विविधता से परिपूर्ण हमारे देश में भांतिभांति के अजूबे पाए जाते हैं. हमारी हर बात निराली होती है. लेकिन हमारे देश की संस्कृति में एक अजूबा चरित्र ऐसा भी है, जो भारत की विविधताओं में एकता का गुरुतर भार अपने कंधों पर सदियों से ढोता आ रहा है.
कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक संपूर्ण भारतवर्ष में यह जीव सर्वत्र नजर आता है. इस अद्भुत चरित्र का नाम है सास. प्रादेशिक भाषाओं में इसे सासू, सास, सासूमां अथवा अन्य किसी संबोधन से पुकारा जाता है, लेकिन इस का मुख्य अर्थ है पति की माताश्री, जिन्हें आदर के साथ सास कहा जाता है. वैसे पत्नी की माताश्री भी जंवाई राजा की सास कहलाती है, लेकिन वह सास का गौणरूप है.
सास का मुख्य और अहम स्वरूप पति की माता के रूप में अधिक वर्णनीय है. यह चरित्र सरल भी है, खासा जटिल भी. जलेबी की तरह सीधा भी है तो करेले की तरह मीठा भी, यह नमक की तरह खारा भी है तो स्वाद का राजा भी.
यदि दुनिया की गूढ़ पहेलियों की बात की जाए तो सास की पहेली सब से ज्यादा जटिल नजर आती है. बीजगणित के जटिल समीकरण आसानी से हल हो सकते हैं, लेकिन सासबहू के समीकरण को समझना और हल करना हम जैसे तुच्छ प्राणी के वश की बात नजर नहीं आती है. हमें उम्मीद नहीं लगती कि कभी कोई विद्वान 36 के ऐसे आंकड़े के रहस्य से परदा उठा पाएगा. सासबहू के विवाद का हर गृहस्थी को सामना करना पड़ता है.
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सास शब्द की उत्पत्ति पर विचार करना भी कठिन है. यदि व्याकरण के नियमों और सिद्धांतों को ताक पर रख कर हम थोड़े व्यावहारिक दृष्टिकोण से चिंतन करें तो प्रतीत होता है जैसे सृष्टि को नियंत्रित करने के लिए ही इस जीव विशेष की रचना हुई होगी. सास शब्द निश्चय ही श्वास से जुड़ा होगा. हमारे अनुसार सास की सरल परिभाषा अथवा भावार्थ यह हो सकता है कि सास वह होती है, जो सांसों को नियंत्रित करने का जिम्मा उठाती है. सासबहू के संबंध गृहस्थी की नींव होते हैं, इसलिए एक गृहस्थ की सांसें इस नींव पर ही टिकी रहती हैं. सासें विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं. इन के गुणधर्म और आचारव्यवहार के आधार पर हम ने इन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभाजित कर के समझने का प्रयास किया है.
उपयोगिता की दृष्टि से सकारात्मक सोच वाली सासें अपनी बहू के लिए एक आदर्श और मजबूत संबल होती हैं, तो नकारात्मक भूमिका वाली सासें गृहस्थी का बंटाढार करने के लिए जगतप्रसिद्ध हैं. सासें चाहें तो घर की बागडोर को अच्छी तरह हैंडल कर सकती हैं तथा नईनवेली बहुओं के लिए आदर्श प्रशिक्षिका भी साबित हो सकती हैं, जिस में सारे परिवार का उद्धार निहित है.
पहली श्रेणी उन सासों की है, जो अकसर बड़बड़ करती रहती हैं. इस श्रेणी की सासों को ‘बकबक सासें’ कहा जा सकता है. उन का पहला और आखिरी काम होता है बहुओं के क्रियाकलापों पर टीकाटिप्पणी करना. ऐसी सासें जब चाहें तब तिल का पहाड़ बना कर विस्फोट करा सकती हैं. उन का खून गरम होता है, अत: तापमान को ज्वलनशीलता की ओर अग्रसर करना उन के बाएं हाथ का खेल होता है. बहुओं की छोटी से छोटी बात पर भी पैनी नजर रखना उन की सामान्य आदत होती है. मीनमेख निकालने की कला में वे दक्ष होती हैं. संभवत: इसी क्रिया द्वारा उन का भोजन पचता है. साधारणतया इस श्रेणी की सासों के वार्तालाप का मुख्य विषय भी बहू पर ही केंद्रित होता है. ऐसी सासें अपनी बहुओं के दोषों का बखान करते कभी नहीं थकतीं. उन की अपनी बहुओं से हमेशा तनातनी चलती रहती है. ऐसी सासें सब से ज्यादा संख्या में पाई जाती हैं.
दूसरे प्रकार की सासों को ‘सौम्य सासें’ कहा जा सकता है. वे गऊछाप सासें होती हैं, इसलिए उन की प्रकृति बहुओं पर दोष मढ़ने की नहीं होती, बल्कि उन्हें प्यार से समझा कर उन की गलतियों को सुधारने की होती है. लेकिन ऐसी सासों का अकसर अकाल ही रहता है. ऐसी सासों का पाला अगर ‘हू हू’ किस्म की यानी डरावनी बहू से पड़ जाए तो वे दहेज के झूठे इलजाम में हवालात की गौशाला में भी बंधी नजर आ सकती हैं.
तीसरी श्रेणी की सासें ‘पहलवान टाइप’ होती हैं. वे अपने बाहुबल के प्रदर्शन का अवसर कभी नहीं चूकती हैं. मौका मिलते ही थप्पड़ जड़ना उन का शगल होता है. लेकिन वरीयता क्रम में पिछड़ी इन सासों की लोकप्रियता आधुनिक युग में बड़ी तेजी के साथ घटती जा रही है. वर्तमान कानून और प्रतिबंध उन की वंशवृद्धि में बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं. ऐसी सासों को शास्त्रीय अथवा क्लासिकल सासें कहना भी उचित होगा.
एक जमाना था जब ऐसी सासों ने बौलीवुड की फिल्मों में धाक जमाई हुई थी. ललिता पवार को ऐसी सास के अभिनय ने लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचा दिया था. ऐसी सासों से बहूबेटे ही नहीं बल्कि पूरा महल्ला डरा करता था. लेकिन अब ऐसे रोबदाब वाली सासों के दिन लद गए हैं. उन का स्वर्ण युग इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गया है. अलबत्ता दहेज कानूनों ने इस ब्रैंड की बहुओं की फौज जरूर खड़ी कर दी है.
चौथी श्रेणी में ‘चुगलबाज सासों’ को रखा जा सकता है. उन का प्रिय शौक चुगलबाजी करना होता है. अत: अपने घरपरिवार की बातें मीडिया की तरह जनसाधारण तक पहुंचाने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता है. उन की रिपोर्टिंग के आगे इलैक्ट्रौनिक अथवा प्रिंट मीडिया भी फेल साबित होता है. आज बहू कब सो कर उठी अथवा सब्जी में नमक ज्यादा था या कम जैसी महत्त्वपूर्ण खबरें हजारों मील दूर बैठे रिश्तेदारों को सहज ही पता चल जाती हैं.
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5वीं श्रेणी ‘फरमाइशी सासों’ की है. कारण, उन की फरमाइशें कभी पूरी नहीं होती हैं. बहुओं से उन की फरमाइशें हमेशा चलती रहती हैं. ऐसी सासें दहेज से कभी संतुष्ट नहीं दिखतीं. उन्हें पूंजीवादी सासें भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन की सारी चिंता पूंजी पर केंद्रित रहती है.
छठे वर्ग की सासों को ‘समाजवादी सासें’ कहना उचित होगा. उन्हें हमेशा समाज की चिंता सताती रहती है. उन्हें हमेशा डर रहता है कि पता नहीं बहू कब उन की प्रतिष्ठा की नाक समाज में कटवा डाले, किसी ने देख लिया तो लोग क्या कहेंगे जैसे जुमले उन के मुंह पर हमेशा चढ़े रहते हैं. ऐसी सासें हमेशा अपनी बहुओं के कृत्यों और उन के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकनविश्लेषण करती प्रतीत होती हैं.
7वीं श्रेणी में ‘शिकायतप्रधान सासें’ आती हैं. वे मुंह पर थप्पड़ की तरह अपनी शिकायतें दागती रहती हैं. ऐसी सासों को झेलने के लिए जरूरी है कि बहुएं अपने कानों में हमेशा रुई ठूंस कर रखें अथवा सास की बात को एक कान से सुनें और दूसरे से निकाल दें.
8वीं श्रेणी ‘भक्तिप्रधान सासों’ की है. उन का ज्यादातर समय बहू पुराण पर बतियाते हुए पूजापाठ करने, माला जपने या भजनकीर्तन करने में व्यतीत होता है. उन के शरीर में कभीकभी सास की ओरिजनल फौर्म भी अवतरित होती रहती है. बहू के कारनामों के टर्निंग पौइंट से वे भी मुक्त नहीं होतीं. माला घुमाते वे बहू को हुक्म देने के विस्फोटक बीज मंत्रों का उच्चारण भी करती रहती हैं.
लेकिन यह तथ्य भी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में आधुनिकता के दौर में सासों की दशा बेहद खराब है. हम दो हमारे दो के फैशन में एकल परिवारों में सासससुर अवांछित सदस्य समझे जाने लगे हैं.
अतीत के आक्रामक रूप से पिछड़ कर अब सास सुरक्षात्मक भूमिका तक सीमित हो गई है. अब वह जमाना भी कहां रहा जब सास की झिड़कियों को प्रसाद समझ कर बहुएं उन पर अमल करती थीं. सासों को सर्वत्र आदरसम्मान प्राप्त था. वर्तमान तो ‘जैसे को तैसा’ का युग है, इसलिए बदले जमाने में तो सासों का शास्त्रीय रूप दुर्लभ होता जा रहा है.
यह भी सत्य है कि सासबहू की खटपट कभी खत्म नहीं होती, उन का कोल्ड वार जारी रहता है. बहू हो या जंवाई राजा, उन्हें अपनीअपनी सासूमां की अंतहीन शिकायतें सुननी ही पड़ती हैं. शीत युद्ध लड़ना उन की विवशता होती है, वे चाहे मीठीं हों या कड़वी. समाज का तानाबाना ही ऐसा बुना गया है कि आमतौर पर उन्हें नाराज करने का रिस्क कोई नहीं लेता.
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फिलहाल सासों की शोचनीय हालत से लगता है कि उन्हें सरकारी संरक्षण की जरूरत पड़ने वाली है. ‘सेव टाइगर’ की तरह ‘सेव मदर इन ला’ की योजना सरकार को लांच करनी पड़ेगी, क्योंकि यदि यही हाल रहा तो सास धीरेधीरे अपना मूल स्वरूप खो कर अतीत की धरोहर मात्र रह जाएगी.