बदरीनाथ का दिल बेहद परेशान था. एक ही प्रश्न रहरह कर उन को मथ रहा था. उम्र के इस पड़ाव पर वे दोनों, पतिपत्नी अकेले किस तरह रहेंगे? कौन भागदौड़ और सेवाटहल करेगा? फिर ब्याज व मकान किराए की सीमित आय. खर्चे कैसे पूरे होंगे? वृद्धावस्था में बीमारियां भी तो लग जाती हैं.
बहूबेटों का साथ छोड़ कर शायद उन्होंने ठीक नहीं किया. मगर वह भी क्या करते, तीनों बेटों में से एक भी उन्हें मन से रखना नहीं चाह रहा था. तीनों एकदूसरे पर डाल रहे थे. बातबात पर उन्हें जिल्लत झेलनी पड़ रही थी. उन के लिए वहां एकएक पल काटना दूभर हो गया था.
जब इसी तरह उपेक्षा से रहना है तो अपने घर जा कर क्यों न रहें, जिसे उन्होंने अपने खूनपसीने से बनाया था. भले ही अकेले रह कर तकलीफें उठाएंगे, यह एहसास तो रहेगा कि अपने घर में रह रहे हैं.
घर की याद आते ही वे बेचैन हो उठे.
बड़ी मुश्किल से 17-18 घंटों का लंबा सफर तय हुआ. 27-28 वर्ष पूर्व, गृहप्रवेश के समय सुख की जो अनुभूति उन्हें हुई थी उस से हजार गुना ज्यादा इस वक्त हो रही थी.
उन का मकान दोमंजिला था. नीचे की मंजिल में वह स्वयं रहते थे, ऊपर वाला किराए पर उठा दिया था. उन के आने की खटरपटर सुन ऊपर छज्जे में से गुडि़या झांकने लगी. 5 साल की प्यारी सी नन्ही गुडि़या, उन के किराएदार श्रुति और रंजन की बिटिया. उन्हें देखते ही खुशी से किलक कर वह तालियां पीटने लगी, ‘‘ओए होए, बाबा आ गए, अम्मां आ गईं.’’
वे जब तक आंगन में आते, नन्ही गुडि़या तेजी से भागती, सीढि़यां फलांगती नीचे उतरी और उन से आ कर लिपट गई. पीछेपीछे किलकता उस से छोटा चुन्नू भी था. बदरीनाथ और पारो उन दोनों को कस कर भींच बच्चों की मानिंद फूटफूट कर रो पडे़.
तब तक श्रुति व रंजन भी आ गए थे. दोनों की आंखों में आश्चर्य के भाव थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि बाबाअम्मां गए तो थे अपने बेटों के पास स्थायी रूप से रहने के लिए लेकिन इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए…और वह भी बिना कोई सूचना दिए…अकेले…एकाएक…अपना पूरा सामान ले कर.
मगर बाबाअम्मां जिस तरह गुडि़याचुन्नू को चूमते हुए रो रहे थे, श्रुति और रंजन कुछ न पूछ कर भी सब कुछ ताड़ गए. दोनों उन के समीप आ कर बैठ गए और उन के हालचाल पूछने लगे.
बदरीनाथ और पारो का जी हलका होने के बाद श्रुति और रंजन ने उन का सामान उठाया और ऊपर जीने में चढ़ाने लगे. बदरीनाथ ने सामान नीचे ही रखने का आग्रह किया पर श्रुति और रंजन ने स्नेहपूर्वक मना कर दिया कि इतने लंबे सफर के बाद थक गए होंगे. वैसे भी नीचे रसोई का पूरा सामान नहीं था.
वृद्ध दंपती का हृदय भर आया. वे सब ऊपर आ गए. चायनाश्ता करते हुए वे आपस में बतियाने लगे. सब से ज्यादा चहक रहे थे गुडि़या और चुन्नू. दोनों बदरीनाथ व पारो की गोद में इस तरह उछलकूद रहे थे जैसे अपने सगे दादादादी की गोद में हों.
वृद्ध दंपती को यह सब बेहद खुशगवार लग रहा था. पिछले ढाईतीन महीनों में उन्हें उन के अपनों ने जो घाव दिए थे, इन चंद मिनटों में ही उन की सारी कसक वे भूल गए.
मगर नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था. इस से पहले कि वे आश्वस्त हो कर चैन की सांस लेते, तभी गुडि़या ने बातों के प्रवाह में अपनी यह
सूचना दे डाली कि उस के पापा ने एक घर खरीद लिया है, वे अब वहीं जा
कर रहेंगे.
सुनते ही बदरीनाथ और पारो जड़वत रह गए. एक पल को उन्हें सूझा ही नहीं कि इस शुभ उपलब्धि पर वे अपनी प्रतिक्रिया किस तरह व्यक्त करें. एक ओर सुख की अनुभूति हो रही थी कि उन के निश्छल सेवाभावी किराएदार का सपना पूरा होने जा रहा है, दूसरी ओर दिल भी बैठा जा रहा था कि जिन के सहारे वे अपनी जिंदगी का कुछ हिस्सा काटना चाहते थे वे ही उन्हें छोड़ कर चले जाएंगे.
उधर श्रुति और रंजन अजीब पसोपेश में पड़ गए थे. अपना घर खरीदने की उन्हें खुशी तो थी, यह जानकारी वे अपने वृद्ध मकान मालिक को देना भी
चाहते थे, मगर अपनों से ठुकरा कर आए इन वृद्धजनों की जो नाजुक मनोस्थिति इस वक्त थी उसे देखते हुए इस बात को वह 1-2 दिन और छिपाना चाहते थे.
श्रुति ने तो मन ही मन निश्चय कर लिया था कि भले ही 2-3 माह का किराया और देना पडे़, 4 दिन बाद होने वाला गृहप्रवेश वह आगे बढ़ा देगी. बाबाअम्मां का वह दिल से सम्मान करती थी. उस की दोनों प्रसूतियां अम्मांजी ने स्वयं इसी घर में करवाई थीं. हालांकि दोनों बार उस की सासूमां गांव से यथासमय आ गई थीं, मगर अम्मांजी ने उन के आने से पहले ही सारी तैयारियां करवा दी थीं. बाद में भी सगी दादी की तरह वह गुडि़या और चुन्नू की देखभाल करती रही थीं.
अब ऐसी स्नेहमयी अम्मां से वह भला एकदम कैसे कह देती कि हम 4 दिन बाद आप को छोड़ कर अपने मकान में जा रहे हैं.
उस की आंखों से बरबस आंसू ढुलक पडे़.
पथराई सी बैठी अम्मांजी ने जल्दी से अपने मनोभावों को नियंत्रित किया. गुडि़या के शुभ समाचार देने के साथ ही वह सोफे से उठीं और आगे बढ़ कर श्रुति को वात्सल्य से भींच लिया, ‘‘अरी पगली, ऐसी खुशखबरी ऐसे रोते हुए देते हैं,’’ साथ ही उन्होंने बटुवे से 100 का नोट निकाल उस के हाथों में जबरदस्ती ठूंस दिया.
बाबा ने भी रंजन व बच्चों को बधाई के रुपए दिए.
रंजन और श्रुति के गलेरुलाई से भर आए.
अगले दिन पौ फटने से पहले ही अम्मांजी उठ गईं. नीचे आ कर वह अपने बंद घर की साफसफाई करने लगीं. खटरपटर सुन कर रंजन व श्रुति भी आ गए और अम्मांजी के काम में हाथ बंटाने लगे. उन का यह अपनत्व देख अम्मांजी का हृदय भर आया.
अम्मांजी अपनी रसोई भी आरंभ करना चाह रही थीं मगर श्रुति ने अधिकारपूर्वक मना कर दिया. रसोई का लगभग सारा सामान बाजार से लाना था. बाबा तुरतफुरत अकेले इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे? रंजन के सहयोग से 2-3 दिनों में सारा इंतजाम हो जाएगा. तब तक बाबाअम्मां उन्हीं के संग भोजन करें. वैसे भी अम्मांजी के हाथ का जायकेदार भोजन किए 3 महीने बीत गए थे. गुडि़या तो रोज मुंह फुलाती थी, ‘अम्मांजी जैसी सब्जी आप क्यों नहीं बनातीं, मम्मी?’
आखिर अम्मांजी को हार माननी पड़ी. दोपहर का भोजन कर बाबाअम्मां नीचे आराम करने चले गए. रंजन 10 बजे बैंक जा चुका था. गुडि़या भी स्कूल गई थी. चुन्नू को थपकी देती श्रुति सोच में डूब गई.
रहरह कर बाबाअम्मांजी के भावी जीवन की त्रासदी की कल्पना उसे झकझोर देती, ‘कैसे रहेंगे वे दोनों? क्या बीत रही होगी इस वक्त उन दोनों के दिलों पर? जिन बेटों को पालपोस कर इतना बड़ा किया वे ही पराए हो गए…उन के खर्चे कैसे चलेंगे? रिटायर होने के बाद उन की आय के साधन ही क्या थे? पी.एफ., ग्रेच्युटी का कुछ भाग वे पिछले वर्ष बड़ी पोती की शादी में खर्च कर चुके थे. शेष बचा फंड अन्य पोते- पोतियों के नाम कर दिया था. अपने लिए उन्होंने कुछ नहीं बचाया. मुश्किल से 70-80 हजार रुपयों की एफ.डी. थी बैंक में और था यह मकान. एफ.डी. के ब्याज और मकान के किराए से कैसे चलेगा उन का खर्च. हमारे जाने के बाद पता नहीं कैसे किराएदार आएं. यदि हमारी तरह घर जैसा समझने वाले न आए तब? बाबाअम्मां की बीमारी में सेवाटहल कौन करेगा?’
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सुनते ही श्लेषा का तनाव बढ़ गया. कल शाम से आई है यह मेघनी की बच्ची. पता नहीं कौनकौन सी पट्टी पढ़ा दी होगी इस ने अम्मांजी को? बाबाअम्मां शायद इसी वजह से कुछ खिंचेखिंचे से हैं. श्लेषा के लिए फिर एक पल ठहरना भी दुश्वार हो गया. वह देवरदेवरानी से मिलने का बहाना बना कर तुरंत किचन से बाहर आई.
उसे यूं एकाएक प्रगट हुआ देख अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए. भैयाभाभी कब आ गए. इन के आने के बारे में तो बाबाअम्मां ने कोई जिक्र ही नहीं किया था. कहीं बाबा से कोई सांठगांठ तो नहीं कर ली है भैया ने?
आशंका से अनंत की खोपड़ी में खतरे के सायरन बजने लगे. उसी समय सुमंत नहा धोकर कमरे से निकला. गलियारे में अपने छोटे भाई को देखते ही वह तनावग्रस्त हो गया. उफ, यह क्यों आ गया? मेरी योजना में कहीं पलीता न लगा दे.
दोनों भाई एकदूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन गए. दोनों को एकदूसरे की उपस्थिति खलने लगी. अपने मन की दुर्भावनाओं को छिपा कर वे मुसकराते हुए मिले जरूर, मगर अंदर ही अंदर वे अपनेअपने जाल बुनने लगे.
दोपहर का 1 बज गया. वे सब भोजन करने बैठे. खाते हुए सुमंत का ध्यान बारबार घर की बदली हुई काया की ओर जाता. बाबा का स्टैंडर्ड काफी ऊंचा हो गया था. बेटों के घर जाने से पूर्व बाबा ने अपना फोन कटवा दिया था. बंद घर में फोन रख कर वह क्या करते? आज उन के पास 2-2 फोन थे, मोबाइल भी था. उन के फोन लगातार घनघना रहे थे.
बाबा के यहां ‘लंच पेक’ की सुविधा भी थी. अधिकांश फोन उसी के लिए आ रहे थे. खाना खाते हुए सुमंत मन ही मन हिसाब लगाने लगा. बाबा कम से कम हजार रुपया रोज छाप रहे थे.
खाना खाने के दौरान बाबा ने श्रुति को बैंक भेज दिया था. उस के साथ ऊपर छात्रावास में रहने वाला अशोक भी था.
जब तक इन का भोजन होता, श्रुति बैंक से 60 हजार रुपए ले कर आ गई. बाबा आफिस में आए. थोड़ी देर में 3 व्यापारी आ गए. बाबा ने पहले ही फोन कर दिया था.
श्रुति ने उन व्यापारियों का हिसाब निकाला. कोने की एक कुरसी पर बैठा सुमंत यह सब देख रहा था. घीतेल के व्यापारी को बाबा ने करीब 16 हजार रुपए का भुगतान किया. सुमंत फटीफटी आंखों से देखता रह गया. उस का वेतन 14 हजार रुपए माहवार था. यानी उस की पगार से ज्यादा रुपए का भुगतान बाबा एकएक व्यापारी को कर रहे थे. और यह भुगतान मात्र 19 दिनों की सप्लाई का था.
सुमंत का कंठ सूख गया. कितनी भारी तरक्की कर ली थी बाबा ने इस बुढ़ापे में.
उस ने चापलूसी करते हुए अपने पिता की तारीफ की. बाबा हौले से मुसकरा दिए, ‘‘सब दामादजी की कृपा है.’’
निखिल ने ही दिया था इस का आइडिया. निखिल का भतीजा पी.एम.टी. की तैयारी करने के लिए कोटा गया था. वहां वह एक परिवार में पेइंग गेस्ट बन कर रहा. कोटा में आजकल बहुत से मकानमालिक छात्रों को अपने घरों में रहने के साथसाथ भोजन की सुविधा भी देते हैं. घर जैसा माहौल, घर जैसा भोजन. छात्रों की पढ़ाई बहुत अच्छी तरह होती है.
निखिल ने बाबा को यही कार्य करने की सलाह दी. बाबाअम्मां हिचकिचाए कि भला इस बुढ़ापे में वे इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे. निखिल ने मुसकराते हुए आश्वासन दिया कि सब हो जाएगा. आप बस मैनेजमेंट संभाल लेना.
निखिल पूरे 2 सप्ताह रहा. इधरउधर भाग दौड़ कर उस ने 12 कालिज छात्रों का चयन किया, यह छात्र अभी तक छोटेछोटे से एकएक कमरे में रह रहे थे. बाबा के घर उन्हें अच्छा खुला माहौल मिला. मनोरंजन के लिए नीचे बाबा के पास टी.वी. देखने आ जाते. बाबा के यहां उन्हें एक भारी फायदा और था. गांव से आने वाले उन के रिश्तेदार उन के साथ ठहर जाते. उन के होटल के खर्चे बच जाते.
छात्रों के चयन में निखिल ने विशेष ध्यान रखा. 4 छात्र मेडिकल के थे. जरूरत पड़ने पर वे बाबा और अम्मां को डाक्टरी सहायता भी तुरंत उपलब्ध करवा देते. कुछ छात्र कामर्स कालिज के थे, उन का कालिज सुबह रहने से घर में दिन भर चहलपहल रहती थी.
मेस के लिए निखिल ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयों का इंतजाम कर दिया. अम्मां के हाथ की रसोई बहुत स्वादिष्ठ बनती थी. अम्मां सिर्फ मसाले निकालने व छौंक लगाने का काम करतीं, बाकी का सारा काम दोनों बाइयां संभालतीं.
शुरू में मेस सिर्फ उन 12 छात्रों के लिए प्रारंभ हुई थी लेकिन जब उन छात्रों के अन्य मित्रों ने भी वहां भोजन किया तो वे भी अम्मां के पास रोज गुहार करते, ‘‘दादी मां, हमें उधर होटल का खाना अच्छा नहीं लगता…पेट खराब हो रहा है…आप के यहां घर जैसा खाना मिलता है. प्लीज, दादी मां…’’
उन के अनुरोध के आगे बाबाअम्मां को झुकना पड़ा. छात्र बढ़ते गए, काम बढ़ता गया.
श्रुति इस बीच वहां से जा चुकी थी. कमरे में बाबा के अलावा और कोई नहीं था.
सुमंत असली मुद्दे पर आया. बातों की एक योजना बना उस ने अपनी नजरें बाबा के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘अकेले इतना सारा काम संभालने में आप को दिक्कत आती होगी…’’
‘‘कोई दिक्कत नहीं,’’ बाबा ने बात पूरी होने के पूर्व ही काट दी. ऊपर रहने वाले सभी लड़के उन दोनों का बहुत ध्यान रखते थे. अपने दादादादी की तरह बाबाअम्मां की सेवा करते थे. उन लड़कों के कारण ही बाबा की मेस
का कारोबार बढ़ता गया था. बाबा अब उन से खानेरहने का आधा पैसा लेते. लड़के भी उन्हें दिलोजान से चाहने लगे थे. बाबाअम्मां को इस उम्र में और क्या चाहिए था.
सकपकाए सुमंत से कुछ कहते नहीं बना. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उस ने एक बार फिर गोटी फेंकी, ‘‘लेकिन बाबा, रुपयों का लेनदेन…हिसाबकिताब…इन कामों के लिए घर का व्यक्ति होना जरूरी है…’’
‘‘श्रुति है न, रंजन भी सहयोग करता है. मुझे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’’
‘‘क्या मतलब?’’ सुमंत ने शंका का तीर छोड़ा, ‘‘आप हिसाबकिताब कभी चेक ही नहीं करते?’’
‘‘क्या जरूरत है? रंजन स्वयं बैंक में बडे़बडे़ हिसाब देखता है…’’
‘‘फिर भी, बाबा. आखिरकार वह एक पराया…’’
‘‘कौन कहता है कि वह पराया है,’’ बाबा ने अपनी कठोर नजरें उस के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘इस बुढ़ापे में मुझे किस ने सहारा दिया? उसी ने तो.’’
बाबा की आंखें सुलगने लगीं. 2-3 क्षणों की खामोशी के बाद उन्होंने रूखे स्वर में कहा, ‘‘तुम लोग क्या सोचते हो, यह सारा कारोबार मैं ने जमाया है? मैं ने मेहनत और भागदौड़ की है?’’
वे सुमंत को घूरते रहे, फिर उठ कर टहलने लगे, ‘‘सिर्फ स्कीम बना देने से कोई कारोबार सफल नहीं हो जाता, उस के लिए पूंजी लगती है, मेहनत और भागदौड़ करनी पड़ती है. मेरे पास पैसा बचा था क्या? इस उम्र में रसोई का इतना सारा सामान रोजरोज ले आता? रोज सवेरे सब्जी ले आता? काम वालों का इंतजाम कर लेता?’’
और बाबा ने निखिल की तारीफ करते हुए बताया कि उस ने जब रंजन को योजाना बताई तो रंजन तुरंत तैयार हो गया. वह बाबाअम्मां की सेवा जान दे कर भी करना चाहता था. बैंक से ताबड़तोड़ लोन दिलवा दिया. गांव से उस के बाबूजी ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयां भेज दीं. रंजन के बैंक में सैकड़ों व्यापारियों के खाते थे. थोकव्यापारियों के यहां से घी, तेल, अनाज, मसाले…सब आ जाते. सब्जीमंडी के दलालों व व्यापारियों से भी रंजन की बहुत पहचान थी.
कारोबार जमाने के लिए रंजन ने 10-12 दिनों की छुट्टी ले ली. सारी मेहनत तो रंजनश्रुति की ही थी.
‘‘…फिर क्यों न विश्वास रखूं इन दोनों पर.’’
फिर कमरे से निकलतेनिकलते बाबा ने असली तीर छोड़ा, ‘‘तुम सगों ने तो हमें खाली हाथ अपनेअपने घरों से भगा दिया था. यह रंजन ही है, जिस
ने हमें संभाला. हमारा असली बेटा तो यही है…और हमारे कारोबार का आधा भागीदार भी.’’
सुमंत और अनंत सिर झुकाए बैठे रहे. अपनी खुदगर्जी के कारण जो अंधेरा उन्होंने अपने असहाय वृद्ध मातापिता के जीवन में कर दिया था, उस की कालिमा कलंक बन कर उन के ही चेहरों पर पुत गई थी.
भोजन करने के बाद वह रंजन से मिलने चला गया. 4 माह बीत गए. दोपहर के 12 बज रहे थे. बाबाअम्मां बेहद व्यस्त थे.
तभी बाहर एक रिकशा रुका.
रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू सुमंत और श्लेषा थे. श्लेषा ने अपनी भेदी नजरें चौराहे से ही घर पर गड़ा दी थीं. रिकशा रुकने के साथ ही उस ने घर का जायजा ले लिया. बाहर ढेर सारे स्कूटर मोटरसाइकिलें, अंदर लोगों की चहलपहल. यदि पहले से उसे यह जानकारी नहीं होती कि बाबा ने ‘ढाबा’ खोल लिया है तो घर पर लोगों की ‘भीड़’ देख वह यही समझती कि सासससुर में से कोई एक ‘खिसक’ गया है.
ईर्ष्या से उस ने दांत पीस लिए. पास बैठा सुमंत भी चोर नजरों से सब ताड़ रहा था. पिछले 4 महीनों में उस ने एक बार भी मातापिता की खोजखबर नहीं ली थी. वह आज भी यहां नहीं झांकता, मगर पिछले हफ्ते एक रिश्तेदार के यहां शादी में किसी परिचित ने उसे जानकारी दी कि उस के बाबा रिटायर्ड लाइफ में भी भरपूर कमाई कर रहे हैं, सर्विस लाइफ से भी ज्यादा.
उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ था. श्लेषा की तो छाती पर सांप लोट गया था. ऐसा कौन सा तीर मारा होगा बुढ़ऊ ने? कहीं मकान बेच कर ऐश तो नहीं कर रहे बुड्ढेबुढि़या? हिस्सा हमारा भी है उस में. श्लेषा ने तुरंत मोबाइल पर अपने मायके बात की और सारी जानकारियां जुटाने को कहा.
4-5 दिन में उस के भैया ने हैरतअंगेज जानकारियां दीं, ‘‘बाबा ने ऊपरी मंजिल पर दर्जन भर लड़कों का छात्रावास बना दिया…नीचे मेस चालू कर दी…इन छात्रों के कारण मेस में बीसियों और छात्र आने लगे. रंजन के परिचय की वजह से बिना परिवार के रहने वाले बैंककर्मी व अन्य लोग भी. ढाबा ही खोल लिया बाबा ने. टिफिन सर्विस भी है. 200 से ज्यादा परमानेंट मेंबर बन गए हैं.’’
‘‘200 मेंबर…?’’ सुमंत की आंखें आश्चर्य से 2 सेंटीमीटर फैल गईं. यदि प्रति मेंबर कमाई 100 रुपए भी हो तो महीने के 20 हजार…
‘‘बाप रे,’’ वह स्वयं महीने के 14 हजार कमाता था. श्लेषा गरदन तान कर रिश्तेदारों में इस का बखान करती थी. मगर बाबा की कमाई तो…इस बुढ़ापे में…हायहाय…
उस के अंगअंग में ईर्ष्या की आग लग गई. उस का युवा पुत्र सलिल साल भर से अपना व्यापार जमाने का यत्न कर रहा था. 2-3 लाइनें बदल ली थीं. सफलता दूरदूर तक नजर नहीं आ रही थी. उलटे 30-35 हजार रुपयों का घाटा हो गया था.
सुमंत के स्वार्थी जेहन में फौरन एक स्कीम आई. क्यों न सलिल को बाबा के साथ फिट कर दिया जाए? वैसे भी बाबा को सहारे की जरूरत होगी. थक जाते होंगे बेचारे.
निर्णय लेने में फिर उस ने एक मिनट की भी देरी नहीं की. श्लेषा को साथ ले कर वह तुरंत यहां आ धमका.
रिकशे से उतर दोनों लोहे के गेट तक आए, अंदर का दृश्य साफ दिख रहा था. बडे़ हाल को बाबा ने भोजनकक्ष बना दिया था. देसी ढंग से नीचे बैठ कर ग्राहक भोजन ग्रहण कर रहे थे. बाबा की आवाज बाहर तक आ रही थी. बाबा पारिवारिक वात्सल्य से आग्रह करकर के ग्राहकों को भोजन करवा रहे थे. वे घूमघूम कर परोसियों (बेयरों) को निर्देश भी दे रहे थे.
तभी एक नौकर की नजर सुमंत और श्लेषा पर पड़ी, अंगोछे से हाथ पोंछता वह इन की ओर लपका.
करीब आ कर उस ने पूछा, ‘‘भोजन करना है?’’ फिर सूटकेस आदि देख उस ने कहा, ‘‘लेकिन साहब, हमारे यहां ठहरने की व्यवस्था नहीं है. ठहरने के वास्ते आप को किसी होटल में…’’
‘‘अबे,’’ गुस्से से सुमंत ने दांत पीसे, ‘‘बेवकूफ, हमें पहचानता नहीं. हम यहां के मालिक हैं.’’
‘‘मालिक?’’ होंठों में बुदबुदा कर वह सिर खुजाने लगा. मालिक तो अंदर बैठे हैं, फिर फूलगोभी के कीडे़ की तरह यह कौन एकाएक प्रगट हो गया.
सुमंत ने गुर्रा कर उसे सामान उठाने का हुक्म दिया. नौकर अनसुना कर के खड़ा रहा.
तभी अंदर से बाबा की आवाज आई, ‘‘फतहचंद? पानी लाना, बेटा.’’
‘‘जी, लाया, बाबा,’’ फतहचंद बिना सामान उठाए अंदर भागा. सुमंत सामान उठाने का निर्देश देता रह गया. इस अपरोक्ष अपमान ने सुमंत का चेहरा लाल कर दिया. इच्छा हुई अभी अंदर जा कर इस फत्तू को तड़ातड़ 2-4 थप्पड़ जमा दे. तभी उसे ध्यान आया कि फिलहाल गरज उस की है और यह नौकर बाबा का है. बाबा के नौकरों को डांटने पर बाबा नाराज हो सकते हैं.
दोनों बरामदे में आ कर ठिठक गए. घर में प्रवेश पहले बडे़ हाल से करते थे. वहां ग्राहक भोजन कर रहे थे इसलिए उधर से जाना उचित नहीं रहेगा. जूतेचप्पल उतार कर वे साइड वाले छोटे कमरे में आए. बाबा ने उसे आफिस बना दिया था. कमरे में कोई नहीं था. इस कमरे में अंदरूनी द्वार से वे गलियारे में आए. तभी बाबाअम्मां ने उन्हें देख लिया.
बाबा और अम्मां से नजरें मिलते ही सुमंत और श्लेषा ने अपने होंठों पर गजभर की मीठीमीठी आत्मीय मुसकान बिखेर ली और बेटे ने आगे बढ़ कर आदरपूर्वक अपने मातापिता के चरण स्पर्श किए. बाबाअम्मां मन ही मन मुसकरा दिए. बहुत मानसम्मान उमड़ रहा है बुड्ढेबुढि़या पर (श्लेषा उन्हें यही संबोधन देती थी).
वैसे उन्होंने सुमंत और श्लेषा को रिकशे से उतरते ही देख लिया था. जानबूझ कर वे अपनेआप को व्यस्त दिखलाते रहे. उन के प्रणाम करने पर बाबाअम्मां ने भावशून्य चेहरे से आशीर्वाद दिया, फिर कुशलक्षेम की 2-3 बातें पूछ कर औपचारिकता निभाई और अपने काम में व्यस्त हो गए. बाबा हाल में चले गए, अम्मां किचन में.
रह गए सुमंत और श्लेषा. उन्हें सूझ नहीं रहा था कि अपना सामान घर के किस कोने में रखें, स्नानादि कहां करें. अपने ही घर में वे उपेक्षित से खडे़ थे.
अचानक श्लेषा को वे दिन याद आ गए जब बाबाअम्मां उस के घर रहने के लिए आए थे. दोनों बूढे़ इनसान अपने ही पुत्र के घर में किस तरह टुकुरटुकुर…बेबसी से अपनेआप में सिमटेदुबके रहते थे. ‘धरती का बोझ’ बोलता था सुमंत उन्हें.
3-4 मिनट बीत गए. बाबा, अम्मां, नौकर किसी ने भी उन की ओर ध्यान नहीं दिया. आखिरकार सुमंत अम्मां के पास गया, ‘‘अम्मां, तैयार होने के लिए हम ऊपर जाते हैं.’’
‘‘ऊपर तो कालिज के लड़के रहते हैं. अभी उन की परीक्षाएं चल रही हैं.’’
फिर सुमंत ने याचक दृष्टि अपनी जननी पर टिका दी.
अम्मां ने फतहचंद को इशारा किया. फतहचंद उन्हें किचन के बाजू वाले कमरे में ले गया.
4-5 माह पूर्व, जब बाबाअम्मां सुमंत के घर रहने गए थे, श्लेषा किचन में झांकती तक नहीं थी. बेचारी अम्मां अकेली खटती रहतीं. मगर आज अम्मां के घर, श्लेषा को किचन में जाने की बहुत जल्दी हो रही थी. आधे घंटे में नहाधो कर वह किचन में पहुंच गई.
अम्मांजी उस वक्त वहां 2 नौकरों से टिफिन भरवा रही थीं. श्लेषा बिना कहे नौकरों के संग काम में जुट गई. अम्मांजी ने इसरार भी किया कि ‘यहां का काम तुम्हें समझ नहीं आएगा,’ मगर श्लेषा ने उन की बात को अनसुना कर दिया और सुघड़ बहू की तरह सास के काम में हाथ बंटाती रही. भोजन बनाने वालियों के संग रोटियां बेलने में भी उसे संकोच नहीं हुआ.
अम्मां मन ही मन मुसकरा कर स्टोर रूम की तरफ चली गईं. श्लेषा रसोईवाली बाइयों के संग बतियाते हुए फटाफट हाथ चलाने लगी. तभी अचानक उस के कान खडे़ हो गए. बाहर से अनंत और मेघा की आवाज आ रही थी.
देवरदेवरानी की आवाज सुनते ही वह चौंक पड़ी. तुरंत गरदन उचका कर गलियारे में झांका. अनंत और मेघा बतियाते हुए गलियारे में आ रहे थे. उन को देख श्लेषा सकते में आ गई. ये दोनों भला क्यों आए, कहीं इन की भी कोई प्लानिंग तो नहीं है? इन के अंकित ने इसी वर्ष ग्रेजुएशन किया है.
आशंका से श्लेषा की सांस जहां की तहां थम गई. अनंत और मेघा उसे अपने ‘दुश्मन नंबर वन’ नजर आने लगे. इधर रोटी बेल रही गोमतीबाई ने बतलाया, ‘‘दोनों कल शाम को आए थे. अभी कालोनी में शर्माजी से मिलने गए थे.’’
आगे पढ़ें- अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए….
सोचसोच कर श्रुति का कलेजा मुंह को आने लगा. श्रुति को बेटी समझ कर रखा था बाबाअम्मां ने. दरअसल, उन की स्वयं की बेटी का नाम श्रुतकीर्ति था. नाम की इस समरूपता ने बाबाअम्मां को कुछ ज्यादा ही जोड़ दिया था श्रुति से. अब ऐसे स्नेहिल मातापिता को छोड़ कर वह कैसे चल दे.
तभी नीचे टाटा सूमो के रुकने की आवाज आई. गांव से उस के सासससुर (मांबाबूजी) आने वाले थे. श्रुति उठी और आंसू पोंछतीपोंछती नीचे आई.
मांबाबूजी ही थे. श्रुति की उड़ी रंगत देख वे घबरा गए. श्रुति ने हाथ के इशारे से चुप रहने का संकेत किया और ऊपर आ कर उन्हें सब हाल कह सुनाया. सुन कर उन्हें गहरा सदमा लगा.
बाबा को अपना बड़ा भाई मानने लगे थे बाबूजी. बाबाअम्मां की आत्मीयता देख मांबाबूजी निश्चिंत रहते थे. गांव में रहते हुए उन्हें अपने बेटेबहू की चिंता करने की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.
उन्होंने फौरन निर्णय लिया, रंजन उस मकान को बेच देगा और यहीं रह कर बाबाअम्मां की सेवा करेगा.
बाबा को जब इस निर्णय की जानकारी हुई, उन्होंने इस का विरोध किया. उन्होंने समझाया, ‘‘गहने और मकान बनवा लिए तो बन जाते हैं, वरना योजनाएं ही बनती रहती हैं, इसलिए भावनाओं में बह कर अब हो रहे कार्य को टालो मत.’’
बाबा की दूरंदेशी भरी सलाह के आगे सब को झुकना पड़ा और रंजन के घर का गृह- प्रवेश हो गया.
रंजन अपने घर चला गया. वह तो 2-3 माह बाद जाना चाहता था, पर बाबाअम्मां ने समझाया, ‘‘गृहप्रवेश के बाद घर सूना नहीं छोड़ते.’’
बाबा का घर खाली हो गया. उस पर ‘किराए से देना है’ की तख्ती लग गई. पूरे 7-8 वर्षों बाद लगी थी यह तख्ती.
रंजन के जाने के बाद बाबाअम्मां को बेहद सूनापन लगने लगा. एक सहारा था उस से. पता नहीं अब जो किराएदार आएं, उन का स्वभाव कैसा हो?
बाबा रोज अगले किराएदार का इंतजार करते. सुबह से शाम हो जाती पर कई दिन तक एक भी किराएदार नहीं आया. अब उन्हें घबराहट होने लगी. एफ.डी. के ब्याज के बमुश्किल 400 रुपए मिलने वाले थे. यदि कोई किराएदार नहीं आया तब? अगले माह का खर्च कहां से निकलेगा? इस किराए की आमदनी का ही तो सहारा था उन्हें? पास की नकदी अब चुकने लगी थी. बचत खाते में भी कोई विशेष रकम नहीं थी. तो क्या अगले माह एफ.डी. तुड़वानी पड़ेगी?
सोचसोच कर वे परेशान हो जाते. उन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता. कितनी भारी गलती कर बैठे थे वे? उन के एक सहयोगी मित्र ने समझाया भी था, ‘जमाना बहुत खराब है, बदरीनाथ. मांबाप को अपनी मुट्ठी बंद रखने का दौर आ गया है. सब कुछ बच्चों के नाम मत करो.’
घबरा कर वे ऊपरी मंजिल में आए. खाली कमरे भांयभांय कर रहे थे. उन कमरों में घूमते हुए, उस की दीवारों पर हाथ फेरते हुए उन्हें वे दिन याद आ गए जब वह अपने सपनों के इस घर को बनवा रहे थे. इस की एकएक ईंट उन की जानीपहचानी थी. इसे बनवाते समय कितने रंगीन सपने देखे थे उन्होंने. तीनों बेटे बड़े होंगे. उन की शादियां होंगी. नीचे एक बेटा रहेगा, ऊपर दो. कितना अच्छा लगेगा उस वक्त. पूरा घर गुलजार रहेगा. उन का बुढ़ापा चैन से कट जाएगा.
नंगे फर्श पर बैठ वह फफकफफक कर रो पडे़. बुढ़ापे में ये दिन भी देखने थे.
नीचे किसी कार के रुकने की आवाज आई. आंसू पोंछ वह फुरती से उठे और भाग कर गैलरी में आए. श्रुतकीर्ति और निखिल कार से उतर रहे थे. बेटीदामाद को देखते ही उन का जी हरा हो गया.
उन की बूढ़ी थकी रगों में जान आ गई. जवानों की सी चपलता से वह दौड़ते हुए नीचे आए. पारो तब तक द्वार खोल चुकी थी.
श्रुतकीर्ति अंदर आई. मातापिता की दयनीय हालत देख उस का कलेजा मुंह को आ गया. हाय, 3 माह में ही बेचारे कितने बुढ़ा गए हैं.
श्रुतकीर्ति को अपनी रुलाई रोकना दुश्वार हो गया. उसे तो मालूम ही नहीं था कि बाबाअम्मां यहां आ चुके हैं? कल उन से बात करने के लिए उस ने बडे़ भैया के घर फोन लगाया था, भाभी से मालूम पड़ा, ‘बाबाअम्मां का मन नहीं लग रहा था तो वापस चले गए.’
रोरो कर श्रुतकीर्ति का बुरा हाल हो गया. तो इसलिए ‘मन नहीं लग रहा’ था. वह बारबार उलाहना देती. 3 माह में कम से कम 6 बार उस ने फोन पर बात की थी, बाबाअम्मां ने एक बार भी इशारा नहीं किया.
‘‘करते कैसे, बेटी?’’ बाबा का गला रुंध गया, ‘‘जब रहना उन्हीं के संग था… कैसे करते शिकायत?’’
‘‘यहां आने के बाद तो करते?’
अब कैसे कहें बाबा, कैसे बतलाएं अपनी दुर्दशा. आज महज 1 रुपया खर्च करने से पहले भी कईकई बार सोचना पड़ रहा है उन्हें. दूध तक तो बंद कर दिया है. सब्जी भी कंजूसी से खाते हैं.
कितने आशंकित मन से जी रहे थे वे दोनों. एक ही चिंता खाए जा रही थी, अगले माह एफ.डी. न तुड़वानी पडे़.
निखिल की तो क्रोध से मुट्ठियां भिंच गईं. जेब से मोबाइल निकाल लिया, ‘‘अभी लताड़ता हूं तीनों को.’’
श्रुतकीर्ति ने रोक दिया, ‘‘जाने दो, क्या फायदा ऐसे निठल्लों से कुछ कहने का. मातापिता के प्रति लेशमात्र भी दर्द होता तो क्या इस तरह व्यवहार करते.’’
निखिल कसमसा कर रह गया.
श्रुतकीर्ति रसोईघर में गई. वहां एक सरसरी नजर डालते ही सब ताड़ गई. पलट कर उस ने आंखोंआंखों में निखिल को इशारा किया. निखिल भी समझ गया. वह तुरंत बाहर निकल गया.
बाबाअम्मां कनखियों से यह सब देख रहे थे. बेटीदामाद का मंतव्य भांपते ही वे संकोच में पड़ गए. हाय, उन की रसोई का खर्च एक दिन बेटी उठाएगी, ऐसी बदहाली की कल्पना तो उन्होंने सपने में भी नहीं की थी. बुढ़ापा कैसेकैसे दिन दिखला रहा है. शर्मिंदगी से वह व्याकुल हो उठे.
अलमारी में 400 रुपए पडे़ थे. देने के लिए वह उठ कर दरवाजे की ओर लपके. श्रुतकीर्ति ने हाथ पकड़ कर वापस बैठा दिया, ‘‘कहां भागे जा रहे हो? कहीं रेस लगानी है?’’
‘‘बेटी,’’ बाबा का चेहरा एकदम कातर हो गया, ‘‘दामादजी पैसे ले कर तो गए ही नहीं?’’
‘‘आप भी बाबा,’’ श्रुतकीर्ति ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘क्या निखिल आप के बेटे नहीं हैं?’’
‘‘हैं क्यों नहीं…लेकिन, बेटी…जरा सोच…दामाद से यह सब…अच्छा लगेगा हमें?’’
‘‘और घुटघुट कर मन मार कर रहते हुए अच्छा लग रहा है आप को?’’ श्रुतकीर्ति का गला रुंध गया, ‘‘इन पुराने रिवाजों को छोड़ो, बाबा. 3-3 कमाऊ बेटे जब मुंह मोड़ लें तो क्या बेटीदामाद भी आंखकान बंद कर के बैठ जाएं? छोड़ दें मातापिता को लावारिसों की तरह?’’
चायनाश्ता करवा कर श्रुतकीर्ति रसोई बनाने लगी. निखिल और बाबाअम्मां भी वहीं बैठ कर हाथ बंटाने लगे. निखिल बाबाअम्मां को अपने संग चलने के लिए मनाने लगा. बाबाअम्मां संकोच में पड़ गए. बेटी के घर रहने की कल्पना वह कैसे कर सकते थे. उन्होंने दबे स्वर में अपनी लाचारगी जाहिर की. उन की मनोदशा समझ कर निखिल ने फिर और जिदद् नहीं की. वह एक दूसरी योजना पर विचार करने लगा. यदि यह योजना सफल हो गई तो बाबाअम्मां पूरे मानसम्मान से रह सकेंगे. इस में उसे रंजन का पूरा सहयोग चाहिए था, विशेषकर श्रुति का. श्रुति को ही अधिक समय देना पडे़गा इस में.
आगे पढ़े- रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू…