Sirf Ek Banda Kafi Hai Review: बेहतरीन कोर्ट रूम ड्रामा में मनोज बाजपेयी का शानदार अभिनय

  • रेटिंग: पांच में से साढ़े तीन स्टार
  • निर्माता: विनोद भानुषाली
  • लेखकः दीपक किंगरानी
  • निर्देशक: अपूर्व सिंह कार्की
  • कलाकार: मनोज बाजपेयी,सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ,विपिन शर्मा, अड्जिा,दुर्गा शर्मा,प्रियंका सेटिया, जयहिंद कुमार, व अन्य
  • अवधिः दो घंटे 12 मिनट
  • ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5, 23 मई से

हमारा देश हमेषा से एक धर्म भीरू देश रहा है.धर्म के नाम पर आम जनता को ठगने की हजारों कहानियां मौजूद हैं. पिछले कुछ वर्षों के दौरान छद्म वेश धारी साधु संत व बाबाओं ने न सिर्फ जनता को लूटा बल्कि नाबालिग लड़कियों का यौन षोशण करने से पीछे नहीं रहे. कुछ तो अब जेल की सलाखों के पीछे हैं.ऐसे ही सत्य घटनाक्रमों पर फिल्मसर्जक अपूर्व सिंह कार्की फिल्म ‘‘सिर्फ एक बंदा काफी है’’ लेकर आए हैं,जो कि 23 मई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘जी 5’ पर स्ट्रीम होगी. लेकिन फिल्मकार ने जमकर अंधविष्वास भी परोसा है. बलात्कार के आरोपी बाबा के खिलाफ अदालत में मुकदमा लड़ने वाले वकील पी सी सोलंकी को भगवान षिव का बहुत बड़ा भक्त दिखाया है. तो वहीं रामायण से एक कहानी सुनायी गयी है,जिसे कम लोगों ने सुनी होगी.फिल्म देखते समय लोगों को आसाराम बापू व उनके बेटे की याद आ जाए तो आष्चर्य नही होना चाहिए. फिल्म ‘‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ मूलतः एक छोटे शहर के वकील पूनमचंद सोलकी के जीवन पर आधारित कहानी है.यह उन पूनमचंद सोलंकी के साहस की दास्तान है,जिन्होंने देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक में एक नाबालिग लड़की की तरफ से पैरवी कर लाखों अनुयायियों वाले बाबा को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया था.एक साधारण सा सेशंस कोर्ट (सत्र न्यायालय) का वकील जो इन दिग्गज वकीलों की नजीरें पढ़ पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाता रहा है, इनके साथ फोटो खिंचाने, इनके साथ बैठने तक को एक उपलब्धि मानता है. वही वकील जब अपनी मुवक्किल के लिए इनके सामने अकाट्य तर्क रखता है तो यह हिंदी सिनेमा का एक ऐसा कोर्ट रूम ड्रामा बनता है,जिसे देखना हर किसी के लिए जरुरी है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 2013 को कमला नगर पुलिस थाना,दिल्ली से षुरू होती है,जहां सोलह साल की लड़की अपने माता (दुर्गा शर्मा) व पिता (जयहिंद कुमार) के साथ शक्तिषाली बाबा के खिलाफ बलात्कार की षिकायत लिखाने जाती है.पुलिस हकरत में आ जाती है.एफआईआर दर्ज कर नू का मेडिकल जांच भी करा दी जाती है और अंततः बाबा को उनके जोधपुर आश्रम से गिरफ्तार जेल भेज दिया जाता है.मामला अदालत पहुॅचता है.अदालत से बाबा को जमानत नही मिलती.लेकिन उसके बाद नू के वकील,बाबा के आदमी से दस करोड़ रूपए की मांग करते हैं,जिसे नू के पिता सुन लेते हैं.वह पुलिस इंस्पेक्टर को खबर करते हैं,वह पुलिस इंस्पेक्टर नू के माता पिता को अन्य वकील पी सी सोलंकी (मनोज बाजपेयी ) से मिलवाता है.सोलंकी नू को समझाते है कि उसे ताकत से खड़े रहना होगा.यह मुकदमा लड़ना आसान नही होगा.अदालत में मुकदमा षुरू होता है.बाबा का मुकदमा उनके वकील शर्मा (विपिन शर्मा ) लड़ते हैं.कानूनी दांव पेच खेले जाते हैं.बाबा के बेटे को भी बलात्कार के आरोप में सूरत से गिरफ्तार कर लिया जाता है.बाबा के इषारे पर चार गवाहों की हत्या हो जाती है.पुलिस नू व उसके परिवार तथा वकील पी सी सोलंकी को सुरक्षा प्रदान करती है.अदालत में बाबा के वकील आस्था का सवाल उठाते हुए कहते है-‘‘मेरे क्लाइंट देश कीआस्था के प्रतीक है.’पांच साल के कानूनी दांव पेच के बाद 2018 में अदालत अपना फैसला सुनाते हुए बाबा को सजा सुना देती है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म के पटकथा लेखक दीपक किंगरानी ने अंग्रेजी शब्दांे का उपयोग किए बगैर हिंदी में ही काफी कसी हुई पटकथा लिखी है.कुछ संवाद अच्छे बन पड़े हैं.फिल्म की गति कुछ धीमी है.फिल्म की खासियत यह है कि यह आम बौलीवुड फिल्मांे से कोसों दूर हैं.फिल्म की विशयवस्तु की संजीदगी को देखते हुए अदालत के अंदर जोरदार चिल्लाने वाली बहस या मेलोड्ामैटिक दृष्य नही है.पीड़िता लडकी से भी आम फिल्मों की तरह सवाल नही किए गए हैं.पर यह फिल्म पाॅक्सो और बलात्कार के जुर्म से जुड़े हर बारीक कानून की जाने अनजाने दर्षक को जानकारी भी देती है.कोर्ट रूम ड्ामा वाली फिल्म कहीं भी विशय से भटकती नही है.इसीलिए इसमें नाच गाने का भी अभाव है.षुरू से अंत तक वास्तविकता के करीब रहने, विशय की संजीदगी और नाजुकता पर लेखक दीपक किंगरानी और निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की ने कहीं कोई समझौता नही किया है.कहानी के केंद्र में बलात्कार है,मगर फिल्मकार ने इसे भुनाने के लिए यौन हमले को स्पष्ट रूप से चित्रित नहीं किया है.फिल्म में कहीं कोई असंवेदनशील तरीके के संवाद नही है.षायद विवादों से बचने के लिए लेखक व निर्देशक ने वकील पी सी सोलंकी को न सिर्फ भगवान षिव का भक्त दिखाया, बल्कि भगवान षंकर व पार्वती के बीच रावण को माफ करने बातचीत वाली कहानी भी सोलंकी के मुंह से सुनवायी है.पर ऐसा करके फिल्म कहंी न कहीं अंधविष्वास को भी बढ़ावा देने का काम करती है.मगर अदालत के अंदर कुछ दृष्य खलते हैं,जब पी सी सोलंकी के किरदार में मनोज बाजपेयी लोगों को हंसाने के लिए अभिनय करते हैं. इसे एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी.

अभिनयः

मनोज बाजपेयी की खूबी है कि वह हर किरदार में डूब जाते हैं और किरदार के अनुरूप ही अपनी षारीरिक बनावट व लुक भी गढ़ते हैं.जोधपुर के छोटे शहर के वकील पी सी सोलंकी के किरदार में भी मनेाज बाजपेयी पूरी तरह से डूबे हुए हैं.उन्होने वहां की भाषा भी पकड़ी है.वह सोलंकी के अंतर्द्वंद्वों और शुष्क हास्य को अपनी ट्रेडमार्क शैली में बड़ी कुशलता से सामने लाते हैं. नू के किरदार में अद्रीजा का अभिनय भी कमाल का है.उसने 16 वर्ष की बलात्कार पीड़िता लड़की के दर्द को बाखूबी पेश किया है.जब अदालत में नू कहती है, ‘मेरे साथ यह उस इंसान ने किया,जिसे मैंने भगवान माना.’ तो पूरी कहानी का सार बस अद्रिजा की आंखों में इस दौरान आए आंसुओं में सिमट आता है.बचाव पक्ष के वकील के बचाव पक्ष के वकील शर्मा के किरदार में अभिनेता विपिन शर्मा ने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि अभिनय में वह किसी से कम नही है.बाबा के किरदार में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ की प्रतिभा को जाया किया गया है.नू की मां के किरदार में दुर्गा शर्मा और पिता के किरदार में जय हिंद कुमार का अभिनय ठीक ठाक है.

मेरे जीवन में काम और परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है- मनोज बाजपेयी

फिल्म ‘गुलमोहर’ अभिनेता मनोज बाजपेयी के लिए एक अलग और चुनौतीपूर्ण कहानी है, जिसे निर्देशक राहुल चित्तेला ने बहुत ही सुंदर तरीके से पर्दे पर उतारा है. ये नई जेनरेशन की फॅमिली ड्रामा फिल्म है, जिसमे मनोज बाजपेयी ने अरुण बत्रा की भूमिका निभाई है, जो काबिलेतारीफ है. मनोज कहते है कि मुझे एक ऐसी ही अलग कहानी में काम करने की इच्छा थी, जिसे निर्देशक राहुल लेकर आये और मुझे करने का मौका मिला. खास कर इस फिल्म के ज़रिये मुझे शर्मीला टैगोर और अमोल पालेकर जैसी लिजेंड के साथ काम करने का मौका मिला. मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है, जब मैं ऐसे लिजेंड कलाकार के साथ काम करता हूँ. मैंने अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता के साथ भी काम किया है. मुझे दुःख इस बात का है कि मैं अभिनेता संजीव कुमार के साथ काम नहीं कर पाया. एक बार मैं लिजेंड दिलीप कुमार से भी मिला हूँ, उन्होंने सिर्फ कहा था कि मैं उम्दा काम करता हूँ. ये सारी बातें एक कलाकार को अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करती है.

फिल्म ‘बेंडिट क्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है. बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.

रिलेटेबल है कहानी

मनोज ने हमेशा रिलेटेबल कहानियों में काम करना पसंद किया है, क्योंकि वे खुद को इससे जोड़ पाते है. इसी कड़ी में उन्होंने फिल्म ‘गुलमोहर’ किया है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘डिजनी प्लस हॉटस्टार’ पर रिलीज होने वाली है, इस फिल्म में काम करने की खास वजह के बारें में पूछने पर वे बताते है कि ये इसकी स्क्रिप्ट और उलझन मेरे लिए आकर्षक है, एक परिवार के अंदर हर व्यक्ति कुछ पकड़ना चाह रहा है, लेकिन वह रेत की तरह उसके हाथ से छूट रहा है, ये मुझे बहुत अच्छा लगा. ये आज की कहानी है, जहाँ रिश्तों और संबंधों के बारें में लोग कम सोचते है. आज मैं काम में व्यस्त हूँ और अपने परिवार के साथ रहना मुमकिन नहीं होता, इसलिए जब भी थोडा समय मिलता है मैं परिवार के साथ रहने की कोशिश करता हूँ.

 

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रिश्तों को दे समय

रिश्ते और संबंधों में हल्कापन आने के बारें में मनोज का कहना है कि रिश्ते है, खासकर शहरों में किसी के पास समय नहीं है, जबकि गांव में ऐसा आज भी नहीं है, लेकिन रिश्ते तो है. व्यक्ति काम से अपने आप को बाहर नहीं निकाल पाता, ताकि रिश्तों को मजबूत कर पाएं. रिश्तों को उतना ही महत्व दें, जितना काम को देते है, ताकि बाद में कोई अफ़सोस न हो.

हैप्पी यादे जीवन की

मनोज आगे कहते है कि मुझे याद आता है, मैं एक्टर बनना चाहता था और मैंने 18 साल की उम्र में गांव छोड़ा था. गांव में तब फ़ोन की व्यवस्था नहीं थी, बाद में टेली फ़ोन आया और कम्युनिकेशन स्मूथ हो गया और अब सबके हाथ में मोबाइल फ़ोन है, लेकिन बात नहीं होती.

इसके अलावा जब गांव से निकला, तो परिवार से दूर हो गया, जब मैने उन्हें गांव से दिल्ली लाया, तो मैं मुंबई आ गया, इस तरह से मैं उनके साथ नहीं रह पाया. ये खाली है और कभी भर नहीं सकते. उसे याद करता हूँ और ये सारे हैप्पी यादें है. मैंने कुछ अपनी माँ से और कु अपने पिता से अडॉप्ट किया है. परिवार का साथ मिलकर रहना और बातचीत करना बहुत जरुरी होता है. इससे इमोशनल बोन्डिंग बढती है, जिसकी आज की स्ट्रेसफुल लाइफ में बहुत जरुरी होता है.

 

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ओटीटी ने दिया मौका

इंडिपेंडेंट फिल्मों के बनने से कलाकारों को काम करने का अधिक मौका मिला है और ये आगे तक चल सकेगी. मनोज आगे कहते है कि इंडिपेंडेंट सिनेमा में पैसे नहीं होते, लेकिन कहानी को अपने हिसाब से कहने और फिल्म मेकिंग को ऑर्गनाइज कर दिया है. आज सबके पास वौयस् है, पहले ऐसा नहीं था.

इस फिल्म को करते हुए मैंने बहुत एन्जॉय किया है. फिल्म किसी को कुछ सिखाती नहीं, रिलेट कराती है. इसलिए विश्वास के साथ काम करें, तो सफल अवश्य होगी. मुझे याद है, मुझे फिल्मों में एंट्री मिलना थोडा मुश्किल था, लेकिन मैंने एक्टिंग की ड्रीम को मैंने नहीं छोड़ा. बदलाव जरुरी था, लेकिन ओटीटी ने इस बदलाव को जल्दी ला दिया. फिल्म मेकिंग की तकनीक भी बहुत बदली है.

महिलाओं को आगे बढ़ने में होती है समस्या

मनोज आगे कहते है कि परिवार और पुरुष को इस बात को समझना पड़ेगा कि समय बदल गया है और महिलाओं के सामने पूरा आसमान है और वह पूरी तरह से स्वतंत्र ख्याल की हो चुकी है. उनपर किसी प्रकार की बंदिश लगाने से वह सम्बन्ध नहीं रहेगा. परिवार को मजबूत करने के लिए महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता के साथ उड़ पाए, इसके लिए पुरुष की तरफ से एक समझदारी की जरुरत है. मेरे परिवार में मेरी माँ एक स्ट्रोंग महिला रही, उनकी कई बातों को मैं अपने जीवन में उतारता हूँ. ये बातें मेरी जीवन में महत्वपूर्ण है और अंत तक मेरे साथ रहेंगी. मेरे जीवन में काम और परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है.

फिल्म निर्माता, निर्देशक की किस प्रौब्लम का जिक्र कर रहे है एक्टर Manoj Bajpayee

फिल्म ‘बेंडिटक्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है.बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी  में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.ओटीटी पुरस्कार की प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित मनोज बाजपेयी कहते है कि ओटीटी ने फिल्म इंडस्ट्री को एक नई दिशा दी है, पेंड़ेमिक और लॉकडाउन में अगर इसकी सुविधा नहीं होती, तो लोगों को घर में समय बिताना बहुत मुश्किल होता,वे और अधिक तनाव में होते. हालांकि अभी भी लोग थिएटर हॉल जाने से डर रहे है, क्योंकि ओमिक्रोन वायरस एकबार फिर सबको डरा रहा है.

करनी पड़ेगी मेहनत

आज आम जनता की आदत घरों में आराम से बैठकर फ़िल्में अपनी समय के अनुसार देखने की है,ऐसे में फिल्म निर्माता, निर्देशक, लेखक और कलाकार के लिए थिएटर हॉल तक दर्शकों को लाना कितनी चुनौती होगी ?पूछे जाने पर मनोज कहते है कि सेटेलाइट टीवी, थिएटर, ओटीटी आदि ये सारे मीडियम रहने वाले है. लॉकडाउन के बाद थिएटर हॉल में दर्शकों की संख्या कम रही, पर सूर्यवंशी फिल्म अच्छी चली है. दर्शकों को समय नहीं मिल रहा है कि वे कुछ सोच पाए और हॉल में बैठकर फिल्म का आनंद उठाएं. कोविड वायरस उन्हें समय नहीं दे रहा है. असल में सभी की आदत बदलने की वजह पेंडेमिक है,जो पिछले दो सालों में हुआ है, इसे कम करना वाकई मुश्किल है.इसके अलावा इसे आर्थिक और सहूलियत से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि अब दर्शक घरों में या गाड़ी में बैठकर अपनी पसंद के अनुसार कंटेंट देख सकते है, इसमें उन्हें थोड़े पैसे में सब्सक्रिप्शन और इन्टरनेट की सुविधा मिल जाती है और वे एक से एक अच्छी फिल्में देख सकते है, इसमें पैसे और समय दोनों की बचत होती है. फिल्म निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, कलाकार आदि सभी के लिए ये एक चुनौती अवश्य है, क्योंकि फिर से लार्जर देन लाइफ’ और अच्छी कंटेंट वाली फिल्में देखने ही दर्शक हॉल तक जायेंगे और इंडस्ट्री के सभी को मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन मैं इतना मानता हूँ कि कोविड सालों तक रहने वाली नहीं है, उम्मीद है वैज्ञानिक जल्द ही इस बीमारी की दवा अवश्य खोज लेंगे और तब सुबह एक टेबलेट लेने से शाम तक व्यक्ति बिल्कुल इस कोविड फीवर से स्वस्थ हो जाएगा. तब दर्शक बिना डरे फिर से थिएटर हॉल में आयेंगे. इसके अलावा ओटीटी की वजह से नए और प्रतिभाशाली कलाकारों को देखने का मौका मिला है, जो बिग स्टार वर्ल्ड लॉबी से दूर अपनी उपस्थिती को दर्ज कराने में सफल हो रहे है, जिसमें नए निर्देशक, लेखक, कलाकार, एडिटर, कैमरामैन आदि सभी को काम मिल रहा है.

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आहत होती है क्रिएटिविटी

कई बार ओटीटी फिल्मों में कुछ अन्तरंग दृश्य या अपशब्द होते है, ऐसे में कई बार फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को धमकी मिलती है कि वे ऐसी फिल्में न बनाये और न ही एक्टिंग करें, क्योंकि ये समाज के लिए घातक साबित हो सकती है.फिल्म बनाने वाले पर ऐसे लोग अपना गुस्सा भी उतारते है. इसके अलावा कुछ लोग इन फिल्मों पर सेंसर बोर्ड की सर्टिफिकेशन करने पर जोर देते आ रहे है. इस बारें में मनोज बाजपेयी कहते हैकि डर के साये में क्रिएटिविटी पनप नहीं सकती. सुरक्षा के लिए कठिन कानून होनी चाहिए, क्योंकि क्रिएटिव माइंड पर किसी की दखलअंदाजी से क्रिएटिव माइंड मर जाती है. किसी भी फिल्म को बनाने में सालों की मेहनत होती है, अगर उसमें कोई दूसरा आकर कुछ बदलाव करने को कहे, तो उस फिल्म को दिखाने का कोई अर्थ नहीं होता. समाज के आईने को उसी रूप में दिखाने के उद्देश्य से ऐसी फिल्में बनती है. दर्शकके पास सही फिल्म चुनने का अधिकार होता है.वे ही तय करते है कि फिल्म या वेब सीरीज उनके या उनके बच्चे देखने के लायक है या नहीं. सेंसर बोर्ड किसी फिल्म को पूरा करने में निर्माता, निर्देशक के साथ नहीं होता, इसलिए वे सालों की मेहनत को नहीं समझते, लेकिन वे सर्टिफाइड करते है, इससे फिल्म की कंटेंट का अस्तित्व समाप्त हो जाता है.

एक्टर बनने की थी चाहत

मनोज बाजपेयी पिछले 25 साल से काम कर रहे है और उन्होंने हर चरित्र को अपनी इच्छा के अनुसार ही चुना है. बचपन की दिनों को याद करते हुए मनोज कहते है कि मुझे छोटी उम्र से फिल्में देखने का शौक था और मेरे पिता मुझे कभी-कभी शहर ले जाकर फिल्में दिखाते थे, तब उस छोटे से पंखे वाली हॉल में देखना भी अच्छा लगता था. थिएटर से मैं फिल्मों में आया और मुझे हमेशा अनुभवी कलाकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला है. सभी ने मुझे सहयोग दिया, इसलिए आज मैं भी जरूरतमंद को सहयोग करता हूँ.

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REVIEW: जानें कैसी है वेब सीरीज ‘Ray’

रेटिंगः  तीन स्टार

निर्माताः ए टिपिंग प्वाइंट

निर्देशकः श्रीजित मुखर्जी, अभिषेक चैबे, वासन बाला

कलाकारः केके मेनन, मनोज बाजपेयी,  संजय शर्मा, गजराज राव, हर्षवर्धन कपूर, अली फजल

अवधिः चार एपीसोड, लगभग चार घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः नेटफ्लिक्स

इस बार ‘नेटफ्लिक्स’’ भारत के सेक्सपिअर कहे जाने वाले फिल्मकार व लेखक स्व. सत्यजीत रे लिखित चार लघु कहानियों पर अलग अलग चार एपीसोड की एंथोलॉजी सीरीज ‘‘रे’’ लेकर आया है, जिसे अलग अलग निर्देशकों ने निर्देशित किया है. इन कहानियों में सामाजिक व्यंग, डार्क कॉमेडी, मनोविज्ञान,  अर्थव्यवस्था व बेहरीन चत्रि चित्रण है.

कहानियां

पहली कहानी ‘बहुरूपिया’ इंद्राशीष साहा (के के मेनन) के इर्द गिर्द घूमती है, जो एक अकेला उपेक्षित मेकअप कलाकार है जो जीवनयापन करने के लिए संघर्ष कर रहा है. पर बचपन से ही अपनी दादी के करीब रहे हैं. दादी की मौत होने तक वह उनकी सेवा करते रहते हैं. सभी इंद्राशीष की दादी को पागल कहते थे, जबकि वह एक सफल व्यवसायी थी. एक अमरीकन प्रोडक्शन हाउस के लिए मेकअप का सामान निर्माण कर भेजती थी. उधर कंपनी का मैनेजर सुरेश(संजय शर्मा) भी उसे नौकरी से निकालने पर आमादा है. पर वह अपनी दादी की सेवा में कटौती नही करता. उसकी दादी की कैंसर से मौत हो जाती है. उसके बाद वकील बताता है कि उनकी दादी अपनी सारी जयदाद और लाखों रूपए उनके नाम छोड़ गयी हैं. फिर वह अपने सपनों को आगे बढ़ाने और अपने जुनून का पालन करने का फैसला करता है. स्वभाव से नास्तिक,  मेकअप कलाकार के रूप में अपनी प्रतिभा के कारण किसी व्यक्ति की शारीरिक पहचान को बदलने की इंद्राशीष  की उल्लेखनीय क्षमता उसे श्रेष्ठ महसूस कराती है और एक दिन वह अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए एक फकीर ध् बाबा(दिव्येंद्र भट्टाचार्य)  के साथ बेवजह खिलवाड़ करता है, जिसकी परिणित काफी दुखद होती है.

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दूसरी कहानी ‘हंगामा है क्यों बरपा’’है. यह सत्यजीत रे की लघु कहानी बरिन भौमिक-एर ब्यारम पर आधारित है. इसकी कहानी चोरी की बीमारी और गायक मुसाफिर अली(मनोज बाजपेयी)  के इर्दगिर्द घूमती है. मुसाफिर अली का असली नाम राजू है. बचपन में वह अपने दोस्तो के खिलौने चुराया करते थे. बड़े होने पर नौकरी की तलाश में हैं. एक बार ट्ेन में यात्रा करते समय उनकी मुलाकात असलम बेग(गजराज राव)उर्फ मशहूर कुश्तीबाज जेगना से होती है. और राजू, असलम बेग की खुशवक्त नामक घड़ी चुरा लेते हैं. उसके बाद वह अपना नाम बदलकर मुसाफिर अली कर लेते हंै और मशहूर गायक बन जाते हैं. दस साल बाद फिर ट्ेन यात्रा में मुसाफिर अली की मुलाकात असलम बेग से होती है. . इस बार दोनो की बीमारी सामने आती हैं.

तीसरी कहानी ‘‘स्पॉट लाइट’’है. यह कहानी एक मशहूर अभिनेता विक्रम अरोड़ा(हर्षवर्धन कपूर  ) के इर्द गिर्द घूमती है, जिसे घमंड है कि पूरी दुनिया उनके चेहरे की गुलाम है. वह कपूर की फिल्म की शूटिंग के लिए दूसरे शहर जाते हैं. वहंा जिस होटल के मेडोना कमरे में वह रूकते हैं, उस पर ईश्वर की तरह पूजी जा रही दीदी कब्जा करती हैं, सभी दीदी की पूजा कर रहे हैं, पर विक्रम तो दीदी को अपने सामने कुछ समझते ही नही हैं. जिसके चलते विक्रम को फिल्म से निकाल दिया जाता है, मच्छरदानी की एड हाथ से निकल जाती है. हालत खराब हो जाती है. विक्रम को अहसास होता है कि अब उसका चेहरा बदल गया, जिसे लोग देखना नही चाहते. तब विक्रम,  दीदी से मिलने की सोचते हैं. पर तब तक दीदी के यहां पुलिस छापा मार चुकी होती है और अब उसकी असलियत लोगों के सामने आने वाली है. पर विक्रम किसी तरह अकेेले में दीदी से मिलते हैं. दीदी उसे अपनी आप बीती सुनाती है. व्रिकम की मदद से दीदी अमरीका भागने में सफल हो जाती है, विक्रम फंस जाते हैं. लेकिन मंत्री की बेटी की शादी मंे तीन दिन मुफ््त में नृत्य करने के वायदे के साथ जेल जाने से बच जाते हैं. दीदी के आशिवार्द से उनकी तकदीर फिर से चमक जाती है.

चैथी कहानी ‘‘फारगेट नॉट मी’’है. यह सत्यजीत रे की कहानी ‘‘बिपिन चैधरी का स्मृतिभ्रम’पर आधारित है. यह कहानी एक सफल उद्योगपति इपसित रामा नायर(अली फजल)  के इर्द गिर्द घूमती है, जिसकी याददाश्त का लोहा सभी मानते हैं. उन्हे कई पुरस्कार मिल चुके है. लेकिन सफलता के मद में चूर इपसित अपने स्कूल व कालेज के दोस्तों के साथ जो हरकते करते हैं, उससे सभी दोस्त नाराज होकर एक ऐसा खेल रचते हैं, जिसमें इप्सित फंसकर पागल सा हो जाता है. एक रात एक अजनबी (अनिंदिता बोस)दोस्ताना मुस्कान के साथ इप्सित के पास पहुंचती है. वह इप्सिट को अच्छी तरह से जानने का दावा करते हुए उसके साथ अजंटा की गुफाओं में बिताए हुए बेहतरीन पलों की याद दिलाती है. यहां से चीजें खराब होने लगती हैं. इप्सिट चीजों को भूलना शुरू कर देता है,  एक दिन वह एक दुर्घटना के साथ मिलता है और अस्पताल में पहुंच जाता है. इप्सिट की सेक्रेटरी मैगी (श्वेता बसु प्रसाद) मिलने आती है और इप्सिट के लिए मुसीबत बढ़ जाती है.

निर्देशनः

इन चार कहानियों में से दो कहानियों ‘‘बहुरूपिया’’और ‘‘फॉरगेट नॉट मी’’का निर्देशन श्रीजित मुखर्जी ने किया है, जबकि ‘‘हंगामा है क्यों बरपा’का निर्देशन अभिषेक चैबे और ‘‘स्पॉटलाइट’का निर्देशन वासन बाला ने किया है. श्रीजीत मुखर्जी का निर्देशन ‘‘बहुरूपिया’में भी कमाल का है. काश उन्होने इस कहानी कीपृष्ठभूमि बंगाल कलकत्ता रखा होता, तो यह अति श्रेष्ठतम कृति बन जाती. ‘हंगामा है क्यों बरपा’में निर्देशक अभिषेक चैबे महान  कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद अपने निर्देशन का जलवा नही विखेर पाते.  वैसे उन्होने उर्दू की गजल का शानदार उपयोग किया है. श्रीजित मुखर्जी निर्देशित एक घ्ंाटे से अधिक अवधि की लघु फिल्म‘‘फारगेट नॉट मी’’काफी कसी हुई फिल्म है. श्रीजीत मुखर्जी ने ‘‘फॉरगेट नॉट मी’’को डार्क मनोवैज्ञानिक रोमांचक के रूप में बेहतर बनाया है. उनका निर्देशन तारीफ लायक है.

इस पूरी सीरीज की सबसे कमजोर कड़ी निर्देशक वासन बाला और अभिनेता हर्षवर्धन कपूर हैं. वासन बाला ने सत्यजीत रे ‘स्पॉटलाइट’ कहानी को गड़बड़ करने में कोई कसर बाकी नही छोड़ी. वासन बाला निर्देशित एक घंटे से अधिक लंबी लघु फिल्म ‘‘स्पॉटलाइट’’ विखरी हुई फिल्म है. इस कहानी में सामाजिक व्यंग जबरदस्त है, पर वासन बाला उसे उभारने में असफल रहे हैं. ‘स्पॉटलाइट’ने वासन बाला के अतीत के शानदार कार्यों पर भी पानी फेर दिया. वासन बाला ने तो पूरी एंथोलॉजी को लगभग मारने वाला काम ही किया है.

‘बहुरूपिया’कहानी का संवाद-‘‘धूल चेहरे पर थी और मैं आइना साफ करता रहा’’इंसान की सोच व कार्यशैली पर करारा तमाचा है. तो वही ‘स्पॉट लाइट’कहानी का संवाद ‘‘कुत्तों के बीच रहना है, तो भेड़ नही भेड़िया बनना होगा. ’बहुत कुछ कह जाता है.

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अभिनयः

‘बहुरूपिया’कहानी में इंद्राशीष के किरदार में के के मेनन ने  शानदार अभिनय कर लोगों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं. तो वहीं पवित्र इंसान फकीर बाबा के किरदार में दिब्येंदु भट्टाचार्य तथा अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत अभिनेत्री के किरदार में बिदिता बैग भी छाप छोड़ती हैं. ‘हंगामा है क्यों बरपा’कहानी में मनोज बाजपेयी की उत्कृष्ट अभिनय प्रतिभा और गजराज राव का लाजवाब अभिनय ‘सत्यजीत रे’की श्रद्धांजलि में चार चांद लगाते हैं. रघुबीर यादव और मनोज पाहवा के छोटे किरदार भी छाप छोड़ जाते हैं. फारगेट नॉट मी’कहानी में अनिंदिता बोस, श्वेता बसु प्रसाद के साथ ही अली फजल ने शानदार अभिनय किया है. ‘स्पॉटलाइट’कहानी में सुपर स्टार विक्रम अरोड़ा के किरदार में हर्षवर्धन कपूर निराश करते हैं. वह कई जगह महज कैरीकेचर ही हैं. विक्रम अरोड़ा के किरदार के लिए हर्षवर्धन कपूर का चयन निदे्रशक की सबसे बड़ी भूल है. ‘हंगामा है क्यों बरपा’कहानी में मनोज बाजपेयी की उत्कृष्ट अभिनय प्रतिभा और गजराज राव का लाजवाब अभिनय ‘सत्यजीत रे’की श्रद्धांजलि में चार चांद लगाते हैं. रघुबीर यादव और मनोज पावा के छोटे किरदार भी छाप छोड़ जाते र्हैं. र्वानका चयन ही गलत है. राधिका मदान भी मात खा गयी हैं. चंदन रॉय सान्याल ने अवश्य बेहरीन अभिनय किया है.

थ्रिलर फिल्मों में निर्देशक के विजन को समझने की जरुरत होती है- मनोज बाजपेयी

बचपन से अभिनय की इच्छा रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी (Manoj Bajpayee) ने ‘बेंडिट क्वीनफिल्म से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा. उन्हें पॉपुलैरिटी फिल्म ‘सत्या’ से मिली. इस फिल्म ने उन्हें उस समय की सभी बड़े अभिनेताओं की श्रेणी में रख दिया. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. हिंदी के अलावा उन्होंने तमिल और तेलगू भाषाओं में फिल्में की है.

बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर यहाँ तक पहुंचना और कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. साधारण और शांत व्यक्तित्व के मनोज फिल्मों के लिए ‘चूजी’ नहीं, उन्हें जो भी कहानी प्रेरित करती है, वे उसे कर लेते है.यही वजह है कि उन्होंने हर तरह की फिल्में की है. उनके इस सफ़र में उनकी पत्नी नेहा और बेटी का साथ है, जिनके साथ वे क्वालिटी टाइम बिताना पसंद करते है. लॉक डाउन के इस समय में वे उत्तराखंड के किसी होटल में अपने परिवार के साथ समय बिता रहे है.

मनोज बाजपेयी को बचपन से कवितायें  पढ़ने का शौक है. उन्हें हिंदी और अंग्रेजी  में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. उन्होंने कई प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी जीता है,पर वे कविता खुद लिखते नहीं. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है. अभी उनकी फिल्म ‘मिसेज सीरियल किलर’ डिजिटल पर रिलीज हो चुकी है. बातचीत हुई, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-लॉक डाउन में कहाँ है और क्या कर रहे है?

मैं अपने परिवार के साथ उत्तराखंड के एक होटल में हूं. पहाड़ों और वादियों का लुत्फ़ उठा रहा हूं. मैं इधर एक शूटिंग के लिए आया था और परिवार वाले भी यहाँ मुझसे मिलने आ गए थे. इतने में लॉक डाउन हो गया और यही रहने लगा हूं. मुझे अच्छा लग रहा है कि मुंबई की भीड़ भाड़ से दूर यहाँ प्राकृतिक वातावरण के बीच में दो महीने से रह रहा हूं.

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सवाल-इस फिल्म को करने की ख़ास वजह क्या है?

इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी. निर्देशक शिरीष कुंदर के साथ मैंने कई शोर्ट फिल्में की थी. इस वजह से हम दोनों की केमिस्ट्री बहुत अच्छी हो गयी थी. साथ ही हम दोनों पडोसी भी है. भूमिका बड़ी नहीं है, पर बहुत पावरफुल है. इसके अलावा शिरीष एक अच्छे निर्देशक भी है, इसलिए उनके साथ काम करने की इच्छा हुई और मैंने फिल्म की.

सवाल-आप किसी भी फिल्म में एक अलग छाप छोड़ते है, ये कैसे होता है? इसके लिए आपको क्या अलग से मेहनत अपनी भूमिका के लिए करनी पड़ती है?

मैं अपना काम करता हूं. दर्शकों को पसंद आता है इसकी ख़ुशी मुझे है. मैं कई सालों से काम कर रहा हूं. हर फिल्म के साथ वर्कशॉप करना, अभिनय की तकनीक को सीखना आदि करता आ रहा हूं. मेहनत, लगन और तकनिकी ज्ञान सब होने पर ही ये शायद हो पाता है. दर्शकों का प्यार ही मुझे यहाँ तक ले आया है और मैं अच्छा काम कर पा रहा हूं.

सवाल-आपके यहां तक पहुंचने में परिवार किस तरह से सहयोग देता है?

परिवार के सहयोग के बिना कुछ भी नहीं हो सकता. परिवार मेरी व्यस्तता को जानता और समझता है. साथ ही उसका आदर भी करता है. परिवार के साथ मेरा तालमेल हमेशा सही रहा है. समय मिलते ही मैं अधिक से अधिक समय उनके साथ बिताता हूं. काम के समय परिवार पूरा सहयोग देता है, ताकि मैं स्वछंद तरीके से काम को अंजाम दूँ. ये सामंजस्य है, जो बना हुआ है और मैं अपने आपको इस बारें में भाग्यशाली समझता हूं.

सवाल-कोरोना वायरस की वजह से कुछ एहतियात हर रोज बरतने को कही जा रही है, क्या लॉक डाउन के बाद इंडस्ट्री में भी कुछ बदलाव आयेगा?

लॉक डाउन एक न एक दिन अवश्य खुलेगा. वायरस भी एक दिन पूरे समाज से जायेगा. तब तक मास्क पहनना और अपना ख्याल रखना बहुत जरुरी है. उसके लिए क्या रास्ता अपनाया जायेगा, उसपर एसोसिएशन काम कर रही है. कैसे शूटिंग की जायेगी, कैसे सावधानी बरतते हुए इसे अंजाम दिया जायेगा आदि विषयों पर भी विचार किया जा रहा है. थिएटर को खोलने पर भी चर्चा हो रही है, लेकिन जब भी ये खुलेगी दर्शक आयेगे, क्योंकि समूह में बैठकर जो मजा फिल्म और नाटक देखने में है, उसे अकेले बैठकर नहीं लिया जा सकता. ये सही है कि ओटीटी प्लेटफार्म से जो मजा अभी दर्शक ले रहे है. आगे फिल्मों से उनकी अपेक्षा अधिक हो जाएगी. फिल्मों को भी उस स्तर पर प्रभावशाली कहानी कहने की जरुरत होगी.

सवाल-थ्रिलर फिल्म को बनाना कितनी चुनौती होती है, किस बात का बहुत ख्याल रखना पड़ता है?

इसमें चुनौती निर्देशक की होती है, निर्देशक पूरी फिल्म को देख रहा होता है और वह उसकी सुर और लय को पहचानता है, ऐसे में निर्देशक के विजन को समझने की बहुत जरुरत होती है. निर्देशक के साथ चलने और उसकी सुर को समझने पर काम आसान हो जाता है.

सवाल-आगे और क्या करने की सोच रहे है?

कोरोना वायरस के आने के बाद मैंने भविष्य की प्लानिंग करना छोड़ दिया है. आज जो है उसी के बारें में बात करें और जितना हो सके उसे जीने की कोशिश करें. ये एक बहुत बड़ी सीख है. मेरी दो फिल्में पूरी हो चुकी है. फॅमिली मैन 2 आने वाली है, लेकिन आगे समय में क्या परिवर्तन आएगा. इसके बारें में कुछ नहीं कह सकते.

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सवाल-क्या आप मानते है कि हमारी इंफ्रास्ट्रक्चर में भी बदलाव होने की जरुरत है?

हमने अपने जीवन और समाज में मेडिकल फैसिलिटी को लेकर उतना काम नहीं किया, जितनी जरुरत है. ये सेवा जन-जन तक गरीब लोगों में उपलब्ध हो. उन्हें हर तरह की सुविधा मिले, इसपर काम नहीं किया गया. इस पर अब सोचने की जरुरत है, क्योंकि आज पता चला है कि डॉक्टर नर्सेज और पैरामेडिकल स्टाफ हमारे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू है.

सवाल-मां के साथ बिताया पल जिसे आप याद करते है?

मां शब्द पैदा होने के बाद से ही आप से जुड़ जाता है और जितना समय इस दुनिया में हम जीते है आप के साथ वह जुड़ा रहता है. इसलिए धरती को भी मां का दर्जा दिया गया है, जो सबसे अधिक विकराल और सबसे अधिक नम्र है. मेरा अस्तित्व और जो मैं आज हूं वह मां की वजह से है. हर दिन उनका है और हर दिन उनको चरणस्पर्श है.

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