‘कंडोम’ जैसे टैबू पर बनीं है फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’, अविका गौर आईं नजर

हम सभी अत्याधुनिक जीवनशैली के आदी होते जा रहे हैं. मगर आज भी हमारे देश में ‘कंडोम’ टैबू बना हुआ है. आज भी लोग दुकानदार से ‘कंडोम’ मांगने में  झि  झकते हैं. जबकि ‘कंडोम’ कोई बुराई नहीं बल्कि जरूरत है. लोगों के बीच जागरूकता लाने व ‘कंडोम’ को टैबू न मानने की बात करने वाली फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ हाल ही में प्रदर्शित होने जा रही है.

इस फिल्म की खासीयत यह है कि इस के लेखन व निर्देशन की जिम्मेदारी किसी पुरुष ने नहीं, बल्कि एक महिला ने संभाली, जिन का नाम है- सारिका संजोत. इन की बतौर लेखक व निर्देशक यह पहली फिल्म है. पहली बार ही ‘कंडोम’ जैसे टैबू माने जाने वाले विषय पर फिल्म बना कर सारिका संजोत ने एक साहसिक कदम उठाया है.

फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ में ‘ससुराल सिमर’ फेम अभिनेता मनीष रायसिंघन व ‘बालिका वधू’ फेम अविका गौर के साथ ही ‘स्कैम 92’ फेम प्रतीक गांधी सहित कई अन्य कलाकारों ने अभिनय किया है.

पेश हैं, सारिका संजोत से हुई ऐक्सक्लूसिव बातचीत के मुख्य अंश:

अब तक की आप की यात्रा कैसी रही है और फिल्मों की तरफ मुड़ने की कोई खास वजह रही?

मैं गैरफिल्मी बैकग्राउंड से हूं. बचपन से फिल्में देखने का शौक रहा है. हर परिवार में मांबाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते हैं, वहीं मेरे पिता मु  झे फिल्म निर्देशक बनाना चाहते थे, जबकि उन का खुद का इस क्षेत्र से कोई जुड़ाव नहीं था. वे मु  झे हर तरह की फिल्में दिखाते थे. मैं ने मूक फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र से ले कर अब तक की लगभग हर भारतीय व कई विदेशी फिल्में देखी हैं, इसलिए दिनप्रतिदिन मेरे अंदर फिल्मों को ले कर उत्साह बढ़ता गया.

धीरेधीरे मैं ने फिल्म तकनीक को ले कर पढ़ना भी शुरू कर दिया और मेरे दिमाग में यह बात आ गई थी कि मु  झे फिल्म निर्देशन करना है. फिर मैं ने फिल्म के लिए कहानी लिखनी शुरू की. पटकथा लिखी. उस के बाद अब बतौर लेखक व निर्देशक फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ ले कर आई हूं. यह फिल्म बहुत ही अलग तरह के विषय पर है. मेरा मकसद लोगों का मनोरंजन करने के साथसाथ उन्हें संदेश भी देना है.

फिल्म ‘कहानी रबर बैंड’ की कहानी का विषय कहां से मिला?

देखिए, फिल्म देखतेदेखते मेरे अंदर समाज में घट रही घटनाओं में से कहानी तलाशने की स्वत: स्फूर्ति एक आदत सी बन गई थी. मैं ने कई घटनाक्रमों पर कई छोटीछोटी कहानियां लिख रखी हैं, जिन्हें फिल्म के अनुरूप विकसित करने की प्रक्रिया कुछ वर्ष पहले शुरू की थी. मैं ने कई कौंसैप्ट पर काम किया है. मेरी अगली फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ से एकदम अलग है. मेरा मानना है कि हमारे आसपास ही कहानियों का अंबार है.

मेरी एक सहेली ने उस के साथ ‘कंडोम’ को ले कर घटी एक घटना का जिक्र किया था, उसी से प्रेरित हो कर मैं ने ‘कहानी रबर बैंड की’ की कहानी को लिखा. मैं ने अपने अनुभवों से सीखा कि आम कहानियों को किस तरह से खास बनाया जाए. हमारी फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ एक हास्य फिल्म है, मगर हम ने इस में एक गंभीर व संजीदा मुद्दे पर बात की है.

आप ने फिल्म का नाम ‘कहानी रबर बैंड की’ क्यों रखा?

हमारी फिल्म का विषय समाज में टैबू समझे जाने वाले ‘कंडोम’ पर है. लोग ‘कंडोम’ खरीदने वाले को अजीब सी नजरों से देखते हैं, जबकि ‘कंडोम’ हर मर्द और औरत की जरुरत है. सिर्फ परिवार नियोजन के ही दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी ‘कंडोम’ अति आवश्यक है. मगर लोगों को दुकान पर जा कर ‘कंडोम’ मांगने में शर्म आती है तो हम ने सोचा कि क्यों न इसे एक ऐसा नाम दिया जाए, जिसे लोग सहजता से ले सकें. तब हम ने इसे ‘रबर बैंड’ नाम दिया. ‘रबर बैंड’ बोलने में किसी को भी न संकोच होगा और न ही शर्म आएगी.

फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’ की कहानी को ले कर क्या कहना चाहेंगी?

देखिए, चूक तो हर इंसान से होती है. हमारी फिल्म के नायक से भी चूक होती है. वह जब दुकानदार से इशारे में ‘कंडोम’ खरीदा और दुकानदार ने भी उसे कागज में लपेट कर पकड़ा दिया, वह चुपचाप घर आ गया. उस ने उस की ऐक्सपायरी की तारीख या कीमत कुछ भी चैक नहीं किया, पर इसी चूक की वजह से उस की पत्नी की जिंदगी में किस तरह की समस्याएं आती हैं, उसी का इस में चित्रण है.

चोरी करने वाले को सजा मिलती है पर यहां चोर कौन हैं? गलती किस की है और जिस की गलती है, उसे साबित कैसे किया जाए? फिल्म में हमारा नायक जिस ‘कंडोम’ को खरीद कर लाता है, वह फट जाता है, जिस से समस्याएं पैदा होती हैं. स्वाभाविक तौर पर दुकानदार ने सस्ता या ऐक्सपायरी वाला ‘कंडोम’ दिया था. पर सवाल है कि इस बात को अदालत में कैसे साबित किया जाए?

लेकिन ‘कंडोम’ पर ही कुछ समय पहले फिल्म ‘जनहित में जारी’ आई थी, जिसे दर्शकों ने पसंद नहीं किया था?

हर फिल्मकार चाहता है कि उस की फिल्म को ज्यादा से ज्यादा दर्शक देखें. मगर ‘जनहित में जारी’ के फिल्मकार का संदेश अलग था और मेरी अपनी फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’ का संदेश अलग है. हम किसी एक जैंडर को सहज नहीं करना चाहते. हम हर इंसान को ‘कंडोम’ के संदर्भ में सहज करना चाहते हैं. हम किसी लड़की से कहेंगे कि वह ‘कंडोम’ बेच कर आए, तो इस से बदलाव आएगा? जी नहीं.

इस से टैबू खत्म होगा? जी नहीं. हमें बैठ कर बड़ी सरलता से हर बच्चे को ‘कंडोम’ को दवा के रूप में बताना होगा. जब तक हम अपने बच्चों से कहेंगे कि बेटा, उधर से मुंह मोड़ ले’ या उधर मत देख, तब तक ‘कंडोम’ टैबू बना रहेगा. हम जब अपने बच्चों से कहते हैं कि उधर मत देखो, तभी हम अपने बच्चों के मन में गलत बात डाल देते हैं.

मैं यह भी नहीं कहती कि आप उपयोग किया हुआ या बिना उपयोग किया हुआ ‘कंडोम’ खुले में सड़क पर फेंक दो, पर यदि ‘कंडोम’ कहीं रखा है, तो उसे बच्चे न देखें, यह सोच गलत है. हम यह बता कर कि यह बड़ों की दवा है, सबकुछ सहज कर सकते हैं. हम अपनी फिल्म के माध्यम से टैबू को खत्म करने की बात कर रहे हैं.

हमारी फिल्म की कहानी ‘कंडोम’ को ‘टैबू’ मानने की वजह से होने वाली समस्याओं पर बात करती है. हमारी फिल्म किसी लड़की से कंडोम बेच कर पैसा कमाने की बात नहीं कर रही. हमारी फिल्म में यह कहीं नहीं है कि किसी के पास थोक में ‘कंडोम’ आ गए हैं, तो अब वह सोच में है कि इन्हें कैसे बेचा जाए? तो ‘जनहित में जारी’ के फिल्मकार का कहानी व समस्या को देखने का नजरिया अलग था. मेरा अपना अलग नजरिया है. यदि कोई भी लड़का या लड़की 14 वर्ष का होगा, तो उसे मेरी फिल्म की बात समझ में जरूर आएगी.

दूसरी बात मेरा मानना है कि ‘कंडोम’ खरीदने की जो  झि  झक है, वह एक दिन में नहीं जाने वाली है. हमें बच्चों के साथ बैठ कर मीठीमीठी बातें करते हुए उन्हें यह समझ कर कि यह बड़ों की दवा है, उन के मन से  झि  झक को दूर करना होगा.

फिल्म के प्रदर्शन के बाद किस तरह के बदलाव की उम्मीद करती हैं?

मु  झे उम्मीद है कि ‘कंडोम’ टैबू नहीं रह जाएगा. इसे ले कर समाज में जो हालात हैं वे बदलेंगे. लोगों की  झि  झक दूर होगी. वे इस पर खुल कर बात करेंगे और अपने बच्चों को भी ‘कंडोम’ को बड़ों की दवा के रूप में बताना शुरू करेंगे.

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