मन के दर्पण में: क्या एक-दूसरे का सहारा बन सके ललितजी और मृदुला?

Serial Story: मन के दर्पण में– भाग 1

‘केवल मरी मछली ही धारा के साथ बहती हुई ऊपर तैरती है मृदुला, जीवित मछलियां पानी के भीतर और धारा के विपरीत भी उतनी ही ऊर्जा से तैरती हैं जितनी धारा के अनुकूल,’ कंपनी बाग में घुसते ही ललितजी का यह वाक्य अनायास ही मृदुला को याद हो आया. क्या कहना चाहते थे वे इस वाक्य के माध्यम से? सोचती हुई मृदुला की निगाहें बगीचे में लगी सीमेंट की बैंचों पर केंद्रित हो गईं. आज चौथा दिन है, ललितजी दिखाई नहीं दिए, वरना अकसर वे किसी न किसी बैंच पर बैठे दिखाई दे जाते हैं. बीमार पड़ गए हों, यह खयाल आते ही मृदुला का दिल आशंका से धड़कने लगा. हो सकता है, पैर में तकलीफ बढ़ गई हो, इस कारण सुबह सैर को न आ पाते हों.

पति ने ही ललितजी से यहां, बगीचे में उस का परिचय कराया था. उन के दफ्तर के साथी, हंसमुख, जिंदादिल, दुखतकलीफों को हंसतेहंसते झेलने वाले ललितजी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे. मृदुला के पति की बीमारी के समय अस्पताल में ललितजी ने मृदुला की हर तरह मदद की थी. उन्हीं की सलाह पर मृदुला ने नौकरी से 2 साल पहले ही वी.आर.एस. ले लिया था. दफ्तरी किचकिच से फुर्सत पा ली थी और अस्पताल में पति की देखरेख करती रही थीं.

ये भी पढ़ें- उपहार: स्वार्थी विभव क्यों कर रहा था शीली का इंतजार

डायबिटीज के कारण पति का हृदय और गुर्दे जवाब दे गए थे. आंखें लगभग अंधी हो चुकी थीं. पांव के नासूर ने विकराल रूप धारण कर लिया था. सुबह की सैर डाक्टर ने जरूरी बताई थी, कहीं रास्ते में गिर न पड़ें इसलिए मृदुला उन के संग आने लगी थीं. बगीचे में मृदुला के पति ने बताया था कि ललितजी की पत्नी अरसे पहले ब्रेस्ट कैंसर से मर गईं. बेटीदामाद के साथ रहते हैं यहां. स्कूटर ऐक्सीडैंट में कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. पांव में रौड पड़ी है इसलिए लंगड़ा कर चलते हैं.

टहलती हुई मृदुला सोचे जा रही थीं कि मन भी तो इसी तन का एक हिस्सा होता है. क्या मन हमें चैन लेने देता है? ललितजी से सुबह यहां इस बगीचे में रोज मिलना क्यों अच्छा लगता है उन्हें? जिस दिन वे नहीं मिलते उस दिन क्यों उदास रहती हैं वे? क्यों सबकुछ सूनासूना, बुराबुरा, खालीखाली सा लगता है? क्या लगते हैं ललितजी उन के?

आज चौथा दिन है जब वे यहां नहीं दिखाई दे रहे. किस से पूछें? किसी आदमी से पूछेगी तो पता नहीं वह उन के बारे में क्या सोचे, क्या धारणा बनाए? स्त्रीपुरुष किसी भी उम्र के हों, उन के रिश्तों को ले कर लोग हमेशा शंकाग्रस्त रहते हैं. और रहें भी क्यों नहीं? स्त्रीपुरुष के बीच लगाव, प्रेम, रागविराग किसी भी उम्र में हो सकता है. लड़का बता रहा था कि अमेरिका में तो लोग बुढ़ापे में भी विवाह कर लेते हैं…अकेलापन सब को खलता है.

ऐसा नहीं है कि मृदुलाजी अपने पति को भूल पाई हों. अपना घर छोड़ कर वे बेटा या बेटी के पास इसलिए रहने नहीं जातीं कि यहां, इस घर में उन के पति की यादें कणकण में बिखरी हुई हैं. विदेश में वे बेटे के साथ पता नहीं किस मंजिल पर आसमान में टंगी रहें. हैदराबाद में बेटीदामाद जिस फ्लैट में रहते हैं वह भी 13वीं मंजिल पर है. नीचे किसी काम से जाना नहीं होगा और ऊपर अकेली दिन भर उन के सुनसान फ्लैट में वे क्या करेंगी? आसपास वाले भी सब नौकरी- पेशा लोग. सुबह ही ताले लगा चले जाने वाले और देर रात काम से लौटने वाले. न किसी से मिलनाजुलना न बोलना- बतियाना.

यहां कम से कम बरसों पुराने परिचित परिवार हैं. मृदुलाजी उन सब को जानती हैं. सब उन्हें जानते हैं. सब के सुखदुख में शामिल होती हैं. मन होता है तो कहीं भी पासपड़ोस में जा बैठती हैं. वहां किस के पास उठेंगीबैठेंगी? कौन उन की सुनेगा, किसे फुर्सत है.

ये भी पढ़ें- Short Story: घरवाली और रसोई वाली

और सब से ऊपर ललितजी…पति के पांव का घाव जब गैंगरीन में बदल गया तो महीनों अस्पताल में रहे. मृदुला पति के साथ ही अधिक वक्त अस्पताल में बिताती थीं. जरूरत की चीजें और दवाएं ललितजी नियमित रूप से लाते रहते थे. कैसे उऋण हो पाएंगी वे ललितजी से? अपने सगेसंबंधी भी इतनी भागदौड़ और सेवाटहल नहीं कर सकते जितनी ललितजी ने उन के पति की की. पता नहीं सिर्फ अपने दोस्त से दोस्ती के कारण या फिर मृदुलाजी के किसी अनजाने आकर्षण के कारण…मृदुलाजी न चाहते हुए भी मुसकरा दीं…किस से पूछें, ललितजी क्यों नहीं आ रहे हैं?

‘हर नई पहल अंधेरे में एक छलांग होती है…अचानक, अनियोजित और नतीजों से अनजानी. परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी…पर विकास या प्रगति के लिए ऐसी नई पहल जरूरी भी होती है.’ बगीचे में घूमती मृदुलाजी सोचे जा रही थीं.

सहसा ‘राजधानी एक्सप्रेस’ के नाम से बगीचे में प्रसिद्ध रिटायर्ड फौजी महाशय अपने सफेद निकर और टीशर्ट पहने हमेशा की तरह तेजतेज चलते उन की बगल से गुजरे. इन्हें राजधानी एक्सप्रेस नाम ललितजी ने ही दिया है. उन्हीं के पड़ोसी हैं. यहां उन से बातचीत कम ही हो पाती है, कारण है उन की बेहद तेज गति…

‘‘सर, ललितजी 3-4 दिन से नहीं आ रहे हैं. बीमार हो गए हैं क्या?’’ बगल से गुजरते फौजी महोदय से मृदुला ने पूछ ही लिया. अब वे चाहे जो समझें पर वे पूछने से अपने को रोक नहीं पाईं. नतीजा चाहे जो हो.

‘‘आप को नहीं पता?’’ उन्होंने अपनी गति मृदुला के समान मंद की और बोले, ‘‘पैर में रौड पड़ी थी. पकावहो गया. मवाद पड़ गया. अस्पताल में भरती हैं. यहां से सीधा उन्हीं के पास अस्पताल जाता हूं. जरूरत की चीजें दे आता हूं डाक्टरों ने आपरेशन कर के रौड निकाल दी है. डाक्टर कहते हैं कि अगर तुरंत आपरेशन कर रौड न निकाली जाती तो सैप्टिक होने का खतरा था और उस से आदमी की मृत्यु भी हो सकती है.’’

ये भी पढ़ें- रैना: स्नेह पात्र बनी रैना कैसे बन गई कुलटा ?

मौत. सुनते ही बुरी तरह डर गईं मृदुला. अस्पताल का नाम, वार्ड आदि की जानकारी ले कर वे बिना देरी किए तुरंत बगीचे से अस्पताल को चल दीं. ललितजी ने उन्हें खबर क्यों नहीं की? इतना पराया क्यों मान लिया उन्होंने? क्या सिर्फ पारंपरिक संबंध ही संबंध होते हैं? बाकी के संबंध अर्थहीन होते हैं?

आगे पढ़ें- व्यर्थ लोगों की नजरों में…

Serial Story: मन के दर्पण में– भाग 3

‘‘अब?’’ मृदुला ने ललितजी की आंखों में मुसकराते हुए ताका.

‘‘अपनी मुमताज बेगम के साथ अब हजरतगंज में हजरतगंजिंग करेंगे,’’ ललितजी आदत के अनुसार हंसे, ‘‘बेगम तैयार हैं गंजिंग करने के लिए या नहीं? हम लोग जब यहां पढ़ते थे तो हजरतगंज में घूमने को गंजिंग कहा करते थे.’’

‘‘टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है जिस में मुमताज बेगम को अपने बूढ़े शाहजहां पर विश्वास नहीं है कि वे उन के लिए ताजमहल बनवाएंगे, क्योंकि उन्होंने ताजमहल के लिए आगरा में कहीं जमीन नहीं खरीदी है,’’ मृदुलाजी ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम्हें बूढ़े शाहजहां दिखाई दिए लेकिन झुर्रियों से छुआरे की तरह सिमटीसिकुड़ी मुमताज बेगम दिखाई नहीं दी?’’ ललितजी हंस कर बोले.

‘‘औरत अपनेआप को कभी बूढ़ी नहीं मान पाती मेरे आका,’’ हजरतगंज की चौड़ी सड़क पर बिना किसी की परवा किए मृदुला ने ललितजी का हाथ थाम लिया.

मृदुला को पास खींचते हुए ललितजी मुसकराए और बोले, ‘‘उस विज्ञापन में मुमताज बूढ़ी जरूर है पर यहां इस हजरतगंज में इस हजरत के संग जो मुमताज बेगम है वह एकदम ताजातरीन और कमसिन युवती है.’’

‘‘पानी पर मत चढ़ाओ, बह जाऊंगी,’’ लज्जित सी मृदुलाजी हंस कर बोलीं, ‘‘उम्र का असर हर किसी पर होता है…आदमी पर भी, औरत पर भी.’’

‘‘पर महबूबा हमेशा जवान रहती है बेगम,’’ ललितजी बोले.

ये भी पढ़ें- अपराधबोध: परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

‘‘किस के साथ ठहरे थे उस होटल में?’’ अचानक मृदुला ने पूछा तो ललितजी उन के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगे…फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सफी…उमेरा बानू सफी…कश्मीर की रहने वाली थी. मेरे साथ ही शोधकार्य कर रही थी विश्वविद्यालय में.’’

‘‘संग में शोध करतेकरते उस के संग होटल में शोध करने आ गए?’’ चुहल भरे अंदाज में पूछा मृदुला ने.

‘‘हम होटल में ही नहीं आए थे, बल्कि एक युवक युवती के साथ जो करता है वह सब भी हुआ था,’’ दंभ भरे स्वर में कहा उन्होंने.

‘‘बिलकुल गलत…एक मुसलमान लड़की, एक हिंदू के साथ इस तरह न तो होटल में जा सकती है, न इस सब के लिए राजी हो सकती है,’’ मृदुला हंसते हुए बोलीं, ‘‘मुझे तो लगता है कि तुम सचमुच डींग हांक रहे हो.’’

‘‘तो एक हिंदू पुरुष, एक हिंदू स्त्री के साथ होटल में टिक कर तो यह सब राजीबाजी से कर सकता है? बोलो?’’ शरारत थी ललितजी के चेहरे पर.

‘‘इस वक्त मैं मुसलमान मुमताज बेगम हूं और आप वे शाहजहां हैं जिन्हें ताजमहल के लिए कहीं आगरा में जमीन नहीं मिली.’’

हजरतगंज घूम कर वापस होटल के कमरे में आने पर सकुचाते हुए ललितजी ने मृदुला के सीने के उभारों को भर नजर ताकना शुरू किया तो उम्र के बावजूद मिर्च की तरह लाल पड़ गईं मृदुलाजी, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं आप? जानते हैं, ऐसी प्यारी नजरों का कितना मारक असर होता है किसी औरत पर.’’

‘‘मेरे मन में अरसे से एक गहरी प्यास है मृदुला,’’ जिन तृषित शब्दों में ललितजी ने कहा उस से मृदुला का पूरा बदन सिहर उठा.

‘‘मैं बाथरूम में स्नान के लिए जा रही हूं. आप की शेष बातें शेष रहेंगी,’’ प्यार की एक चिकोटी सी मृदुला ने ललितजी के गाल पर ली और पलंग से उठ गईं.

हाथ पकड़ लिया ललितजी ने, ‘‘सुनो तो सही. नहाने जा रही हो तो यह पैकेट अपने साथ बाथरूम में लिए जाओ… मैं चाहता हूं कि यही पहन कर तुम बाथरूम से बाहर आओ जो इस पैकेट में है.’’

लजा सी गईं मृदुला, ‘‘मुझे क्या आप ने वही पुरानी उमेरा बानू सफी समझ लिया है?’’

‘‘नहीं, शाहजहां की प्यारी मुमताज. वह ताजमहल जितना कीमती तोहफा तो नहीं है, पर मैं चाहता हूं कि मेरी इच्छा की पूर्ति तुम जरूर करो.’’

पैकेट लिए, शरारती नजरों से ललितजी को देखती मृदुला बाथरूम में चली गईं. स्नान के बाद जब पैकेट खोल कर देखा तो सन्न रह गईं.

ये भी पढ़ें- Short Story: जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

बाथरूम से बाहर आते मृदुला को अपलक ताकते रह गए ललितजी और झेंपती रहीं मृदुलाजी. उन की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थीं. अरसे बाद तमाम चीजें फिर से जीवन में हो रही थीं. अंधेरे में एक नई छलांग…पता नहीं क्या परिणाम होगा इस छलांग का.

‘‘गुरुदत्त की पुरानी फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ देखी होगी मृदुला तुम ने. उस का प्रसिद्ध गीत आज मुझे बरबस याद आ रहा है तुम्हें देख कर. चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो.’’

‘‘इस उम्र में हमें क्या यह सब शोभा देता है?’’ झेंप रही थीं मृदुलाजी.

‘‘इश्क कभी बूढ़ा नहीं होता मृदुला…उम्र का असर शरीरों पर हो सकता है, मन पर नहीं होता. अपने मन के दर्पण में झांक कर देखो, वहां भी यही सच होगा.’’

फिर कुछ ठहर कर ललितजी बोले, ‘‘मेरी पत्नी की मृत्यु कैंसर से हुई थी. उस के दोनों स्तन डाक्टरों ने काट कर निकाल दिए थे, जबकि मेरे लिए उत्तेजना का केंद्र स्त्री के यही जीवंत अंग हैं. सपाट सीना लिए वह कुछ ही समय जी सकी. बीमारी ने बाद में उस का पूरा शरीर ही जकड़ लिया और वह नहीं रही. बरसों पुरानी तमन्ना तुम ने पूरी की है आज मेरी लाई हुई यह ब्रा और यह झीनी रेशमी दूधिया मैक्सी पहन कर. सचमुच पूरी परी लग रही हो तुम इस वक्त मुझे.’’

पता नहीं मृदुला को क्या हुआ कि ललितजी को बांहों में समेट लिया और देर तक पागलों की तरह उन पर चुंबनों की बौछार करती रहीं.

आवेग संयत होने पर उन की आंखों में ताकती हुई बोलीं, ‘‘अकेली नहीं रह पा रही सच…मेरे साथ रहेंगे?’’ फिर कुछ सोच कर पूछा, ‘‘बेटी मानेगी आप की?’’

‘‘तुम बताओ, तुम्हारे बच्चे मानेंगे?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़का तो वापस इस देश में आएगा नहीं. लड़की और दामाद अपने में मगन हैं. शायद होहल्ला न मचाएं. आप बताइए, आप की बेटी मानेगी?’’

‘‘बेटी शायद मान जाए पर दामाद को लग सकता है कि ससुर का पैसा उस के हाथ नहीं आएगा,’’ वे बोले.

‘‘हो सकता है पैसा कारण न बने, मानसम्मान आड़े आए…यहीं रहते हैं. मेरी बेटीदामाद हैदराबाद में रहते हैं. दूर रहने के कारण उन के मानसम्मान का प्रश्न नहीं उठेगा, पर आप के…’’

‘‘देखा जाएगा…अभी तो हम इस पल को जी भर कर जिएं, मृदुला,’’ ललितजी ने मृदुला को अपनी बांहों में भर लिया और पलंग पर धीरे से लिटा कर उस रूपराशि को वे अपलक ताकते रहे फिर अपनी उंगलियों से उस के तन को सहलाने लगे…मृदुला का बदन अरसे बाद सितार के तारों की तरह झनझनाता रहा…

मन के दर्पण में रहरह कर पति के साथ बिस्तर पर बिताए गए रागात्मक क्षण याद आते फिर एकाएक ललितजी को उस दर्पण में देखने लगती. ‘यह सब क्या है?’ मृदुला सोचतीं, ‘क्यों हो रहा है यह सब? क्या शरीर में स्थित मन की यह चंचल स्थिति हर किसी को ऐसे छलती है?’ वे चाहती थीं कि पति का बिंब दर्पण में स्थायी बना रहे.  पर वह धुंधला जाता और उस कुहासे में ललितजी का बिंब स्पष्ट उभर आता.

जो आज है वह सच है. जो बीत गया है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता, न फिर पाया जा सकता है. तब…तब क्या करना चाहिए? क्या इस आज के सुखद क्षणों को जी भर जी लेना चाहिए? एक क्षण को अपराध बोध उत्पन्न होता पर दूसरे क्षण ही मन उसे झटक देता. इस में गलत क्या है? क्या ललितजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद औरत के इस सुख को पाने के लिए अब तक तृषित नहीं रहे? क्या उन का यह प्रेम उन की पत्नी के साथ दगा है? देहों का सच क्या सच नहीं होता?

ये भी पढ़ें- छिपकली: जब अंधविश्वास के चक्कर में दीप और जूही की खतरे में पड़ी जान

‘‘कहां खो गईं यार?’’ ललितजी ने उन के अधर चूम लिए, ‘‘मैं समझ सकता हूं तुम्हारे मन के इस अंतर्द्वंद्व को… महिलाएं बहुत भावुक होती हैं. इस में गलत क्या है. हम कहां किसी के साथ दगा कर रहे हैं? जो इस संसार में नहीं हैं, उन के लिए जीवन भर क्यों रोतेकलपते रहें? एक वाक्य होता है नाटकों में, ‘शो मस्ट गो औन.’ लोग कहते थे, आफ्टर नेहरू हू? इंदिरा इज इंडिया…अब दोनों नहीं हैं…क्या दोनों के बाद यह देश नहीं चल रहा है? लोग नहीं जी रहे हैं? भावनाएं अपनी जगह हैं, सोचविचार और जीवन का कटु सत्य अपनी जगह है. दोनों में तालमेल बैठाना ही जीवन है.’’

सुन कर निर्द्वंद्व मन से मृदुलाजी ललितजी की बांहों में समा गईं.

Serial Story: मन के दर्पण में– भाग 2

अस्पताल पहुंच कर ललितजी से बोलीं, ‘‘यह क्या हरकत की आप ने…’’ एकदम क्रुद्ध हो उठीं मृदुला, ‘‘फौजी महोदय रोज आते हैं, उन से कहलवा नहीं सकते थे आप? फोन नहीं कर सकते थे? इतना पराया समझ लिया आप ने मुझे…’’ बरसती चली गईं मृदुलाजी.

हंस दिए ललितजी, ‘‘तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था,’’ आवाज में लापरवाही थी, ‘‘असल बात यह है कि तुम्हें पता चलता तो तुम मुझ से ज्यादा परेशान हो जातीं. तुम्हारी परेशानी से मेरा मन ज्यादा दुखी होता…अपना दुख कम करने के लिए तुम्हें नहीं सूचित किया.’’

‘‘बेटीदामाद नहीं आते यहां? उन में से किसी को यहां रहना चाहिए,’’ मृदुला बोलीं.

‘‘सुबहशाम आते हैं. जरूरत की हर चीज दे जाते हैं. नर्स और डाक्टरों से सब पूछ लेते हैं. नौकरी करते हैं दोनों. कहां तक छुट्टियां लें? फिर वे यहां रह कर भी क्या कर लेंगे? इलाज तो डाक्टरों को करना है,’’ ललितजी ने बताया.

‘‘अब मैं रहूंगी यहां…’’ मृदुलाजी बोलीं तो हंस दिए ललित, ‘‘क्या करोगी तुम यहां रह कर? नर्स साफसफाई करती है. डायटीशियन निश्चित खाना देती है. नर्सें ही डाक्टरों के बताए अनुसार वक्त पर दवाएं और इंजेक्शन देती हैं. सारा खर्च बेटीदामाद अस्पताल में जमा करते हैं…तुम क्या करोगी इस में? व्यर्थ लोगों की नजरों में आओगी और बेमतलब की बातें चल पड़ेंगी, जिन से मुझे ज्यादा तकलीफ होगी…तुम जानती हो कि मैं सबकुछ बरदाश्त कर सकता हूं पर तुम्हारी बदनामी कतई नहीं सह सकता… अपनेआप से ज्यादा मैं तुम्हें मानता हूं, यह तुम अच्छी तरह जानती हो…’’

ये भी पढें- तेरे जाने के बाद: क्या माया की आंखों से उठा प्यार का परदा

‘‘इतना ज्यादा मानते हो कि मुझे सूचना तक देना जरूरी नहीं समझा,’’ कुपित बनी रहीं मृदुला, ‘‘आप कुछ भी कहें, मुझे आप की यह हरकत बहुत अखरी है. आप ने मुझे इस हरकत से एकदम पराया बना दिया,’’ आंसू आ गए मृदुला की पलकों पर.

‘‘सौरी, मृदुला…मैं नहीं समझता था कि तुम्हें मेरे इस व्यवहार से इतनी चोट पहुंचेगी…आइंदा ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जो तुम्हें दुख पहुंचाए,’’ ललितजी अपलक मृदुला की तरफ ताकते हुए कहते रहे, ‘‘मुझे शायद विश्वास नहीं था कि तुम मुझ से इतनी गहराई तक जुड़ी हुई हो.’’

‘‘अगर कोई ऐसा तरीका होता कि मैं अपना कलेजा चीर कर दिखा सकती तो दिखाती कि भीतर दिल की जगह ललितजी ही धड़कते हैं, यह जानते हैं आप,’’ कहते हुए मृदुला लाल पड़ गईं. उन्हें लगा कि झोंक में क्या कह गईं.

अपना हाथ बढ़ा कर ललितजी ने मृदुला का हाथ थाम लिया, ‘‘बहुत अच्छा लगा सचमुच तुम्हारी यह अपनत्व भरी बातें सुन कर…अब तुम देखोगी कि मैं बहुत जल्दी अच्छा हो जाऊंगा. मैं समझता था कि अब मेरी किसी को जरूरत नहीं है…बेटीदामाद की अपनी दुनिया है और कोई है नहीं अपना जिसे परवा हो…आज पता चला कि कोई और भी है सगे- संबंधियों के अलावा, जिस के लिए मैं अब जरूर जिंदा रहना चाहूंगा…जल्दी से जल्दी अपनेआप को अच्छा करना और देखना चाहूंगा…जीने का मन हो गया सचमुच अब…’’

‘‘मरें आप के दुश्मन,’’ मृदुला बोलीं, ‘‘डाक्टर लोग कब छुट्टी देंगे?’’

‘‘बेटी को पता होगा. उसी से डाक्टर बात करते हैं.’’

‘‘अस्पताल से आप को सीधे मेरे घर चलना पड़ेगा,’’ कह गईं मृदुला.

‘‘पागल हो रही हो क्या? लोग क्या कहेंगे? पहले मैं बेटीदामाद के साथ जाऊंगा फिर बाद में सोचूंगा, मुझे क्या करना चाहिए…’’

‘‘पति का जी.पी.एफ. का पैसा अब तक निदेशालय से नहीं आया है,’’ ललितजी के स्वस्थ होने के बाद मृदुला ने एक दिन उन्हें बगीचे में बताया.

‘‘लखनऊ चलना पड़ेगा,’’ ललितजी बोले, ‘‘तुम उन की वास्तविक वारिस हो इस के प्रमाणपत्र दोबारा ले कर चलना होगा. तुम्हारी बेटी और बेटे ने जो अनापत्तिपत्र दिए हैं उन की मूलप्रतियां भी साथ में ले लेना.’’

‘‘हम कब चल सकेंगे?’’ मृदुलाजी ने पूछा.

ललितजी कुछ देर सोचते रहे फिर बोले, ‘‘दफ्तर से मुझे भी अपनी पैंशन संबंधी फाइल बनवा कर निदेशालय ले जानी है. तुम तो जानती ही हो कि आजकल हर दफ्तर में बाबू रूपी देवता की भेंटपूजा जरूरी हो गई है. जब तक उन्हें चढ़ावा न चढ़ाया जाए, कोई काम नहीं होता. सरकार कितने ही दावे करे पर इस देश की व्यवस्था का सब से बुरा पक्ष भ्रष्टाचार है.’’

‘‘भ्रष्टाचार नहीं, शिष्टाचार कहते थे मेरे पति,’’ हंस दीं मृदुला, ‘‘आप की फाइल कब तक तैयार हो जाएगी?’’

‘‘बहुत जल्दी है क्या तुम्हें? अगर पैसे की जरूरत हो तो मुझे बताओ…मैं इंतजाम कर दूंगा.’’

ये भी पढ़ें- मुक्ति: जया ने आखिर अपनी जिंदगी में क्या भुगता

‘‘नहीं, वह बात नहीं है,’’ सकुचा गईं मृदुला, ‘‘हमारा पैसा सरकार के पास क्यों बना रहे? हमारे काम आए…अब हमारी जिंदगी ही कितनी बची है? पैसा मिल जाए तो उस का कोई सही उपयोग करूं.’’

‘‘जहां इतने महीने सब्र किया, एकडेढ़ सप्ताह और सही…फाइल ले कर तुम्हारे साथ चलूंगा तो लोगों को बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा…’’

‘‘लोगों को क्यों बीच में लाते हैं आप? यह क्यों नहीं कहते कि बेटीदामाद का डर है आप को. उन के कारण ही आप खुलेआम मुझ से मिलने से कतराते हैं.’’

यह सुन कर हंसते रहे ललितजी, फिर झेंप कर बोले, ‘‘जब सबकुछ जानतीसमझती हो तो पूछती क्यों हो?’’

मुसकराती रहीं मृदुलाजी, ‘‘चलिए, आप के संकोच और भय को माने लेती हूं. एकडेढ़ सप्ताह बाद क्या फिर आप से पूछना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं. फाइल तैयार होते ही तुम्हें बता दूंगा, बल्कि शताब्दी में टिकटें भी रिजर्व करवा लूंगा…तुम सारे कागजों के साथ अपनी अटैची तैयार रखना,’’ ललितजी हंसते हुए बोले.

वह लखनऊ का एक पांचसितारा होटल था जिस में ललितजी मृदुला को ले कर पहुंचे. होटल की सजधज देख कर मृदुला सकुचा सी गईं, ‘‘इसी होटल में क्यों?’’ सहसा सवाल पूछा मृदुला ने.

‘‘दो कारणों से. एक तो यहां से निदेशालय पास है, दूसरे, जब मैं विश्व- विद्यालय में पढ़ता था और शोध कर रहा था तब इस होटल में अपनी किसी महिला दोस्त के साथ यहां आ कर ठहरा था और आज वही सब किसी दूसरे के साथ मैं दोबारा जीना चाहता हूं.’’

‘‘ऐ जनाब, बदमाशी नहीं चलेगी. गलत हरकत करेंगे तो पुलिस को फोन कर दूंगी. आप जानते हैं कि लखनऊ में एक पुलिस अफसर है मेरा रिश्तेदार. एक फोन पर आप को हवालात की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘तुम्हारे लिए तो हवालात क्या, फांसी पर चढ़ने को तैयार हूं. लगवा दो फांसी. तुम्हारे सब खून माफ,’’ हंसते रहे ललितजी.

ये भी पढ़ें- सोच: मिसेज सान्याल और मिसेज अविनाश दूर क्यों भागते थे अपने बेटे-बहू से?

होटल के एक ही कमरे में अपना सामान रख वे जल्दी से फ्रेश हो कागजात और फाइल ले टैक्सी से निदेशालय चले गए. वहां से लौटने में शाम हो गई.

आगे पढें- मृदुला ने ललितजी की आंखों में…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें