लेखक- रोहित और शाहनवाज
‘जाग रे किसान तू जाग के दिखा,
अपने और पराए को पहचान के दिखा,
अपने अधिकार तूने खुद लेने हैं,
मांगे से मिलते नहीं छीन लेने हैं.’
(गरनैल कौर, उम 70 साल).
भारत में जब भी कृषि सैक्टर की बात होती है, तो हमेशा पुरुष किसान ही खेत और खेती से जुड़ी चीजों के केंद्र में देखे जाते हैं. तमाम सरकारी और निजी विज्ञापनों में हंसतेमुसकराते पुरुष किसान कभी यूरिया खाद या बीज के साथ तो कभी लहलहाते खेतों में खड़े ट्रैक्टरों के साथ दिखाई देते हैं. किसान महिलाएं इस पूरी कृषि बहस से नदारद रहती हैं, जो कृषि क्षेत्र में ज्यादातर योगदान देती हैं. किंतु न्यूनतम जमीन पर मालिकाना हक रखती हैं.
ये सब इसलिए कि आज भी कृषि क्षेत्र में पुरुष प्रभुत्व को हम सब ने बड़ी सहजता से स्वीकार किया हुआ है और करना भी चाहते हैं.
ऐसे में किसान आंदोलन और उस की रूपरेखा में वे असंख्य किसान महिलाएं नदारद हो जाती हैं, जिन्होंने सदियों से कृषि क्षेत्र में बिना क्रैडिट के लगातार अपना योगदान दिया है. उन के मुफ्त श्रम का अगर हिसाब लगाया जाए तो मानव समाज शर्मशार हो जाए. ऐसे ही पुरुष किसानों से कंधे से कंधा मिलाते हुए हजारों महिला किसान हाड़ कंपाती ठंड में अपने किसान होने के वजूद के साथ हिम्मत की मिशाल पेश कर रही हैं.
ऐतिहासिक आंदोलन
पिछले 42 दिनों से दिल्ली के अलगअलग बौर्डरों पर लगातार चल रहे किसान आंदोलन में शामिल इन महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि ये इस आंदोलन की रीढ़ बन कर उभरी हैं. इन के जज्बे और हिम्मत ने 21वीं सदी के इस आंदोलन को ऐतिहासिक बना दिया है.
किसान महिलाएं न सिर्फ इस आंदोलन का स्तंभ बनी हुई हैं, बल्कि वे अपने वजूद के होने का एहसास भी करा रही हैं और सरकार को चैलेंज भी दे रही हैं.
जाहिर है शहर में रहने वाले पढ़ेलिखे डिजिटल लोगों के लिए कृषि की समझ महज थाली में परोसे जाने वाले विभिन्न प्रकार के व्यंजनों तक ही सीमित है, यही कारण है कि व्यंजन की थाली में पहुंचने से पहले खेत मेें लगी समयखाऊ और थकाऊ मेहनत की परतों को समझ पाने में मात खा जाते हैं. इसी के चलते हम कृषि में लगने वाले एक बड़े हिस्से की मेहनत में महिलाओं को कभी ढंग से देख ही नहीं पाए हैं.
लेकिन दिल्ली की विभिन्न सरहदों पर जमी इन हजारों महिलाओं ने आज इसी मानसिकता पर चोट करने की कोशिश की है. वे किसान महिलाएं वहां आंदोलन के भावुक पक्ष को उकेरने के लिए नहीं आ रहीं, बल्कि सरकार से अपने हिस्से की नाराजगियां बताने आ रही हैं.
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वे दूरदराज के गांवों से सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर खुद ट्रैक्टर चला अपने हाथों में स्टेयरिंग रख, पीछे ट्रौली में पुरुष किसानों को बैठा, नेतृत्व देते हुए नारों के साथ धरनास्थलों पर पहुंच रही हैं. वे मंच का संचालन भी कर रही हैं, कृषि कानूनों पर बहस कर रही हैं, भूख हड़ताल कर रही हैं, अपने हिस्से की बात भी कह रही हैं और यदि किसी कारणवश धरनास्थल पर नहीं हैं तो अपने गांवकस्बे में इस दौरान पुरुष किसान की गैरमौजूदगी में अधिकतर खेती से जुड़े कामों को संभाल रही हैं.
किसान आंदोलन में दादियां
6 जनवरी, दिल्ली की सुबह की शुरुआत तेज बारिश और ओलों के साथ हुई, जिस दौरान राजधानी दिल्ली में बैठे अधिकतर कृषि कानून पर हामी भरने वाले सांसद अपने मखमल के बिस्तर पर औंधे मुंह गहरी नींद में लेटे थे, उस दौरान किसान अपना भीगा बिस्तरा और बिखरा सामान समेट रहे थे. हम ने भी एक पक्के शहरी होने का फर्ज निभाया और बारिश व ओलों के बंद होने तक का इंतजार किया.
किसान आंदोलन के बड़े स्पौट में से एक पौइंट टीकरी बौर्डर की तरफ बढ़े तो देखा नजारा थोड़ा बदला सा था, लेकिन हौसले से बढ़े हुए थे. मंच संचालित हो रहा था, लेकिन मंच के आगे बारिश के चलते बैठने की सतह गीली थी. कुछकुछ दूरी में रास्तों में बने गड्ढों में बारिश का पानी जमा था. रास्ते कीचड़ से सने थे. हर किसी के पैर टखने तक गंदे नजर आ रहे थे. लेकिन उस के बावजूद किसान खड़े हो कर भाषण सुनने में व्यस्त थे.
वहीं मंच के इर्दगिर्द महिला किसान आंदोलनकारियों का होना ही इस बात का संकेत था कि इस विपरीत परिस्थिति में भी वे पुरुषों से कहीं भी पीछे नहीं हैं. लगातार मंच की तरफ आ रहा उन का हुजूम उन के बुलंद हौसलों को दर्शा रहा था.
इसी दौरान हमारी नजर एक 70 वर्षीय वृद्ध महिला गरनैल कौर पर पड़ी. जो टकटकी लगाए मंच पर भाषण दे रही 16 साल की लड़की लखप्रीत कौर को बड़े ध्यान से सुन रही थीं. माथे पर खूब सारी त्योरियां, गालों पर ?ार्रियां, आंखों में चमक और होंठों पर मुसकान लिए मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे अपनी किशोरावस्था को भाषण देता देखने का सुख ले रही हों.
गांव किशनगढ़, जिला मनसा, पंजाब से आने वाली गरनैल कौर आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही टिकरी बौर्डर पर हैं. वे बताती हैं कि उन का सारा परिवार, जिस में बेटे, बहुएं, पोते, पोतियां हैं, सब इस आंदोलन में मौजूद हैं.
वे कहती हैं, ‘‘मैं ने अपना पूरा जीवन खेतों में गुजार दिया. आज भी 70 साल की होने के बावजूद खेतों में नरमा चुगना, गेहूं काटने में पीछे नहीं हटती हूं. इस आंदोलन की वजह से हमारा भाईचारा और भी बढ़ा है.’’
उन की आवाज बेशक लड़खड़ा रही थी, लेकिन हौसला कम नहीं था. उन्होंने बताया, ‘‘हमें अगर इस सड़क पर 2 साल तक बैठना पड़े तो भी हम बैठने के लिए तैयार हैं. यह अपना भविष्य बचाने की लड़ाई है. अपने घर बचाने की लड़ाई है. हम यहां से तब तक नहीं जाएंगे जब तक ये तीनों कानून वापस नहीं हो जाते.’’
गरनैल कौर यहां बाकी सह उम्र दादियों के साथ आई हैं. उन के लिए टिकरी बौर्डर फिलहाल अस्थाई घर बना हुआ है. वे सब यहां शाम को हंसीठिठोली, मजाकमस्ती करते हैं, एकदूसरे को चिढ़ाती हैं.
यह सारी बिंदास दादियां बारिश को किसानों का गहना बताती हैं. वे कहती हैं कि किसान कभी बारिश न हो, ऐसी मनोकामना नहीं रखता. बारिश हो रही है, वह हमारी फसलों के लिए वरदान है.
किसान आंदोलन में महिला नेतृत्व
महिलाओं की किसान आंदोलन में भूमिका और इसी जज्बे को ले कर टिकरी बौर्डर की मुख्य कन्वेनर व संयुक्त किसान मोरचा की अहम सदस्य जसबीर कौर नत, जो पंजाब किसान यूनियन का नेतृत्व भी कर रही हैं, का कहना है, ‘‘महिलाएं शुरूआत से ही इस आंदोलन की नींव हैं. किसानों में भी आधी आबादी महिलाओं की है तो जायज है कि आधी जंग उन्हीं के हिस्से है. पहली बात औरतें भी किसान हैं.
हम महिलाओं के साथ सब से बड़ी समस्या यह है कि हमें कोई किसान मानने को तैयार ही नहीं होता. अगर परिवार में खेती होती है तो औरतें भी उस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.’’
जसबीर कौर का इस आंदोलन में अभी तक अहम योगदान रहा है. टिकरी बौर्डर का मंच संभालते हुए जसबीर कौर महिलाओं के साथ पुरुषों का भी नेतृत्व करती हैं. उन के जिम्मे सिर्फ मंच ही नहीं, बल्कि आंदोलन का बहीखाता भी है. किसी महिला के हाथ बहीखाते की जिम्मेदारी होना अपनेआप में आंदोलन की लैंगिक समानता को दर्शाता है.
जसबीर कौर के अनुसार भारत में कृषि क्षेत्र में 75% काम महिलाओं के द्वारा किया जाता है, जिस में महिलाओं के अधीन मात्र 12% ही जमीन पर मालिकाना हक है. जमीन पर मालिकाना हक की कमी के कारण महिलाओं को किसान माना ही नहीं जाता है. उन के कृषि क्षेत्र में बड़े योगदान के बावजूद उन्हें किसान समझ ही नहीं जाता. ये महिलाएं पहले ही गैरबराबरी का शिकार हैं और नए कानूनों के आने के बाद यह और भी अधिक हो जाएगा.
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मगर साथ ही इस किसान आंदोलन को ले कर जसबीर कौर कहती हैं, ‘‘उन्हें प्राउड फील हो रहा है कि महिलाएं इस आंदोलन में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. उन की भूमिका आंदोलन को मजबूती दे रही है. वे अगर किसी कारण यहां नहीं हैं तो खेतों का सारा काम संभाल रहीं हैं. ट्रैक्टर चला रही हैं, फसल तैयार कर रही हैं. यह भी आंदोलन का ही पार्ट.’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘औरतों का घर छोड़ना आसान नहीं होता. उन के घर में छोटे बच्चे होते हैं, पशु होते हैं, सासससुर होते हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी होती है. फिर यहां भी कई दिक्कतें हैं जैसे उन के लिए टौयलेट की व्यवस्था खराब है, नहाने की समस्या है, सोने की समस्या है. ऐसे में महिलाएं आती हैं और यहां रुकती हैं तो बिना जज्बे के तो यह हो नहीं सकता.’’
परिवार की ही चिंता है इसीलिए…
आंदोलन में आई 50 वर्षीय दीना, बौक्सर विजेंद्र सिंह के गांव सीसर खरबला, हिसार, हरियाणा से संबंध रखती हैं. वे एक महीने से आंदोलन में हैं. उन का मानना है कि एक महिला के लिए आंदोलन में आना आसान नहीं होता. उस के कंधों पर किसानी के अलावा घरपरिवार की जिम्मेदारी भी होती है.
वे बताती हैं, ‘‘घर में बूढ़े सासससुर हैं, जो बीमार चल रहे हैं और अकेले हैं. मेरे पति भी इसी आंदोलन में हैं. मैं कभीकभी घर जाती हूं, लेकिन घर में रहती हूं तो मन नहीं मानता, आंदोलन के बारे में सोचती हूं और फिर दोबारा आ जाती हूं. यह सिर्फ मेरे अकेले का मामला नहीं, बल्कि ज्यादातर घरों का है. यहां महिलाएं और भी आना चाहती हैं लेकिन घर की जिम्मेदारी के चलते नहीं आ पा रहीं.’’
दीना आंदोलनकारी महिलाओं को शेरनियां कह कर पुकारती हैं. वे कहती हैं, ‘‘यहां से हम तब तक वापस नहीं जाएंगी जब तक इन तीनों कानूनों को रद्द नहीं कर दिया जाता. जिन खेतों का सौदा मोदी करना चाहते हैं, वे हमारे खेत हैं, हमारी फसलें हैं, जिन पर हम ने मेहनत की है, हम ने उन्हें उगाया है और सरकार हमारी फसलों को अडानीअंबानी के हाथों में बेच देना चाहती है.’’
बराबर की जिम्मेदारी
ऐसे ही उत्तराखंड के काशीपुर इलाके से पिछले 8 दिनों से आंदोलन में शामिल राजदीप, पति राजिंदर सिंह, रिटायर मेजर सूबेदार कहती हैं, ‘‘मैं ने अपने हसबैंड को कहा कि आप किसान आंदोलन में जाओ, मैं घर संभाल लूंगी. जब उन को यहां आ कर प्राउड फील हुआ तो उन्होंने हमें भी आने को कहा, फिर हम पूरी फैमिली के साथ यहां आ गए.’’
वे कहती हैं, ‘‘एक महिला का मतलब खाना बनाना, ?ाड़ूपोंछा लगाना ही नहीं है. ये सब होता ही रहेगा. हम महिलाओं को भी पूरे जोरशोर से आंदोलन में उतरना चाहिए और यह हमारे लिए जरूरी भी है. जब तक हम घरों से नहीं निकलेंगे तब तक अवेयर नहीं होंगे. दोनों पतिपत्नी को यह सोचना चाहिए कि कुछ दिन पति आंदोलन में रहे, तो कुछ दिन पत्नी. आखिर घरपरिवार दोनों का है और इन कानूनों से हमारे खेतों पर आंच आई है तो दोनों की इस से लड़ने की बराबर जिम्मेदारी है.’’
आंदोलन की खेती में उभरती युवतियां
किसान आंदोलन की खूबसूरती यह कि वहां भविष्य की संभावित महिला नेता भी पैदा हो रही हैं, जो हमारे देश के लिए सब से महत्त्वपूर्ण बात है.
ऐसे ही 16 वर्षीय लखप्रीत कौर से टिकरी बौर्डर पर मुलाकात हुई. रंग गोरा, आंखों पर चश्मा और मंच से उन का तीखा भाषण ही काफी था उन के व्यक्तित्त्व के परिचय बताने के लिए, टिकरी बौर्डर से 250 किलोमीटर दूर गांव धर्मगढ़, संगरूर जिला से आने वाली लखप्रीत कौर अभी 11वीं क्लास में सरकारी सीनियर सैकंडरी स्कूल में पढ़ रही हैं. यहां वह अपने गांव के बाकी लोगों के साथ पिछले 7 दिनों से रुकी हैं. यह दिखाता है कि आंदोलन में इस समय किसानों का आपसी विश्वास कितना गहरा है.
लखप्रीत कहती हैं, ‘‘परिवार से फिलहाल में अकेले ही आई हूं इस बार, लेकिन मेरी उम्र की हम सब लड़कियां गांव में चलने वाले आंदोलन का सारा आयोजन कर लेती हैं. गांव में हमारी उम्र के हर किसी लड़केलड़की को पता है कि इन काले कानूनों से हमें क्या दिक्कत हो सकती है, लेकिन सरकार को यह पता नहीं चल रहा या वह नाटक कर रही है.’’
लखप्रीत के अलावा इस समय आंदोलन में युवकयुवतियों की अच्छीखासी संख्या है. कहते हैं किसी भी बड़े आंदोलन की नींव तब तक मजबूत नहीं होती जब तक युवावर्ग उस से न जुड़ा हो. ऐसे में पंजाब के अलगअलग विश्वविद्यालयों से छात्रछात्राओं का वहां लगातार आनाजाना लगा रहता है.
हालांकि युवतियों की जगह युवकों का धरनास्थल पर आना ज्यादा आसान होता है, किंतु उस के बावजूद कई युवतियां वहां लाइब्रेरी चला रही हैं तो कई हैल्थ कैंप लगा कर बीमार प्रदर्शनकारियों को देख रही हैं तो कई लंगर बांटने का काम कर रही हैं. यह दिखाता है कि वे आंदोलन में प्रत्यक्ष भाग ले रही हैं.
किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका और हिम्मत तो पहले दिन से प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने लगी थी जब धरनास्थल पर 80 साल की बुजुर्ग किसान मोहिंदर कौर अपने बाकी साथियों के साथ भटिंडा से सिंघु बौर्डर आई थीं, जिन्हें आधार बना कर भाजपाइयों और भाजपा समर्थकों ने आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की, जो पूरी तरह नाकाम रही.
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लेकिन महिलाओं की यह भूमिका सिर्फ दिल्ली बौर्डर पर पहुंच जाने भर से नहीं दिखेगी, बल्कि इस के लिए उन किसान परिवारों के जीवन में भी जाने की जरूरत है, जिन के पति/पिता इस समय दिल्ली की सरहदों पर दिनरात जमे हुए हैं.