REVIEW: निराश करती Aamir Khan की फिल्म Lal Singh Chaddha

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आमिर खान प्रोडक्शंस और वायकाम 18

निर्देशकः अद्वैत चंदन

लेखकः अतुल कुलकर्णी

कलाकारः आमिर खान, करीना कपूर खान, नागा चैतन्य,  मोना,  मानव विज,  आर्या शर्मा, मेहमान कलाकार शाहरुख खान व अन्य.

अवधिः दो घंटे 45 मिनट

बौलीवुड के फिल्मकारों के पास मौलिक कहानियां व मौलिक कहानी लेखकों का घोर अभाव है. इसी के चलते अब हर कोई विदेशी या दक्षिण की फिल्मों को ही हिंदी में बनाने पर उतारू हैं. पर यह सभी नकल भी ठीक से नही कर पा रहे हैं. इसमंे आमिर खान भी पीछे नहीं है. आमिर खान की ग्यारह अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंची फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ मौलिक फिल्म नही है,  बल्कि 1994 में प्रदर्शित अमरीकन  फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’’ का भारतीय करण है, जो कि मंदबुद्धि फारेस्ट नामक एक इंसान की बचपन से पिता बनने तक की एंडवेंचरस कहानी है. इसका भारतीय करण करते समय भारतीय संदर्भ जोड़ने के अलावा लाल सिंह को दयालु दिखाने के चक्कर में काफी गड़बड़ा गयी है. मूल फिल्म से लाल सिंह चड्ढा की कहानी काफी विपरीत है. मूल फिल्म के अनुसार लाल सिंह की मां अपने बेटे के लिए कोई सौदा नही करती. बल्कि भारतीय संवेदनाओ के अनुसार कहानी आगे बढ़ती है. मगर मूल कहानी के विपरीत लाल सिंह चड्ढा युद्ध के मैदान से पाकिस्तानी आतंकवादी को बचाकर भारतीय सेना के ही अस्पताल मे इलाज करवाने के बाद उसे अपना बिजनेस पार्टनर भी बनाता है? कुछ समय बाद उसे पाकिस्तान जाने की इजाजत दे देता है.  इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है? तो क्या आमिर खान का मानना है कि मुंबई पर आतंकवादी हमला करने वाले कसाब को भी फांसी देने की बजाय उसे भी सुधारने का अवसर देना चाहिए था?

कहानीः

यह कहानी पठानकोट से ट्रेन में बैठे लाल सिंह चड्ढा (आमिर खान)  से शुरू होती है, जो कि अपने बचपन से कहानी सुनाना शुरू करती है. लाल सिंह के बचपन की कहानी के साथ ही देश में घट रही घटनाएं भी सामने आती रहती हैं. यह कहानी पठानकोट के गांव में जन्में लालसिंह चड्ढा की है. जिसके परनाना के पिता, परनाना और नाना सेना में थे और यह तीनों युद्ध के मैदान से कभी जीवित नहीं लौटे. वह अपने नाना के ही घर में अपनी मां (मोना सिंह) के साथ रह रहे हैं. लाल सिंह ठीक से चल नही पाते हैं. डाक्टरों ने उनके पैर में लोहे की राड बांधकर सहारा दे रखा है. लाल सिंह का आई क्यू लेवल काफी कम है, इसलिए उसे काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. स्कूल का पादरी प्रिंसिपल मंदबुद्धि होने के चलते लाल सिंह को मंद बुद्धि स्कूल में पढ़ाने की बात उसकी मां से कहते हैं. पर लाल सिंह की मां के जिद के आगे वह झुक जाता है. स्कूल में काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. सभी उसे बेवकूफ समझते हैं. स्कूल में लाल सिंह को रूपा डिसूजा नामक दोस्त मिलती है. बचपन में ही लाल सिंह अपनी मां के साथ दिल्ली जाते हैं और जब वह प्रधानमंत्री आवास के सामने खड़े होकर तस्वीरें खिचवा रहे होते हैं, तभी पीछे से गोलियों की आवाज आती है और पता चलता है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी है. सिख विरोधी दंगे शुरू हो जाते हैं. बेटे को दंगाइयों से बचाने के लिए लाल सिंह की मां उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार नजर न आए.

स्कूल दिनों में ही एक मौका ऐसा आता है, जब कुछ लड़कों से बचने के लिए भागते भागते लाल सिंह के पैर को जकड़कर रखने वाली लोहे की राड टूट जाती हैं और लाल सिंह अपने पैरों पर दौड़ने लगते हैं.

लाल सिंह चड्ढा और रूपा डिसूजा की जिंदगी तब बदलने लगती है, जब दोनों कालेज पहुंचते हैं. तेज दौड़ने के चलते लाल सिंह को कालेज की दौड़ टीम का हिस्सा बना लिया जाता है. उधर अति महत्वाकांक्षी और अमीर बनने का ख्वाब देखने वाली रूपा (करीना कूपर खान) एक अमीर लड़के हरी के साथ रोमांस करना शुरू करती है. जबकि लाल सिंह भी रूपा से प्यार करता है. वह अपने नाना या परनाना की तरह सेना में नहीं जाना चाहता. लाल सिंह कहता है कि मैं किसी को मारना नहीं चाहता. पर एक दिन वह हरी को थप्पड़ मार देता है, जिससे नाराज होकर हरी, रूपा से संबंध खत्म कर देता है.

अपने भविष्य को लेकर द्विविधा से ग्र्रस्त लाल सिंह सेना में भर्ती हो जाता है. सेना में सह सैनिक बाला (नागा चैतन्य ) से उसकी दोस्ती होती है. बाला उसके साथ सेना से रिटायरमेंट के भागीदारी में व्यापार शुरू करने की योजना बनाता है. कारगिल में छह आतंकवादियों के छिपे होने की खबर मिलने पर सेना की एक टुकड़ी को भेजा जाता है, जिसमें लाल सिंह और बाला भी है. पर वहां मामला उलटा पड़ जाता है. क्योंकि वहां छह से कई गुना ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी भारी गोला बारूद के साथ मौजूद होते हैं. भारतीय सेना की टुकड़ी उनके हमलों से घबराकर पीछे लौटने लगती है. पीछे लौटते हुए लाल सिंह बसे तेज दौड़कर नीचे उतरता है. अचानक उसे बाला की याद आती है. वह बाला को लेने फिर से वापस पहाड़ी की तरफ भागता है. बीच में उसे एक घायल सैनिक मिलता है. उसे वह उठाकर नीचे सुरक्षित पहुंचाकर फिर बाला के लिए जाता है. ऐसा करते करते वह पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी के मुखिया मोहम्मद (मालव विज ), जो बुरी तरह से घायल है और बाला को भी वापस लेकर आता है. बाला की मौत हो जाती है. पर मोहम्मद का भारतीय सेना के अस्पताल में इलाज होता है. जिसे बाद में लाल सिह अपना बिजनेस मार्टनर बना लेता है. उधर वह रूपा को भूला नही है. मगर रूपा गलत राह पर चल पड़ी है. एक दिन मोहम्मद वापस पाकिस्तान लौट जाता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंत में मालूम चलता है कि लाल सिंह चड्ढा,  असल में सिर्फ और सिर्फ भाग सकता था.  जब वो भाग रहा था,  उस बीच उसने अपना जीवन जिया.  न केवल अपना जीवन जिया, बल्कि और न जाने कितनों को जीना सिखाया.  और वो,  ये सब कुछ,  बेहद निर्मोही ढंग से कर रहा था.

लेखन व निर्देशनः

पौने तीन घंटे लंबी अवधि की फिल्म अति धीमी चाल से लाल सिंह चड्ढा की भटकती हुई कहानी है. दर्शक जिस तरह से मूल फिल्म ‘‘फौरेस्ट गंप’’ के साथ जुड़ता है, उस तरह ‘लाल सिंह चड्ढा’ के संग नही जुड़ पाता. आगे बढ़ती रहती है. यह फीचर फिल्म कम डाक्यूमेंट्री वाली फिल्म है. लाल सिंह चड्ढा के जीवन व रूपा के साथ उनकी प्रेम कहानी के साथ बीच बीच में आपातकाल हटाने,  सिख विरोधी दंगों, भारत को विश्व कप क्रिकेट में मिली पहली जीत, औपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, उनके अंतिम संस्कार में सुबकते राजीव गांधी, सिख विरोधी दंगे, मंडल कमंडल,  आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस, मुंबई बम धमाके, अबू सलेम और मोनिका बेदी की कथित प्रेम कहानी से लेकर वाराणसी के घाटों पर लिखा नारा-‘अबकी बार मोदी सरकार’ सहित देश में पिछले पचास वर्षों के दौरान घटित सभी ऐतिहासिक घटनाक्रम भी आते रहते हैं. मगर 2002 के गुजरात दंगों का कहीं कोई जिक्र नही आता? क्या यह इतिहास के साथ छेड़छाड़ नही है? इस हिसाब से यह फिल्म कुछ घटनाक्रमों का ऐतिहासिक दस्तावेज जरुर है.

मगर कहानी व पटकथा के स्तर पर अतुल कुलकर्णी ने एक अजेंडे के तहत ही पूरी फिल्म लिखी है. लेखक व निर्देशक ने फिल्म में सिख दंगों का चित्रण किया है, जिसमें आठ नौ वर्ष का बालक अपनी मां के साथ फंस गया है. हालात ऐसे हैं कि लाल सिंह को बचाने के लिए उसकी मां पास में पड़े कांच के टुकड़े से उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार न लगे. मगर लेखक व निर्देशक यह नही दिखा पाए कि इस घटनाक्रम का अबोध बालक लाल सिंह के मनमस्तिष्क पर किस तरह का मनोवैज्ञानिक असर पड़ा?लाल सिंह की संगत और लाल सिंह के घर में रहते हुए लाल सिंह के साथ सोेने के बावजूद रूपा क्यों गलत राह पकड़ती है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया. पूरी फिल्म में जब भी दंगे होते हैं, तो इस सच को स्वीकार करने की बनिस्बत ‘मलेरिया’ नाम दिया गया है. इतिहास के सच को दिखाते हुए इस तरह का डर क्यों? यदि डर है तो फिल्म न बनाएं. करीना के किरदार यानी कि रूपा के किरदार को मोनिका बेदी के रूप में चित्रित करना क्यो जरुरी समझा गया. अबू सलेम फिल्म नही बनाता था. एक सैनिक अपनी दयालुता वश किसी दुश्मन देश के सैनिक या आतंकवादी को उठा लाए, तो करूा भारतीय सेना  उस सैनिक का इतिहास भूगोल आदि की बिना जांच किए सैनिक अस्पताल में उसका इलाज करने के साथ ही उसे टेलीफोन बूथ चलाने की इजाजत देगा? उसके बाद वह वापस पाकिस्तान किस पासपोर्ट पर गया? इस पर भारतीय फिल्म सेंसर की अनदेखी समझ से परे है?क्योंकि यह दृश्य तो भारतीय सेना और पासपोर्ट जारी करने वाले विदेश मंत्रालय पर भी सवाल उठाता है?क्या इसे सिनेमाई स्वतंत्रता मानकर नजरंदाज किया जाना चाहिए? लेखक व निर्देशक ने ऐसा क्यों किया,  इसके पीछे उनकी क्या सोच रही है? यह तो वह जाने. पर मूल फिल्म ‘फौरेस्ट गम’ में अमरीकी सैनिक,  वियतनाम युद्ध में वियतनामी नही अमरीकी सैनिक को ही उठाकर लाता है और उसी के साथ भागीदारी में व्यापार भी करता है. इतना ही नही पठानकोट, पंजाब के गांव के बालक को पढ़ने के लिए क्रिश्चियन स्कूल व पादरी दिखाकर धर्म को बेचने की जरुरत क्यों पड़ी?

निर्देशक के तौर पर फिल्म में अद्वैत चंदन का नाम जरुर हे, मगर फिल्मू के अपरोक्ष रूप से निर्देशक आमिर खान ही हैं. फिल्म के निर्माता भी वह स्वयं हैं.

फिल्म का गीत संगीत भी आकर्षित नहीं करता.

अभिनयः

आमिर खान को परफैक्शनिट कलाकार माना जाता है. वह बेहतरीन कलाकार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. मगर लाल सिंह चड्ढा के किरदार को निभाते हुए आमिर खान ने वही सब किया है, जो वह इससे पहले ‘थ्री इडिएट’ या ‘पीके’ में कर चुके हैं. वही आंखों को चैड़ा करना,  गर्दन को टेढ़ा करना,  गला साफ करना,  पैंट को ऊंचा उठाना आदि. . बल्कि कई दृश्यों में तो ‘ओवर एक्टिंग’ करते नजर आते हैं. काली निराशा से आशावाद की ओर बढ़ने वाले दुश्मन देश के सैनिक मोहम्मद के किरदार में मानव विज अपनी छाप छोड़ जाते हैं. बाला के किरदार में नागा चैतन्य का किरदार छोटा है, मगर मनोरंजन के क्षण लाते हैं. रूपा के किरदार में करीना कपूर खान भी दर्शकों को आकर्षित करती हैं.

REVIEW: जानें कैसी है Akshay और Manushi की फिल्म Samrat Prithviraj

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः आदित्य चोपड़ा

लेखक व निर्देशकः डॉं.  चंद्रप्रकाश द्विवेदी

कलाकारः अक्षय कुमार, मानुषी छिल्लर, मानव विज, संजय दत्त, सोनू सूद, ललित तिवारी व अन्य

अवधिः दो घंटे 15 मिनट

भारतीय इतिहास में सम्राट पृथ्वीराज चैहान को वीर योद्धा माना जाता है. मगर उन्ही पर बनायी गयी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’’ में  पृथ्वीराज की वीरता पर ठीक से रेखांकित नही किया गया है. इसके अलावा पिछले एक सप्ताह से अक्षय कुमार और डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी जिस तरह के विचार व्यक्त कर रहे थे,  उससे फिल्म कोसों दूर है. डां.  चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने यह फिल्म एक खास नरेटिब को पेश करते हुए बनायी है, मगर इसमें भी बुरी तरह से असफल रहे है.

कहानीः

फिल्म शुरू होती है गजनी,  अफगानिस्तान में मो. गोरी(मानव विज )के दरबार से, जहां बंदी बनाए गए सम्राट पृथ्वीराज चैहान (अक्षय कुमार ) को लाया जाता है, उनकी आंखें जा चुकी हैं. दर्शक दीर्घा में चंद बरदाई (सोनू सूद )भी हैं. वह वहां भी सम्राट की महानता का बखान करने वाला गीत गा रहे हैं. पृथ्वीराज का मुकाबला तीन शेरों से होता है, जिन्हे वह शब्द भेदी बाण से मार गिराते हैं. फिर वह मो.  घोरी से कहते हैं कि जानवरांे को छोड़िए आप या आपका बहादुर सैनिक मुझसे लड़ें. यदि मेरी जीत हो तो मेरे साथ सभी हिंदुस्तानियों को रिहा किया जाए. इसके बाद वह जमीन पर गिर पड़ते हैं और फिर कहानी अतीत में चली जाती है. और कहानी शुरू होती है कनौज के राजा जयचंद(आशुतोष राणा) की बेटी संयोगिता(मानुषी छिल्लर) और अजमेर के राजा पृथ्वीराज की प्रेम कहानी से. फिर तराइन का पहला युद्ध होता है, जहां मो. गोरी को हार का सामना करना पड़ता है. तो वहीं अजमेर के राजा पृथ्वीराज (अक्षय कुमार) को दिल्ली का राजा बनाया जाना उनके संबंधी और कन्नौज के राजा जयचंद (आशुतोष राणा) को रास नहीं आता. यही नहीं सम्राट पृथ्वीराज खुद से प्रेम करने वाली जयचंद की बेटी संयोगिता (मानुषी छिल्लर) को भी स्वयंवर के मंडप से उठा लाते हैं. इससे अपमानित जयचंद तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज के हाथों शिकस्त हासिल कर चुके गजनी के सुलतान मोहम्मद गोरी (मानव विज) को पृथ्वीराज को धोखे से बंदी बनाकर उसे सौंप देने की चाल चलता है.  जिसमें वह कायमाब होता है और सम्राट पृथ्वीराज,  मो. गोरी के बंदी बन जाते हैं.  कहानी फिर से वर्तमान में आती है पृथ्वीराज के आव्हान को स्वीकार कर मो.  गोरी ख्ुाद पृथ्वीराज  से युद्ध करने के लिए मैदान में उतरता है. फिर क्या होता है, इसके लिए फिल्म देखना ही ठीक होगा.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म में संजय दत्त के अभिनय को छोड़कर ऐसा कुछ भी नही है, जिसकी तारीफ की जाए. फिल्म के लेखक व निर्देशक डां.  चंद्र प्रकाश द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि उन्हे इतिहास की बहुत अच्छी समझ है, मगर अफसोस फिल्म देखकर इस बात का अहसास नही होता. हमने अब तक जो कुछ किताबांे में पढ़ा है, या जो लोक गाथाएं सुनी हैं,  उनसे विपरीत फिल्म का क्लायमेक्स  गढ़कर डां.  चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने देश की जनता के सामने एक नए इतिहास को पेश किया है. यह इतिहास उन्हे कहां से पता चला यह तो वही जाने. पटकथा में विखराव बहुत है. बतौर निर्देशक वह बुरी तरह से मात खा गए हैं. फिल्म को बनाते समय डॉं.  चंद्र्रप्रकाश द्विवेदी यह भी भूल गए कि यह फिल्म ग्यारहवीं सदी की है न कि वर्तमान समय की. फिल्म के गीत और भाषा वर्तमान समय की है. फिल्म में पृथ्वीराज चैहान व संयोगिता के संवादो में उर्दू शब्द ठॅूंेसे गए हैं. ‘हद कर  दी. . ’गाना कहीं से भी ग्यारहवी सदी का गाना होनेे का अहसास नही कराता. ‘ये शाम है बावरी सी. . ’गाना भी एैतिहासिक फिल्म के अनुरूप नही है.  इतना ही नही शाकंभरी मंदिर में पृथ्वीराज अपनी पत्नी व अन्य के साथ डांडिया व गरबा डंास करते हैं. . क्या कहना. . यह है इतिहास के जानकार. . .  इंटरवल से पहले तराइन के पहले युद्ध के छोटे से दृश्य को नजरंदाज कर दें, तो फिल्म में एक भी युद्ध दृश्य नहीं है, जबकि कहानी वीर योद्धा पृथ्वीराज चैहान की है. फिल्म के सभी एक्शन दृश्य हाशिए पर ढकेलने लायक हैं. प्रेम कहानी व जयचंद की कहानी को ज्यादा महत्व दिया गया है. इसके साथ ही नारी सम्मान व नारी उत्थान पर भी कुछ अच्छे संवाद है. ‘चाणक्य’ सीरियल व ‘पिंजर’ जैसी फिल्म के लेखक व निर्देशक डॉं. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के अब तक के कैरियर का यह सबसे घटिया काम है.  इतना ही नहीं वह जो बयान बाजी कर रहे हैं और फिल्म से जो बात निकलकर आती है, उसमे विरोधाभास है. फिल्म देखकर अहसास होता है कि मो. गोरी को हिंदुस्तान भारत पर आक्रमण करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह तो पृथ्वीराज चैहाण को भी नही मारना चाहता था. वह इतना चाहता था कि पृथ्वीराज उसके सामने सिर झुका लें. आखिर लेखक एवं निर्देशक स्पष्ट रूप से कहना क्या चाहते हैं?वह बार बार अंतिम ंिहंदू राजा की बात जरुर करते हैं.

फिल्म में वह पृथ्वीराज और उनके बचपन के दोस्त व राज दरबारी कवि चंद बरदाई की दोस्ती व उसके इमोशंस को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. मगर इसमें उनका कोई दोष नही है. कहा जाता है कि इंसान के निजी जीवन की फितरत व स्वभाव जाने अनजाने उसके लेखन व उसकी बातों सामने आ ही जाता है.

फिल्म का वीएफएक्स बहुत कमजोर है. फिल्म के शुरूआत में शेर से लड़ने वाले दृश्य का वीएफएक्स ही नही एडीटिंग भी कमजोर है.

अभिनयः

अफसोस पृथ्वीराज के किरदार में अक्षय कुमार कहीं से भी फिट नहीं बैठते. वह हर दृश्य में कमजोर साबित हुए है. संयोगिता के किरदार में विश्व सुंदरी मानुषी छिल्लर भी निराश करती है. वह विश्व सुंदरी का ताज पहने हुए जितनी खूबसूरत लगी थी, इस फिल्म में वह उतनी खूबसूरत नही लगी. जहां तक अभिनय का सवाल है, तो हर दृश्य में उनका सपाट चेहरा ही नजर आता है. यदि मानुषी को अभिनय जगत में  कामयाब होना है, तो उन्हे बहुत मेहनत करने की जरुरत है.  काका कान्हा के किरदार में संजय दत्त अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. चंद बरादाई के किरदार में सोनू सूद प्रभावित करने में विफल रहे हैं. वास्तव में उनके किरदार को सही ढंग से लिख ही नही गया. मो. गोरी के किरदार में मानव विज का चयन ही गलत है. इसके अलावा विलेन को इतना कमजोर दिखाया गया है कि कल्पना नहीं की जा सकती. वैसे मो.  गोरी का किरदार छोटा ही है.

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FILM REVIEW: जानें कैसी है जान्हवी कपूर की फिल्म गुंजन सक्सेना

रेटिंग : साढे़ तीन स्टार

निर्माता:  करण जोहर, ज़ी स्टूडियो, हीरू यश जोहार, अपूर्वा मेहता

निर्देशक: शरण शर्मा

कलाकार: जान्हवी कपूर, पंकज त्रिपाठी, अंगद बेदी, विनीत कुमार सिंह, मानव विज, आएशा रजा मिश्रा व अन्य

ओटीटी प्लेटफॉर्म: नेटफ्लिक्स

अवधि: 1 घंटा 57 मिनट
1999 कारगिल युद्ध में पहली महिला वायुसेना पायलट के रूप में शरीक होकर भारत को विजयश्री दिलाने वाली गुंजन सक्सेना के जीवन  पर बनी फिल्म “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल” महज एक बायोपिक फिल्म नहीं है, बल्कि फिल्मकार शरण  शर्मा की इस फिल्म में देशभक्ति और नारी उत्थान की भी बात की गयी है. यह फिल्म फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुंजन सक्सेन की कहानी है, जिन्होंने 24 वर्ष की उम्र में कारगिल युद्ध के दौरान अद्भुत साहस का परिचय देते हुए तमाम घायल सैनिकों को अस्पताल तक पहुंचाया था .2004 में उन्होंने  स्क्वार्डन लीडर के रूप में अवकाश लिया था. यह फिल्म 12 अगस्त, बुधवार से ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती है.

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कहानी:

फिल्म की कहानी लखनऊ में रह रहे पूर्व आर्मी ऑफिसर अनूप सक्सेना (पंकज त्रिपाठी) के घर से शुरू होती हैं. अनूप सक्सेना की बेटी गुंजन सक्सेना और गुंजू (जान्हवी कपूर) की अपने बड़े भाई (अंगद बेदी) के संग नोकझोंक चलती रहती है. गुंजू का सपना है पायलट बनकर हवाई जहाज उड़ाना .उसके इस सपने के साथ उसका भाई और मां (आयशा रजा मिश्रा) नहीं है, मगर उसके पिता का उसे पूरा समर्थन हासिल है. गुंजन तीन बार पायलट बनने के लिए दिल्ली के ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में जाती है ,मगर हर बार शैक्षणिक योग्यता बढ़ जाती है.ग्रेजुएशन करने के बाद जब वह पहुंचती है ,तो पता चलता है कि फीस 5 लाख से बढ़कर 10 लाख हो गयी तथा पायलट बनने में 6 से 7  वर्ष लगेंगे .अब उसका परिवार इतना धन देने में असमर्थ है.  गुंजन मन मसोसकर रह जाती है. लेकिन कहते हैं कि जहां चाह हो, वहां राह निकल आती है,.अचानक एक दिन अखबार में पहली बार भारतीय वायु सेना में महिलाओं की भर्ती का विज्ञापन छपता है और गुंजन के सपनों को पंख मिल जाते हैं.

ट्रेनिंग के दौरान बार-बार पुरुष अफसर उसे एक लड़की होने के नाते कमजोर होने का अहसास कराते रहते हैं .पर वह  उनसे लड़ते हुए अपने आप को सशक्त बनाते हुए उधमपुर बेेस की सर्वश्रेष्ठ वायुसेना पायलट अफसर बनती है .यूनिट के प्रमुख कमांडर (मानव विज) का भी उसे साथ मिलता है. अंततः 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान गुंजन सक्सेना को भी देश की सेवा करने का अवसर मिलता है.
जहां पर उसका भाई सैन्य अधिकारी है, कारगिल युद्ध में देश को विजय दिलाने में गुंजन का भी योगदान होता है. और युद्ध भूमि पर उतरने वाली पहली भारतीय महिला वायुसेना पायलट बनती है .

लेखक व निर्देशन

एक  बेहतरीन पटकथा पर बनी यह फिल्म है. जिसमें पहली वायुसेना महिला पायलट की तैयारियों व संघर्ष के साथ पुरुषों  के साथ नारी की बराबरी के संघर्ष के मुद्दे को भी उठाया गया है. निर्देशक शरण शर्मा ने बड़ी खूबसूरती से इसका चित्रण किया है कि एक महिला को वहां ना पहुंचने दिया जाए कि उससे आदेश लेना पड़े, इसके लिए पुरुष क्या-क्या करता है . इसमें पुरुष की मर्दानगी पर भी कटाक्ष किया गया है, इसी के साथ देशभक्ति का जज्बा भी जगाती है.

निर्देशक शरण शर्मा की स्वतंत्र निर्देशक के रूप में यह पहली फिल्म है, पर वह एक मंजे हुए निर्देशक का परिचय देने में सफल रहे हैं. कारगिल युद्ध के दृश्य छोटे समय के लिए भले ही हो, मगर वह कैरीकेचर नहीं लगते ,बल्कि फिल्म देखते समय अहसास होता है कि 1999 कारगिल युद्ध के वक्त ऐसा ही हुआ होगा.

फिल्म के कुछ दृश्य बहुत अच्छे बन पड़े हैं. जिसमें गुंजन व उसके पिता के बीच के कुछ दृश्यों के अलावा एक दृश्य वह है, जिसमें गुंजन का भाई अपने पिता के साथ बहन की सुरक्षा की चिंता व्यक्त करता है.

तो वहीं कुछ संवाद काफी बेहतरीन बने हैं. जैसे “डर अक्सर गलती करवाता है”अथवा “जो मेहनत का साथ नहीं छोड़ते भाग्य उनका साथ नहीं छोड़ता”.

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अभिनय:

पूरी फिल्म को अनूप सक्सेना के किरदार को निभाते हुए पंकज त्रिपाठी अपने कंधे पर लेकर चलते हैं.पंकज त्रिपाठी ने काफी सधा हुआ अभिनय किया है. पंकज त्रिपाठी के साथ जान्हवी कपूर के कई दृश्य काफी अच्छे बन पड़े हैं. गुंजन सक्सेना की शीर्ष भूमिका मैं जान्हवी कपूर हैं ,यह उनके कैरियर की ‘धड़क’,  ‘घोस्ट स्टोरीज’ के बाद तीसरी फिल्म है . पर अभी उन्हें काफी मेहनत करने की जरूरत है .’घोस्ट स्टोरीज’ के छोटे किरदार में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया था , पर यहां कुछ कमी रह गयी.कुछ भावनात्मक दृश्यों के साथ साथ कारगिल युद्ध के दौरान पायलट की सीट पर बैठे हुए जब वह एक सख्त निर्णय लेती है, उस वक्त यह भाव ठीक से उनके चेहरे पर  नहीं उभरता. बहन की सुरक्षा के प्रति सचेत भाई के किरदार में अंगद बेदी ने ठीक-ठाक अभिनय किया है. विनीत कुमार सिंह, आयशा रजा मिश्रा, मानव विज ने ठीक-ठाक अभिनय किया है.

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