सांड: संगीता की जिंदगी में जब चंद्रसेन लाया मुसीबत

समय कभी रुकता नहीं है. यह बात दूसरी है कि घड़ी में सैल ही चुक जाए या चाबी न भरी हो. सच यही है कि एक बार चल पड़ी तो चलती रहती है. सरकारी नौकरी भी तो घड़ी की ही तरह है.

संगीता को कौन नहीं जानता. आसपड़ोस में उस की ही तो चर्चा है. कैसे वह घर और नौकरी दोनों को एकसाथ चला रही है? जब सर्दी के दिनों में लोग रजाई से बाहर झांकना पसंद नहीं करते तब तक वह बच्चों का नाश्ता बना कर, स्कूल के लिए तैयार हो जाती है. सुबह 7 बजे उसे स्कूल पहुंचना होता है. घर से 5 मील दूरी पर स्कूल है. वह अपनी स्कूटी में शाम को ही पैट्रोल डलवा लाती है. 12 बजे स्कूल से आती है, तब तक बच्चों के घर लौटने का समय हो जाता है. वह आते ही किचन में लंच की तैयारी में लग जाती है. सुभाष को भी समय पर जाना है. उस की फैक्टरी की नौकरी है, पारी बदलती रहती है. कभी तो उस का काम बढ़ जाता है, कभी घट जाता है, पर वह उफ नहीं करती. हमेशा मुसकरा कर बाहर खड़ी कभी बच्चों का इंतजार करती है तो कभी पति का.

पर उस दिन तो खड़ी ही रह गई.

स्कूल में सब को पता था कि उस का रिजल्ट क्योें अच्छा रहता है. सब जगह उस की तारीफ हो रही थी, पर न जाने क्यों? कौन सी हवा बही जिस ने उस की शांत जिंदगी में हलचल पैदा कर दी. उसे नहीं पता लगा कि अचानक क्यों ?उस का तबादला, घर से 50 मील दूर गांव कासिम पुरा में हो गया.

‘‘पर क्यों?’’

कहीं कोई उत्तर नहीं था. हां, यह बात जरूर थी कि इस बार उस ने शिक्षक संघ के सम्मेलन में जितना चंदा मांगा गया था, उतना चंदा नहीं दिया था. देती कहां से? बच्चों के भी अभी ऊनी कपड़े बनवाने थे. पति सुभाष को भी रात को फैक्टरी जाना पड़ता है. हां, जिन के रिजल्ट भी अच्छे नहीं थे और जो कक्षा में भी कभीकभी जाते थे वे आराम से थे. स्टाफरूम में उसे देख कर बतियाते चेहरे और अधिक प्रमुदित थे.

‘‘आप रमेशजी से बात कर लें,’’ माथुर साहब ने कहा.

‘‘कौन?’’

‘‘रमेशजी, वे चंद्रसेनजी के खास आदमी हैं.’’

‘‘चंद्रसेन?’’

‘‘हां, वे शिक्षाविद जो हमारे स्कूल के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बन कर आए थे.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंक गई साथ ही सोच में डूब गई.

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वह सफेद मूंछों वाला चेहरा और उस के भीतर से झांकती भेडि़ए जैसी आंखें, वह अब तक नहीं भूल पाई थी. कार्यक्रम के दौरान मानो वे उस का ही पीछा करती रहीं.

कार्यक्रम के बाद रमेश ने ही उन से उन का परिचय कराया था.

‘सर, यह संगीताजी हैं, इस विद्यालय की श्रेष्ठ शिक्षिका. इन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है. आप की कृपा हो जाए तो घर के पास आ जाएं.’

‘हां, हां क्यों नहीं? लिस्ट निकलने वाली है, आप याद दिला देना,’ उन्होंने मुसकराते हुए  कहा था, ‘आप तो सुभाषजी की पत्नी हैं.’

‘हां,’ वह सहज होते हुए बोली.

‘वही तो मैं इतनी देर से सोच रहा था. हम और सुभाषजी एक ही गली में रहते थे. मैं तो अभी तक वहीं हूं, पर उन का मकान बदल गया है, वे नए जमाने के आदमी हैं, नए शहर में चले गए.’

‘हूं, तो तबादला इसी चंद्रसेन ने कराया है,’ वह बड़बड़ाई.

रात को सुभाष ने जब यह सुना तो घबरा गया, ‘‘इस रमेश ने यह कहां की दुश्मनी निकाली है, उसी ने तबादला करा दिया है. मुझ से 10 हजार रुपए मांग रहा था, मैं ने मना कर दिया. बोला, चंद्रसेनजी ने कहलाया है, वे पालीवालजी के खास आदमी हैं. पालीवालजी ने शिक्षा का काम उन्हीं को सौंप रखा है. पालीवालजी मंत्री हैं, उन के पास इतना समय कहां है? जो लिस्ट चंद्रसेन बना देते हैं, वे उसे फाइनल करा कर आगे भेज देते हैं, उन का कहा आज तक रुका नहीं है.

चंद्रसेन हमारे महल्ले में खेल प्रशिक्षक लगा था. आज वह पेंशनर बन के शिक्षाविद् हो गया है. इन शिक्षा विभाग वालों की भी बुद्धि फूट गई है, जो उसे सिर पर बिठाए फिरते हैं.’’

‘‘तो क्या करें, जहां पालीवालजी जैसे मंत्री होंगे, वहां ऐसे ही छुटभैये होंगे. अब भगतसिंह, आजाद तो पैदा होने वाले नहीं.’’

‘‘तो तुम जाओ, वहीं गांव में जा कर रहो,’’ वह हंसते हुए बोला.

‘‘और तुम?’’

‘‘मेरा क्या है, या तो नौकरी करो, या छोड़ो.’’

‘‘खयाल नौकरी का नहीं है, बच्चोें की पढ़ाई का है.’’

‘‘वही तो मैं सोच रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘हां, रमेश का ही फोन था, वह मोबाइल पर कह रहा था, चंद्रसेनजी ने याद किया है, जा कर मिल लो, हो सकता है, तुम्हारा तबादला रुक जाए. अभी तुम्हारी पोस्ट पर हंसा त्यागी आई हैं, उस ने 50 हजार रुपए खर्च किए. वह तो तुम्हारी पुरानी जानपहचान है. बात संभल सकती है. हां, सुभाष को मत बताना, उस की पुरानी दुश्मनी है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां.’’

‘‘पर मुझे तो बताया नहीं.’’

‘‘अच्छा किया, नहीं बताया,’’ उस ने मोबाइल बंद कर दिया था.

संगीता अवाक् थी. वह मुझ से क्या चाहता है. जब 50 हजार में हंसा त्यागी को यहां लगाया है, तब वह इस से ज्यादा कहां से देगी, वह तो 10 हजार भी नहीं दे पाई थी, कह रहा था, सुभाष को मत बताना, क्यों?

घर आई तो रो उठी, क्या जमाना आया है. पढ़ना कठिन है, एमए किया, बीएड की कोचिंग की फिर बीएड किया. फिर लोक सेवा आयोग, कठिनाई से नौकरी मिली है. फिर हर साल तबादले का डर. कहीं कोई देखने वाला नहीं है. मां भी शिक्षिका थीं. याद है, वे पूरी उम्र उसी स्कूल में ही रही थीं. तब तबादले अच्छा रिजल्ट नहीं आने पर होते थे. पर अब पढ़नेपढ़ाने में नेताओं की रुचि नहीं है, न वे पढ़ेलिखे हैं, न पढ़ाने वालों को चाहते हैं.

कैसे वह चंद्रसेन, शिक्षक संघ की बैठक में बतिया रहा था. इस बार महिलाओं को देख कर अपनी मूंछों पर बल लगा रहा था और शिक्षा अधिकारी उस के सामने भीगी बिल्ली बने बैठे थे, उसी ने भाषण दिया था. शिक्षा में सुधार होना चाहिए. विद्यार्थी देश के निर्माता हैं. तब सामने बैठे लोग उस की हर बात पर तालियां बजा रहे थे. पर क्यों?

‘‘छोटे बच्चों की पढ़ाई न होती तो वह कभी की कासिम पुरा चली जाती. एक तो पब्लिक स्कूल की फीस. फिर दाखिला भी बहुत मुश्किल से मिला था. उस ने ही रातदिन कोशिश की थी, पर अब, इसी ऊहापोह में पूरा दिन निकल गया था.

शाम को ही रमेश का फोन आया था, ‘‘भाई साहब ने अभी तो हंसा त्यागी को रोक लिया है, तुम जा कर बात तो कर आओ, फिर मत कहना, मैं ने कोई मदद नहीं की.’’

रातभर वह सो नहीं पाई. सुभाष ने भी कहा, ‘‘तुम इतना टैंशन मत लो, बीमार हो गईं तो फिर सब का क्या होगा. देखता हूं मैं कहीं से रुपयों का जुगाड़ करता हूं, दे आऊंगा.’’

वह चुप रही, जब व्यवस्था में घुन लग गया है, तब दरवाजे की चौखट कैसे बच पाएगी?

सुबह वह उठी. बच्चों को स्कूल भेजा. खाना बनाया. निश्चिंत हुई. सुभाष भी रात की पारी से आ कर सो गया था. वह तैयार हुई. आज उस ने अपने चेहरे को आईने में देखा. सुंदर सी चंदेरी की लाल साड़ी निकाल कर पहनी, चेहरे पर हलका मेकअप किया, फिर आईने में अपनेआप को देखा और पर्स उठाया, सुभाष के कमरे में गई. वह अभी भी गहरी नींद में था. उस ने उसे जगाना उचित नहीं समझा. दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई.

बाहर लीला बाई काम कर रही थी.

‘‘आज स्कूल नहीं गईं, भाभी?’’ वह बोली.

‘‘नहीं, आज यहीं काम है. तुम घर का ध्यान रखना. साहब तो सो रहे हैं,’’ वह बोली.

श्यामपुरा की सड़कों से वह परिचित थी.

शादी हो कर यहीं तो आई थी. सुभाष के पिता डाकबंगले के प्रभारी थे. यहीं नाजिमसाहब की हवेली के पास उन का घर था. तब उस ने पहली बार चंद्रसेन को देखा था. वह सुभाष के साथ कभीकभी घर आया करता था. सुभाष ने ही बताया था कि वह किसी स्कूल में शिक्षक है. वह सुभाष के साथ ही स्कूल में पढ़ा था.

उस के पिता कभी नाजिमसाहब के साथ रहे थे. रेवेन्यू में थे. उन का बड़ा सा मकान था.

जब वह श्यामपुरा की गली में पहुंची तो सामने बैठा पनवाड़ी उसे देख चौंक गया.

‘‘भाभीजी, आप?’’

‘‘हां.’’

‘‘आप तो वर्षों बाद इधर आई हैं.’’

‘‘हां.’’

‘‘यहां कहां जाना है?’’

‘‘बस, जरा काम है,’’ वह उस से पीछा छुड़ाते हुए बोली.

नीम के नीचे वह रुकी, फिर आगे बढ़ कर उस ने हवेली की तरफ, बड़े दरवाजे के पास, जहां चंद्रसेन की तख्ती लगी थी, घंटी बजाई. थोड़ी देर प्रतीक्षा की, पर कोई आहट नहीं थी. तब दूसरी बार घंटी बजाई.

ऊपर बालकनी से कोई झांका, वह चंद्रसेन ही था.

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‘‘आ जाओ,  ऊपर आ जाओ… दरवाजा खुला है,’’ उस की आंखें चौंधिया गई थीं. चेहरे पर कुटिल मुसकराहट आ गई थी. वह अपनी डाई की गई मूंछों पर ताव दे रहा था.

ऊपर और कोई नहीं था, चंदसेन की पत्नी का पहले ही देहांत हो चुका था.

एक बार तो वह झिझकी…फिर होंठों को दांतों से इतनी जोर से दबा दिया कि खून झलक आया था…

जीने में चढ़ती हुई, वह मानो नीम- बेहोशी में चली जा रही हो. सीढि़यां उसे जलती हुई, धधकती अंगारों की सिगड़ी सी लग रही थीं. पर वह शांत थी.

‘‘आ…ओ,’’ एक खनकती आवाज ने उस का स्वागत किया.

‘‘आप ने मुझे याद किया,’’ वह शांत स्वर में बोली थी.

‘‘हां, आप तो हमारी भाभी हैं, देवर और भाभी का बहुत पुराना रिश्ता होता है,’’ वह बोला.

संगीता चुप ही रही.

‘‘बैठो,’’ उस ने इशारा किया.

वह बैठ गई.

‘‘हंसा त्यागी को तो अभी जौइन करने से रोक दिया है. वह भी आ गई थी, पर तुम्हारी बात और है. मैं ने तो तुम्हें जब पहली बार देखा था तभी से घायल हो गया था. तबादला जहां चाहो, वहां करा दूंगा. मंत्रीजी अपने ही हैं,’’ वह बात करताकरता उस के पास खिसक आया था…उस ने हाथ को हलकी गोलाई में घुमाया, अब उस का हाथ उस के वक्ष तक खिसक आया था.

पर वह शांत थी.

वह अचानक उठ खड़ा हुआ और झटके से दीवान की तरफ उसे खींचा, वह खिंचती चली गई.

‘‘सुभाष ने तुम्हें क्या दिया  होगा…वह तो मेरे साथ पढ़ा है, ढीलाढाला सा और तुम बहुत सुंदर हो.’’

वह चुप रही.

उस ने फिर अपनी मूंछों पर ताव दिया और मजबूत पकड़ के साथ उसे अपनी बांहों में लेना चाहा.

पर तब तक संगीता ने अचानक अपना हाथ साधा और मुक्का बनाते हुए, उस की जांघों के बीच में जोरदार प्रहार किया. बरसों के बाद जूडो क्लास की सीख, प्रयोग में आ गई थी.

‘‘अरे, मार डालेगी…मुझे…हराम…’’ वह चीखा.

उस की मजबूत कलाई की पकड़ ढीली पड़ चुकी थी. वह दीवान पर हकबका सा लेट गया था. उस का पौरुष बर्फ सा पिघल रहा था. उधर, संगीता घायल शेरनी सी पूरी ताकत

से अपनी दाईं टांग उठा कर उस की दोनों जांघों के बीच में प्रहार कर चुकी थी.

तेज दर्द से वह चीख रहा था.

उस की आंखें लाल हो गई थीं. उस ने दीवान के नीचे रखा डंडा उठाना चाहा, पर संगीता की निगाहें तेज थीं. वह झपटी, उस ने डंडा छीना और उस की जांघों के बीच में दनादन प्रहार करती रही.

‘‘बचाओ, बचाओ,’’ वह चीख रहा था.

‘‘ले, कर तबादले, मंत्री के चमचे, पैसा चाहता है, मेरी देह चाहता है. तू साले कहीं का नहीं रहेगा, मैं यहीं रहूंगी…समझा…नहीं तो पूरे शहर में तेरा मुंह काला कर दूंगी. अभी तो अपना इलाज करा, महीनों डाक्टर के यहां चक्कर लगाता फिरेगा…थू…’’ उस ने उस के चेहरे पर थूक दिया, ‘‘तू मेरा देवर बना था, तू ने ही कहा था, तभी छोड़ दिया नहीं तो…’’

चंद्रसेन दर्द से कराह रहा था. दर्द से उस की आंखों में आंसू आ गए थे. वह अपने मोबाइल को तलाश करना चाह रहा था.

‘‘जा, कुछ दिन आराम कर, पर याद रखना, मैं यहीं रहूंगी, तेरी भाभी जो हूं,’’ और वह जीने से नीचे उतर आई थी. बाहर पेड़ के नीचे वही पान वाला खड़ा था.

‘‘भाभीजी आप,’’ वह कुछ कह पाता, इस से पहले संगीता बोल पड़ी, ‘‘जा, ऊपर चला जा, तेरे गुरुजी बीमार हैं, बहुत बीमार हैं, एंबुलेंस बुला ले, तुरंत अस्पताल ले जा, मैं तो उन्हें ही देखने आई थी, वे तुझे ही याद कर रहे हैं.’’

सामने देखा, जिस गली में वह पहले रहा करती थी, एक बूढ़ा सांड कूड़ेकचरे पर बैठा हुआ जुगाली कर रहा था.

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