रिश्तों की परख: स्नेह और कमल की कहानी

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रिश्तों की परख: भाग 3- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हमेशा ठंडे दिमाग से काम लेने वाली मम्मी क्रोधित हो गई थीं, ‘नहीं करना किसी के फोनवोन का इंतजार, दूसरा लड़का देखना शुरू कर दीजिए.’

‘पागल न बनो,’ पापा ने समझाया था, ‘अपनी बेटी को यह सपना तुम ने ही दिखाया था, पल भर में उसे कैसे तोड़ दोगी? कभी सोचा है उस के दिल को कितनी ठेस लगेगी?’

एक दिन मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, कमल शादी के लिए तैयार नहीं है. कहता है कि यदि उस की जबरन शादी की गई तो वह आत्महत्या कर लेगा, अब तू ही बता, हम लोग क्या करें?’

मैं इतना ही पूछ पाई थी, ‘वह इस समय कहां है?’

‘कहां होगा…वहीं…इलाहाबाद में मर रहा है,’ मम्मी ने गुस्से से कहा था.

‘मैं उस से एक बार मिलूंगी…एक बार मां…बस, एक बार,’ मैं ने रोते हुए कहा था.

पापा मुझे ले कर इलाहाबाद गए थे. वह अपने कमरे में ही मिला था. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई, कपड़े अस्तव्यस्त, हालत पागलों की तरह लग रही थी. पापा मुझे छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. औपचारिक बातचीत होने के बाद वह मुझ से बोला था, ‘तुम लड़कियों को क्या चाहिए, बस, एक अच्छा सा पति, एक सुंदर सा घर, बालबच्चे और घरखर्च के लिए हर महीने कुछ पैसे. लेकिन मेरे सपने दूसरे हैं. अभी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता. तुम जहां मन करे शादी कर लो.’

कमल की बातें सुन कर मुझे भी क्रोध आ गया था, ‘तुम मुझे अपने पास न रखो, लेकिन शादी तो कर सकते हो, मेरे मांबाप भी चिंतामुक्त हों, कब तक वह लोग तुम्हारे आई.ए.एस. बन जाने का इंतजार करते रहेंगे?’

मेरी बात सुनते ही वह गुस्से से चीख पड़ा, ‘इंतजार नहीं कर सकती हो तो मर जाओ लेकिन मेरा पीछा छोड़ो…प्लीज…’

उस की बात सुन मैं सन्न रह गई थी. एक ही पल में 10 सालों से संजोया हुआ स्वप्न बिखर गया था. सोच रही थी, क्या यह वही कमल है? मन से निकली हूक तब शब्दों में इस तरह फूटी थी कि मरूंगी तो नहीं लेकिन एक बात कहती हूं, जब किसी बेबस की ‘आह’ लगती है तो मौत भी नसीब नहीं होती मिस्टर कमलकांत वर्मा, और इसे याद रखना.

घर आ कर मैं मम्मी से बोली थी, ‘आप लोग जहां भी मेरी शादी करना चाहें कर सकते हैं, लेकिन जिस से भी कीजिएगा उसे मेरी पिछली जिंदगी के बारे में पता होना चाहिए.’

1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव के साथ हो गई. एक जमाने में उन के पापा वहीं के जानेमाने वकील थे. हम लोग दिल्ली में ही रहने लगे. गौरव जैसा चाहने वाला पति पा कर मैं कमल को भूल सी गई. साल भर में एक बार ही मायके जाना हो पाता था. इस बार तो अकेली ही जा रही थी. गौरव को कोर्ट का कुछ आवश्यक काम निकल आया था.

मैं ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी कि अचानक कर्णभेदी धमाका हुआ और आंखों के सामने अंधेरा सा छाता चला गया. जब होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. गौरव भी आ चुके थे. एक ही ट्रैक पर 2 ट्रेनें आ गई थीं. आमनेसामने की टक्कर थी. कई लोग मारे गए थे. सैकड़ों लोग घायल हुए थे. मैं जिस बोगी में थी वह पीछे थी इसलिए कोई खास क्षति नहीं हुई थी फिर भी बेटे की हालत गंभीर थी. उसे 5-6 घंटे बाद होश आया था. 2 दिन बाद जब मैं डिस्चार्ज हो कर जा रही थी तो नर्स ने मुझे एक खत ला कर यह कहते हुए दिया कि मैडम, यह आप के लिए है…देना भूल गई थी…माफ कीजिएगा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा था, ‘‘किस ने दिया?’’

‘‘वही, जो आप लोगों को यहां तक ले कर आया था. क्या आप नहीं जानतीं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कमाल है,’’ नर्स आश्चर्य से बोल रही थी, ‘‘उस ने आप की मदद की, आप के बेटे को अपना खून भी डोनेट किया और आप कहती हैं कि आप उस को नहीं जानतीं?’’

मैं आतुरता से खत को पढ़ने लगी :

‘स्नेह,

सोचा था कि अपने किए की माफी मांग लूंगा लेकिन मृत्यु के इस तांडव ने मौका ही नहीं दिया. रिजर्वेशन टिकट पर ही गौरव का मोबाइल नंबर था. उन्हें फोन कर दिया है. वह जब तक नहीं आते मैं यहां रहूंगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. तुम्हारा गुनाहगार कमल.’

पत्र को गौरव ने भी पढ़ा था. ‘‘अच्छा तो वह कमल था…’’

गौरव खोएखोए से बोले थे, ‘‘सचमुच उस ने बड़ी मदद की, हमारे बेटे को एक नया जीवन दिया है.’’

बात आईगई हो गई. पीछे गौरव को एक केस में काफी व्यस्त पाया था. पूछने पर बस यही कहते, ‘‘समझ लो स्नेह, एक महत्त्वपूर्ण केस है. यदि जीत गया तो बड़ा आत्मिक सुख मिलेगा.’’

1 वर्ष तक केस चलता रहा, फैसला हुआ, गौरव के पक्ष में ही. वह उस दिन खुशी से पागल हो रहे थे. शाम को आते ही बोले, ‘‘यार, जल्दी से अच्छी- अच्छी चीजें बना लो, मेरा एक दोस्त आ रहा है, आई.ए.एस. है.’’

‘‘कौन दोस्त?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘जब आएगा तो खुद ही उसे देख लेना, मैं उसी को लेने जा रहा हूं.’’

कुछ देर बाद गौरव वापस आए थे और अपने साथ जिसे ले कर आए थे उसे देख कर मैं अवाक् रह गई. यह तो ‘कमल’ है लेकिन यह कैसे हो सकता है?

‘‘स्नेह,’’ गौरव ने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हें आहत कर के इस ने भी कोई सुख नहीं पाया है. हमारी शादी के 1 साल बाद इस का आई.ए.एस. में चयन हुआ था. लेकिन तब तक लगातार मिलती असफलताओं ने इसे विक्षिप्त कर दिया था. यह पागलों की तरह हरकतें करने लगा था. इस कारण आयोग ने इस की नियुक्ति को भी निरस्त कर दिया था.

‘‘3 साल तक मेंटल हास्पिटल में रहने के बाद जब यह ठीक हुआ तो सब से पहले तुम्हारे ही घर गया, तुम से माफी मांगने के लिए. लेकिन पापाजी ने इसे हमारा पता ही नहीं दिया था और फिर जीवन से निराश, जीवनयापन के लिए इस ने टी.सी. की नौकरी कर ली. आज मैं इसी का केस जीता हूं, अदालत ने इस की पुन: नियुक्ति का फैसला दिया है. आज यह फिर तुम से माफी मांगने ही आया है.’’

वर्षों बाद मुझे वही कमल दिखा था, जिस से मैं पहली बार मिली थी, शर्मीला और संकोची. उस ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए थे. मुझ से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. उस की आंखों से प्रायश्चित्त के आंसू बह निकले, ‘‘स्नेह, मैं तुम्हारा अपराधी हूं, एक लक्ष्य पाने के लिए जीवन के ही लक्ष्य को भूल गया था…आप के कहे शब्द…आज भी मेरे हृदय में कांटे की तरह चुभते हैं…लगता है आज भी एक आह मेरा पीछा कर रही है…हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कमल,’’ मैं ने भरे गले से कहा, ‘‘मैं ने तो तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था जिस दिन तुम ने मेरी ममता की रक्षा की थी. अब तुम से कोई शिकायत नहीं…तुम जहां भी रहो खुश रहो, यह मेरे मन की आवाज है.’’

‘‘हां, कमल,’’ गौरव भी उसे समझाते हुए बोले थे, ‘‘कल तुम ने एक रिश्ते को परखने में भूल की थी, आज फिर से वही भूल मत करना, मातापिता को खुश रखना, अपना घरसंसार बसाना और अपनी शादी में हमें भी बुलाना…भूल तो न जाओगे?’’

वह गौरव के गले लग रो पड़ा. निर्मल जल के उस शीतल प्रवाह ने हमारे हृदय के सारे मैल को एक ही पल में धो दिया.

‘‘7 वर्षों तक दिशाहीन और पागलों सा जीवन व्यतीत किया है मैं ने, मर ही चुका था, आप ने तो मुझे नया जीवन ही दिया…कैसे भूल जाऊंगा.’’

कमल के जाने के बाद मैं गौरव के सीने से लगते हुए बोली थी, ‘‘गौरव, सचमुच मुझे आप पर गर्व है…लेकिन यह क्या, आप की आंखों में भी आंसू.’’

‘‘हां…खुशी के हैं, जानती हो सच्चा प्रायश्चित्त वही होता है जब आंसू उस की आंखों से भी निकलें जिन के लिए प्रायश्चित्त किया गया हो, आज कमल का प्रायश्चित्त पूरा हुआ.’’

पति की बात सुन कर स्नेह भी अपनेआप को रोने से न रोक सकी.

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रिश्तों की परख: भाग 2- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानीजी के पास आ गई. रिजल्ट आया तो मैं फर्स्ट डिवीजन में पास हुई थी. गणित में अच्छे नंबर मिले थे. मैं अपने रिजल्ट से संतुष्ट थी. कुछ दिनों बाद कमल का भी रिजल्ट आया था. उसे मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान मिला था. उसे बधाई देने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. मैं जल्द ही नानी के घर से वापस लौट आई थी. कमल से मिली लेकिन उसे प्रसन्न नहीं देखा. वह दुखी मन से बोला था, ‘नहीं स्नेह, मैं पीछे नहीं रहना चाहता हूं, मुझे पहली पोजीशन चाहिए थी.’

वह कालिज पहुंचा और मैं 11वीं में. मैं ने अपनी सुविधानुसार कामर्स विषय लिया और उस ने आर्ट. अब उसे आई.ए.एस. बनने की धुन सवार थी.

‘आप को इस तरह विषय नहीं बदलना चाहिए था,’  मौका मिलते ही एक दिन मैं ने उसे समझाना चाहा.

‘मैं आई.ए.एस. बनना चाहता हूं और गणित उस के लिए ठीक विषय नहीं है. पिछले सालों के रिजल्ट देख लो, साइंस की तुलना में आर्ट वालों का चयन प्रतिशत ज्यादा है.’

मैं उस का तर्क सुन कर खामोश हो गई थी. मेरी बला से, कुछ भी पढ़ो, मुझे क्या करना है लेकिन मैं ने जल्द ही पाया कि मैं उस की तरफ खिंचती जा रही हूं. धीरेधीरे वह मेरे सपनों में भी आने लगा था, मेरे वजूद का एक हिस्सा सा बनता जा रहा था. अकेले में मिलने, उस से बातें करने को दिल चाहता था. समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उस से प्यार होता जा रहा है या फिर यह उम्र की मांग है.

वह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था और एक शाम तो मेरे सपनों को एक आधार भी मिल गया था. आंटीजी बातों ही बातों में मेरी मम्मी से बोली थीं, ‘मन में एक बात आई थी, आप बुरा न मानें तो कहूं?’

‘कहिए न,’ मम्मी ने उन्हें हरी झंडी दे दी.

‘आप अपनी बेटी मुझे दे दीजिए, सच कहती हूं मैं उसे अपनी बहू नहीं बेटी बना कर रखूंगी,’ यह सुन मम्मी खामोश हो गई थीं. इतना बड़ा फैसला पापा से पूछे बगैर वह कैसे कर लेतीं. उन्हें खामोश देख कर और आगे बोली थीं, ‘नहीं, जल्दी नहीं है, आप सोचसमझ लीजिए, भाई साहब से भी पूछ लीजिएगा, मैं तो कमल के पापा से पूछ कर ही आप से बात कर रही हूं. कमल से भी बात कर ली है, उसे भी स्नेह पसंद है.’

उस रात मम्मीपापा में इसी बात को ले कर फिर तकरार हुई थी.

‘क्या कमी है कमल में,’ मम्मी पापा को समझाने में लगी हुई थीं, ‘पढ़नेलिखने में होशियार है, कल को आई.ए.एस. बन गया तो अपनी बेटी राज करेगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं हो,’ पापा ने खीजते हुए कहा था, ‘अभी वह पढ़ रहा है, अभी से बात करना उचित नहीं है. वह आई.ए.एस. बन तो नहीं गया न, मान लो कल को बन भी गया और उसे हमारी स्नेह नापसंद हो गई तो?’

‘आप तो बस हर बात में मीनमेख निकालने लगते हैं, कल को उस की शादी तो करनी ही पड़ेगी, दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर सेटल करना होगा, कहां से लाएंगे इतना पैसा? आज जब बेटी का सौभाग्य खुद चल कर उस के पास आया है तो दिखाई नहीं पड़ रहा है.’

पापा हमेशा की तरह मम्मी से हार गए थे और उन का हारना मुझे अच्छा भी लग रहा था. वह बस, इतना ही बोले थे, ‘लेकिन स्नेह से भी तो पूछ लो.’

‘मैं उस की मां हूं. उस की नजर पहचानती हूं, फिर भी आप कहते हैं तो कल पूछ लूंगी.’

दूसरे दिन जब मम्मी ने पूछा तो मैं शर्म से लाल हो गई थी, चाह कर भी हां नहीं कह पा रही थी. मैं ने शरमा कर अपना चेहरा झुका लिया था. वह मेरी मौन स्वीकृति थी. फिर क्या था, मैं एक सपनों की दुनिया में जीने लगी थी. जब भी वह हमारे घर आता तो छोटे भाई मुझे चिढ़ाते, ‘दीदी, तुम्हारा दूल्हा आया है.’

देखते ही देखते 2 साल का समय गुजर गया, मैं ने भी हायर सेकंडरी पास कर उसी कालिज में दाखिला ले लिया था जिस में कमल पढ़ता था. 1 साल तक एक ही कालिज में पढ़ने के बावजूद हम कभी अकेले कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. बस, घर से कालिज और कालिज से सीधे घर. ऐसा नहीं था कि मैं उसे मना कर देती, लेकिन उस ने कभी प्रपोज ही नहीं किया. और मुझे लड़की का एक स्वाभाविक संकोच रोकता था.

ग्रेजुएशन पूरी होने के बाद उसे कंपीटीशन की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना था. सुनते ही मैं सकते में आ गई. उसे रोक भी नहीं सकती थी और जाते हुए भी नहीं देख सकती थी. जिस शाम उसे जाना था उसी दोपहर को मैं उस के घर पहुंची थी. वह जाने की तैयारी कर रहा था. आंटीजी रसोई में थीं. मैं ने पूछा था, ‘मुझे भूल तो न जाओगे?’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया था, जैसे मेरी बात सुनी ही न हो. उस की इस बेरुखी से मेरी आंखें भर आई थीं. उस ने देखा और फिर बोला था, ‘यदि कुछ बन गया तो नहीं भूलूंगा और यदि नहीं बन पाया तो शायद…भूल भी जाऊंगा,’ सुनते ही मैं वहां से भाग आई थी.

लगभग 4 माह बाद वह इलाहाबाद से वापस आया था. बड़ा परिवर्तन देखा. हेयर स्टाइल, बात करने का ढंग, सबकुछ बदल गया था. एक दिन कमल ने कहा था, ‘मेरे साथ फिल्म देखने चलोगी?’

‘क्या,’ मुझे आश्चर्य हुआ था. मन में एक तरंग सी दौड़ गई थी.

‘लेकिन बिना पापा से पूछे…’

‘ओह यार, पापा से क्या पूछना… आफ्टर आल यू आर माई वाइफ…अच्छा ठीक है, मैं पूछ भी लूंगा.’

कमल ने पापा से क्या कहा मुझे नहीं मालूम पर पापा मान गए थे. वह शाम मेरी जिंदगी की एक यादगार शाम थी. 3 से 6 पिक्चर देखी. ठंड में भी हम दोनों ने आइसक्रीम खाई. लौटते समय मैं ने उस से कहा था, ‘तुम्हें इलाहाबाद पहले ही जाना चाहिए था.’

समय गुजरता गया. मैं भी ग्रेजुएट हो गई. सुनने में आया कि कमल का चयन मध्य प्रदेश पी.सी.एस. में नायब तहसीलदार की पोस्ट के लिए हो गया था, लेकिन उस ने नियुक्ति नहीं ली. उस का तो बस एक ही सपना था आई.ए.एस. बनना है. 2 बार उस ने मुख्य परीक्षा पास भी की लेकिन इंटरव्यू में बाहर हो गया.

मेरे पापा का ग्वालियर तबादला हो गया. एक बार फिर हम लोगों को अपना पुराना शहर छोड़ना पड़ा. अंकल और आंटी दोनों ही स्टेशन तक छोड़ने आए थे.

मेरी पोस्ट गे्रजुएशन भी हो चुकी थी, अब तो पापा को सब से अधिक चिंता मेरी शादी की थी. जब भी यू.पी.एस.सी. का रिजल्ट आता वह पेपर ले कर घंटों देखा करते थे. मम्मी उन्हें समझातीं, ‘जहां इतने दिनों तक सब्र किया वहां एकाध साल और कर लीजिए.’

पापा गुस्से में बोले थे, ‘ये सब तुम्हारी ही करनी का फल है. बड़ी दूरदर्शी बनती थीं न…अब भुगतो.’

‘आप वर्माजी से बात तो कीजिए, कोई अपनी जबान से थोड़े ही फिर जाएगा, शादी कर लें, लड़का अपनी तैयारी करता रहेगा.’

‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो,’ पापा गुस्से से चीखे थे, ‘उस सनकी को अपनी बेटी ब्याह दूं, अच्छीखासी पोस्ट पर सलेक्ट हुआ था, लेकिन नियुक्ति नहीं ली. यदि कल को कुछ नहीं बन पाया तो?’

‘ऐसा नहीं है. वह योग्य है, कुछ न कुछ कर ही लेगा. आप की बेटी भूखी नहीं मरेगी.’

पापा दूसरे दिन आफिस से छुट्टी ले कर जबलपुर चले गए. मैं धड़कते हृदय से उन की प्रतीक्षा कर रही थी. 2 दिन बाद लौट कर आए तो मुंह उतरा हुआ था. आते ही आफिस चले गए. पूरे दिन मां और मैं ने प्रतीक्षा की. पापा शाम को आए तो चुपचाप खाना खा कर अपने बेडरूम में चले गए. उन के पीछेपीछे मम्मी भी. मैं उन की बात सुनने के लिए बेडरूम के दरवाजे के ही पास रुक गई थी.

‘क्या हुआ? क्या उन्होंने मना कर दिया?’

‘नहीं…’  पापा कुछ थकेथके से बोले थे, ‘वर्माजी तो आज भी तैयार हैं, लेकिन लड़का नहीं मान रहा है, कहता है आई.ए.एस. बनने के बाद ही शादी करूंगा. हां, वर्माजी ने थोड़े दिनों की और मोहलत मांगी है, लड़के को समझा कर फोन करेंगे.

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रिश्तों की परख: भाग 1- स्नेह और कमल की कहानी

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हर रिश्ते की एक पहचान होती है. हर रिश्ते का अपना एक अलग एहसास होता है और एक अलग अस्तित्व भी. इन में कुछ कायम रहते हैं, कुछ समय के साथ बिखर जाते हैं. बस, उन के होने का एक एहसास भर रह जाता है. समय की धूल परत दर परत कुछ इस तरह उन पर चढ़ती चली जाती है कि वे धुंधले से हो जाते हैं. और जब भी कोई ऐसा रिश्ता अचानक सामने आ कर खड़ा हो जाता है तो इनसान को एक पल के लिए कुछ नहीं सूझता. उसे क्या नाम दें? कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी हो रही थी. मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 7 वर्ष बाद वह अचानक ही मेरे सामने आ खड़ा होगा.

‘‘टिकट,’’ उस ने हाथ बढ़ाते हुए मुझ से पूछा था. उसे देखते ही मैं चौंक पड़ी थी. चौंका तो वह भी था किंतु जल्दी ही सामान्य हो खाली बर्थ की तरफ देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘और आप के साथ…’’

मैं थोड़ा गर्व से बोली थी, ‘‘जी, मेरे पति, किसी कारण से साथ नहीं आ सके.’’

‘‘यह बच्चा आप के साथ है,’’ उस ने मेरे 5 वर्षीय बेटे की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘‘मेरा बेटा है,’’ मैं उसी गर्व के साथ बोली थी.

वह कुछ देर तक खड़ा रहा, जैसे मुझ से कुछ कहना चाहता हो लेकिन मैं ने ध्यान नहीं दिया, उपेक्षित सा अपना मुंह खिड़की की तरफ फेर लिया. मेरे मन में एक सवाल बारबार उठ रहा था कि नायब तहसीलदार की पोस्ट को तुच्छ समझने वाला कमलकांत वर्मा टी.सी. की नौकरी कैसे कर रहा है?

बड़ी अजीब बात लग रही थी. कभी अपने उज्ज्वल भविष्य…अपनी जिद के लिए अपने प्यार को ठुकराने वाला, क्या अपनी जिंदगी से उस ने समझौता कर लिया है? क्या यह वही आदमी है जिसे मैं लगभग 17 वर्ष पहले पहली बार मिली थी…10 वर्षों का साथ…ढेर सारे सपने…और फिर लगभग 7 वर्ष पूर्व आखिरी बार मिली थी?

17 साल पहले मेरे पापा का तबादला जबलपुर में हुआ था. आयकर विभाग में आयकर निरीक्षक की पोस्ट पर तरक्की हुई थी. नयानया माहौल था. एक अजनबी शहर, न कोई परिचित न कोई मित्र. वह दीवाली का दिन था, अपने घर के बरामदे में ही मैं और मेरे दोनों छोटे भाई फुलझड़ी, अनार और चकरी जला कर दीवाली मना रहे थे कि गेट पर एक लड़का खड़ा दिखाई दिया. पहले तो मैं ने सोचा कि राह चलते कोई रुक गया होगा, लेकिन जब वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा तो मैं ने जा कर उस से पूछा था, ‘जी, कहिए…आप को किस से मिलना है?’

मुझे देख कर वह नर्वस हो गया था, ‘जी…वह आयकर विभाग वाले निगमजी का घर यही है…’

‘हां, क्यों?’ मैं ने उस की बात भी पूरी नहीं होने दी थी.

‘जी…मैं ये प्रसाद लाया था…मुझे उन से…’ वह रुकरुक कर बोला था.

मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं ने पापा से ही मिलवाने में भलाई समझी. उस ने पापा को ही अपना परिचय दिया था. पापा के आफिस में कार्यरत वर्माजी का बेटा था वह. वर्माजी पापा के मातहत क्लर्क थे. वह लगभग 10 मिनट तक रुका था. मां ने उसे प्रसाद और मिठाइयां दीं लेकिन वह प्लेट को छू तक नहीं रहा था. मैं उस के सामने बैठी थी. उस का लजानासकुचाना बराबर चालू था. मैं ने मन ही मन कहा था, ‘लल्लू लाल.’

‘आप किस क्लास में पढ़ते हैं?’ मैं ने ही पूछा था.

‘जी…मैं…’ वह घबरा सा गया था, ‘जी हायर सेकंडरी में…’

उस समय मैं हाईस्कूल में पढ़ रही थी. इस के बाद न तो मैं ने उस से कुछ पूछा और न ही उस ने मुझ से बात की. जातेजाते पापा से कह गया था, ‘अंकल, आप को पापा ने कल लंच पर पूरे परिवार के साथ बुलाया है.’

‘हूं…’ पापा ने कुछ सोचते हुए कहा था, ‘ठीक है, मैं वर्माजी से फोन पर बात कर लूंगा, पर बेटा, अभी कुछ निश्चित नहीं है.’

उस के जाते ही मम्मीपापा में बहस शुरू हो गई थी कि निमंत्रण स्वीकार करें या न करें. पापा को ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं था. पापा ने ही बताया था कि वर्माजी बड़े ही ‘पे्रक्टिकल’ इनसान हैं. कलम भर न फंसे, शेष सब जायज है.

पापा ठहरे ईमानदार, ‘केरबेर’ का संग कैसे निभे? पापा के साथ वर्माजी की हालत नाजुक थी. पापा न तो खाते थे न ही वर्माजी को खाने का मौका मिलता था.

पापा ने मां को समझाया, ‘देखो, यह निमंत्रण मुझे शीशे में उतारने का एक जरिया है.’ लेकिन मां के तर्क के सामने पापा के विचार ज्यादा समय के लिए नहीं टिक पाते थे.

‘इस अजनबी शहर में हमारा कौन है? आप तो दिन भर के लिए आफिस चले जाते हैं, बच्चे स्कूल और मैं बचती हूं, मैं कहां जाऊं? जब कहती थी कि कुछ लेदे कर तबादला ग्वालियर करा लीजिए तो उस समय भी यही ईमानदारी का भूत सवार था, मैं नहीं कहती कि ईमानदारी छोड़ दीजिए, लेकिन हर समय हर किसी पर शक करने का क्या फायदा? आफिस की बात आफिस तक रखिए, हो सकता है मुझे एक अच्छी सहेली मिल जाए.’

मम्मी की बात सही निकली. उन्हें एक अच्छी सहेली मिल गई थी. आंटी का स्वभाव बहुत ही सरल लगा था. हम बच्चों को देख कर तो वह खुशी से पागल सी हो रही थीं. मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा था, ‘कितनी प्यारी बेटी है, इसे तो मुझे दे दीजिए,’ फिर उन की आंखों में आंसू आ गए थे, ‘बहनजी, जिस घर में एक बेटी न हो वह घर, घर नहीं होता.’

हम लोगों को बाद में पता चला कि उन की कमल से बड़ी एक बेटी थी जिस की 3-4 साल पहले ही मृत्यु हुई थी. आंटीजी ने मुझे अपने हाथ से कौर खिलाए थे.

‘मैं खा लूंगी न आंटीजी,’ मैं ने प्रतिरोध किया था.

और उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘अपने हाथ से तो रोज ही खाती होगी, आज मेरे हाथ से खा ले बेटी.’

हम लोग लगभग 2 घंटे तक उन के घर में रुके थे, इस बीच मुझे कमल की सूरत तक देखने को नहीं मिली थी. मैं ने सोचा था, हो सकता है घर के बाहर हो. जब हम लोग चलने लगे तो अंकल और आंटीजी हमें छोड़ने गेट तक आए थे.

‘अब आप लोग कब हमारे यहां आ रहे हैं?’ मम्मी ने पूछा था.

‘आप को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी बहनजी,’ आंटीजी ने हंसते हुए कहा था, ‘जब भी अपनी बेटी से मिलने का मन होगा, आ जाऊंगी.’

हमारा घर पास में ही था, अत: पैदल ही हम सब चल पड़े थे. अनायास ही मेरी नजर उन के घर की तरफ गई थी तो देखा कमल खिड़की से हमें जाते हुए देख रहा था. जब तक उस के घर में थे तो जनाब बाहर ही नहीं आए, और अब छिप कर दीदार कर रहे हैं. मेरे मुख से अचानक ही निकल गया था, ‘लल्लू कहीं का.’

फिर तो आनेजाने का सिलसिला सा शुरू हो गया था. दोनों घर के सदस्य एकदूसरे से घुलमिल गए थे. कमल का शरमानासकुचाना अभी भी पूरी तरह से नहीं गया था. हां, पहले की अपेक्षा अब वह छिपता नहीं था. सामने आता और कभीकभी 2-4 बातें भी कर लेता था. आंटीजी का स्नेह तो मुझ पर सदैव ही बरसता रहता था.

छमाही परीक्षा में गणित में मेरे बहुत कम अंक आए थे. पापा कुछ परेशान से थे कि कहीं मैं सालाना परीक्षा में गणित में फेल न हो जाऊं. यह बात जब आंटीजी तक पहुंची तो उन्होंने कहा था, ‘इसे कमल गणित पढ़ा दिया करेगा, वह गणित से ही तो हायर सेकंडरी कर रहा है और वैसे भी उस की गणित बहुत अच्छी है. देख लीजिए, यदि स्नेह की समझ में न आए तो फिर किसी दूसरे को रख लीजिएगा.’

‘लेकिन बहनजी, उस की भी तो बोर्ड की परीक्षा है, उसे भी तो पढ़ना होगा?’ पापा ने अपनी शंका जताई थी पर दूसरे दिन ठीक 6 बजे कमल मुझे पढ़ाने के लिए हाजिर हो गया था. मैं भी अपनी कापीकिताब ले कर बैठ गई. 3-4 दिन तक तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया था कि वह क्या पढ़ा रहा है. कोई सवाल समझाता तो ऐसा लगता जैसे वह मुझे नहीं बल्कि खुद अपने को समझा रहा है. लेकिन धीरेधीरे उस की भाषा मुझे समझ में आने लगी थी. वह स्वभाव से लल्लू जरूर था लेकिन पढ़ने में होशियार था.

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