Serial Story: मंजरी की तलाश

Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-1)

ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर रुकी तो सांझ घिरने लगी थी. सुनहरे अतीत में लिपटी रेशमी हवाओं ने मेरी अगवानी की. मैं अपने ही शहर में देर तक खड़ा चारों ओर देखता रहा. मेरे सिवा वहां कुछ भी तो नहीं बदला था. मेरे आने के बाद हुई बूंदाबांदी तेज बारिश में बदल गई थी. यहां टैक्सी की जगह रिकशे मिलते हैं. बारिश के कारण वे भी नजर नहीं आ रहे थे. मैं पैदल ही चल दिया. पानी के साथ भूलीबिसरी यादोें की बौछारें मुझे भिगोने लगी थीं.

कालेज के दिनों में मेरे सूखे जीवन में पुरवाई के झोंके की तरह मंजरी का प्रवेश हुआ था. बनावटीपन से दूर, बेहद भोली और मासूम लगी थी वह. पता नहीं कैसा आकर्षण था उस के रूपरंग में कि मेरे भीतर प्रपात सा झरने लगा था.

कुछ दिन में वह खाली समय में लाइब्रेरी में आने लगी थी. उस की उपस्थिति में वहां का जर्राजर्रा महकने लगता था. जितनी देर वह लाइब्रेरी में रुकती मेरी सुधबुध खोई रहती थी.

कुछ दिनों तक मंजरी नजर नहीं आई तो कालेज सूनासूना सा लगने लगा था. पढ़नेलिखने से मेरा जी उचट गया. ऐसे ही एक दिन मैं निरुद्देश्य…लाइब्रेरी में गया तो एकांत में किताब लिए वह बैठी दिखाई दी. अगले ही पल मैं ठीक उस के सामने खड़ा था.

‘कहां थीं इतने दिन तक? तुम नहीं जानतीं उस दौरान मैं कितना अपसैट हो गया था. मेरे लिए एकएक पल काटना मुश्किल हो गया. बता कर तो जाना चाहिए था…’ मैं एक सांस में बिना रुके जाने क्याकुछ कहता चला गया.

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‘क्यों परेशान हो गए थे आप?’ उस ने मासूमियत से पूछा.

मैं बगलें झांकने लगा. एकदम से मुझे कोई जवाब नहीं सूझा था.

‘कुछ दिन पहले ही हम यहां शिफ्ट हुए हैं. सारा सामान अस्तव्यस्त पड़ा था. उसे करीने से लगाने में कुछ वक्त तो लगना ही था,’ वह बोली, ‘खड़े क्यों हैं आप?’

मैं निशब्द उस के समीप बैठ गया. हम दोनों चुप थे. देर तक ऐसे ही बुत बने बैठे रहे. केवल पलकें झपक रही थीं हमारी. मेरे मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा था…शायद उस के भी. मेरे बंद होंठों से शब्द झरने लगे थे…शायद उस के भी. मैं उस की धड़कनें महसूस कर रहा था… शायद वह भी मेरी धड़कनों को महसूस कर रही थी. हमारे बीच बोलने से कहीं अधिक मूक संवेदनाएं मुखरित होने लगी थीं.

महकते हुए 3 वर्ष कब फिसल गए पता ही नहीं चला. गुजरे वक्त के एकएक पल को हम ने हिफाजत से सहेज कर रखा था. इस बीच हम एकदूसरे को बेहतर तरीके से समझ चुके थे.

एक दिन वह मुझे अपने घर ले गई. वे दिन मेरे इम्तिहान के दिन थे. मैं नर्वस था. मन में शंकाओं के बादल घुमड़ रहे थे. ऐसी ही कुछ हालत मंजरी की भी थी. पर सबकुछ ठीक रहा, उस के पापा सुलझे हुए इनसान थे. बिलकुल मेरे बाबूजी की तरह. मंजरी मेरे घर में सब को पसंद थी. फाइनल इयर की परीक्षा के बाद हमारी सगाई हो गई.

शादी से पहले मुझे कैरियर संवारना था. हमारे घर वालों के साथ मंजरी भी यही चाहती थी.

‘भविष्य के बारे में क्या सोचा है, श्रेयांश?’ उस ने पूछा.

‘मैं एम.बी.ए. करूंगा,’ मैं ने उस की आंखों में झांका, ‘कुछ वक्त के लिए, तुम से और इस शहर से दूर जाना पड़ेगा.’

‘मैं इंतजार करूंगी तुम्हारा,’ उस की आंखों में नमी उतर आई, ‘मेरा शरीर मात्र यहां रहेगा…मन से हर पल मैं तुम्हारे साथ रहूंगी.’

मैं ने उसे बांहों में जोर से भींच कर चूम लिया.

दिल्ली के शुरुआती दिन बेहद संघर्ष भरे रहे. एम.बी.ए. में प्रवेश के बाद कुछ राहत मिली. कालेज के निकट होस्टल में कमरा मिल गया था. वहां मैस में खाने का इंतजाम था. दिन में मैं कालेज में रहता, रात को देर तक पढ़ाई करता और जब सोता तो आसपास तैर रहे मंजरी की यादों के साए मुझ से लिपट जाते.

एम.बी.ए. के बाद मुझे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा. थोड़ी सी कोशिश और भागदौड़ के बाद अच्छीखासी नौकरी हासिल हो गई थी. अब मेरे और मंजरी के बीच के सारे फासले खत्म होने को थे.

कुछ दिन की छुट्टी ले कर मैं कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाता वापस आ गया. मंजरी स्टेशन पर इंतजार करती मिली. मुझ से लिपट कर वह रो पड़ी थी.

मेरे पास वक्त कम था सो सीमित समय में विवाह की सारी रस्में पूरी की गईं. हंसीखुशी के माहौल में सबकुछ अच्छे से निबट गया था.

वापसी में मंजरी को साथ लाने में मुझे हिचक हो रही थी. अभीअभी शादी हुई है. पता नहीं लोग क्या सोचेंगे?

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बाबूजी ने मीठी झिड़की दी, ‘अपना स्वास्थ्य देखा है…होटल में खाखा कर कैसा बिगाड़ लिया है. बहू को साथ ले कर जा. घर का खाना मिलेगा तो सेहत सुधरेगी.’

मेरा मन भर आया, यह सोच कर कि बड़ेबुजुर्ग अपने बच्चों का कितना खयाल रखते हैं.

मंजरी की देहगंध से ईंटपत्थरों का बना 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट मधुवन बन गया था. मेरी हर सुबह बसंती, हर दिन ईद और हर रात दीवाली हो गई थी. फिर भी एक बात सालती थी मुझे और वह थी मंजरी का अकेलापन. मैं सारा दिन आफिस में व्यस्त रहता और वह घर में अकेली.

मैं ने उसे ‘लेडीज डे क्लब’ जौइन करने की राय दी, जहां संपन्न घरों की औरतें साफसुथरे मनोरंजन के लिए जमा होती थीं. हर रोज कुछ नया होता था वहां.

वह हंस कर टाल गई.

साहित्य और लेखकों के प्रति मंजरी के मन में श्रद्धा की हद तक लगाव था. प्रेमचंद, गोर्की, चेखब, शरत बाबू, रेणू, महादेवी से ले कर अमृता प्रीतम, विष्णु प्रभाकर…और भी बहुत से नाम जो याद नहीं, उस के पसंदीदा थे. उस की अलमारी गोदान, ध्रुवस्वामिनी…सरीखी किताबों के साथसाथ सरिता और गृहशोभा जैसी पत्रिकाओं से भरी थी.

‘इन रूखी किताबों को पढ़ कर तुम बोर नहीं होतीं?’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘इन में हर किताब अपने में पूरा दर्शन है, श्रेयांश,’ वह गंभीरता से बोली, ‘इन के कथानक लेखकों की कठोर तपस्या का प्रतिफल होते हैं जिन्हें वे अपना तनमन जला कर रचते हैं. आज लोगों में तनाव और हताशा हावी है तो इसलिए कि वे किताबों से दूर हो गए हैं.’

मैं निरुत्तर हो गया था.

मेरे आफिस में पुराने बौस के स्थानांतरण के रूप में नई घटना हुई. उन की जगह रागिनी ने ली थी. 30 साल की नई बौस जितनी सुंदर और स्मार्ट थी उतनी ही ऐक्टिव और त्वरित निर्णय लेने में सक्षम भी थी. मैनेजमैंट में उस की गजब की पकड़ थी. इस का असर कुछ ही दिनों में आफिस के कामकाज में दिखाई देने लगा था. मैं उस की असाधारण योग्यता का प्रशंसक था.

उस ने एक अभिनव प्रयोग और किया. हर शख्स को उस ने नए सिरे से जिम्मेदारी सौंपी थी.

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Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-3)

मैं मूकदर्शक बना रहा.‘मेरे बारे में अभी तुम जानते ही क्या हो, मेरा पति अमेरिका में है. 5 साल पहले हमारा प्रेमविवाह हुआ था. शादी से पहले ही तय हो गया था कि वैल सैटल होने के बाद ही मैरिजलाइफ को ऐंजौय करेंगे. इस बीच एकदूसरे के व्यक्तिगत जीवन को कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा. मैं ने अपने सपनों को विस्तार देने के लिए अपना देश चुना और वह अमेरिका चला गया.

‘शुरुआत के कुछ महीनों तक तो हम संपर्क में रहे फिर काम में ऐसे डूबे कि अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं मिली. आज मेरे पास लाखों का बैंक बैलेंस है. ऐशोआराम की हर चीज है. मेरी अपनी एक पहचान है पर मानसिक शांति नहीं है. मैं भीतर से बिलकुल खोखली हूं.’

उस की आंखों में सुरूर के लाल डोरे उभरने लगे थे.मैं चुपचाप खाना खाने लगा. वह भी खाती और पीती रही.‘सच कहूं श्रेयांश,’ वह बोली, ‘उस दिन तुम्हारी बातें मुझे मूर्खतापूर्ण लगी थीं. फिर धीरेधीरे तुम्हारी भावनाओं की मैं मुरीद होती गई. अपने प्यार के लिए कैरियर दांव पर लगाना मामूली बात नहीं है. यह काम तुम्हारे जैसा व्यक्ति ही कर सकता है. सोचती हूं वह लड़की कितनी खास होगी जिसे तुम ने प्यार किया.’

‘तुम्हारे पति भी तो तुम्हें प्यार करते होंगे?’ पानी पी कर मैं ने धीरे से पूछा.

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‘वह जिस कल्चर में रहता है वहां प्यार का अर्थ मतलबपरस्ती से है. पलक झपकते महिला और पुरुष पार्टनर बदल जाते हैं. बस, फायदा दिख रहा होना चाहिए. किसी की बीवी का दूसरे की बांहों में चले जाना आम बात है. बड़ी से बड़ी डील चुटकियों में हो जाती है. वहां पार्टियों का आयोजन होता ही इसलिए है कि जिस की बीवी जितनी सुंदर और बोल्ड वह उतना ही कामयाब. सब के सब जानवर हैं,’ उस ने घृणा से मुंह बनाया.

‘तुम्हें एक राज की बात बताऊं, श्रेयांश. मेरे प्रमोशन का लैटर कई दिन पहले आ चुका है. मैं ने उसे फाड़ कर डस्टबिन में फेंक दिया. तुम से दूर जाने का साहस नहीं जुटा पाई मैं. मैं ने कभी हारना नहीं सीखा पर तुम से हारना अच्छा लगा. तुम से बहुत कुछ सीखने को मिला है…आगे भी सीखती रहूंगी. यू आर माई आइडियल…’ उस ने अधूरी बात छोड़ कर मेरी आंखों में झांका.

मैं सन्नाटे में आ गया.

‘तुम्हें लगता होगा मैं पागल हो गई हूं. तुम में बात ही कुछ ऐसी है कि कोई भी पागल हो जाए.’

‘स्टौप इट,’ मैं सख्ती से बोला, ‘इस वक्त तुम होश में नहीं हो. चलो, तुम्हें रूम तक छोड़ दूं.’

‘नो, आई एम ओ.के.,’ वह झूमती हुई बोली, ‘यू नो, इतना ऊपर मैं स्टैप बाई स्टैप नहीं, एक छलांग में आई हूं. कंपनी के मालिक उस बुड्ढे की मुझे देखते ही लार टपकती है. होटल के ऐसे कमरों में उस ने सैकड़ों बार भोगा है मुझे. न चाहते हुए भी मुझे उस के सामने बिछना पड़ा. सफलता की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है. मैं अपनी योग्यता के बलबूते पर भी यहां तक पहुंच सकती थी पर मेरी मांसल देह के आगे मेरी योग्यता किसी को दिखाई ही नहीं देती.’

उस का यह रूप आज मैं पहली बार देख रहा था. मुझे उबकाई आने लगी थी.

उस ने मुझे अपनी ओर खींच लिया, ‘हरिश्चंद्र का चरित्र घर तक ठीक है. यहां हमारे अलावा और कोई नहीं है. और हम मौजमस्ती करते हैं.’

उसे परे धकेल कर मैं अपने कमरे में आ गया. मेरा मूड खराब हो गया था. उस भोली सी दिखने वाली लड़की के दिमाग में कितने छलप्रपंच भरे थे. वह नफा- नुकसान का हिसाबकिताब लगा कर संबंध जोड़ती थी. उसे शरीर को गणित के फार्मूले की तरह इस्तेमाल करना आता था. बाजारवाद की मानसिकता उस पर इतनी हावी थी कि उस से इतर कुछ सोच ही नहीं सकती थी.

दिल्ली पहुंचते ही उस की मेज पर अपना त्यागपत्र रख कर नौकरी से नमस्ते कर लूंगा…मैं सोच चुका था. मुझे कोई वास्ता नहीं रखना ऐसी खतरनाक लड़की से.

मेरी आंखों से नींद उड़ गई थी. मैं ने परदा खींच कर खिड़की खोली. दूरदूर तक फैला सागर अब भी शांत था. आसमान में पूरी आभा के साथ चमकता चांद थोड़ा नीचे की ओर झुक आया था. विशाल सागर मानो हाथ पसारे उस की प्रतीक्षा कर रहा था. रात ढलने के बाद एक वक्त ऐसा भी आएगा जब चांद सागर की लहरों को स्पर्श करता हुआ उसी में एकाकार हो जाएगा. शायद यही प्रेम का शाश्वत रूप है…जिसे रागिनी देह की आंच में झोंक देना चाहती है.

अचानक चांद में मंजरी का चेहरा उभर आया. खोईखोई सी…उदास रंगत लिए. उस की सूनी आंखें एकटक मेरी ओर निहार रही थीं. एकसाथ कई तीर मेरे दिल को बेध गए.

‘तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता, मंजरी,’ मेरे होंठ कांपने लगे थे.

हम सुबह की पहली फ्लाइट से दिल्ली रवाना हुए. रागिनी की सूरत बिलकुल बदली हुई थी. रात की घटना का उसे क्षोभ नहीं था. रात गई बात गई. रास्ते में वह ज्यादातर लैपटौप में उलझी रही थी. उसी दौरान चंद काम की बातें हुईं. मैं ने उस से अघोषित दूरी बना ली थी.

एअरपोर्ट से मैं सीधा घर पहुंचा. मेन गेट पर ताला लटक रहा था. ऐसा पहली बार हुआ था. मैं अभी सोच ही रहा था कि पड़ोस की लड़की चाबी और एक लिफाफा दे गई.

‘आंटी कल सुबह से कहीं गई हैं,’ मुझे उलझन में खड़े देख कर वह बोली.

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मंजरी बहुत कम ही कहीं आतीजाती थी. वह भी कभीकभार घंटे आधघंटे के लिए. किसी अज्ञात आशंका से मेरा दिल धड़कने लगा. मैं जल्दी से ताला खोल कर अंदर आया. लिफाफे के भीतर मंजरी के हाथ का लिखा एक कागज रखा था. मैं कांपते हाथों से उसे निकाल कर पढ़ने लगा :

‘श्रेयांश,

‘याद करो कालेज के वे दिन. उन दिनों का पागलपन, मेरी देहगंध पाने की छटपटाहट, जो तुम्हें मेरे करीब खींच लाई थी. वह प्यार, वह कशिश, वे महकते लम्हे, मैं हर पल यहां तलाशती रही…यह मेरी भूल थी. वे सब तो तुम वहीं छोड़ आए हो…उसी छोटे से शहर की सरहद में जहां हमारा प्रेम अंकुरित हुआ था. यहां अकेली चलतेचलते थक गई हूं इसलिए वापस जा रही हूं…उन्हीं यादों की छाया तले विश्राम करने. इस शहर ने तुम्हें मुझ से छीन लिया पर उस धरोहर से मुझे कोई अलग नहीं कर सकता, जो उस शहर के चप्पेचप्पे में बिखरी है. यहां चैन से जी नहीं सकी…वहां यादों से लिपट कर सुकून से मर तो सकती हूं. यह अधिकार मुझ से कोई नहीं छीन सकता…तुम भी नहीं.

-मंजरी’

मैं निर्जीव सा सोफे पर पसर गया.

पत्र हाथ में लिए मैं कई पलों तक किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा बैठा रहा था. फिर होश आते ही स्टेशन पहुंचा और जो पहली ट्रेन मिली उसी में बैठ गया. अपने पीछे उन तमाम बंधनों को तोड़ आया जिन के कारण मेरा जीवन इस दोराहे तक आ पहुंचा था. दोराहे से पलट कर भी अपने शहर के पुराने रास्तों पर मेरी निगाहें अपनी मोहब्बत के दीदार के बिना इधरउधर भटक रही थीं.

मोहब्बत तो एक नाजुक सा एहसास होता है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. मंजरी ने डूब कर जिया था इस एहसास को. वह मुझे हृदय की असीम गहराइयों से प्रेम करती रही और मैं उस की भावनाओं को आहत करता रहा. मेरे दिल में टीस उठ रही थी. घटाएं घुमड़ कर आंखों में उतर आई थीं. हवा के तेज झोंके उन्हें बरसने से पहले ही सोखने लग गए थे.

सहसा एक सम्मोहक सी गंध फिजाओं में घुलने लगी. मेरी चिरपरिचित गंध. मेरी आत्मा में गहरे तक बिखरी हुई गंध. मेरे जीवन को ऊर्जावान कर देने वाली गंध…मंजरी की देहगंध. मैं पगलाया सा दौड़ने लगा. बारिश के कारण सड़क के दोनों ओर दुकानों के छज्जों के नीचे खड़े लोग मुझे कौतूहल से देख रहे थे. उन से बेपरवाह में दौड़ता ही रहा…जल्दी से जल्दी मंजरी के करीब पहुंचने और उसे सदा के लिए बांहों में समेट लेने के जनून में.

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Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-2)

मेरा कद बढ़ गया था. आफिस से संबंधित हर छोटेबड़े निर्णय में मेरी राय खास माने रखने लगी थी. बिजनेस टूर में रागिनी के साथ मेरा जाना लगभग अनिवार्य था. मैं उस का पर्सनल सेक्रेटरी हो गया था. कंपनी से मुझे शानदार बंगला और गाड़ी सौगात में मिली थी. वेतन की जगह भारीभरकम पैकेज ने ले ली थी.

इस नई भूमिका से जहां मैं बेहद उत्साहित था वहीं मंजरी की कठिनाइयां बढ़ गई थीं. कईकई दिन तक उसे अकेले रहना पड़ता था. व्यस्तता के कारण आफिस से मेरा देर रात तक लौटना संभव हो पाता. मंजरी उस वक्त भी उनींदी पलकों से मुझे प्रतीक्षा करती मिलती. खाने की मेज पर ही उस से चंद बातें हो पाती थीं.

रागिनी के आग्रह पर मैं जबतब बाहर खा कर आता तो वह उस से भी महरूम रह जाती थी. फिर वह भूखी सो जाती. मैं ने उस से कई बार कहा कि मुझ से पहले खा लिया करे पर वह अपनी जिद पर कायम रही. उसे भूखा रहने में क्या सुख मिलता था मैं समझ नहीं सका या मेरे पास समझने का वक्त ही नहीं था.

मैं इनसान से मशीन में तब्दील हो गया था.

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‘तुम इतने बदल जाओगे मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी,’ मेरी उपेक्षा से आजिज आ कर अंतत: एक दिन उस के सब्र का बांध टूट गया, ‘मुझ से बात करने को चैन के तुम्हारे पास दो पल भी नहीं हैं. जब से आई हूं इस चाहरदीवारी में कैद हो कर रह गई हूं. कहीं घुमाने तक नहीं ले गए मुझे.’

‘मेरी मजबूरी समझने की कोशिश करो. ऐसी नौकरी और ऐसे अवसर मुश्किल से मिलते हैं. यही मौका है खूब आगे, आगे से और आगे… ऊंचाई पर जाने का.’

‘तुम पहले ही इतना आगे जा चुके हो कि मुड़ कर देखने से मैं दिखाई नहीं देती और आगे चले गए तो…’ उस का गला रुंध गया.

‘यह क्या कह रही हो?’

‘अब और सहन नहीं होता, श्रेयांश,’ उस की आंखें भर आईं, ‘मैं कोई बुत नहीं हूं जो कोने में अकेला पड़ा रहे. हाड़मांस की बनी जीतीजागती इनसान हूं मैं. मेरे सीने में धड़कता दिल हर क्षण तुम्हारी मदभरी बातें सुनने को तरसता है. कभी मेरे मन में जमी राख को कुरेद कर देखते तो समझ पाते कि मैं पलपल किस भीषण आग से सुलग रही हूं.’

उस की हालत देख कर मैं दहल गया. यकीनन मैं इतनी गहराई तक नहीं पहुंचा था जितना वह सोचती थी. उस के अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं कभी ठीकठीक अंदाजा ही नहीं लगा सका कि क्या कुछ दहक रहा था उस के भीतर. जब स्थिति बदतर हो गई तभी उस के मन का ज्वालामुखी फटा था. मैं ने उस के आंसू पोंछे. उसे अंक में समेट कर देर तक डूबा रहा उस की देहगंध में. उस पूरी रात वह अबोध शिशु की तरह मेरे पहलू में दुबकी रही.

अगले दिन मैं ने रागिनी को फोन कर आफिस आने से मना कर दिया. उस ने बहुत सारे आवश्यक कामों का हवाला दे कर हीलहुज्जत की थी पर मुझे नहीं जाना था, सो नहीं गया.

वह पूरा दिन मंजरी के लिए रिजर्व था.

मैं उसे कई जगह घुमाने ले गया. हम थिएटर भी गए. वहां प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’ का मंचन हो रहा था.

‘दिल्ली के लोग इस युग में भी संवेदनाओं को जीवित रखे हैं,’ वह रोमांचित हो गई थी.

अंत में हम ने ढेर सारी शौपिंग की और कैंडल डिनर का लुत्फ उठाया. लौटते वक्त वह चहक रही थी. उस का खिला चेहरा कभी मुरझाने न देने का मैं निश्चय कर चुका था.

अगले दिन मैं आफिस पहुंचा. पिछले रोज आफिस न आने का कारण बताया.

‘तुम होश में तो हो, श्रेयांश?’ मेरी बात सुन कर रागिनी भड़क गई थी, ‘आज आफिस में तुम जिस लैबल पर हो उस पर तुम्हें गर्व होना चाहिए.’

‘प्लीज मैडम, मेरी बात समझने की कोशिश करें.’

‘देखो श्रेयांश, जल्दबाजी में लिए गए फैसले अकसर गलत साबित होते हैं. यहां काम करने वालों की कमी नहीं है. एक से बढ़ कर एक हैं. तुम में मुझे अपार संभावनाएं नजर आ रही हैं इसलिए नेक राय दे रही हूं. आने वाले सुनहरे कल को यों ठोकर मारना उचित नहीं है.

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‘तुम्हारी पत्नी छोटे शहर से आई है इसलिए ऐडजस्ट करने में उसे समस्या हो रही है. धीरेधीरे परिस्थितियां सब को अपने अनुरूप ढाल लेती हैं.’

‘मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा.’

‘कोशिश कर के देखने में क्या हर्ज है?’

मैं ने घर आ कर मंजरी को सारी स्थिति और अपनी मजबूरी बता दी.

‘मुझे तुम पर भरोसा है,’ मेरे सीने से लग कर वह बोली थी.

रागिनी ने मेरे सामने जो परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं उन में मंजरी के भरोसे को कायम रख पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल भरा काम था. न चाहते हुए भी मेरा काम करने का रुटीन पहले से और भी अधिक संघर्षमय होता जा रहा था.

धीरेधीरे समय गुजरता गया. साथ ही मंजरी से दूरी बढ़ती गई. मेरा ज्यादातर समय रागिनी के साथ बीतता था. मैं फिर उसी भंवर की गहराई में डूब गया था जिस से उबरने के स्वप्न मंजरी की आंखों में झिलमिला रहे थे. मेरे मन के किसी कोने में दबी महत्त्वाकांक्षा जोर मारने लगी थी. इस उफान में मंजरी हाशिए पर चली गई. उस के मुसकराते होंठ थरथराने लगे थे जैसे मुझ से कुछ कहना चाहते हों. मैं ने दोएक बार पूछा भी पर वह खामोश रही. मैं ज्यादा कुरेदता तो वह किसी बहाने से उठ कर चली जाती थी. उस की पलकों का गीलापन मुझ से छिप नहीं पाता था. उन में कई अनबूझे सवाल तैरते देखे थे मैं ने.

‘मंजरी प्लीज, संभालो अपने आप को,’ उस की उदासी से तिक्त हो कर मैं ने कहा, ‘कुछ दिन बाद तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे.’

‘उन्हीं कुछ दिनों का इंतजार है मुझे,’ वह भावहीन स्वर में बोली.

मैं फ्रीज हो कर रह गया था.

3 दिन के टूर पर मैं रागिनी के साथ मुंबई में था. जिस होटल में हम ठहरे थे उस में अंतिम दिन एक खास मीटिंग रखी गई थी. रात के लगभग 12 बजे तक मीटिंग चली. उस के बाद डिनर था. विशाल डाइनिंग हाल में खिड़की के बगल वाली सीट हमारे लिए रिजर्व थी. वहां से समुद्र का दिलकश नजारा साफ दिखाई देता था.

बैरा खाना लगा गया तो रागिनी ने उस से सोडा लाने को कहा और पर्स से महंगी विदेशी शराब की छोटी बोतल निकाल कर 2 गिलास सीधे किए.

‘मैं नहीं लूंगा,’ उस का आशय समझ कर मैं बोला तो उस ने जिद नहीं की. बैरे को बुला कर मेरे लिए कोल्ड ड्रिंक मंगवाई और अपने लिए पैग तैयार किया.

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दो घूंट गटक कर रागिनी बोली, ‘मुझे शौक नहीं है पीने का. पर क्या करूं, काम के बोझ और थकान के कारण पीनी पड़ती है. शरीर तो आखिर शरीर है, उस की भी अपनी सीमाएं हैं. दो घूंट अंदर और सब टैंशन बाहर,’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी.

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