मंदिर जाने का दिन था. 12 बजे उन के जाने के बाद वह अभि के पास चली आई और उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘अभिनव जी आप की शादी की बात सुन कर मैं दुखी हो गई थी. मगर अब मैं ने खुद को संभाल लिया है. शादी से पहले के इन दिनों को मैं भरपूर ऐंजौय करना चाहती हूं. आप की बांहों में खो जाना चाहती हूं.’’

अभिनव की तो मनमांगी मुराद पूरी हो रही थी. उस ने झट गुंजन को करीब खींच लिया. दोनों एकदूसरे के आगोश में खोते चले गए और दो जिस्म एक प्राण बन गए.

बैड पर अभि की बांहों में मचलती गुंजन ने सवाल किया, ‘‘कल आप सच कह रहे थे अभिनवजी? शादी के बाद भी आप मुझ से यह रिश्ता बनाए रखोगे न?’’

‘‘हां गुंजन इस में तुम्हें शक क्यों है? शादी एक चीज होती है और प्यार दूसरी चीज. हम दोनों का प्यार और शरीर का यह मिलन हमेशा कायम रहेगा. शादी के बाद भी यह रिश्ता ऐसे ही चलता रहेगा,’’ कह कर अभिनव फिर से गुंजन को बेतहाशा चूमने लगा.

शाम को गुंजन अपने घर लौट आई. उसे खुद से घिन आ रही थी. वह बाथरूम में गई

और नहा कर बाहर निकली. फिर मोबाइल ले

कर बैठ गई. आज के उन के शारीरिक मिलन का 1-1 पल इस मोबाइल में कैद था. उस ने बड़ी होशियारी से मोबाइल का कैमरा औन कर के ऐसी जगह रखा था जहां से दोनों की सारी हरकतें कैद हो गई थीं.

यह डेढ़ घंटे का लंबा अंतरंग वीडियो था. 10 दिन के अंदर उस ने ऐसे 3-4 वीडियो और शूट कर लिए. फिर वीडियो एडिट कर के बड़ी चतुराई से उस ने अपने चेहरे को छुपा दिया.

कुछ दिनों में अभिनव की शादी हो गई. 8-10 दिनों के अंदर ही उस ने अभिनव की पत्नी से दोस्ती कर ली और उस का मोबाइल नंबर ले लिया. अगले दिन उस ने अम्मांजी को कह दिया कि उसे मुंबई में जौब लग गई है और अब काम पर नहीं आ पाएगी. उस दिन वह अभिनव से  मिली भी नहीं और घर चली आई.

अगले दिन सुबहसुबह उस ने अपने और अभिनव के 2 अंतरंग वीडियो अभिनव की पत्नी को व्हाट्सऐप कर दिए. 2 घंटे बाद उस ने 2 और वीडियो व्हाट्सऐप किए और चैन से घर के काम निबटाने लगी.

शाम 4 बजे के करीब अभिनव का फोन आया. गुंजन को इस का अंदाजा पहले से था. उस ने मुसकराते हुए फोन उठाया तो सामने से अभिनव का रोता हुआ स्वर सुनाई दिया, ‘‘गुंजन, तुम ने यह क्या किया मेरे साथ? मेरी शादीशुदा जिंदगी की अभी ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई थी और तुम ने ये वीडियो भेज दिए. तुम्हें पता है माया सुबह से मुझ से लड़ रही है और अभीअभी सूटकेस ले कर हमेशा के लिए अपने घर चली गई. गुंजन तुम ने यह क्या कर दिया मेरे साथ अब मैं…’’

‘‘अब तुम न घर के न घाट के. गुड बाय अभिनव,’’ वाक्य पूरा कर गुंजन ने फोन काट दिया.

उस ने आज अभिनव से बदला ले लिया था. खुद को मिले हर आंसू का बदला. आज उसे महसूस हो रहा था जैसे उस के जख्मों पर किसी ने मरहम लगा दिया हो.

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एक किताब सा चेहरा: कौन थी गीतिका

वह अकसर मुझे दिखाई देती थी, जब मैं अपनी साइकिल से सूनीसूनी सड़कों पर शिमला की ठंडक को मन में लिए जब भी निकला हूं मैं… बर्फीले हवा के झेंके सी गुजर जाती है वह. नहीं, वह नहीं गुजरती मैं ही गुजर जाता हूं. उस के पास धीमीधीमी साइकिल पर चलतेचलते मेरा मन होता है कि मैं रुक जाऊं उसे देखने के लिए. कभी तो ऐसा भी लगा साइकिल पर ही रुक कर पलट कर देख लूं. पर शायद यह लुच्चापन लगेगा, वह मुझे लोफर या बदमाश भी समझ सकती है. मैं नहीं कहलाना चाहता बदमाश उस की नजरों में. इसलिए सीधा ही चला जाता हूं. मन में कसक लिए उसे अच्छी तरह देखने की.

वह मुझे आजकल की लड़कियों सी नहीं दिखती थी. अगर तुम पूछोगे कि आजकल की लड़कियां तो मैं बिलकुल पसंद नहीं करूंगा. आज की लड़कियों को पसंद करता भी नहीं क्यों एक फूहड़पन सा झलकता है इन लड़कियों में. अजीब सा चेहरा बना कर बात करना, सैल्फी खींचखींच कर चेहरे और विशेषकर होंठों को सिकोड़े रहने की आदत की शिकार नहीं बीमार कहिए बीमार हो गई हैं आज की लड़कियां.

पहनावा सोचते ही उबकाई आने लगती है. मुझे जीरो साइज के पागलपन में पागल लड़कियां अपने शरीर की गोलाइयों को पूरा सपाट बना देती हैं. इस से जो आकर्षण होना चाहिए वह बचता ही नहीं. अब आप कहेंगे मैं पागल हूं जो आज के माहौल के लिए, आधुनिक युग के लिए ऐसा बोल रहा हूं.

तो साहब, ऐसा नहीं शरीर को प्रयोगशाला बनाने के साथ ही कपड़ों की तो बात ही क्या है? घुटनों के पास से फटी जींस, कमर, पेट दिखाता टौप, कहींकहीं तो पिडलियों के पास से भी फटी जींस के भीतर से झंकते शरीर को देख कर मुझे तो घिन आती है. कहीं से भी सुंदर नहीं दिखती ऐसी लड़कियां. आगे भी सुन लीजिए. बालों को भी नहीं छोड़ा, नीले, लाल कलर के रंग में रंग बाल देख कर मसखरी करने वाले जोकरों की याद आ जाती है.

अब आप बोलें या सोचें क्या इन से प्रेम किया जा सकता है? दिल में बसाया जा सकता है लंबे प्रेम संबंध चलें ऐसी कोई कल्पना की जा सकती है? नहीं साहब, बिलकुल नहीं. एक बात तो बताना ही भूल गया जनाब कि इन का प्रेम भी फास्ट फूड जैसा होने लगा है. विश्वास ही नहीं होता ये कितनों के साथ एकसाथ प्रेम करती हैं. एक से ब्रेकअप हुआ तो दूसरा रैडी है. दूसरे के साथ ब्रेकअप हुआ तो तीसरा तैयार है… नुक्कड़ पर फोन करने की देर है.

अब ऐसे फास्ट फूड के जमाने में कोई शीतल झरने सी लड़की. जी हां लड़की, दिख जाए तो मन बावला हो उठता है. मेरा भी मन बावला हो उठा उस लड़की को देख कर.

घर पर जा कर मैं ने प्रण किया अब तो मैं कुछ दिनों में उस लड़की से जरूरजरूर बात करूंगा. मैं शिमला की ठंडक को मन में संजोए सो गया. कमरे के दरवाजे और खिड़की पर बर्फ की परतें जमनी शुरू हो गई थीं. गरम रजाई के भीतर उस लड़की की सांसों की गरमी मैं महसूस कर रहा था, बर्फ से ढकी पहाडि़यों के पीछे से लड़की का चेहरा बारबार झंक कर मुझे रातभर परेशान करता रहा और मैं जागता रहा, सोता रहा.

सुबह जब नींद खुली तो देखा 9 बजने जा रहे थे. बर्फ की परतें जो रात से

खिड़की और दरवाजे पर लिपटी थीं. हलकीहलकी पिघलने लगी थीं. हलकी सी धूप पहाडि़यों से अंगड़ाई लेते हुए पहाडि़यों की गोद में बसे कौटेजों पर बिखरने लगी थी. क्या करूं? मन नहीं कर रहा था उठने का. चाय पी लेता हूं. नाश्ते के बाद निकलूंगा. आज संडे है पर संडे को भी लाइब्रेरी खुलती है. नाश्ते के बाद 11 साढ़े 11बजे तक लाइब्रेरी पहुंच जाऊंगा. रास्ते में फिर मिलेगी वह लड़की. मैं आज पक्का उस से बात करूंगा, चाहे जो हो. यही सोच कर मैं ने चाय पी पर चाय ठंडी हो गई थी.

गरम करने के लिए दोबारा केतली उठाई. चाय के बाद मैं ने गाम पानी के गीजर को औन किया. तब तक कपड़ों की तैयारी में लग गया कि आज कौन से कपड़े पहनूं जिन से वह लड़की इंप्रैस हो जाए. सोचतेसोचते सब्ज कलर की जींस और ब्लैक टीशर्ट निकाली. हलकेहलके गरम पानी की उड़ती भाप में भी लड़की का चेहरा बनता रहा बिगड़ता रहा, पहाडि़यों से भी वह झंकती रही. मैं उसे देखता रहा.

नहा कर जब बाहर आया तो भूख सी महसूस हो रही थी मुझे. फ्रिज देखा तो कुछ अंडे थे, लेकिन ब्रैड नहीं थी. अब क्या करूं? केसरोल देखा तो कल का एक परांठा बचा पड़ा था. चलो हो गया नाश्ते का इंतजाम. बासी परांठा और ताजा आमलेट. फटाफट मैं प्याज, हरीमिर्च और धनियापत्ती काट कर अंडे फेंटने लगा. नाश्ता भी मैं ने गरम कंबल में लिपटे हुए खाया. नाश्ते के बाद आदमकद आइने के सामने खड़ा हुआ. खुद को आईने में देख कर सोचने लगा कि क्या वह मुझे पसंद करेंगी? बुरा तो नहीं मैं 5 फुट 11 इंच की हाइट, हलकेहलके कर्ली बाल, लंबी नाक, घनी मूंछें, खिलता रंग. पसंद करेगी बात भी करेगी. चेहरे से कुछकुछ शायर सा लगता हूं जैसेजैसे याद नहीं आ रहा, किस ने कहा था? शायद किसी दोस्त ने. ‘वह उस गीत सा…’ कौन सा गीत हां याद आया:

‘किसी नजर को तेरा इंजतार आज भी है…’ सुरेश वाडकर पर फिल्माया गया था यह गीत. डिंपल कपाडि़या बेचैन सी हो कर आती है. चलो देखते हैं…

तैयार हो कर कौटेज से बाहर निकला. धूप अच्छी लग रही थी. हलकीहलकी कुनकुनी सी. जींसब्लेजर में भी इंतजार वाले गीत सा महसूस कर रहा था. फिर सोचा साइकिल आज ठीक रहेगी. काश बाइक ले कर आता घर से, घर तो दिल्ली था, जौब शिमला में थी. साइकिल पसंद थी, इसलिए साइकिल उठा लाया. पर साइकिल से क्या वह इंप्रैस होगी? ऐसा करता हूं मकानमालिक से बाइक ले लेता हूं आज. बाइक ठीक रहेगी.

मकानमालिक ने दे दी बाइक की चाबी. वे आज रैस्ट के मूड में थे. शाम को ही निकलने के मूड में थे. संडे जो था. खैर मैं ने बाईक निकाली और चल दिया शिमला की अजगर जैसी सड़कों पर. सर्पीली सड़कों के जाल, पहाडि़यों की गगन चूमती चोटियां, हंसता सूरज, मुसकराती धूप, पौधोंफूलों से टपकती बर्फ, पिघलती बर्फ की खामोशियां, हवाओं में बहती खुशबू, गरमगरम कपड़ों में कौटेजों से निकल कर धूप को पीते लोग.

हरियाली की चूनर, चिनार के पेड़ों की वे कतारें, कौटेज से उठता धुआं. सबकुछ कितना मनमोहक है, कितना सुंदर, प्यारा और जीवन से प्यार करना सिखाता. ये प्रकृति का अद्भुत चित्र. एक अनदेखे चित्रकार की खूबसूरत कलाकृति यह सृष्टि. बाइक पर उसे याद आया सड़क के किनारे एक छोटा सा देव स्थान है. वह तुंरत उस जगह पहुंच गया.

जूते खोल कर वह आगे बढ़ा. देखा तो घना वटवृक्ष है, उस ने ध्यान से देखा तो पाया बरसों पुराना है शायद सैकड़ों साल पुराना. बहुत घना. उस के नीचे पक्के चबूतरे पर एक देव प्रतिमा थी. सामने एक दीपक जल रहा था. बरगद के पीछे बड़ी काली पहाड़ी थी, पहाड़ी से लगा था छोटा सा तालाब. दीपक जल रहा है. मतलब कोई जला कर गया है. बरगद पर सैकड़ों धागे बंधे थे. शायद मन्नत के धागे… मैं ने पास के तालाब में हाथ धो कर जेब से रूमाल निकाल कर माथे को ढका. देव प्रतिमा के सामने जा कर अपना शीश झका कर जैसे ही आंखें बंद कीं, फिर उस लड़की का चेहरा नाच उठा.

मैं नहीं जानता मुझे क्या हुआ. क्यों आया मैं तेरे द्वार पर इस दौर में मुझे सुकून से भरे कुछ पल दे दे. ऐसा सुकून, शांति जिस की मेरे देश को भी जरूरत हैं. अमनशांति से भर दे सब की झली. कुछ पल तक मैं दीपक की जादू भरी लौ को देखता रहा. फिर न जाने क्या सोच कर वहां पूजा की थाली में रखा रंगीन कलावा ले कर वृक्ष के दामन में बांध कर वापस आ गया.

बाइक स्टार्ट कर के वापस अपनी मंजिल लाइब्रेरी की तरफ चला. अफसोस सारे रास्ते मुझे वह लड़की नहीं दिखी. मन उदास हो चला, दुखी हो गया.

लाइब्रेरी के बाहर बाइक खड़ी करतेकरते भी मन उदास और निराश था, जल्दी से बुक्स ले कर वापस हो जाऊंगा, क्या पता, वह बीमार हो गई हो. आज कुछ ज्यादा ही लोग थे. लाइब्रेरी में. यह एक मात्र लाइब्रेरी थी, जिस में दिन भर पढ़ने के शौकीन विद्यार्थी आते रहते थे. मुझे भी किताबों का शौक था.

बड़े दिनों से टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और हैवान’ की तलाश में था. मैं ने अपनी

बुक के लिए शैल्फ पर नजरें दौड़ानी शुरू कीं. आधा घंटा हो गया था. दूसरी वाली शैल्फ में देखता हूं, यह सोच कर मैं ने पलट कर देखा तो सामने से कोई टकरा गया. मेरी बुक जमीन पर मैं ने जल्दी से बुक उठाई और सौरी कहा. यह क्या… सामने तो वही लड़की थी, जिसे मैं देखा करता था.

अरे यह. चमत्कार हो गया. दिल इतनी तेजी से धड़कने लगा जैसे लो बाहर ही आ जाएगा. सौरी बोलने के बाद मैं अपलक उसे निहारता ही रह गया.

‘‘क्या हुआ आप को? सौरी बोल तो दिया आप ने. अब क्या हुआ,’’ लड़की की आवाज मेरे कानों तक पहुंची.

‘‘जीजी हां, वह मैं थोड़ा जल्दी में था,’’ मैं ने अपनी धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं… देख ली आप ने?’’ लड़की बोली.

‘‘जी देखी तो लेकिन उस शैल्फ में तो नहीं मिली… इस में देख लेता हूं.’’

‘‘कौन सी बुक है?’’ वह पूछने लगी.

मैं ने कहा, ‘‘टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और  हैवान.’’

‘‘अच्छा… कहीं यह तो नहीं,’’ कह कर उस ने बुक अपने हाथ में रख कर मेरी नजरों के सामने की.

‘‘अरे हां ये ही… मैं खुशी से बोला, ‘‘लेकिन आप ने तो अपने नाम से इशू करवाई होगी? आप पढ़ लीजिए. मैं फिर ले लूंगा,’’ मेरा स्वर उदासी भरा था.

‘‘अरे नहीं, आप पढ़ लीजिए मैं फिर पढ़ लूंगी,’’ वह बोली.

मैं खुश हो गया. मैं ने उसे थैंक्स कहा.

‘‘ओकेजी,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा आप अभी रुकेंगी या जाएंगी,’’ मैं ने हिम्मत जुटाई.

‘‘मैं अब निकलूंगी,’’ वह बोली.

‘‘अगर आप चाहें तो मैं आप को छोड़ दूं? मैं ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं चलिए साथ चलते हैं,’’ वह बोली.

मैं बाहर आ गया. वह भी साथ थी. मैं ने बाइक निकाली.

‘‘अरे यह क्या… बाइक,’’ वह बोली.

‘‘जी बाइक. बाइक पर नहीं बैठोगी?’’ मैं ने थोड़े आश्चर्य से पूछा.

‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं, लेकिन आप की तो साइकिल ही अच्छी है,’’ वह बोली. ‘‘फिर इन खूबसूरत नजारों को देखने के लिए मुझे पैदल जाना ही पसंद है,’’ वह मुसकराती बोली.

‘उफ, कितनी कातिल मुसकान है,’ मैं ने सोचा, ‘लुट जाते होंगे न जाने कितने इस मुसकान पर.’

‘‘चलिए बाइक यहीं छोडि़ए हम कुछ देर घूम लेते हैं,’’ वह बोली.

‘‘ओके,’’ मैं ने कहा फिर बाइक वहीं छोड़ी और उस के साथ चल दिया.

घुमावदार सड़कें, बर्फ से छिपतेढकते, पेड़, बर्फ

कहींकहीं पिघल कर पैरों को छू कर ठंड भर देती शरीर में. कुछ दूरी पर छोटा सा कौफीहाउस था पहाड़ी के दामन में. मैं ने कहा, ‘‘अगर एतराज न हो तो 1-1 कौफी पी लें?’’

‘‘जरूर,’’ वह बोली.

बड़े दिनों बाद आज धूप निकली थी इस बर्फीले हिल स्टेशन पर. गरम कपड़ों में लोग जगहजगह धूप का आनंद ले रहे थे.

कौफीहाउस में कुछ लोग थे, मैं ने खिड़की के पास वाली टेबल पसंद की. लकड़ी के कौटेज मुझे बहुत पसंद है. कौफीहाउस की डैकोरेशन बड़ी प्यारी थी.

वह मेरे सामने थी, बीच में थी टेबल, टेबल पर था पीले, सफेद, पिंक गुलाबों का गुलदस्ता, जो शायद कुछ देर पहले ही सजाया गया था.

‘क्या बात शुरू करूं?’ मैं ने सोचा. फिर ध्यान आया. अरे नाम…

‘‘हम लाइब्रेरी से इतनी देर से साथ हैं… हम ने एकदूसरे का नाम भी नहीं पूछा,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह,’’ कह कर वह मुसकरा दी. मुसकराते ही दाएं गाल का डिंपल भी मुसकरा दिया.

‘‘मैं आकाश हूं. मतलब मेरा नाम आकाश है. मैं जौब करता हूं. घर मेरा इंदौर में है. शिमला की बर्फ और खूबसूरती मुझे पंसद है. यहां का औफर आया तो तुरंत हां कर दी,’’ अपनी बात समाप्त कर के मैं उसे देखने लगा.

‘‘मैं गीतिका हूं. मुझे भी पहाडि़यों और चर्च से घिरा शिमला पसंद है. मेरे मामा यहां रहते हैं, पापामम्मी भोपाल में हैं. पापा सरकारी जौब में हैं. मम्मी हाउसवाइफ हैं. मुझे पढ़ने का शौक है तो मामा के यहां रह कर पढ़ाई भी करती हूं और अच्छे साहित्यकारों को भी पढ़ती हूं.’’

‘‘साहब, और्डर,’’ तभी वेटर ने आ कर हमारे बातचीत के क्रम को भंग किया.

‘‘कौफी के साथ क्या लोगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जो आप का मन करे,’’ कह गीतिका मुसकरा दी.

‘‘ओके,’’ कह कर मैं ने पनीर सैंडवीच और कौफी का और्डर कर दिया.

सूर्य की किरणें कौटेज की दरारों से अंदर आ कर शैतानियां कर रही थीं. बर्फ की धुंध को चीर कर बड़े दिनों बाद धूप निकली थी जो अच्छी लग रही थी. धूप की शैतानियों को देखतेदेखते मैं ने गीतिका को देखा जो खिड़की से फूलों को देख रही थी.

मैं ने उसे देखा कि खिलता हुआ रंग, होंठों की बाईं तरफ तिल जो सौंदर्य पर पहरा दे रहा था, कमल सी आंखें, जो खामोशखामोश सी कोई कहानी छिपाए हैं. मुझे पसंद हैं सुंदर आंखें. लंबा कद, मांसलता लिए शरीर, ब्लैक कलर का सूट, उस पर पिंक कलर का ऐंब्रौयडरी वाला दुपट्टा, हलकाहलका काजल. काश, मेरी लाइफपार्टनर बने. मैं कल्पना में खो गया.

‘‘साहब, कौफी,’’ तभी वेटर की आवाज सुनाई दी.

‘‘गीतिका, क्या सोचती हो मेरे बारे में? मैं ने पूछा, मैं तो अकसर ही तलाशता था जब मैं लाइब्रेरी आता था,’’ कह उस के चेहरे के भाव देखने लगा.

‘‘जी मैं ने भी कई बार देखा था आप को. आप मुझे देखने के लिए साइकिल धीमी कर देते थे,’’ कह गीतिका खिलखिला दी. हंसतेहंसते ही उस ने अपने आंखों पर हाथ रख लिए. यह अंदाज मेरे दिल में उतर गया. ऐसा लगा जैसे नन्हेनन्हे घुंघरू बज उठे हों.

‘‘हां गीतिका मैं भी तुम से बात करना चाहता था, पर कर नहीं पाता था. मुझे ओवरस्मार्ट बनने वाली लड़कियां पसंद नहीं हैं. शरीर दिखाऊ कपड़े, अजीब सा हेयरस्टाइल, सिगरेट का धुआं उड़ाती लड़कियों का मानसिक दीवालिया समझता हूं मैं.’’

‘‘अच्छाजी,’’ गीतिका बोली, ‘‘कौफी

खत्म हो गई है. अब चलते हैं मामा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘गीतिका थोड़ी देर प्लीज,’’ मैं रिकवैस्ट के अंदाज में बोला.

‘ओके,’’ कह कर वह बैठ गई.

‘‘एक कौफी और मंगा लें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मंगा लीजिए.’’

‘‘गीतिका तुम्हारी हौबी क्या है?’’

‘‘पढ़ना. बताया तो था आप को. इस के अलावा प्रकृति की सुंदरता को निहारना पसंद है. भीड़ से मुझे घबराहट होती,’’ गीतिका शिमला की पहाडि़यों को निहारती हुई बोली.

‘‘सच, कितनी सुंदर हौबीज हैं तुम्हारी.’’ मैं बहुत खुश हो उठा. मन ही मन उस देव स्थान पर मेरा सिर झकने लगा.

‘‘गीतिका हम फिर मिलेंगे न?’’ मैं ने उस की तरफ देख कर पूछा.

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘मुझे यह बुक पढ़ कर वापस कर देना मुझे भी पढ़नी है.’’

‘‘ओके बाय,’’ मैं ने हाथ हिला कर कहा.

‘‘बाय फिर मिलते हैं,’’ कह कर वह चली गई. मैं उसे जाते देखता रहा दूर तक.

मन में उस की सूरत बसाए जब अपने रूम पहुंचा तो देखा कि मेरे मकानमालिक एक

बड़ा सा लिफाफा लिए मेरा इंतजार कर रहे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘तुम्हारे घर से आया है.’’

मैं लिफाफा ले कर रूम में पहुंचा. जैसे ही लिफाफा खोला तो कई फोटो नीचे गिर पड़े, हाथ में ले कर जैसे ही फोटो पर नजर गई, तो आंखों को विश्वास ही नहीं हुआ. गीतिका के फोटो थे, पापामम्मी ने मेरे लिए लड़की पसंद की थी. मोबाइल के फोटो देखने को खुद मैं ने ही मना किया हुआ था. नहीं समझ आता फोटो फिल्टर हैं या औरिजनल. सामने हो तो बात ही अलग होती है मैं ने तुंरत घर फोन किया.

‘‘बेटा देख ले लड़की को,’’ पापा बोले. ‘‘गीतिका भी शिमला में ही है. पता कर के मुलाकात कर ले.’’

मैं क्या बोलता पापा को कि मैं तो मिल कर देख चुका हूं गीतिका को. मैं ने तुरंत हां कर दी शादी के लिए मेरे सपनों का चेहरा अब मेरा जीवनसाथी बनने जा रहा था.

तेरी सुरमई सूरत जब फूल बन जाए,

किताबी आंखों पर मेरी गजल हो जाए,

बन कर मैं देखूं तुझे रांझे की नजर से,

मेरे प्रेम के एहसास में तू हीर बन जाए.

यही थी मेरे गुलाबी सपनों का गुलाबी सपना किताब सा चेहरा.

मुसकान : क्यों टूट गए उनके सपने

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जो बीत गई सो बात गई

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.

वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

औप्शंस: क्या शैली को मिला उसका प्यार

कभी-कभी जिंदगी में वही शख्स आप को सब से ज्यादा दुख पहुंचाता है, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. विसंगति यह कि आप उस से कुछ कह भी नहीं पाते, क्योंकि आप को हक ही नहीं उस से कुछ कहने का. जब तक रिश्ते को नाम न दिया जाए कोई किसी का क्या लगता है? कच्चे धागों सा प्यार का महल एक झटके में टूट कर बिखर जाता है.

‘इन बिखरे एहसासों की किरचों से जख्मी हुए दिल की उदास दहलीज के आसपास आप का मन भटकता रह जाता है. लमहे गुजरते जाते हैं पर दिल की कसक नहीं जाती.’ एक जगह पढ़ी ये पंक्तियां शैली के दिल को गहराई से छू गई थीं. आखिर ऐसे ही हालात का सामना उस ने भी तो किया था. किसी को चाहा पर उसी से कोई सवाल नहीं कर सकी. चुपचाप उसे किसी और के करीब जाता देखती रही.

‘‘हैलो आंटी, कहां गुम हैं आप? तैयार नहीं हुईं? हमें चलना है न मंडी हाउस, पेंटिंग प्रदर्शनी में मम्मी को चीयर अप करने?’’ सोनी बोली.

‘‘हां, बिलकुल. मैं आ रही हूं मेरी बच्ची’’, शैली हड़बड़ा कर उठती हुई बोली.

आज उस की प्रिय सहेली नेहा के जीवन का बेहद खास दिन था. आज वह पहली दफा वर्ल्ड क्लास पेंटिंग प्रदर्शन में हिस्सा ले रही थी.

हलके नीले रंग का सलवार सूट पहन कर वह तैयार हो गई.

अब तक सोनी स्कूटी निकाल चुकी थी. बोली, ‘‘आओ आंटी, बैठो.’’

वह सोनी के पीछे बैठ गई. स्कूटी हवा से बातें करती मिनटों में अपने नियत स्थान पर

पहुंच गई.

शैली बड़े प्रेम से सोनी को देखने लगी. स्कूटी किनारे लगाती सोनी उसे बहुत स्मार्ट और प्यारी लग रही थी.

सोनी उस की सहेली नेहा की बेटी थी. दिल में कसक लिए घर बसाने की इच्छा नहीं हुई थी शैली की. तभी तो आज तक वह तनहा जिंदगी जी रही थी. नेहा ने सदा उसे सपोर्ट किया था. नेहा तलाकशुदा थी, दोनों सहेलियां एकसाथ रहती थीं. नेहा का रिश्ता शादी के बाद टूटा था और शैली का रिश्ता तो जुड़ ही नहीं सका था.

पेंटिंग्स देखतेदेखते शैली नेहा के साथ काफी आगे निकल गई. नेहा की एक पेटिंग क्व1 लाख 70 हजार में बिकी तो शैली ने हंस कर कहा, ‘‘यार, मुझे तो इस पेटिंग में ऐसा कुछ भी खास नजर नहीं आ रहा.’’

‘‘वही तो बात है शैली,’’ नेहा मुसकराई, ‘‘किसी शख्स को कोई पेंटिंग अमूल्य नजर आती है तो किसी के लिए वही आड़ीतिरछी रेखाओं से ज्यादा कुछ नहीं होती. जरूरी है कला को समझने की नजरों का होना.’’

‘‘सच कहा नेहा. कुछ ऐसा ही आलम जज्बातों का भी होता है न. किसी के लिए जज्बातों के माने बहुत खास होते हैं तो कुछ के लिए इन का कोई मतलब ही नहीं होता. शायद जज्बातों को महसूस करने वाला दिल उन के पास होता ही नहीं है.’’

शैली की बात सुन कर नेहा गंभीर हो गई. वह समझ रही थी कि शैली के मन में कौन सा तूफान उमड़ रहा है. यह नेहा ही तो थी जिस ने सालों विराज के खयालों में खोई शैली को देखा था और दिल टूटने का गम सहती शैली को फिर से संभलने का हौसला भी दिया था. शैली ने आज तक अपने जज्बात केवल नेहा से ही तो शेयर किए थे.

नेहा ने शैली का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘नो शैली. उन यादों को फिर से खुद पर हावी न होने दो. बीता कल तकलीफ देता है. उसे कभी याद नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कैसे याद न करूं नेहा जब उसी कल ने मेरे आज को बेस्वाद बना दिया. उसे

कैसे भूल सकती हूं मैं? जानती हूं कि जिस विराज की खातिर आज तक मैं सीने में इतना दर्द लिए जी रही हूं, वह दुनिया के किसी कोने में चैन की नींद सो रहा होगा, जिंदगी के सारे मजे ले रहा होगा.’’

‘‘तो फिर तू भी ले न मजे. किस ने मना किया है?’’

‘‘वही तो बात है नेहा. उस ने हमारे इस प्यार को महसूस कर के भी कोई अहमियत नहीं दी. शायद जज्बातों की कोई कद्र ही नहीं थी. मगर मैं ने उन जज्बातों की बिखरी किरचों को अब तक संभाले रखा है.’’

‘‘तेरा कुछ नहीं हो सकता शैली. ठंडी सांस लेती हुई नेहा बोली तो शैली मुसकरा पड़ी.

‘‘चल, अब तेरी शाम खराब नहीं होने दूंगी. अपनी प्रदर्शनी की सफलता का जश्न मना ले. आखिर रिश्तों और जज्बातों के परे भी कोई जिंदगी होती है न,’’ नेहा ने कहा.

शैली और नेहा बाहर आ गईं. सोनी किसी लड़के से बातें करने में मशगूल थी. मां को देख उस ने लड़के को अलविदा कहा और इन दोनों के पास लौट आई.

‘‘सोनी, यह कौन था?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘ममा, यह मेरा फ्रैंड अंकित था.’’

‘‘खास फ्रैंड?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है ममा. बट हां, थोड़ा खास है,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

तीनों ने रात का खाना बाहर ही खाया.

रात में सोते वक्त शैली फिर से पुरानी यादों में खो गई. एक समय था जब उस के सपनों में विराज ही विराज था. शालीन, समझदार और आकर्षक विराज पहली नजर में ही उसे भा गया था. मगर बाद में पता चला कि वह शादीशुदा है. शैली क्या करती? उस का मन था कि मानता ही नहीं था.

नेहा ने तब भी उसे टोका था, ‘‘यह गलत है शैली. शादीशुदा शख्स के बारे में तुम्हें कुछ सोचना ही नहीं चाहिए.’’

तब, शैली ने अपने तर्क रखे थे, ‘‘मैं क्या करूं नेहा? जो एहसास मैं ने उसे के लिए

महसूस किया है वह कभी किसी के लिए नहीं किया. मुझे उस के विवाहित होने से क्या वास्ता? मेरा रिश्ता तो भावनात्मक स्तर पर है दैहिक परिधि से परे.’’

‘‘पर यह गलत है शैली. एक दिन तू भी समझ जाएगी. आज के समय में कोई इस तरह के रिश्तों को नहीं मानता.’’

नेहा की यह बात आज शैली के जीवन की हकीकत थी. वह वाकई समझ गई थी. कितने अरसे तक दिलोदिमाग में विराज को सजाने के बाद शैली को महसूस हुआ था कि भले ही विराज को उस की भावनाओं का एहसास था, प्यार के सागर में उस ने भी शैली के साथ गोते लगाए थे, मगर वह इस रिश्ते में बंधने को कतई तैयार नहीं था. तभी तो बड़ी सहजता से वह किसी और के करीब होने लगा और ठगी सी शैली सब चुपचाप देखती रही, न वह कुछ बोल सकी और न ही सवाल कर सकी. बस उदासी के साए में गुम होती गई. अंत में उस ने वह औफिस भी छोड़ दिया.

आज इस बात को कई साल बीत चुके थे, मगर शैली के मन की कसक नहीं गई थी. ऐसा नहीं था कि शैली के पास विकल्पों की कमी थी. नए औफिस में पहली मुलाकात में ही उस का इमीडिएट बौस राजन उस से प्रभावित हो गया था. हमेशा उस की आंखें शैली का पीछा करतीं. आंखों में प्रशंसा और आमंत्रण के भाव होते पर शैली सब इगनोर कर अपने काम से काम रखने का प्रयास करती. कई बार शैली को लगा जैसे वह कुछ कहना चाहता है. मगर शैली की खामोशी देख ठिठक जाता. उधर शैली का कुलीग सुधाकर भी शैली को प्रभावित करने की कोशिश में लगा रहता था. मगर दिलफेंक और बड़बोला सुधाकर उसे कभी रास नहीं आया.

शैली के पड़ोस में रहने वाला आजाद जो विधुर था, मगर देखने में स्मार्ट लगता

था, अकसर शैली से मिलने के बहाने ढूंढ़ता. कभी भाई की बच्ची को साथ ले कर घर आ धमकता तो कभी औफिस तक लिफ्ट देने का आग्रह करता. एक दिन जब शैली उस के घर गईं तो संयोगवश वह अकेला था. उसे मौका मिल गया और उस ने शैली से अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया.

शैली कुछ कह नहीं सकी. आजाद की कई बातें वैसे भी शैली को पसंद नहीं थीं. उस पर विराज को भूल कर आजाद को अपनाने का हौसला उस में बिलकुल भी नहीं था. मन का वह कोना अब भी किसी गैर को स्वीकारने को तैयार नहीं था. शैली कुछ बोली नहीं, मगर उस दिन के बाद वह आजाद के सामने पड़ने से बचने का प्रयास जरूर करने लगी.

वक्त ऐसे ही गुजरता जा रहा था. शैली कभी आकर्षण की

नजरों से तो कभी ललचाई नजरों से पीछा छुड़ाने का प्रयास करती रहती.

कुछ दिन बाद जब राजन ने उस से 2 दिनों के बिजनैस ट्रिप पर साथ चलने को कहा तो शैली असमंजस में पड़ गई. वैसे इनकार करने का मन वह पहले ही बना चुकी थी, पर सीनियर से साफ इनकार करते बनता नहीं. सो सोमवार तक का समय मांग लिया. वह जानती थी कि इस ट्रिप में भले ही कुछ लोग और होंगे, मगर राजन को उस के करीब आने का मौका मिल जाएगा. उसे डर था कि कहीं राजन ने भी आजाद की तरह उस का साथ मांग लिया तो वह क्या जवाब देगी?

देर रात तक शैली पुरानी बातें सोचती रही. फिर पानी पीने उठी तो देखा बाहर बालकनी में सोनी खड़ी किसी से मोबाइल पर बातें कर रही है. थोड़ी देर तक वह उसे बातें करता देखती रही, फिर आ कर सो गई.

अगली रात फिर शैली ने गौर किया कि

11 बजे के बाद सोनी कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में खड़ी हो कर बातें करने लगी. शैली समझ रही थी कि ये बातें उसी खास फ्रैंड के साथ हो रही हैं.

सोनी के हावभाव और पहनावे में भी बदलाव आने लगा था. कपड़ों के मामले में वह काफी चूजी हो गई थी. अकसर मोबाइल पर लगी रहती. अकेली बैठी मुसकराती या गुनगुनाती रहती. शैली इस दौर से गुजर चुकी थी, इसलिए सब समझ रही थी.

एक दिन शाम को शैली ने देखा कि सोनी बहुत उदास सी घर लौटी और फिर कमरा बंद कर लिया. वह फोन पर किसी से जोरजोर से बातें कर रही थी. नेहा उस दिन रात में देर से घर लौटने वाली थी. शैली को बेचैनी होने लगी तो वह सोनी के कमरे में घुस गई, देखा सोनी उदास सी औंधे मुंह बैड पर पड़ी हुई है. प्यार से माथा सहलाते हुए शैली ने पूछा, ‘‘क्या हुआ डियर, परेशान हो क्या?’’

सोनी ने उठते हुए न में सिर हिलाया.

शैली ने देखा कि उस की आंखें आंसुओं से

भरी है. अत: शैली ने उसे सीने से लगाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ, किसी फ्रैंड से झगड़ा हो गया है क्या?’’

सोनी ने हां में सिर हिलाया.

‘‘उसी खास फ्रैंड से?’’

‘‘हां. सिर्फ झगड़ा नहीं आंटी, हमारा ब्रेकअप भी हो गया है, फौरएवर. उस ने मुझे

डंप किया… कोई और उस की जिंदगी में आ गई और मैं…’’

‘‘आई नो बेटा, प्यार का अकसर ऐसा ही सिला मिलता है. अब तुझ से कैसे

कहूं कि उसे भूल जा? यह भी मुमकिन कहां

हो पाता है? यह कसक तो हमेशा के लिए रह जाती है.’’

‘‘नो वे आंटी, ऐसा नहीं हो सकता. उसे मेरे बजाय कोई और अच्छी लगने लगी है, तो क्या मेरे पास औप्शंस की कमी है? बस आंटी, आज के बाद मैं दोबारा उसे याद भी नहीं करूंगी. हिज चैप्टर हैज बीन क्लोज्ड इन माई लाइफ. आप ही बताओ आंटी, यदि वह मेरे बगैर रह सकता है तो क्या मैं किसी और के साथ खुश नहीं रह सकती?’’

शैली एकटक सोनी को देखती रही. अचानक लगा जैसे उसे अपने सवाल का

जवाब मिल गया है, मन की कशमकश समाप्त हो गई है.

अगले दिन उस का मन काफी हलका था. वह जिंदगी का एक बड़ा फैसला ले चुकी थी. उसे अब अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना था. औफिस पहुंचते ही राजन ने उसे बुलाया. शैली को जैसे इसी पल का इंतजार था.

राजन की आंखों में सवाल था. उस ने पूछा, ‘‘फिर क्या फैसला है तुम्हारा?’’

शैली ने सहजता से मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘हां, मैं चलूंगी.’’

चिड़िया हुई फुर्र: शेखर और शिवानी के बीच क्यों आई दूरियां

शिवानी ने औफिस से आ कर ड्राइंगरूम में अपना बैग रखा. उस की मम्मी राधा और छोटा भाई विपिन अपनेअपने मोबाइल में लगे थे. दोनों ने थकीहारी शिवानी पर नजर भी नहीं डाली.

राधा ने मोबाइल से नजरें हटाए बिना ही कहा, ‘‘शिवानी, वंदना से कहना चाय मेरे लिए भी बनाए.’’

शिवानी को कोफ्त सी हुई. वह किचन में गई, तो खाना बनाने वाली मेड वंदना ने पूछा, ‘‘दीदी, चाय बना लूं?’’

‘‘हां, मां के लिए भी. खाने में क्या बना

रही हो?’’

‘‘भैया ने छोलेभूठरे बनाने के लिए कहा है.’’

‘‘क्या? फिर?’’

तभी राधा उठ कर किचन में आ गई, ‘‘क्यों वंदना क्या चुगलखोरी कर रही है? खाना बनाना ही तेरा काम है… जो कहा जाएगा चुपचाप

बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां मांजी, बना तो रही हूं.’’

शिवानी ने विपिन के पास जा कर कहा, ‘‘रोज इतना हैवी खाना बनवाते हो, कुछ अपनी हैल्थ का ध्यान करो. पेट देखा है अपना, कितना बढ़ रहा है. यह नुकसानदायक है, 25 के भी नहीं हो… रोज इतना हैवी खाना मुझ से भी नहीं खाया जाता है. कभी तो हलकी दालसब्जी बन सकती है.’’

राधा गुर्राई, ‘‘शिवानी, सुनाने की जरूरत नहीं है, पता है तेरा घर है, तेरी कमाई से चलता है तो इस का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी मरजी से खापी नहीं सकते.’’

‘‘मां, हर बात का गलत मतलब निकालती हो आप, उस के भले के लिए ही कह रही हूं.’’

‘‘तू अपना भला कर, हम अपना देख लेंगे,’’ कह कर पैर पटकती हुई राधा घर से बाहर सैर करने चली गई.

शिवानी जानती थी अब वे रोज की तरह

1 घंटा अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ गुप्पें मार कर आएंगी. आजकल जमघट तो जमता नहीं पर 1-2 तो मिल ही जाती हैं. थोड़ी देर बाद शिवानी का 7 साल का बेटा पार्थ खेल कर आ गया. शिवानी उसे फ्रैश होने के लिए कह कर उस का दूधनाश्ता अपने बैडरूम में ही ले गई. पार्थ को अपने पास ही बैठा कर वह अपनी कमर सीधी करने लेट गई, पार्थ से स्क्ूल और उस के दोस्तों की बातें करती रही.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने विपिन से जा कर कहा, ‘‘कल पार्थ का मैथ का टैस्ट है. आज जरा उस की पढ़ाई देख लो. मैं आज बहुत थक गई हूं. औफिस में बहुत काम था आज.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं मोबाइल पर फिल्म देख रहा हूं, मेरा मूड नहीं है.’’

शिवानी चुपचाप किचन में गई. वंदना काम खत्म कर ही चुकी थी, कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं यहां ज्यादा दिन काम नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘क्यों, वंदना? क्या हुआ?’’

‘‘मांजी बहुत किटकिट करती हैं, भैया बहुत काम बताते हैं. सुबह आप के औफिस जाने के बाद कि फालतू काम करवाती हैं. भैया के लिए दिनभर के नाश्ते बनवा कर रखती हैं. यहीं बहुत टाइम चला जाता है मेरा, दूसरे घरों के लिए रोज लेट होती हूं.’’

‘‘नहीं वंदना, तुम्हें काम तो यहां करना ही है. बस जो कहें करती रहो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी. यही कर सकती हूं मैं.’’

वंदना कुछ नहीं बोली. उसे शिवानी से मन ही मन सहानुभूति थी. शिवानी आ कर फिर लेट गई. पार्थ ने अपना स्कूल बैग खोल लिया था. उस का स्कूल अब पहले की तरह चलने लगा था और औनलाइन क्लासें कभीकभार ही होती थीं. वह सोच रही थी, उस के अपने मां, भाई से ज्यादा तो घर में काम करने वाली मेड उस की स्थिति समझती है.

वह वंदना जैसी ईमानदार मेड को हटाने की स्थिति में नहीं थी. उसे औफिस में देर हो जाती है तो वही पार्थ का खानापीना मन से देखती है. राधा और विपिन तो घर में रहने के बावजूद अपनी एक भी जिम्मेदारी नहीं समझते.

वह सोच रही थी जीवन में कुछ गलत तो हो ही गया है, अब वह कैसे ठीक करे उसे.

3 साल पहले वह और शेखर अलग हो गए थे. शेखर पार्थ से मिलने उस की अनुपस्थिति में आता रहता था या वीडियो चैट करता रहता था जो राधा और विपिन को सहन नहीं होता था. लेकिन शिवानी ने स्पष्ट और कड़े शब्दों में कह रखा था कि शेखर के साथ कोई दुर्व्यवहार न हो. लौकडाउन के बाद जब शेखर पार्थ को बाहर घुमानेफिराने, खिलानेपिलाने ले जाता था, दोनों मुंह बना कर बस बैठे रहते थे. शिवानी को अच्छा लगता था जब वह पार्थ को शेखर के साथ समय बिताने के बाद खुश देखती थी.

शेखर के साथ उस का वैवाहिक जीवन बहुत अच्छा बीता था. फिर कुछ

समय पहले जब उस के पिता की अचानक हृदयाघात से मृत्यु हो गई तो वह अपनी जिम्मेदारी समझ कर मां और भाई के खर्चे उठाने लगी थी. विपिन तब पढ़ रहा था. शिवानी और शेखर दोनों ही अच्छे पदों पर कार्यरत थे. दोनों ही खूबसूरत फ्लैट में अपना जीवन हंसीखुशी जी रहे थे. राधा स्वभाव से लालची किस्म की महिला थीं. उन्होंने बिना शिवानी से पूछे अपना दादर स्थित फ्लैट किराए पर दे दिया और अपने अकेलेपन की दुहाई दे कर शिवानी के साथ ही रहना शुरू कर दिया.

शेखर ने इस में भी कोई आपत्ति नहीं की. उसके मातापिता लखनऊ में रहते थे. साल में एकाध बार मुंबई आते थे और एक बार जब वे आए, राधा उन के साथ बहुत ही रुखाई और बदतमीजी से पेश आई… अपनी बेटी की कमाई की चर्चा करती रही.

शेखर के मातापिता चुपचाप जल्दी लौट गए. वे बेटे के घर में कोई लड़ाईझगड़ा नहीं चाहते थे, पर शेखर का मूड बहुत खराब हुआ. शेखर और शिवानी की आपस में बहुत बहस हुई. यह बात एक दिन में खत्म नहीं हुई, अकसर ऐसा होने लगा. राधा जब अपने सामान की लिस्ट शिवानी को पकड़ातीं, शेखर शिवानी से कहता, ‘‘शिवू, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर क्या तुम्हें नहीं लगता तुम्हारी मां और भाई तुम्हारी शराफत का फायदा उठाने लगे हैं?’’

शिवानी ने कहा था, ‘‘पर मैं क्या करूं, उन का ध्यान रखना फर्ज है न मेरा.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे पर जब भी हम दोनों की बहस होती है तुम्हारी मां के चेहरे पर एक विजयी मुसकान दिखती है मुझे.’’

‘‘नहीं शेखर, ऐसा कैसे हो सकता है?’’

शेखर ने फिर कुछ नहीं कहा था, लेकिन यह सच था कि राधा और विपिन ने घर के माहौल में इतनी कड़वाहट भर दी थी कि एक दिन शेखर घर से यह कह कर चला गया, ‘‘शिवू, मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों से भागने को नहीं कहता पर ये दोनों अब हमें बेवकूफ समझने लगे हैं जो तुम्हें नहीं दिख रहा है. उन की मांगें दिनबदिन बढ़ती जा रही हैं. मैं उन के हाथों बेवकूफ नहीं बन सकता, अपना घर किराए पर दे कर यहां क्यों रहते हैं? वहीं रहें. तुम आर्थिक सहायता करती रहो, तुम्हारे पिता का पैसा भी मिला है तुम्हारी मां को… वे आर्थिक रूप से इतनी भी बुरी हालत में नहीं हैं और विपिन चाहे तो अब कुछ कर सकता है… मेरा अपने ही घर में दम घुटता है… मैं किराए के फ्लैट में शिफ्ट कर रहा हूं, तुम्हें मेरी जब भी जरूरत हो, मैं यहीं हूं,’’ शेखर अपना सामान ले कर चला गया.

शेखर अपना सामान ले कर चला गया था. राधा ने चहकते स्वर में कहा था, ‘‘गया घमंडी आदमी, अब हम सब चैन से रहेंगे. तुम अकेली नहीं हो, तुम्हारी मां, भाई, बेटा है तुम्हारे साथ.’’

उसे भी उस समय शेखर पर गुस्सा आया था कि क्या होता अगर वह साथ रह कर एडजस्ट कर लेता. अगर शेखर के मातापिता, बहनभाई ऐसे साथ में रहते तो क्या वह तब भी सब के साथ एडजस्ट न करती, सह सोच कर उसे भी बहुत गुस्सा आ गया था.

दोनों फोन पर कभीकभी एकदूसरे का हाल पता कर लेते थे और पार्थ से मिलने शेखर आता रहता था. पता नहीं कितनी बातें सोच कर शिवानी की आंखों से आंसू अकसर बहते रहते थे. वह अच्छे पद पर थी, उस के पास पैसे भी थे. उसे किसी चीज की कमी नहीं थी पर एक उदासी उस के मन पर हर समय छाई रहती थी. राधा और विपिन की एकएक हरकत अब वह नोट करने लगी थी.

उसे साफ समझ आने लगा था कि मां की नजर में वह एक सोने की चिडि़या है जिस के पैसों पर मांबेटा बस ऐश कर रहे हैं. राधा खूब औनलाइन शौपिंग करती थी, और विपिन भी. उसे कोई काम करने का शौक नहीं था. वह एक नंबर का कामचोर और आलसी लड़का था. नहीं, वह सारा जीवन ऐसे तो नहीं बिता सकती, अपनी लालची मां और कामचोर भाई के हाथों बेवकूफ बनते हुए. कुछ तो करना पड़ेगा, पर क्या करे, राधा तो कुछ कहने से पहले ही रोनाधोना शुरू कर देती थीं, इमोशनल ब्लैकमेलिंग में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं.

अगले दिन शिवानी औफिस से लेट आई तो उस ने पूछा, ‘‘पार्थ कहां है?’’

राधा ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘वह आया था, ले गया है पार्थ को बाहर, हुंह.’’

शिवानी को अच्छा लगा. आज उसे आने में बहुत देर हो गई थी. अच्छा हुआ पार्थ बाहर है अपने पिता के साथ.

राधा के साथ विपिन भी शुरू हो गया, ‘‘दीदी, बंद कर दो पार्थ का उस के साथ जाना. पता नहीं पार्थ को क्याक्या सिखाता होगा वह आदमी.’’

शिवानी को भाई पर बहुत तेज गुस्सा आया पर वह बोली कुछ नहीं. पार्थ जब आया तो उस के हाथों में खूब सारे शौपिंग बैग्स थे. शेखर पार्थ को बिल्डिंग के नीचे ही छोड़ कर चला गया.

शिवानी के दिल में शेखर को देखने की एक हूक सी उठी. उस ने बालकनी से झंका पर वह जा चुका था. पार्थ के शौपिंग बैग्स टेबल पर रखते ही राधा उन्हें खोलखोल कर देखने लगीं. शिवानी भी वहीं खड़ी थी.

पार्थ चहकचहक कर बता रहा था, ‘‘मम्मी, बहुत मजा आया. अगली बार आप भी साथ चलना.’’

शिवानी की नजर आइसक्रीम पर पड़ी, मैंगो डिलाइट. शेखर को उस की पसंद का ध्यान था. उस की आंखें भर आईं. राधा और विपिन खानेपीने की चीजों पर हाथ साफ करने में जुटे थे. अब शिवानी को दोनों को देख कर कुछ नफरत सी हुई, लालची, खुदगर्ज, स्वार्थी मां और भाई. वह पार्थ के साथ अपने रूम में चली गई और देर रात तक पता नहीं क्याक्या सोचती रही.

अगली सुबह राधा ने कहा, ‘‘आज विपिन के साथ दादर जा रही हूं, वहां का

किराएदार खाली कर रहा है फ्लैट. एक चक्कर लगाती हूं कि अगली बार देने से पहले कुछ काम तो नहीं करवाना है.’’

शिवानी ने राहत की सांस ली. उन काजाना उसे आज कुदरत का दिया मौका लगा. दोनों चले गए.

शिवानी ने अपना और पार्थ का कुछ जरूरी सामान पैक किया. पार्थ के स्कूल जा कर उस की क्लासटीचर अनुपमा से मिली. अनुपमा शिवानी की सारी स्थिति से परिचित थी. शिवानी अनुपमा से कुछ देर बातें करती रही, फिर अपनी कार में पार्थ को बैठा कर आगे बढ़ गई.

शाम तक बाहर खापी कर, बाजारों में घूम कर मांबेटा आए तो घर में ताला लगा था, राधा बड़बड़ाईं, ‘‘उफ, अब क्या करें? आज तो शिवानी सुबह घर पर थी, मैं चाबी ले जाना ही भूल गई… और वैसे भी विपिन देख यह कोई दूसरा ताला है न?’’

‘‘हां मां, यह दूसरा ताला है. सामने वाले फ्लैट की आंटी से पूछ लो क्या पता दीदी ने चाबी वहां दी हो.’’

सामने वाले फ्लैट की डोरबैल बजाई. नेहा जिसे हमेशा शिवानी से सहानुभूति भी, जो उस के जीवन की हर उठापटक से परिचित थी, ने रुखे स्वर में राधा को बताया, ‘‘शिवानी ने कहा है, आप अपने दादर वाले फ्लैट में पहुंच जाइए. वह आप दोनों का सामान वहीं पहुंचवा देगी, वह पार्थ के साथ चली गई है.’’

राधा को तेज झटका लगा. पूछा, ‘‘कहां चली गई? किस के पास?’’

‘‘यह तो मुझे नहीं पता.’’

राधा ने विपिन को हैरानी से देखा… स्वार्थी रिश्तों का पिंजरा तोड़ कर सोने की चिडि़या तो फुर्र हो गई थी.

शर्त: जब श्वेता की मतलब की शादी बनी उसके गले की फांस

आजलगभग 16 साल बाद श्वेता ने सलोनी की तसवीर फेसबुक पर देखी और श्वेता फिर से छलांग लगा कर कालेज वाली छुईमुई उमराव जान बन गई. अदअसल 2 दशक पहले श्वेता और सलोनी अभिन्न मित्र थीं. दोनों के घरों में कोई समानता नहीं थी. सलोनी का राजमहल सा घर जो शहर की सब से पौश कालोनी कवि नगर में स्थित था वहीं श्वेता का छोटा सा घर निम्नवर्गीय कालोनी विजय नगर में था, पर इन सब बातों के बावजूद श्वेता और सलोनी की दोस्ती कलकल बहते हुए पानी की तरह चलती रही.

सलोनी जहां सांवले रंग, साधारण नैननक्श पर गजब के आत्मविश्वास की स्वामिनी थी वहीं श्वेता गौर वर्ण, भूरी आंखें, तीखे नैननक्श की मलिका थी. दोनों एकदूसरे के न केवल रंगरूप में, बल्कि आचारविचार में भी बिलकुल विपरीत थीं. जहां सलोनी बेहद बिंदास और दिल की साफ थी वहीं श्वेता थोड़ी सी सिमटी हुई और खुद में खोई रहती थी.

श्वेता मन ही मन अपने जीवनस्तर की तुलना सलोनी से करती और खुद को सदा कमतर पाती थी. पर उसे पूरा विश्वास था कि उस के राजसी रूपसौंदर्य के कारण वह किसी अमीर खानदान की ही बहू बनेगी और श्वेता के घर वह बडे़ और अमीर लोगों के तौरतरीके का अनुकरण करने ही जाती थी.

आज सलोनी का जन्मदिन था और सभी सहेलियां कानपुर के पांचसितारा होटल में इकट्ठा हुई थीं. वहीं पर सलोनी ने अपनी सब सहेलियों की मुलाकात विभोर से कराई, जो उस के पिता के मित्र का बेटा था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कानुपर के सरकारी कालेज से कर रहा था. विभोर 5 फुट 10 इंच लंबा आकर्षक नौजवान था.

जैसेकि आमतौर पर होता है, सब लड़कियों ने पूरा होटल सिर पर उठा रखा था बस श्वेता ही थी जो चुपचाप सहमी सी एक कोने में बैठी हुई थी.

विभोर ने मुसकराते हुए सलोनी से कहा, ‘‘ये छुईमुई कौन हैं, बिलकुल उमराव जान लग रही हैं.’’

सलोनी खींच कर श्वेता को वहीं ले गई और बोली, ‘‘यह छुईमुई श्वेता है और मेरी सब से पुरानी और करीबी दोस्त.’’

फिर खाना और्डर होने लगा. ऐसेऐसे व्यंजन जिन के नाम भी श्वेता ने नहीं सुने थे. वह और घबरा गई. तभी विभोर श्वेता की बगल में आ कर बैठ गया और मेनू कार्ड उस के हाथों से ले लिया. फिर धीमे से उस के कानों में बोला, ‘‘जो मैं और्डर करूंगा तुम भी वही करना.’’

यह सुन कर श्वेता की जान में जान आ गई. विभोर ने श्वेता जैसी कोई लड़की अब  तक देखी नहीं थी. उस की अपनी मां, बहनें बहुत ही अलग किस्म की थीं. यह छुईमुई जैसी लड़की से उस का पहला परिचय था. बातबात पर चेहरे का लज्जा से लाल हो जाना, दुपट्टे के कोने से खेलना, पसीनापसीना होना और बिना किसी प्रसाधन के भी इतना सुंदर दिखना, विभोर का यह पहला तजरबा था.

वापसी में श्वेता को घर जाने की जल्दी थी तो वह औटो के लिए निकल गई, तभी पीछे से विभोर आया और बोला, ‘‘छुईमुई तुम मेरे साथ चलो, मेरे कालेज का रास्ता वहीं से है.’’

श्वेता घबरा कर चुप खड़ी रही तो विभोर हंस कर बोला, ‘‘तुम्हें घर के बाहर ही उतार दूंगा, कौफी पीने के लिए घर के अंदर नहीं आऊंगा.’’

श्वेता चुपचाप बैठ गई और मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी. एक अजीब सी खुशी और दुविधा में घिरी श्वेता घर पहुंची. विभोर पहला ऐसा लड़का था, जिस ने इतना बेबाक हो कर उस से बात की. खोईखोई सी वह अपने पलंग पर लेट गई और विभोर का उसे छुईमुई कहना उस की तुलना उमराव जान से करना, सबकुछ ने उस के दिल के तार झंकृत कर दिए और उस की आंखों में इंद्रधनुषी रंग उतर आए, जिन के सपने वह बचपन से देखती आई थी.

श्वेता अब अपने रखरखाव का ध्यान पहले से अधिक रखने लगी थी और अब उस का अधिकतर समय सलोनी के घर ही व्यतीत होता था.

दरअसल, श्वेता विभोर को देखने के बहाने अपना डेरा सलोनी के घर जमाए रहती थी और यह बात सलोनी भी जानती थी. इसलिए उस ने एक दिन श्वेता से कह भी दिया, ‘‘श्वेता विभोर हर किसी से ऐसे ही मजाक करता रहता है, बहुत खिलंदड़ स्वभाव का है वह.’’

मगर श्वेता को लगा कि विभोर श्वेता के चारों ओर उमराव जान कह कर मंडराता रहता है, इसलिए सलोनी जलती है क्योंकि विभोर हमेशा सलोनी को काला हीरा कह कर चिढ़ाता है.

देखते ही देखते 2 वर्ष साल गए और श्वेता, विभोर और सलोनी की दोस्ती ऐसे ही चलती रही. विभोर ने कभी भी श्वेता से अपने प्यार का इजहार नहीं किया पर प्यार का क्या कभी इजहार करा जाता है, यह तो महसूस किया जाता है और श्वेता तो पिछले 2 सालों से श्वेता विभोर के प्यार में भीगी हुई थी. उसे तो मानो अपनी मंजिल मिल गई थी.

उधर विभोर को जहां एक तरफ श्वेता की खामोशी और घबराहट बहुत आकर्षक लगती थी वहीं सलोनी का आत्मविश्वास, उस की हर बात को मूक सहमति न दे कर तर्कवितर्क करना उसे प्रभावित करता था.

विभोर ने श्वेता से कोई वादा नहीं किया था पर श्वेता को पूरा विश्वास था कि विभोर उस का हाथ मांगने आएगा. कालेज खत्म हो गया था तो सलोनी ने अपने पापा का बिजनैस जौइन कर लिया था और श्वेता ने विभोर के प्रस्ताव का इंतजार करना आरंभ कर दिया.

विभोर और श्वेता फोन से एकदूसरे से लगातार संपर्क में थे. इस बीच विभोर की नौकरी लग गई पर वह अधिक खुश नहीं था, उसे और आगे बढ़ना था. श्वेता हर बार विभोर को फोन पर यह सुनाती थी कि उस के लिए बहुत सारे विवाह के प्र्रस्ताव आ रहे हैं पर विभोर को समझ नहीं आ रहा था कि श्वेता ये सब उसे क्यों बताती रहती है.

एक दिन झंझला कर उस ने फोन पर बोल भी दिया, ‘‘कैसी दोस्त हो तुम श्वेता मैं अपनी नौकरी के कारण परेशान हूं और तुम्हें बस विवाह की पड़ी है. हां मालूम है मुझे तुम बहुत खूबसूरत हो तो रोका किस ने है तुम्हें कर लो न शादी,’’ और फिर फोन काट दिया.

श्वेता को लगा कि विभोर असुरक्षित महसूस कर रहा है कि कहीं उस का विवाह कहीं और न हो जाए, पर मन ही मन श्वेता खुश थी कि चलो विभोर अब जल्द ही सिर के बल दौड़ा आएगा.

एक दिन अचानक शाम को सलोनी का फोन आया, उसे अर्जेंट बुलाया था. वहां जा कर देखा तो पता चला सलोनी उड़ीउड़ी सी घूम रही है, श्वेता को देखते ही बोली, ‘‘शुक्र है तुम आ गई, यार आज मेरा रोका है और सुनेगी किस के साथ?’’

श्वेता वहीं धम से बैठ गई और फिर बोली, ‘‘सलोनी यह कैसा मजाक है, विभोर तो अभी विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता है… उस ने मुझ से खुद बोला था.’’

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘अरे पगली तू बहुत भोली है, विभोर ने अपनी एक नई यूनिट आरंभ करी है और उस में मेरे पापा ने 50% पैसा लगाया है तथा उस यूनिट का बेसिक प्लान मेरा था तो दोनों के पापा ने सोचा जब एकसाथ काम ही करना है तो फिर जिंदगी भी एकसाथ क्यों न गुजारी जाए.’’

श्वेता कड़वाहट से चिल्ला कर बोली, ‘‘यह क्यों नहीं बोलती कि तुम ने अपने पैसों से उसे खरीद लिया है.’’

सलोनी श्वेता की बात सुन कर सकते में आ गई पर फिर भी संयत स्वर में बोली, ‘‘श्वेता, विभोर का अपना निर्णय है, उस ने सुंदरता से अधिक अपनी तरक्की को महत्त्व दिया है, तुम बहुत सुंदर हो श्वेता पर जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए काबिलीयत और स्मार्टनैस भी चाहिए, जो शायद उसे मुझ में नजर आई होगी.’’

श्वेता ने कहा, ‘‘यह नहीं हो सकता, विभोर मेरे अलावा और किसी से शादी नहीं कर सकता है और मैं तुम से हर बात में बेहतर हूं.’’

सलोनी बोली, ‘‘यह हो चुका है श्वेता, जरूरी नहीं है सब लोग रूप के ही दीवाने हों. कुछ लोग रूप से अधिक बुद्धि को भी महत्त्व देते हैं, मेरे ही कारण विभोर यह नया यूनिट लगा पाया है.’’

श्वेता बोली, ‘‘सलोनी अपने पापा के वैभव पर तुम्हें बहुत घमंड है न और इसी धन के बल पर तुम ने विभोर को हथिया लिया है पर मेरी भी यह बात सुन लो, अब रूपरंग के साथसाथ यह वैभव और धन भी मेरा दास बन कर रहेगा, यह मेरी शर्त है तुम से.’’

सलोनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी सोच गलत है श्वेता पर देखेंगे अगर कभी जिंदगी के किसी मोड़ पर टकराए तो.’’

उस दिन के बाद श्वेता ने सलोनी और विभोर नामक अध्याय अपनी जिंदगीरूपी किताब  से हमेशा के लिए खत्म कर दिया था पर वह अपनी शर्त नहीं भूली थी बस उस की जिंदगी का एक ही मकसद था किसी भी कीमत पर धनवान बनना, इस कारण वह एक के बाद एक मध्यवर्गीय रिश्ते नकारती रही और जहां श्वेता का मन करता था वहां दहेज की लंबी लिस्ट देख कर उस के घर वालों के पसीने छूट जाते. घर वाले श्वेता के रवैए से परेशान हो गए थे.

देखते ही देखते श्वेता ने 30 साल भी पूरे कर लिए. इसी बीच एक दिन श्वेता एक दूर की रिश्तेदारी में विवाह में सम्मिलित होने गई थी. वहीं पर उसे राजेश्वरी ने अपने बेटे विकास के लिए पसंद कर लिया. विकास खानदानी रईस था और बहुत अच्छे पद पर कार्यरत था, पर दिखने में बहुत ही साधारण था. विकास की पहली बीबी की 1 साल पहले मृत्यु हो गई थी और उस के 5 और 7 साल के 2 बच्चे थे.

जब यह रिश्ता आया तो श्वेता के मां और बाबूजी बोले, ‘‘सगी बेटी है सौतेली नहीं, पैसा हुआ तो क्या हुआ, है तो पूरे 38 साल का. न बाबा न ऐसा महल नहीं चाहिए और फिर 2-2 बच्चे भी हैं.’’

मगर श्वेता ने आगे बढ़ कर इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया. वह अपने एकाकी जीवन से ऊब चुकी थी और यह पहला ऐसा रिश्ता था जो उसे पसंद आया था. उसे विकास के बच्चों या विकास से कोई मतलब नहीं था, उसे मतलब था विकास के रुतबे से, पैसों से.

आज विवाह के 10 साल बीत गए थे, जिस धन के लिए श्वेता ने विवाह किया था   वह यहां पर भरपूर था. दोनों बच्चे होस्टल में थे और विकास उस की आंखों के इशारे पर उठता और बैठता था. फिर भी एक टीस थी श्वेता के मन में जो जबतब उसे मायूस कर देती थी.

विकास उसे हाथोंहाथ रखता था पर फिर भी दोनों का रिश्ता पतिपत्नी का नहीं, दास मालिक का सा लगता था. श्वेता जैसी खूबसूरत पत्नी पा कर विकास धन्य हो उठा था, वह हमेशा श्वेता की खूबसूरती का उपासक ही बना रहा. पति बनने की कोशिश कभी न करी. दोनों बच्चों के साथ श्वेता ने हमेशा एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. श्वेता और विकास के अपना कोई बच्चा कभी नहीं हो पाया था पर इस का भी श्वेता को कभी अफसोस नहीं हुआ था. बच्चा न होने के कारण श्वेता के शरीर पर मांस की एक परत भी नहीं चढ़ी थी, जैसी वह 10 साल पहले लगती थी वैसी ही आज भी लगती थी और आईने में यह देख कर श्वेता की गरदन घमंड से तन जाती थी.

ऐसे ही एक दिन श्वेता ने अचानक फेसबुक पर सलोनी को देखा और उस की तसवीर देख कर उसे असीम आनंद आ गया. सलोनी बेहद अनाकर्षक लग रही थी पर विभोर अभी भी जस का तस बना हुआ था, फिर से श्वेता के मन में टीस सी उठी. यह विभोर नाम की टीस ही थी जो उसे सामान्य होने नहीं देती थी.

और फिर नियति जैसे खुद ही सलोनी और विभोर को उस के सामने खींच लाई. विभोर को अपने व्यापार के सिलसिले में ही कोई फाइल पास करवानी थी, जो विकास की मदद से ही हो सकती थी.

जैसे ही दफ्तर में विकास को पता चला कि सलोनी, श्वेता के शहर की ही है और उस की मित्र भी थी तो फौरन विकास ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर लिया. श्वेता भले ही ऊपर से भुनभुना रही थी पर अंदर से बेहद खुश थी, चलो अब तो वह सलोनी को अपना राजपाट दिखा पाएगी, विभोर को भी तो पता चले कि उस ने क्या खोया है और किस कांच के टुकड़े को वह हीरा समझ कर ले गया है. बहुत घमंड था न सलोनी को अपनी योग्यता और स्मार्टनैस पर, परंतु आज सलोनी भी देख लेगी कि जीवन के तराजू में मेरे वैभव, मेरी सुंदरता का पलड़ा भारी है.

विभोर और सलोनी समय से कुछ पहले ही आ गए थे. दोनों पुराने दिनों को याद करने लगे पर श्वेता ऐसा व्यवहार कर रही थी जैसे उसे कुछ भी याद न हो.

श्वेता ने ही सलोनी से कहा, ‘‘क्या हाल बना रखा है सलोनी तुम ने… तुम पहले से तीन गुना हो गई हो, जिम नहीं जाती हो क्या?’’ और फिर बड़ी अदा से अपना साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए कनखियों से विभोर की तरफ देखने लगी पर विभोर की आंखों में सलोनी के लिए प्यार और सम्मान देख कर वह राख हो गई.

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘श्वेता, मां बनने के बाद तो वजन बढ़ ही जाता है. जब तुम्हारे खुद के बच्चे होंगे न तो पता चलेगा.’’

ऐसा लगा मानो श्वेता के मुंह पर किसी ने सफेदी पोत दी हो और फिर सलोनी अपने बच्चों का प्रशस्ति गान करने लगी.

तभी श्वेता को ध्यान आया उसे तो विकास के बच्चों के बारे में कुछ भी नहीं पता.  वह बस विकास की पत्नी ही बनी रही, उस ने उन बच्चों की मां बनने की पहल कभी नहीं की.

श्वेता ने फिर खाने की मेज पर सब को बुलाया, उसे पूरी उम्मीद थी कि सलोनी और विभोर उस के खाने की अनदेखी नहीं कर पाएंगे. पर यहां भी श्वेता को निराशा ही हाथ लगी. सलोनी अधिकतर व्यंजनों को देख कर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हारे व्यंजनों को देख कर विकास की सेहत का राज समझ आ गया.’’

विकास की बढ़ती हुई तोंद की तरफ उन दोनों का इशारा था. श्वेता कट कर रह गई.

श्वेता को समझ नहीं आ रहा था उस का रूप, उस का वैभव क्यों सलोनी और विभोर को प्रभावित नहीं कर पा रहा, विभोर उस की खूबसूरती पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है? विभोर और सलोनी के रिश्ते में बहुत सुंदर तालमेल था जो श्वेता के वैवाहिक रिश्ते से नदारद था, क्योंकि श्वेता ने तो विवाह बस धन के लिए किया था खाने के बाद विभोर और विकास कार्य संबंधी बातों के लिए बगीचे में बैठ गए. सलोनी को अपने वैभव से दमकते ड्राइंगरूम में बैठा कर, श्वेता कौफी लेने के लिए चली गई.

कौफी पीतेपीते सलोनी 2 मिनट रुकी. श्वेता को लगा शायद अब वह उस की मेहमाननवाजी की प्रशंसा करेगी पर सलोनी खिलखिलाकर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हें अपनी शर्त याद है क्या अभी भी? लगता है तुम ने शर्त जीत ली है.’’

श्वेता ने कोई जवाब नहीं दिया पर उस के मन को पता था कि वह फिर से शर्त हार गई है. उसे पता था कि वह खूबसूरत है पर बस अपने लिए.

‘‘उस ने विकास से शादी बस सलोनी से बराबरी के लिए की है पर सलोनी अब भी उस से कहीं आगे है, क्योंकि एक पत्नी की सफलता उस के रंगरूप में नहीं उस के पति और बच्चों के साथ उस के रिश्तों की गहराई और गरमाहट से झलकती है, जो श्वेता के विवाह में कहीं नहीं थी.

सलोनी खिलखिलाती हुई बगीचे की तरफ चली गई. श्वेता को लग रहा था उस की बेमतलब की शर्त ने उस की जिंदगी को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया, जिस की शायद कोई मंजिल ही नहीं है.

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