लेखिका- प्रेमलता यदु
लेखिका- प्रेमलता यदु
लेखिका- प्रेमलता यदु
आज कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षा का अंतिम पेपर था. मैं ने सारे पेपर बहुत अच्छे सौल्व किए. और तो और, मेरा फिजिक्स का पेपर भी उम्मीद से ज्यादा ही अच्छा रहा जिसे ले कर मैं वर्षभर परेशान रही, कभी समझ ही न पाई कि आखिर फिजिक्स में इतने सारे थ्योरम क्यों हैं. आज सफलतापूर्वक मेरी परीक्षा समाप्त हो गई जिस का मुझे बेसब्री से इंतजार था परंतु एग्जाम हौल से बाहर निकलते ही मेरा मन बेचैन हो उठा क्योंकि आज स्कूल में हमारा आख़री दिन था.
अब हम सभी संगीसाथी छूट जाएंगे, यह सोच कर ही हृदय की व्याकुलता बढ़ गई. कई वर्षो का साथ एक क्षण में छूट जाएगा. सभी फ्रैंड अपनेअपने सपनों को पूरा करने अलगअलग दिशाओं में बंट जाएंगे. लेकिन, यह तो होना ही था. हर किसी को अपने जीवन में कुछ बनना था, एक मुकाम हासिल करना था. लेकिन मेरा सपना…मेरा सपना तो कुछ और ही था.
मैं बचपन से दादी की परियों वाली कहानियां सुनती आई थी जिन में परीलोक से सफेद घोड़े पर सवार सपनों का एक राजकुमार आता है जो राजकुमारी को अपने संग परियों के देश ले जाता है. मैं भी, बस, एक ऐसे ही राजकुमार को अपने नयनों में बसाए बैठी थी.
एक आम लड़की की भांति मैं खुली आंखों से यह सपना देखा करती, यही सोचा करती कि ग्रेजुएशन कंपलीट होते ही मेरे सपनों का राजकुमार आएगा, जिस के संग ब्याह रचा कर मैं एक हैप्पी मैरिड लाइफ़ गुजारूंगी.
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हम सभी फ्रैंड्स जुदा होने वाले थे. सभी एकदूसरे के गले लग रहे थे, टच में रहने का वादा कर रहे थे, स्लैम बुक में अपने फेवरेट हीरो, हीरोइन, फेवरेट डिशेस से ले कर अपने फास्ट और क्लोज फ्रैंड का नाम लिख रहे थे. मैं भी लिख रही थी और अपनी क्लोज फ्रेंड रूही के स्लैम बुक पर उस का नाम लिखते ही मैं रो पड़ी और वह भी अपना नाम देख मुझ से लिपट गई. फिर न जाने कितनी देर हम यों ही एकदूसरे से गले लग कर रोते रहे. फिर धीरे से रूही ने मेरे कानों में कहा- “आई होप, तेरे सपनों का राजकुमार तुझे जल्दी मिले.”
उस का इतना कहना था कि मुझे हंसी आ गई और फिर हम दोनों रोतेरोते हंस पड़े.
आज रात की ही ट्रेन से रूही अपने घर लौट रही थी क्योंकि वह होस्टलर थी और अब आगे की पढ़ाई रूही अपने ही शहर से करने वाली थी. हम कब मिलेंगे, इस बात का हमें कोई इल्म नहीं था. इसलिए रूही ने मुझ से वादा लिया कि जब भी मुझे मेरे ख्वाबों का शहजादा मिल जाएगा, मैं सब से पहले उसे ही इन्फौर्म करूंगी.
उस रोज़ हम ने सारा दिन साथ बिताया. स्कूल के सामने लगे चाट के ठेले पर हम ने मेरी पसंदीदा कटोरी चाट खाई, फिर रूही की मनपसंद तीखी वाली भेलपूरी, जिसे खाते ही कानों से धुआं और आंखों से पानी निकलने लगता लेकिन हमें तो भेल यही अच्छी लगती. उस के बाद आया पानीपूरी का नंबर और हम दोनों ने जीभर कर कभी खट्टी, कभी तीखी, कभी मीठी, कभी पुदीने वाली तो कभी दही वाली सभी प्रकार की पानीपूरियों का पूरापूरा लुत्फ़ उठाया.
घर जाने से पूर्व हम अपने स्कूल से लगे चर्च पर चले गए जहां हम अकसर जाया करते थे. वहां चर्च के भीतर जा कर मैं हमेशा की तरह रूही का नाम पुकारने लगी और उस का नाम इको होने लगा. साउंड का इस प्रकार इको होना मेरे मन को प्रफुल्लित करता और रूही को परेशान, वह बारबार मुझे ऐसा करने से रोकती और मैं उस का नाम दोहराती. जब भी हम चर्च आते, ऐसा ही करते और आज भी वही कर रहे थे. थोड़ी देर ऐसा करने के पश्चात हम घुटने टेक प्रेयर की मुद्रा में बैठ गए. एकदूसरे के लिए प्रण लिया कि सदा हमारी दोस्ती यों ही बरकरार रहे. फिर चर्च कंपाउंड में आ हम मदर मरियम के बुत को देखते रहे. मदर मरियम की गोद में यीशु को देख कर हम दोनों मंत्रमुग्ध हो गए.
चर्च से निकलने के बाद सामने ही बर्फ के गोले वाला दिख गया लेकिन तब तक हमारे पास पैसे खत्म हो चुके थे. रूही के पास केवल एक रुपए ही शेष बचा था, सो उस ने एक बर्फ का कालाखट्टा गोले का चुस्की ले लिया और हम दोनों ने मिल कर उस चुस्की का आनंद लिया. शाम होने वाली थी, मुझे घर लौटना था और रूही को होस्टल, एक बार फिर हम दोनों ने एकदूजे को गले लगा लिया और फिर हमारी आंखें नम हो गईं.
भारीमन से मैं घर लौटी तो मैं ने देखा, मेरा छोटा भाई जय अपना बैग पैक कर रहा है और अम्मा मिठाइयां बना रही है. तभी अम्मा मुझे देखते ही बरस पड़ी- “पीहू, तू अभी आ रही, मैं ने तुझ से कहा था न, एग्जाम खत्म होते ही सीधे घर आना लेकिन तुझे सुनना कहां है. ज़रूर तू अपनी उस बेस्ट फ्रैंड रूही के साथ घूम रही होगी. अच्छा अब जल्दीजल्दी मुंहहाथ धो कर किचन में आ के मेरा हाथ बंटा, कल मुंहअंधियारे ही हमें गांव निकलना है.”
यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी और “जी अम्मा, अभी आती हूं” कह फौरन हाथमुंह धो किचन में आ अम्मा का हाथ बंटाने लगी. हर साल स्कूल की परीक्षाएं समाप्त होते एवं गरमी की छुट्टियां लगते ही हम दादी के पास गांव बलिया चले जाते. वहां चाचा का परिवार दादी के साथ रहता था. चाचा के 2 बच्चे हैं. हमारी बूआ भी अपने दोनों बच्चों के संग वहीं गांव आ जातीं. पूरा परिवार इकट्ठा होता.
सुबहसवेरे गांव के लिए निकलना है इस कल्पना मात्र से ही मन रोमांचित हो उठा और मैं सारी रात करवटें बदलते हुए सुबह होने का इंतजार करने लगी. गांव में बिताए सुनहरे लमहों को स्मरण कर आज भी वही आनंद की अनुभूति हो रही थी.
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हर साल गरमी की छुट्टियों में हम सभी बच्चे गांव में पूरा दिन धमाचौकड़ी मचाते, कभी भरी दोपहरी में बेर तोड़ने निकल जाते तो कभी किसी आम के बागीचे में घुस कर कच्चेपक्के, खट्टेमीठे, छोटेबड़े जो भी हमारे पहुंच के भीतर होता सब तोड़ लेते. कभीकभी तो पेड़ पर भी चढ़ जाते. और तो और. कच्चे रास्तों पर जानबूझ कर धूल उड़ाते हुए ऐसे चलते जैसे कोई पराक्रमी कार्य कर रहे हों.
खेतों की मेड़ों पर बनी पगडंडियों में अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा बैलेंस करते हुए गिरने से बचने का प्रयत्न करते और एकदूसरे से आगे निकल जाने की होड़ होती. मैं हमेशा सब से आगे निकल जाती. जिस दिन हम घर से बाहर नहीं जा पाते, उस रोज़ तो पूरा दिन छत पर पतंगबाजी में बीतता. दिन चाहे जैसे भी बीते लेकिन रात होते ही हम सभी बच्चे दादी को घेर कर बैठ जाते और उन से राजकुमारी, राजकुमार और परियों की कहानियां अवश्य सुनते. इन्हीं सब बातों को याद करते हुए न जाने मैं कब निद्रा की आगोश में चली गई.
खटरपटर की आवाज़ से नींद खुली तो देखा अम्मा, बाबूजी और जय सब जाग गए है. तभी अम्मा ने पुकार लगाई- “पीहू, जल्दी उठो. औटोरिकशा बस आने ही वाला है. जैसे ही मेरे कानों में यह वाक्य पड़ा, मैं फटाफट उठ कर तैयार हो गई. थोड़ी ही देर में कालोनी के चौक से औटो रिकशा भी आ गया. रिकशा चल पड़ा.
भोर की ठंडीठंडी सुहावनी पुरवा फिज़ा को खुशगवार बना रही थी. सूर्य उदय और चंद्रमा का बादलों में धीरेधीरे छिपने का यह वक्त व दो वेलाओ के संगम का यह दृश्य बड़ा ही अलौकिक और मनभावन प्रतीत हो रहा था. सिंदूरी रंग लिए हुए आसमां आकर्षक लग रहा था. कुदरत की यह चित्रकारी अद्भुत, अद्वितीय है, इस बात का एहसास मुझे इसी क्षण हुआ.
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लेखिका- प्रेमलता यदु
यह पल मेरे लिए अत्यंत दुखद एवं आश्चर्य से परिपूर्ण था. आखिर कोई इतना अभिमानी कैसे हो सकता है. लायब्रेरी कार्ड बनाने के दौरान ज्ञात हुआ कि अनादि एम कौम फाइनल ईयर में है और वह इस कालेज का मेघावी छात्र है. उस पर फर्स्ट ईयर से ले कर फाइनल ईयर तक की लड़कियां मरती हैं. वह इस कालेज की शान व लड़कियों की जान है. पढ़ाईलिखाई, खेलकूद से ले कर सांस्कृतिक गतिविधियां सब में उस की जबरदस्त पकड़ है. इतनी जानकारी पर्याप्त थी उस के इस अप्रत्याशित बेरुखे बरताव को समझने के लिए.
सैशन स्टार्ट हो चुका था. मैं अपनी पढ़ाई, प्रैक्टिकल, थ्योरी इन सब पर ध्यान देने लगी. अलगअलग फैकल्टी होने के बावजूद अनादि से मेरा सामना रोज़ ही हो जाता. मैं अनादि को देख भावुक हो जाती. मुझे इस बात का डर था कहीं मेरे दिल में हिलोरे मार रहा प्यार, नज़रों से इज़हारे मोहब्ब्त का राज़ ज़ाहिर न कर दे, इसलिए मैं सदा अपनी पलकें झुकाए चुपचाप आगे निकल जाती. वह भी मुझे तिरछी नजरों से देखता, फिर व्यंग्यात्मक मुसकान के साथ अकड़ता हुआ चला जाता.
सैशन बीतने को था, फाइनल एग्जाम की डेट्स आ गई थीं, लेकिन अब तक मैं अनादि से हाले दिल न कह पाई थी. कहती भी कैसे, उस की बेवजह की बेरुखी व अहम आड़े आ जाते जो मुझे कुछ कहने या करने की इजाजत न देते.
एग्जाम से पहले कालेज में फाइनल ईयर के स्टूडैंट्स के लिए फेयरवेल पार्टी का आयोजन किया गया, जिस में सभी छात्रछात्राओं ने बड़ी ही शिद्दत से शिरकत की. पार्टी हौल में बज रहे इंस्ट्रूमैंटल म्यूजिक पर सभी के पांव डांसफ्लोर पर थिरक रहे थे. अनादि तो न जाने कब से डांस कर रहा था. हर लड़की उस के संग डांस करना चाह रही थी और वह भी हर किसी के साथ डांस करने में मगन था. उस का यह बेबाकपन मुझे हैरान और परेशान कर रहा था. दिल के हाथों मजबूर कई बार खुद ही मेरे कदम अनादि की ओर उठते और फिर थम जाते. मैं नहीं चाहती थी अपने आत्मसम्मान को ताक में रख कर उस के करीब जाऊं.
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झुंझलाहट में मैं पार्टी बीच में ही छोड़ आई और रूही को फोन पर सारा वृतांत सुनाने बैठ गई. अपने जीवन में घटित हो रहे पलपल की खबर मैं रूही को देती. रूही हर बार कुछ ऐसा कहती कि मैं फिर अनादि में खोने लगती. इस दफा भी रूही अनादि के पक्ष में ही बोली- “अनादि केवल पार्टी एंजौय कर रहा था. उस ने तो किसी लड़की को मजबूर नहीं किया अपने साथ डांस करने को. यदि वे लड़कियां खुद ही उस के पास जा रही थीं तो वह क्या करता, तेरी तरह पार्टी छोड़ कर चला जाता.”
मैं ने रूही को कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मुझ में गुस्सा और चिढ़ इतना भरा था कि मैं तीन दिनों तक कालेज नहीं गई यह जानते हुए कि इस के बाद प्रिप्रेशन लीव लग जाएगी. तीसरे दिन शाम को तकरीबन पांचसाढ़ेपांच बजे डोरबैल बजी. उस वक्त बाबूजी औफिस से आए नहीं थे. अम्मा किचन में थीं. जय हौल में और मैं मुंह फुलाए अपने रूम में औंधी पड़ी थी. दरवाजा जय ने खोला और उस ने मुझे आवाज़ लगाई- “दीदी, तुम्हारे कालेज से कोई आया है.”
यह सुनते ही मैं फौरन उठ हौल में आ गई और जय वहां से चला गया. मैं ने देखा, सामने अनादि का फ्रैंड हाथों में व्हाइट लिफाफा लिए खड़ा है. मुझे देख वह मेरी ओर लिफाफा बढ़ाते हुए बोला- ” यह अनादि ने भेजा है.”
यह सुनते ही मैं ने लपक कर वह लिफाफा लगभग उस के हाथों से छीन लिया. अनादि ने मेरे लिए भेजा है, इस खुशी में मैं शिष्टाचार ही भूल गई. मैं ने उसे बैठने तक को नहीं कहा. वह थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर “अच्छा, चलता हूं” कह वह चला गया.
मैं तुरंत अपने कमरे में आई और बिना रुके तेज सांसों के साथ लिफाफा खोलने लगी. लिफाफे में से हौल परमिट कार्ड निकला जो एग्जाम में बैठने के लिए अनिवार्य होता है. मैं अधीर हो लिफाफा को यह सोच कर उलटपुलट करने लगी कि शायद अनादि ने कुछ भेजा हो या इस में मेरे लिए कुछ लिखा हो लेकिन ऐसा कुछ नहीं था उस लिफाफे में. केवल हौल परमिट कार्ड ही था. उस को एक तरफ फेंक मैं धड़ाम से फिर पलंग पर लेट गई.
प्रिप्रेशन लीव शुरू हो गई थीं. कालेज जाना बंद हो गया था और फिर कुछ ही दिनों में फाइनल एग्जाम भी प्रारंभ हो गए. अलग फैकल्टी होने की वजह से एग्जाम के दौरान अनादि से आमनासामना नहीं होता. एग्जाम समाप्त हो गया और हम दादी के पास गांव आ गए. यहां गांव में मैं घंटों छत पर इस आशा में बैठी रहती कि शायद अनादि गांव आएगा लेकिन वह नहीं आया.
अब दादी की परियों वाली कहानियां भी अच्छी न लगतीं. शरारत करने का भी जी न करता. अचानक मेरे अंदर आए इस बदलाव से मैं स्वयं हैरान थी क्या प्यार में वाकई ऐसा होता है… गरमी की छुट्टियां समाप्त हो गईं और हम घर लौट आए. फिर वही सिलसिला आरंभ हो गया, मैं रोज बुझेमन से कालेज जाती और फिर घर लौट आती.
सपनों की हसीन दुनिया से अब मैं हकीकत के धरातल पर आ पहुंची थी जहां वैसा कुछ भी नहीं था जैसा दादी अपनी कहानियों में सुनाया करतीं. मैं जान चुकी थी किस्सेकहानियां केवल किताबों में ही सच हुआ करते हैं, यथार्थ में नहीं. जब सपने सचाई की असलियत से टकराते हैं तो सारे ताश के पत्तों की तरह एक छोटी सी फूंक से ढह कर बिखर जाते हैं.
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अनादि को देखे पूरा वर्ष बीत गया था. बहुत प्रयासों के बाद भी अनादि की कोई जानकारी मेरे पास न थी. वह होस्टलर था और पढाई पूरी करने के बाद वह यहां से चला गया. लेकिन उस के प्रति मेरे दिल में पनपा प्रेम कम होने के बजाय पूर्णमासी के चांद की भांति दिनोंदिन बढ़ने लगा. उस वक्त रूही थी जो मुझे भावनात्मक संबल प्रदान कर टूटने से बचाए हुए थी.
एक रोज जब मैं कालेज से घर आई, अम्मा ने मुझे गले से लगा लिया. मैं समझ न पाई क्या हुआ, फिर अम्मा मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं- “पीहू, तू कितना भागोवाली है.”
मैं अश्चार्य से अम्मा को देखने लगी तो वे मेरा माथा चूमती हुई बोलीं- “तेरे लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है. लड़का जयपुर में बैंक अधिकारी है. आज शाम वह अपने मातापिता के साथ घर आ रहा है.”
यह सुनते ही मेरे पैरोंतले जमीन खिसक गई. मेरे नयन भीग गए. और मैं काफी देर तक रोती रही. रूही को बारबार फोन करने लगी लेकिन वह फोन रिसीव नहीं कर रही थी.
निर्धारित समय पर सब आ गए. लेकिन मैं अपने कमरे से बाहर न निकली. कुछ देर बाद अम्मा मेरे कमरे में आईं. मुझे और कमरे को अव्यवथित देख कर बोलीं- “अरे पीहू, यह क्या… तुम ने कमरे का क्या हाल बना रखा है और तू अब तक तैयार नहीं हुई. अच्छा चल अब, जल्दी से अपने बालों को संवार ले. लड़का तुझ से मिलना चाहता है. वह टेरेस में है जा उस से मिल ले.”
मैं बालों को बिना संवारे सूजी आंखों के साथ तमतमाती हुई टेरेस पर पहुंची. सामने औफ व्हाइट शर्ट और एश कलर की जींस पहने एक डैशिंग लड़का खड़ा था. मेरी आंखें चौड़ी हो गईं और मैं अपलक उसे देखती रही, यह तो अनादि है. मैं कुछ कहती, इस से पहले उस का मोबाइल बज उठा और उस ने फोन मेरी ओर बढ़ा दिया. मैं स्तब्ध रह गई. फोन पर रूही थी. मेरे हैलो कहते ही वह हंसती और शरारती अंदाज में बोली- “सपनों का राजकुमार मुबारक हो…”
रूही ने मुझे बताया अनादि तो अपना दिल उसी दिन हार बैठा था जब उस ने मुझे पहली बार छत पर अपने गीले बालों को झटकते देखा था. लेकिन वह मेरी जिंदगी में आने से पूर्व स्वयं को इस लायक बनाना चाहता था कि वह अम्मा, बाबूजी से मेरा हाथ मांग सके. रूही से बात कर के सारी बातें साफ हो चुकी थीं. रूही के फोन रखते ही मैं आंखों में असीम प्यार लिए हुए अनादि की ओर देखने लगी.
अनादि मेरी दोनों हथेलियों को थामते हुए बोला- “और कुछ जानना है?”
मैं ने हौले से न में सिर हिला दिया. बादलों में चांद निकल आया था. चांदनी रात थी. चांद की शीतल रोशनी हम पे पड़ने लगी. तारे जगमगा रहे थे. रात की रानी और रजनीगंधा की मदहोश कर देने वाली खुशबू फिज़ा को खुशगवार बना रही थी. बादल ने चांदसितारों की चादर हम पे तान दी और मैं अपने सपनों के राजकुमार की बांहों में सिमटने लगी.
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लेखिका- प्रेमलता यदु
निर्धारित समय पर हम रेलवे स्टेशन पहुंचे और जैसे ही हम अपने आरक्षित बर्थ के निकट पहुंचे, मैं ने लपक कर विन्डो सीट अपने भाई से हथिया ली. वह खिसियाया हुआ मुझे तिरछी नजरों से घूरने लगा. लेकिन मैं उस की परवा किए बगैर विन्डो सीट पर जम कर बैठ गई. कुछ समय बाद ट्रेन धीमी गति से चलने लगी और देखते ही देखते उस की रफ़्तार तेज़ हो गई.
एक के बाद एक सारे स्टेशन पीछे छुटते जा रहे थे और मैं खिड़की पर अपनी कुहनी टिकाए बाहर के नज़ारे व प्रकृति का मनोरम दृश्य देखने में लीन हो गई. गांव पहुंचे तो देखा बूआ भी अपने दोनों बच्चों के साथ आ चुकी थीं. सब से मिल कर सफ़र की सारी थकान उड़नछू हो गई और हम सब बच्चों की टोली भी पूर्ण हो गई.
रात के खाने और दादी की कहानियों के पश्चात दूसरे दिन जब मैं नहा कर अपने बालों को सुखाने छत पर गई और बेसुध हो अपने बालों को झटकने लगी तभी सहसा मेरी नज़रें सामने वाले छत पर जा टिकीं और मेरा जी धक से हुआ. मेरी सांसें थमने लगीं. ऐसा लगा जैसे किसी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक दिया हो. दिल में अजीब सी हलचल व तरंगें उठने लगीं. मैं ने देखा व्हाइट टीशर्ट और ब्लू जींस में एक हैंडसम डैशिंग लड़का आंखों में ऐनक चढ़ाए, हाथों में किताब लिए कुछ पढ़ रहा है. मेरी निगाहें उसी पर ठहर गईं. वह मेरे दिल में मच रही खलबली से बेखबर अपनी ही धुन में किताब पर आंखें गड़ाए बैठा था.
आज से पहले मैं ने उसे कभी इस गांव में नहीं देखा. यह कौनहै? मोहन काका की छत पर क्या कर रहा है? उस ने मेरी ओर देखा होगा या नहीं? ऐसे अनेक सवाल मेरे ज़ेहन में कौंध गए. तभी मेरी बूआ की बेटी रीमी आ गई और कहने लगी- “पीहू, जल्दी चलो, सब तुम्हारी राह देख रहे हैं.”
मैं हड़बड़ा कर उस के संग नीचे आ गई. बच्चों की टोली गांव की गलियों, खेतों और बागीचों पर ऊधम मचाने को तैयार खड़ी थी. लेकिन मेरा ध्यान छत पर बैठे, मेरे उस चितचोर पर जा अटका था जिस की एक छोटी सी झलक ने मुझे इंगित कर दिया कि यही मेरे सपनों का राजकुमार है जिस का मुझे बरसों से इंतज़ार था. मेरे मन ने मुझ से सवाल किया, क्या यही प्यार है…?
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मन में आए इस ख़याल को मैं शेयर करना चाहती थी किंतु यहां इस घर पर ऐसा कोई नहीं था जिस से मैं हालेदिल बयां कर सकूं. वैसे तो रीमी मेरी हमउम्र, सहेली और बहन सबकुछ थी लेकिन उस के बावजूद मुझे रूही की कमी महसूस हो रही थी. काश, वह इस वक्त यहां होती, मैं अपना दिल खोल कर रख देती.
किसी से कुछ कहे बगैर सब के साथ मैं घर से बाहर निकल तो आई परंतु मन छत पर ही छूट गया था और अब पहले जैसी शरारतें सूझ भी नहीं रही थीं. सब मौजमस्ती कर रहे थे और मैं मस्ती करने का नाटक. तभी चाचा का छोटा बेटा बंटी बोला, “पीहू दीदी, चलो हम सब मेड़ों पर अपने हाथों को ऊपर उठा कर चलते हैं. देखते हैं कौन जीतता है.”
सब मान गए और मेड़ों पर चलने लगे. मैं भी बेमन से हाथों को ऊपर उठा चलने लगी. हर बार की तरह इस बार मैं सब से आगे नहीं बल्कि सब से पीछे थी. अभी मैं बैलेंस बना कर कुछ दूर चली ही थी कि मैं ने देखा, वह प्रकृति की छटाओं में बिखरे रंगबिरंगे खूबसूरत नजारों को अपने कैमरे में कैद कर रहा है. उसे दोबारा अपनी नज़रों के समक्ष देख मैं अनबैलेंस हो कर गिरने ही वाली थी कि उस ने मुझे थाम लिया और मैं उस की बांहों में जा गिरी. दिल में धुकधुकी होने लगी और मेरा रोमरोम उस के स्पर्श मात्र से पुलकित हो उठा. मैं कुछ कहती, उस से पूर्व ही वह चिढ़ते हुए बोला- “जब मेड़ पर चलना नहीं आता तो चल क्यों रही हो?”
इतना कह वह मेरी ओर देखे बैगर वहां से मुंह बना कर चला गया. उस का यह व्यवहार अप्रिय व रूखा था. मैं अंदर ही अंदर तिलमिला उठी.
‘मेरी जैसी खूबसूरत मौडर्न लड़की जो स्कूल, महल्ले, सड़क जहां से भी गुज़र जाए, लड़के मुड़मुड़ कर देखा करते, बात करने व साथ पाने को लालायित रहते हैं और इस ने मुझे देखा भी नहीं. उसे किस बात का गरूर है,’ मैं मन में बुदबुदाई. उसे अपने ऊपर गरूर था या मुझे अपनी खूबसूरती पर नाज़, कुछ समझ नहीं आया. परंतु उस का यह व्यवहार अत्यंत ही अशोभनीय जरूर था, आज तक किसी ने मुझ से इस प्रकार बात नहीं की थी.
मैं रूही से ये सारी बातें बताना चाहती थी लेकिन इस गांव में केवल एक ही पीसीओ बूथ था और वह भी अकसर ख़राब ही रहता. मैं रूही से अपने दिल की बात तो कह नहीं पाई क्योंकि घर से ये बातें कह पाना संभव नहीं था लेकिन मैं अकेले ही तफतीश में जुट गई. काफी कोशिशों के बाद मैं केवल इतना ही जानकारी प्राप्त कर पाई कि उस का नाम अनादि है और वह मोहन काका की बहन का बेटा है जो पहली बार यहां गांव आया है.
12वीं का रिजल्ट घोषित हो गया और गरमी की छुट्टियां भी समाप्त हो गईं . इस बार की छुट्टियां बिलकुल भी वैसी नहीं बीतीं जैसे हर साल बीततीं. मन उदास था. अब उसे कभी न देख पाने की कशक मन में लिए मैं घर लौट आई. गांव से रेलवे स्टेशन के लिए निकलते वक्त जब मैं ने छत की ओर देखा तब वह छत पर ही लाइट ब्लू रंग की टीशर्ट और आंखों पर गौगल चढ़ाए खड़ा था. वह किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं लग रहा था. लेकिन उस ने एक बार भी नज़र उठा मेरी तरफ नहीं देखा. मेरी आंखें डबडबा गईं और मेरा पहला प्यार शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया.
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घर पहुंचते और मौका पाते ही मैं रूही को फोन पर सारी बातें बताने लगी और जब मैं ने उस से कहा कि उस ने मेरी ओर देखा तक नहीं, तो रूही हंसती हुई कहने लगी- “तुझे कैसे पता चला कि उस ने तेरी ओर देखा नहीं जबकि उस ने तो गौगल पहन रखा था.”
रूही की इस बात से तसल्ली हुई कि शायद उस ने मुझे देखा होगा. इस विचार मात्र से मेरे संपूर्ण शरीर में लहर सी दौड़ गई.
नई उमंग, नए जोश के साथ मैं कालेज की तैयारी में लग गई. आज कालेज में मेरा पहला दिन था. नया कालेज, नए फ्रैंड्स, नया क्लास और एक नए एहसास के साथ सबकुछ नयानया सा बहुत अच्छा लग रहा था. तभी पता चला कि कालेज लायब्रेरी में लायब्रेरीकार्ड बनाए जा रहे हैं. मैं और मेरी कुछ क्लासमेट मिल कर लायब्रेरी की ओर चल पड़े.
कौरीडोर पर पहुंचते ही मेरी धड़कन तेज और पैरों की रफ्तार धीमी हो गई. मैं ने देखा, अनादि लायब्रेरी के दरवाजे पर खड़ा है. यह हकीकत है या मेरी नज़रों का धोखा. यह जानने के लिए मैं धड़कते दिल के साथ हौलेहौले बढ़ने लगी. करीब पहुंची तो देखा मेरा पहला प्यार, मेरे सामने है.
दोबारा उसे अपने निकट पा कर यों लगा जैसे कुदरत ने मेरी सुन ली हो और मुझे मेरे अधूरी प्रेमकहानी को पूर्ण करने का अवसर प्रदान किया हो. वह अनादि ही था. मेरी नज़रों में चमक आ गई और मैं उसे देख अपने बालों को कान के पीछे लेती, नजरें झुका शरमाती हुई धीरे से मुसकरा दी, लेकिन उस ने मेरी तरफ देखा तक नहीं. उस ने मुझे इस प्रकार अनदेखा किया जैसे वह मुझे पहचानता ही न हो.
आगे पढ़ें- सैशन स्टार्ट हो चुका था. मैं अपनी…