मीट खाना अपनी पसंदनापसंद पर निर्भर करता है और जिंदा पशुओं के प्रति दया या क्रूरता से इस का कोई मतलब नहीं है. मुंबई हाई कोर्ट ने कुछ जैन संगठनों की इस अर्जी को खारिज कर दिया कि मीट के खाने के विज्ञापन छापें भी न जाएं और टीवी पर भी न दिखाए जाएं क्योंकि ये मीट न खाने वालों की भावनाओं को आहत करते हैं.
पशु प्रेम वाले ये लोग वही हैं जो गौपूजा में भी विश्वास करते हैं पर उस के बछड़े का हिस्सा छीन कर उस का दूध पी जाते हैं. ये वही लोग हैं जो वह अन्न खाते हैं जो जानवरों के प्रति क्रूरता बरतते हुए किसानों द्वारा उगाया जाता है. ये वही लोग हैं जो पेड़ों से उन फलों को तोड़ कर खाते हैं जिन पर हक तो पक्षियों का है और उन की वजह से पक्षी कम हो रहे हैं.
यह विवाद असल में बेकार का है कि मीट खाने या न खाने वालों में से कौन बेहतर है या कौन नहीं. अगर एक समाज या एक व्यक्ति मीट नहीं खाता तो यह उस की निजी पसंद पर टिका है और हो सकता है कि यह पसंद परिवार और उस के समाज ने उसे विरासत में दी हो. पर इस जने को कोई हक नहीं कि दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार हांकने कीकोशिश करे.
पिछले सालों में सभी में एक डंडे से हांकने की आदत फिर बढ़ती जा रही है. पहले तो धर्म हर कदम पर नियम तय किया करते थे और किसी को एक इंच भी इधरउधर नहीं होने देते थे, पर जब से स्वतंत्रताओं का युग आया लोगों को छूट मिली है कि वे तर्क, तथ्य और सुलभता के आधार पर अपनी मरजी से अपने फैसले करें और तब तक आजाद हैं जब तक दूसरे के इन्हीं हकों को रोकते हैं, तब से समाज में विविधता बढ़ी है.
आज खाने में शुद्ध वैष्णव भोजनालय और चिकन सैंटर बराबर में खुल सकते हैं और खुलते हैं पर कुछ कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम दूसरों पर अपनी भक्ति थोपने की कोशिश करने लगे हैं. भारत को तो छोडि़ए, स्वतंत्रताओं का गढ़ रहा अमेरिका भी चर्च के आदेशों के हिसाब से गर्भपात को रोकने की कोशिश कर रहा है, जिस का असल में अर्थ है औरत की कोख पर बाहर वालों का हमला.
मीट खाना अच्छा है या बुरा यह डाक्टरों का फैसला होना चाहिए धर्म के ठेकेदारों का नहीं, जो हमेशा सूंघते रहते हैं कि किस मामले में दखल दे कर अपना झंडा ऊंचा किया जा सकता है. यह तो पक्की बात है कि जब भी कोई धार्मिक मुद्दा बनता है, चंदे की बरसात होती है. यही तो धर्म को चलाता है और यही मीट खाने वालों को रोकने के प्रयासों के पीछे है.