लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
‘‘मुझेअब मां की हालत देख कर दुख भी नहीं होता है. मैं स्वयं जानती हूं कि वे परेशान हैं,
तन व मन दोनों से. फिर भी न जाने क्यों मु झे उन से मिलने, उन का हालचाल जानने की कोई इच्छा नहीं होती,’’ मुसकान आज फिर अपनी मां के बरताव को याद कर क्षुब्ध हो उठी थी. ‘‘पर फिर भी तुम्हारी मां हैं वे, उन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया है, तुम्हे जन्म दिया है, तुम्हारा अस्तित्व उन्हीं से है,’’ ऐशा बोली.
मैं जानती थी कि मेरी बात सुन कर तुम यही कहोगी, मैं मानती हूं मेरे मातापिता ने मु झे जन्म दिया, मां ने मु झे नौ माह अपनी कोख में रखा, मु झे पालपोस कर बड़ा किया, मु झे इस लायक बनाया कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. आत्मनिर्भर बन सकें. मैं सम झती हूं मु झ पर उन का उपकार है कि लड़कालड़की में भेद नहीं किया, हम भाइबहिन दोनों को एकसमान पाला. कि…’’ कह कर वह चुप हो गयी थी और एकटक जमीन से अपने पैर के अंगूठे से जैसे कुछ कुरेदने की कोशिश कर रही थी.
ऐशा उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. उस के होंठ जैसे कुछ कहना चाहते हों किन्तु आंखों का इरादा हो कि चुप ही रहो.
वह अंदर ही अंदर जैसे सुलग रही थी, उस की आंखें आंसुओं से चमक उठी थीं और नथुने फूले से दिखाई पड़ रहे थे. चेहरे के भाव दर्शा रहे थे जैसे अंतस में दबे पुराने जख्म हरे हो रहे हों. वह आंखों में चमके आंसू अपने हलक में उतार रही थी.
पिछले 1 वर्ष से एक ही दफ्तर में कार्यरत उन दोनों सहेलियों ने अपार्टमेंट शेयर किया हुआ है,ऐशा ने मुसकान को इतना उदास पहले कभी नहीं देखा था.
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समझ में नहीं आ रहा उस से आगे बात करूं या नहीं, ऐशा असमंजस में थी सो वह चुप ही रही. तभी मुस्कान का मोबाइल फिर से रिंग हुआ. उस ने स्क्रीन पर देखा और नजरें घुमा लीं. फोन रिंग होता ही रहा. उस ने कौल पिक नहीं की. लेकिन उस की आंखों से आंसू बह रहे थे, जिन्हें वह शायद ऐशा से छिपाने की कोशिश कर रही थी. उस की नजरें लैपटौप में गड़ी थीं, किंतु ध्यान लैपटौप स्क्रीन पर नहीं था. वह अंदर ही अंदर जैसे घुल रही थी. ऐशा चादर में आधा सा मुंह ढके उसे देखे जा रही थी.
ऐशा उठी और उस के पास गई. उस का हाथ अपने हाथों में थामा तो वह फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं क्या करूं, तुम ही बताओ तुम कहती हो मेरा भी मां के प्रति कुछ फर्ज होता है. मैं सभी फर्ज पूरे करना भी चाहती हूं, किंतु मेरा छत्तीस का आंकड़ा है अपनी मां से.’’
‘‘कैसी बात कर रही हो तुम मुसकान? भला ऐसे कोई बोलता है अपनी मां के लिए?’’
‘‘क्या किया मां ने मेरे लिए? मु झे जन्म दिया, खानाकपड़ा दिया, बड़ा किया बस. उन्होंने अपना फर्ज ही तो पूरा किया.’’
‘‘और क्या कर सकते हैं मातापिता इन सब के सिवा? तुम कहना क्या चाहती हो?’’
‘‘बच्चों के लिए खानाकपड़ा, रहने को मकान ही सबकुछ नहीं होता, उन्हें प्यार भी तो चाहिए होता है. सोशल सिक्योरिटी क्या आवश्यक नहीं बच्चों के लिए?’’
‘‘पर तुम ये सब क्यों कह रही हो? ऐसा क्या हो गया?’’
‘‘हुआ, बहुत कुछ हुआ. हम 2 भाइबहिन हमेशा अपने मातापिता के प्यार को तरसते रहे. उन दोनों के आपसी झगड़े कभी खत्म ही नहीं होते, आज तक भी नहीं. सम झ नहीं आता, कैसी शादी थी उन की. शायद उन्होंने एकदूसरे से प्रेम तो कभी किया ही नहीं.
‘‘पापा अपने मातापिता, छोटे भाइबहिन की जिम्मेदारियों में व्यस्त रहे. मां ब्याह कर पापा के घर में तो आ गई, किंतु पापा ने उन का कोई खयाल नहीं रखा. घर में सिर्फ 24 घंटों की नौकरानी की तरह खटती रहीं.
‘‘संयुक्त परिवार था हमारा, दादादादी, चाचाबूआ, पापा, मां, मैं और मेरा बड़ा भाई. हम सभी साथ ही रहते थे. कहने को तो भरापूरा, हंसताखेलता परिवार, लेकिन सिर्फ दुनिया के सामने, वहां आपसी प्रेम और सच्ची खुशी तो कभी नजर ही नहीं आई. मैं ने अपनी मां को पापा के साथ कभी मुसकरा कर बात करते नहीं देखा. दोनों के आपसी तनातनी भरे वार्त्तालाप घर में अकसर तनाव का माहौल बनाए रखते.
‘‘मां अकसर पिताजी को हर बात आज तक भी घुमाफिरा कर बताती हैं. न जाने अपने 25 वर्ष के विवाह में भी वे पिताजी के साथ सहज व्यवहार क्यों न कर पाईं. पापा को ऐसा महसूस होता है जैसे मां उन के मांपिताजी व पूरे परिवार का मजाक बना रही हैं. न जाने कैसी कैमिस्ट्री है दोनों की आपस में. तेरा परिवार मेरे परिवार से ऊपर ही नहीं उठे अभी तक. 5 वर्ष की थी मैं तभी से मां को दादी के साथ विभिन्न रीतिरिवाजों को ढोते देखा.
‘‘दादी को सब रीतिरिवाज अपने हिसाब से करवाने होते और मां अकसर कुछ न कुछ चूक कर ही देतीं. बस फिर क्या था दादी उन्हें खूब ताने देती. बस यही सिखाया तेरी मां ने, कोई तौरतरीका तो आता नहीं, बस बांध दी हमारे गले.
‘‘मां सबकुछ सुन कर मन मसोस कर रह जाती. कभी पलट कर जवाब भी न दिया. पलटवार करती भी किस के भरोसे. पापा ने तो जैसे उन्हें मायके के खूंटे से खोला और ससुराल के खूंटे से बांध दिया.
‘‘विवाह का पवित्र बंधन पुरुष व स्त्री का आपसी रिश्ता होता है जो प्रेम की कलियों से गुंथा होता है, जिस में भरोसे की महक होती है जो जीवन को महका देती है, किंतु उन दोनों के बीच यह रिश्ता तो आज तक बना ही नहीं. मां व पिताजी अन्य रिश्ते निभातेनिभाते अपने रिश्ते को तो जैसे कहीं पीछे ही छोड़ आए. उन्होंने शायद ही कभी एकदूसरे के मन की सुध ली हो.
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‘‘मां को ससुराल में प्यार मिला ही नहीं. आज तक वे अपने मायके के प्रति प्रेम से बंधी हैं. मैं यह नहीं कहती कि उन्हें अपने मातापिता को भूल जाना चाहिए, किंतु वे पापा के परिवार को अपना न सकीं.
‘‘पापा को महसूस होता है कि जिस तरह आज भी वे अपने मायके के रिश्तेदारों के प्रेम में बंधी है, वैसे ही पापा के परिवार से क्यों नहीं मिल जाती.’’
‘‘लेकिन कोई भी संबंध एकतरफा तो नहीं हो सकता न?’’ ऐशा ने कहा.
‘‘हमारे रीतिरिवाज, परंपराएं जो जोड़ने और खुशियां बढ़ाने का एक माध्यम होती हैं, किंतु यहां तो परंपराओं ने दोनों परिवारों को कभी एक न होने दिया. पापा के परिवार ने सदा ही मां के परिवार को कमतर सम झा व मां का बारबार अपमान किया.
‘‘दादी जबतब मां को उन के मायके का उलाहना देती रहतीं. मां कभीकभी पापा से शिकायत भी करतीं, किंतु वे कुछ कर ही न पाते. एक तरफ मां व दूसरी तरफ पापा का पूरा परिवार.
‘‘जब मैं छोटी थी शायद पांच या छ: साल की. मां मु झे खूब मारतींपीटतीं. मु झे सम झ ही न आता कि मेरी गलती क्या है. बस पिट जाती, रोतीचीखती. जाती भी कहां फिर अपनी ही मां के पास ही जा कर चिपक जाती,’’ मुसकान फिर से सिसकने लगी थी.
‘‘क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो मुसकान. ये सब बातें तो बहुत मामूली सी हैं. शायद हर घर में होती हैं. वह जमाना ऐसा ही था. लोग रीतिरिवाज, रिश्तेनाते और परंपराओं को निभाते थे. इस में तुम्हारी मां का क्या दोष? क्यों तुम उन से किनारा कर बैठी हो?’’ ऐशा ने कड़क लहजे में कहा.
‘‘होगा जमाना ऐसा. मेरी मां तो अपना घर छोड़ आईं और पापा के परिवार से रिश्ता जोड़ा, किंतु उन्होंने मां को दिल से अपनाया भी तो नहीं, सिर्फ इस्तेमाल किया.
‘‘लेकिन मेरी मां पढ़ीलिखी थीं उस जमाने में भी. नौकरी भी करती थीं विवाहपूर्व.
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लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
मुसकान फफकफफक कर रो रही थी. ऐशा भी आज उसे खुल कर रो लेने देना चाहती थी. फिर भी यह चाहती थी कि वह अपनी मां से बात करे, उस की खामियां न खोजे. ‘‘तुम तो उफनती नदी सी हो गई हो, जिस का बहाव सिर्फ तबाही मचा सकता है. मुसकान एक बार शांत हो जाओ वरना न जाने अपनी मां से क्या भलाबुरा कह बैठोगी आज. फिर मुंह से निकली बात कभी वापस तो नहीं ली जाती न? तुम्हारे अंदर के ज्वार को एक बार शांत हो जाने देना जरूरी है. मुसकान तुम कहती जाओ मैं सुनती जाऊंगी बगैर कोई उपदेश दिए,’’ ऐशा बोली.
मुसकान जब रो कर थक जाती फिर कहने लगती. अंत में जब वह खास मुद्दे पर आई तो ऐशा गहरे सोच में पड़ गई.
‘‘मुसकान पर यह तो हर मांबाप की ख्वाहिश होती है कि वह अपने बच्चों को विवाहित देखे, उन की संतान को देखे. तुम क्यों ताउम्र कुंआरी रहना चाहती हो? क्यों संतान पैदा नहीं करना चाहती? तुम तो अपने प्यार की बगिया सजा सकती हो. देखो रोहित है न तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी हां होने की राह देख रहा है बस, उस के मातापिता भी तुम से मिल चुके हैं, तुम्हें कितना पसंद करते हैं. उस से विवाह कर तुम दोनों रोज साथ में दफ्तर आनाजाना प्रेम की फुहारों का आनंद लेना. यह तो तुम्हारा प्रेमविवाह होगा. न कोई बंदिश न ही कोई घुटन.’’
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‘‘हां लेकिन अपनी मां का क्या करूं? कहती हैं अरेंज्ड मैरिज करनी है वरना लोग क्या कहेंगे? आज भी उन्हें रिश्तेदारों और समाज की पड़ी है, मु झ से कोई वास्ता नहीं. भैया की तो अरेंज्ड मैरिज ही थी, क्या परिणाम निकला? पापा व हमारी विधवा बूआ ने उसे व उस की पत्नी को कभी एक न होने दिया. भैया और भाभी उन्हें अपने साथ कैसे रखते जब वे बातबात पर भाभी पर कोई न कोई तोहमत लगाते. हम दोनों भाईबहन कभी उन के सामने अपनी बात तो रख ही न पाए. आखिर भाभी ने ही भैया से तलाक ले लिया. अब भैया ने अपने साथ काम करने वाली लड़की से दूसरी शादी कर ली है और मेरे मातापिता से अलग घर ले कर रह रहे हैं.
‘‘अब भी मां नहीं सम झीं. जो जिंदगी स्वयं जी, वही हमें देना चाहती हैं. सिर्फ झूठे दिखावे और मानप्रतिष्ठा को बचाने के लिए मेरी अरेंज्ड मैरिज कर देना चाहती हैं, सारे रिश्तेदारों को जमा कर रीतिरिवाजों को ढोना चाहती हैं और उन का बो झ मु झ पर भी लाद देना चाहती हैं, जबकि हमारे स्वयं के परिवार और रिश्तेदारों में ही एका नहीं. फिर दूसरी तरफ से रोहित के रिश्तेदार होंगे. आज ब्याह के गवाह बनेंगे कल से आरोपप्रत्यारोप और फिर हम
दोनों की सारी जिंदगी तेरे रिश्ते मेरे रिश्ते करते बीत जाएगी.
‘‘आज भी मां पापा को सपोर्ट कर रही हैं, हमें नहीं. जबकि दोनों कभी सुख से न रह सके, कभी एकदूसरे को देख कर मुसकराए नहीं. ऐसा महसूस होता है कि हम प्रेम की पैदाइश नहीं, एक बलात्कार का प्रतिफल हैं. स्वयं बीमार रहती हैं, मु झे भी शायद मानसिक रूप से बीमार कर देंगी. स्वयं तो अपने लिए आवाज उठा न पाईं, जब देखो पापा की शिकायत मु झ से करती हैं, मैं क्या करूं किस रिश्ते को छोड़ूं और किस को निभाऊं?’’
‘‘उफ तो यह बात है, फिर तुम क्या चाहती हो?’’
‘‘मैं अविवाहित रहना मंजूर करूंगी, किंतु अपने मातापिता की तरह विवाहित नहीं. यदि मैं विवाह करूं तो हमारा विवाह हमारे लिए होगा,’’ मुसकान की उंगलियां लैपटौप के कीबोर्ड पर चल रही थीं और आंखें स्क्रीन पर कुछ ढूंढ़ रही थीं.
करीब 5 मिनट बाद उस ने लैपटौप शट डाउन किया और मुसकरा कर बोली, ‘‘मां को फोन कर अपना फैसला सुनाने जा रही हूं, शादी अपने हिसाब से और जब, जहां मेरा मन चाहेगा वहां करूंगी.’’
ऐशा ने उसे मुसकरा कर देखा. मुसकान भी मुसकराई शायद आज बरसों की मायूसी दूर हुई थी.
उस ने मां को फोन किया, ‘‘मां मैं और रोहित कोर्ट मैरिज कर रहे हैं, हमें आप के और आप के रिश्तेदारों, रीतिरिवाजों में कोई दिलचस्पी नहीं. मेरे दोस्त इस विवाह के गवाह बन अपने हस्ताक्षर कर देंगे.’’
‘‘यह तुम बहुत गलत कर रही हो. एक तो हमें अपने हिसाब से लड़का देखने न दिया, विवाह की सूचना भी नहीं दी और न ही हमें आमंत्रित किया. क्या इसीलिए तुम्हें बेटे के समान पालापोसा, पढ़ायालिखाया?’’
‘‘आप और पापा ने सिर्फ अपना फर्ज निभाया, मेरे लिए स्पैशली कुछ नहीं किया. इसलिए मु झ पर एहसान जताने की कोशिश मत करो. जकड़ी रहो पापा और दादी द्वारा दी गई रूढि़यों में. मैं चाहती थी कि तुम अब तो अपनी बेटी को सपोर्ट कर घर में और स्वयं में बदलाव लाओ. आखिर अब आप को किस का डर है? आप के बच्चे आप के साथ हैं. लेकिन नहीं आप को तो उन्हीं ढकोंसलों में जीने की आदत हो चुकी है. लेकिन मैं आप सभी के इस बंधन में और ज्यादा रहने वाली नहीं, बाय.’’
‘‘पर मुसकान सुनो तो…’’ दूसरी तरफ से आवाज आई, लेकिन मुसकान फोन काट चुकी थी.
मां ने कई बार उसे फोन किया, लेकिन मुसकान ने उठाया ही नहीं और न ही वह अपनी मां के व्हाट्सऐप संदेशों के जवाब दे रही थी.
15 दिन मानो पलक झपकते ही बीत गए, मुसकान ने यह पूरा समय शौपिंग में बिताया.
आखिर वह दिन आ ही गया जब उसे कोर्ट में दुलहन के लिबास में पहुंचना था. वह पहले से ही बुक्ड ब्यूटीपार्लर गई. ब्यूटीशियन उस का मेकअप कर रही थी. मुसकान मन ही मन अति प्रसन्न महसूस कर रही थी मानो बरसों की गुलामी से नजात पाई हो. उस के मन की खुशी चेहरे पर परीलक्षित हो रही थी. कभीकभी वह सामने लगे आईने में स्वयं को देख मुसकरा उठती. उसे बेसब्री से इंतजार था कि कब वह और रोहित एक हो जाएं और प्यार की दुनिया बसाएं. जहां सिर्फ वह और रोहित हों, मीनमेख, खामियां देखने और ढूंढ़ने वाला कोई न हो.
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‘‘आप की आखों में आई लाइनर बहुत उभर कर आया है मुसकान मैम. जरा अपनी आंखें आईने में देखिए तो,’
’ ब्यूटीशियन ने अपने हाथ से आंखों का मेकअप पूरा करते हुए कहा.
जैसे ही उस ने आईना देखा, सुर्ख लिपस्टिक लगे उस के होंठ मुसकरा उठे. उसे तो मालूम ही न था कि वह कभी इतनी सुंदर भी दिखाई दे सकती है.
‘‘सचमुच मन की खुशी चेहरे की रंगत निखार देती है,’’ वह धीरे से बुदबुदाई.
‘‘जी मैम, आप ने कुछ कहा?’’
‘‘नहीं कुछ नहीं, तुम अपना काम जारी रखो.’’
बीच में उस का फोन बज उठा. शायद रोहित का फोन होगा, सोचते हुए उस ने फोन की स्क्रीन को देखा. स्क्रीन पर ‘मौम’ ब्लिंक हो रहा था. उसने फोन स्विचऔफ कर दिया. फिर से ब्यूटीशियन से अपना मेकअप करवाने लगी.
3 घंटे में मुसकान दुलहन के लिबास में तैयार हुई. ऐशा सैलून से बाहर उस की प्रतीक्षा कर रही थी.
‘‘वाऊ, लवली… कितनी सुंदर लग रही हो तुम मुसकान,’’ ऐशा ने मोबाइल से उस की तसवीरें खींच ली.
थोड़ी ही देर में रोहित दूल्हा बना कुछ दोस्तों के साथ गाड़ी से वहां पहुंचा.
कोर्ट तक पहुंचते हुए दोनों के करीब 25 मित्र जमा हो चुके थे.
रजिस्ट्रार औफिस में जैसे ही उन का नंबर एवं नाम पुकारा गया दोनों कमरे के अंदर गए. कुछ कागजों पर दोनों ने दस्तखत किए. विवाह अधिकारी ने भी उन घोषणापत्रों पर दस्तखत किए और 3 गवाहों के भी दस्तखत लिए गए जो उन के दफ्तर के कलीग एवं मित्र ही थे.
अब मुसकान एवं रोहित कानूनन पतिपत्नी बन चुके थे. विवाह अधिकारी समेत उन के मित्रों ने उन्हें खूब बधाइयां एवं शुभकामनाएं दीं.
वहां से रवाना हो कर दोनों नए घर में पहुंचे जहां उन्होंने सब से अलग अपनी नई दुनिया बसाई थी. हां, रोहित ने विवाहपूर्व एक छोटा सा सेमीफर्निश्ड फ्लैट खरीद लिया था. सभी मित्र उन्हें वहां छोड़ अपने घरों को विदा हो गए थे. रोहित और मुसकान आलिंगनबद्ध हो एकदूसरे को निहार रहे थे. कमरे में मधुर संगीत बज रहा था. नए घर और विवाह की खुशी में रात कब बीत गई मालूम ही न हुआ. सुबह की चाय बना मुसकान ने बाल बांध कर काम के लिए कमर कस ली थी. रोहित भी उस के काम में हाथ बंटाने लगा था. दोनों को मिलजुल कर उस मकान को आशियाना जो बनाना था.
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लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
विवाह के साथ ही शहर बदल गया. पापा का परिवार थोड़ा पुराने खयालों का था, सो मां कभी उस में सामंजस्य ही नहीं बैठा पाईं. शायद अंदर ही अंदर घुटती रही, पापा से कभी खुल कर बात ही नहीं की और पापा ने भी कभी यह नहीं जानना चाहा कि मां क्या चाहती हैं. बस अपने पूरे परिवार की जिम्मेदारियां मां पर डाल दीं. कहने को तो संयुक्त परिवार, किंतु वहां सब जैसे एकदूसरे के दुश्मन, सभी जैसे अपनाअपना फायदा देख रहे थे.’’
‘‘हां तो इस में गलती तुम्हारे पापा की भी तो है, तुम मां को ही क्यों दोषी बता रही हो?’’ ऐशा ने उग्र स्वर में पूछा.
‘‘तुम्हारा सवाल भी ठीक है. कहते हैं न अन्याय सहने वाला अन्याय करने वाले से भी ज्यादा दोषी होता है इसीलिए.
‘‘मां कभी अपने मन की न कर पाईं. मन ही मन जलती रहीं और पापा को कोसती रहीं. खुल कर कभी बोल ही न पाईं, किंतु इन सब में मेरा व मेरे भाई का क्या दोष?
‘‘हमें इतना मारतीं जैसे सारी गलती हमारी ही हो. पूरे परिवार का गुस्सा हम दोनों भाइबहिनों पर उतारतीं.’’
‘‘तो तुम्हारे पापा ने कभी तुम्हारे बचाव के लिए कुछ नहीं किया?’’
‘‘किसे फुरसत और फिक्र थी हमारी लिए जो कुछ करते? उन्हें तो सिर्फ अपनेअपने ईगो सैटिस्फाई करने होते थे. यह दिखाना होता था कि वे ही सर्वश्रेष्ठ हैं, मां सोचती कि इतनी पढ़ीलिखी हो कर भी गृहस्थी की चक्की में पिस रही हैं वे. पापा सोचते कि घर बैठ कर करती ही क्या है, पढ़ीलिखी है पर व्यवहार करना भी नहीं आता. एकदूसरे के लिए उन की आपसी खीज ने हमारे बचपन को नर्क बना दिया था. बच्चे तो आपसी प्रेम की पैदाइश और पहचान होते हैं, लेकिन उन के आपसी झगड़ों ने हमारी मुसकराहट छीन ली थी.ट
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‘‘नहीं निभती तो छोड़ क्यों न दिया था उस परिवार को मां ने या पापा से अलग हो जातीं. स्वयं कमा कर हम 2 बच्चों को अच्छी परवरिश तो दे ही सकती थीं.’’
‘‘इतना आसान नहीं होता मुसकान ये सब, जितना तुम सोच रही हो,’’ ऐशा ने कहा, ‘‘तलाक लेना या अपने पति से अलग हो जाना बहुत जटिल प्रक्रिया होती है, लोग क्या कहेंगे, कहां रहूंगी, क्या मातापिता पुन: स्वीकार करेंगे? न जाने कितने सवाल होते हैं एक महिला के समक्ष, सिर्फ रुपए कमा लेना ही सबकुछ नहीं होता मुसकान. हमारी संस्कृति परिवार से इस अलगाव को मान्यता नहीं देती और वह भी एक पीढ़ी पहले?’’
‘‘और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार, उन के साथ मारपिटाई, हर जगह उन्हें मुहरा बना कर पतिपत्नी का एकदूसरे से बदला लेना उचित है? किंतु उन बच्चों को इन सब से बचाने वाला कोई नहीं?
‘‘शायद तुम ने ऐसा माहौल न देखा हो ऐशा, किंतु मैं ने जब से होश संभाला मां की मार और ताने देखे और सहे. जब कभी वे पापा या परिवार के किसी भी सदस्य से गुस्सा होतीं, उन्हें पलट कर कुछ न कहतीं, बलि का बकरा मैं और मेरा भाई बन जाते. कभी बेलन से तो कभी चप्पल जो मां के हाथ में आता, हम पिट जाते. मां अपने ससुराल वालों से जुड़े सब ताने हमें देतीं,’’ जैसे औलाद किस की हो तुम, बड़ा ही जिद्दी परिवार है, तो तू कैसे सुधरी रह सकती है, घर का असर तो आएगा ही न. बाप पर गया है, उस ने किसी की सुनी जो तू सुनेगा.’’
‘‘मैं कहती हूं बच्चे अपने मांबाप पर न जाएं तो और किस पर जाएंगे, आसपास के वातावरण और जींस का असर तो आएगा ही न उन पर, पर इस में बच्चों का दोष क्या है?’’
‘‘क्यों नहीं स्वीकार पाते ये अपने ही बच्चों को? क्यों ढूंढ़ लेना चाहते हैं हम ही में सारी खूबियां, जबकि उन्होंने कभी घर का वातावरण और आपसी व्यवहार अच्छा रखने की कोशिश ही न की हो,’’ मुसकान के चेहरे पर न जाने कितने प्रश्न चिह्न अंकित हो गए थे.
‘‘ऐसा थोड़े न होता है मुसकान. हर इंसान खुश ही रहना चाहता है, कौन जानबू झ कर अपने घर में आग लगाएगा भला? पर कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते. तुम्हारी मां का हाल भी ऐसा ही रहा होगा, क्या करतीं बेचारी? पूरे परिवार से कैसे सामना करतीं, जबकि तुम्हारे पापा का कोई सहयोग न था.
मैं मानती हूं तुम्हारी बात सही है, क्या करती बेचारी वह? पर क्या हम दोनों बच्चों के साथ बुरा व्यवहार कर के समस्या हल हो गयी?
‘‘वे पढ़ीलिखी थी इतना तो सोचना चाहिए था कि वे हमें क्या जिंदगी दे रही हैं? हम तो उन्हें प्यार करते थे, था ही कौन हमारा उन के सिवा इस दुनिया में.
‘‘एक बार तो मां को चाचा ने कुछ भलाबुरा कहा और बाहर चले गए, मां ने पापा को सब बताया तो पापा ने भी कह दिया कि मैं तंग आ गया हूं रोजरोज की शिकायतों से. तुम या तो साथ रह लो या मेरे घर से निकल जाओ. मां ने मेरे भाई को उस दिन खूब मारा, उस के हाथ में स्टिक थी और भाई डाइनिंग टेबल के चारों ओर डर के मारे चक्कर लगा रहा था. मां की गुस्से में भरी सूरत, मैं शायद 6 वर्ष की थी उस वक्त. मैं डर के मारे चीख रही थी. बस इसी तरह बड़े हुए हम.
‘‘मगर उस समय क्या तुम तीनों घर में अकेले थे? तुम्हारे दादादादी कहा थे मुस्कान?’’
‘‘सब वहीं थे, लेकिन किसी को हम से मतलब नहीं था. मां पर उन सब का दबाव तो था ही ऊपर से पिताजी का भी और किसी पर मां का बस तो चलता नहीं था सो ले दे कर सभी का गुस्सा हम पर उतार देतीं. भाई को पिटते देख कर मैं सहम जाती. जब कभी मां मु झे कुछ जोर से बोलतीं, मैं उन के सामने हाथ जोड़ लेती ताकि किसी भी तरह से पिटाई से बच सकूं.
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‘‘फिर भी मां को हम पर तरस न आता. मु झे हाथ जोड़े देख कर और जोर से चीखतीं और कहतीं क्यों जोड़ती है हाथ, यह दुनिया तु झे भी नहीं छोड़ने वाली, सारी जिंदगी हाथ ही जोड़ने पड़ेंगे सब के आगे.’’
‘‘फिर कभी प्यार नहीं करती थी तुम्हारी मां?’’ ऐशा ने उस की आंखों में झांक कर पूछा.
‘‘जब मारपीट लेतीं, गुस्सा शांत होता तो आइस क्यूब ले कर मेरे चेहरे व पीठ पर उन की मार से पड़े निशानों पर लगातीं और खूब रोतीं. मु झे सौरी भी बोलतीं, किंतु फिर जब कभी गुस्सा आता, वही सब करतीं,’’ मुसकान की आंखें भर आई थीं. उन के चेहरे की उदासी उन के गुलाबी होंठों को बदरंग कर रही थी.
‘‘इस का मतलब वह तुम्हें प्यार तो करती थी तभी तो स्वयं भी रोती थी, किंतु वह भी तो इंसान है जिसे इंसान सम झा ही नहीं गया तो उस से इंसानियत की उम्मीद भी क्यों?’’
‘‘हो सकता है तुम सही हो, किंतु वह अपने अंदर की कुढ़न को रोक न पातीं और आग में सुलगती अपने होश खो बैठती थीं. हमारे साथ जानवरों जैसा व्यवहार करती थीं. कारण कोई भी हो, किंतु मैं साधारण इंसान भी न बन पाई. बस मां के हुक्म की गुलाम बनी रही. हर वक्त यह डर सताता कि मां नाराज न हो जाएं वरना पीटेंगी. मैं अपने मन की कब करती? अपनी इच्छाअनिच्छा किस को बताती?’’
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