सफेद जूते: बसंत ने नंदन को कैसे सही पाठ पढ़ाया?

‘हा…हा…हा…इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते?’ नंदन और संदीप के ठहाकों के शोर में बसंत की आह दब गई.  बसंत धीरेधीरे बरसात के धुले कंकड़ों की चुभन जसेतैसे सहता हुआ उन के पीछेपीछे चल रहा था.

‘काश, मेरे पिता जीवित होते,’ बसंत सोचने लगा.

‘बसंत भाई, तेरा वह जो पार्ट टाइम बाप है न, जूते ला कर नहीं देता, हा… हा…हा…’ उस के कंधे पर हाथ रख कर नंदन ने कहा.

‘उफ, यह बरसात क्यों इस तरह इन कंकड़ों को नुकीला बना जाती है,’ बसंत मन ही मन बुदबुदाया, ‘मैं इस पगडंडी में एक भी कंकड़ नहीं रहने दूंगा. मेरे घर के आंगन तक कोलतार वाली सड़क होगी. जब मैं कार से उतरूंगा तो कारपेट बिछी सीढि़यों पर चढ़ता हुआ सीधे अपने कमरे में घुस जाऊंगा. तब मेरे सफेद जूतों पर धूल भी नहीं लगेगी,’ एक जबरदस्त ठोकर लगी तो उस के अंगूठे का नाखून बिलकुल खड़ा हो गया. थोड़ी देर के लिए आंखें बंद हो गईं, चेहरा सिकुड़ गया. हाथ खड़े हुए नाखून पर लगा और एक झटके से उस ने नाखून उखाड़ कर दूर फेंक दिया. आंखें खुलीं तो वह अपने घर की टूटी सीढि़यों पर बैठा था.

देहरी पार करते ही देखा, जहांतहां रखे बरतनों में टपटप पानी टपक रहा था. मां गीली लकडि़यों को बारबार फूंक रही थीं.‘मां, आंखें लाल होने तक इन गीली लकडि़यों को क्यों सुलगाती रहती हो? ये नहीं जलेंगी,’’ बसंत झल्लाया.

तभी टप से एक बूंद चूल्हे में टपकी और राख भी गीली कर गई. मां फिर गीली लकडि़यों को सुलगाने लगीं.

‘‘रहने दो मां, ये गीली लकडि़यां नहीं जलेंगी,’’ वह फिर बोला.

‘‘बासी भात गरम कर दूंगी, बेटा,’’ मां चूल्हा फूंकते हुए बोलीं.

‘‘मैं ठंडा ही खा लूंगा, मां,’’ बसंत ने तश्तरी अपनी ओर खिसका ली.

मां टुकुरटुकुर बेटे को देखे जा रही थीं. ‘कितना सुख मिलता है बेटे को पास बैठा कर खिलाने में,’ वे सोचने लगीं.

अंधेरा घिरने लगा था. बसंत खिड़की के पास बैठा सोच रहा था, ‘काश, मेरे पिताजी भी जीवित होते, मैं सफेद जूते पहन कर स्कूल जाता, नंदन व संदीप के साथ खेलता…’

‘‘उदास क्यों बैठा है बेटा, आज पढ़ेगा नहीं क्या?’’

‘‘पढ़ंगा, मां,’’ बसंत ने 2 छिलगे (मशाल जलाने की लकड़ी) जला कर गीली लकडि़यां सुखाईं और छिलगों की रोशनी में पढ़ने लगा. परंतु उस का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था. उस के पैरों के तलवों में जलन हो रही थी. वह एकाएक अपनी मां से सवाल कर बैठा, ‘‘वह ड्राइवर चाचा हमारे यहां क्यों आते हैं, मां?’’

‘‘हमारी देखभाल करने आते हैं, बेटा,’’ जवाब दे कर वे अपने काम में व्यस्त हो गईं.

थोड़ी देर तक बसंत अपनी मां की ओर ही ध्यान लगाए बैठा रहा. शायद उसे विस्तृत उत्तर की आशा थी. मां को व्यस्त देख कर वह पुस्तक के पन्नों को उलटपलट करने लगा, लेकिन उस का मन बिलकुल नहीं लग रहा था. मन में कई सवाल कुतूहल मचा रहे थे. नंदन की छींटाकशी उस के कानों में बज रही थी.

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‘‘पिताजी को क्या हो गया था?’’ बसंत फिर सवाल कर बैठा.

‘‘तुझे आज क्या हो गया है, बेटा? तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ मां बोलीं.

‘‘ऐसे ही, मुझे पता होना चाहिए न, मैं अब बड़ा हो गया हूं.’’

‘‘आया बहुत बड़ा…’’ मां उस के गाल पर थपकी देते हुए मुसकरा दीं.

‘‘बताओ न मां?’’

कुछ देर के लिए मौन छा गया और फिर अतीत के उस कभी न भर सकने वाले घाव से टीस सी उठने लगी…  ‘‘बरसात के दिन थे. शाम के वक्त बाहर जोरों से पानी बरस रहा था. नदीनाले सभी उफन रहे थे. मैं इसी खिड़की के पास खड़ी घबरा रही थी. तुम्हारे पिता मवेशियों को लेने गए हुए थे. मुझे उन पर पूरा भरोसा था. फिर भी न जाने क्यों जी घबरा रहा था. बारिश कम हुई तो मैं भी बोरी सिर पर ओढ़ कर निकल पड़ी.  ‘‘अभी नालों का उफान कम नहीं हुआ था. मैं नाले के इस ओर से तुम्हारे पिता को इशारों से बता रही थी कि अभी पानी तेज बह रहा है. थोड़ी देर वहीं रुके रहो, लेकिन वे फिर भी मवेशियों को नाला पार कराने की कोशिश कर रहे थे. एक बैल बहुत ताकतवर था. किसी तरह वे उस की पूंछ पकड़ कर आधे नाले तक पहुंच गए. बैल का केवल सिर ही पानी से बाहर था. वह आगे बढ़ना नहीं चाह रहा था, लेकिन तुम्हारे पिता उस की पूंछ पकड़ कर आगे धकेले जा रहे थे. वह पीछे की ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने छाता आगे की ओर झटका. बैल ने बिदक कर छलांग मार दी और पानी में लुप्त हो गया. तुम्हारे पिता उस के पीछे ही थे. बस फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं जमीन पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद उन का छाता दूर पानी की हिलोरों के साथ दिखाई दिया और…’’ यह सब बताते हुए मां एकाएक रोआंसी हो गई थीं.

‘‘मां की गोद में सिर टिकाए बसंत की नजरें अतीत में खोई मां की आंसू भरी आंखों को निहार रही थीं. वह एक हाथ से पैरों के तलवों को खुजला रहा था. मां ने पल्लू से आंसू पोंछे और बेटे के सिर पर हाथ फेरने लगीं. कुछ देर के लिए मौन छा गया. बसंत को तलवे खुजलाते देख उन की नजरें बेटे के पैरों पर पड़ीं, ‘‘ओह, यह क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘कुछ नहीं मां. जूते नहीं हैं न, बरसात में पैर मसक गए हैं.’’

‘‘जूते ला दूंगी, बेटा,’’ उन्होंने एक असहाय सा आश्वासन अपने बेटे को दे दिया.

‘‘कब ला दोगी, मां?’’ बसंत के माथे पर सलवटें आ गईं.

‘‘बेटा, अब सड़क का काम शुरू हो गया है न, तेरे ड्राइवर चाचा ने कंकड़ तोड़ने का काम दिला दिया है. पैसे मिलेंगे तब ला दूंगी,’’ बेटे के सिर पर थपकियां देदे कर वे अपनेआप को तसल्ली दे रही थीं.

‘‘तब तक तो बरसात खत्म ही हो जाएगी, मां.’’

‘‘बेटा, सर्दियां आ जाएंगी न, उन दिनों स्कूल जाने में पैरों में ठंड लगेगी, इसलिए जूते चाहिए. आजकल तो गरमी है, क्या जरूरत है जूतों की? चल, सो जा, बहुत रात हो गई है.’’

बिस्तर में करवटें लेते हुए उस का कभी मां की असहाय अवस्था के साथ समझौता करने का मन करता तो कभी नंदन व संदीप की ठिठोली पर विद्रोह करने का. वह करवटें बदलते हुए कुछ न कुछ निर्णय करने पर तत्पर था.

‘‘उठो बसंत, सुबह हो गई. स्कूल जाना है कि नहीं?’’ मां घर का काम निबटाते हुए बोले जा रही थीं.  वह उठ कर बैठ गया, उस की उनींदी आंखें भारी हो रही थीं.

‘‘आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगा, मां,’’ वह जम्हाई लेते हुए बोला.

‘‘क्यों बेटा, क्या तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है मां, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा है.’’

‘‘ठीक है बेटा, जैसी तेरी इच्छा,’’ मां बसंत को नाश्ता दे कर खेतों की ओर चल दीं.  खेतों से लौट कर आईं तो चूल्हे के पास हुक्के से दबा हुआ एक कागज मिला, जिस में लिखा था :

‘‘मां,

मैं अब बड़ा हो गया हूं. तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं नौकरी करूंगा. मैं नौकरी ढूंढ़ने जा रहा हूं्. मां, मेरी चिंता मत करना. हां, मैं ड्राइवर चाचा से 40 रुपए ले कर जा रहा हूं, घर आ कर लौटा दूंगा. मैं जल्दी लौट आऊंगा. मां, अपना खयाल रखना.
-तुम्हारा बेटा,
बसंत.’’

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मां परेशान हो गईं. 1 महीना बीतने पर भी बसंत की कोई खबर न आई. फिर करीब डेढ़ महीने बाद डाकिए को अपने घर की ओर आता देख कर हाथ का काम छोड़ कर वे आगे बढ़ीं, ‘‘किस की चिट्ठी है, मेरे बसंत की? पढ़ तो…क्या लिखा है?’’

‘‘चाची, पहले मुंह मीठा करवाओ,’’ डाकिया मुसकराते हुए बोला.

‘‘कराऊंगी, जरूर कराऊंगी, पहले चिट्ठी तो पढ़,’’ गीले हाथ पोंछती हुई वे बोलीं.

‘‘चिट्ठी ही नहीं चाची, मनीऔर्डर भी आया है,’’ डाकिया ऊंचे स्वर में बोला.

‘‘मनीऔर्डर?’’ उस के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं थे.

बसंत ने 400 रुपए भेजे थे और लिखा था, ‘‘मां, प्रणाम. अपने पहले वेतन में से 400 रुपए भेज रहा हूं. मैं एक दफ्तर में चपरासी बन गया हूं. मुझे बहुत अच्छे साहब मिले हैं. शाम को स्कूल भी जाता हूं. मेरी चिंता मत करना, मैं जल्दी घर आऊंगा.
-बसंत.’’

साल दर साल बीतते गए. मां पास- पड़ोस, रिश्तेदारी में बसंत के मनीऔर्डर की ही बातें बताती रहतीं. वे बसंत की चिट्ठियां गले लगाए रखतीं और सोचती रहतीं, ‘मेरा बसंत घर आएगा तो कितना खुश होगा. गांव में मोटर आ गई, घर की छत भी पक्की बना दी, बिजली लग गई,’ और वे मन ही मन मुसकराती रहतीं.  बसंत 3 साल बाद 1 महीने की छुट्टी बिता कर के शहर जाने की तैयारी कर रहा था. रात भर बरसात होती रही थी.

‘‘मां, सामान उठाने के लिए किस से बोला था, अभी तक आया नहीं?’’ खीजते हुए वह बोला.

‘‘नंदन आता ही होगा बेटा, अभी तो समय है,’’ मां रसोई में खटरपटर करती हुई बोलीं.

‘‘नंदन…कौन नंदन?’’

‘‘अरे, भूल गया? शिकायत तो उस की खूब करता था, बचपन में,’’ मुसकराती हुई वे बोलीं.

‘हां, संदीप, कल्याण, अरुण, पंकज सभी तो मिले थे. बस, एक नंदन ही नहीं मिला. मैं भी कैसा पागल हूं, किसी से पूछा भी नहीं उस के बारे में,’ वह मन ही मन सोचता रहा.

‘‘बड़ी देर कर दी, नंदन बेटा…’’ अचानक कमरे से मां की आवाज सुनाई दी.

‘‘देर हो गई चाची, रात बहुत बारिश हुई न, घर में पानी घुस गया था. बस, इसी से देर हो गई,’’ वह सामान की ओर देखते हुए बोला.

‘‘अरे, नंदन भैया, तुम तो दिखाई ही नहीं दिए, कहां रहे? ठीक तो हो?’’ बसंत उस से गले मिलते हुए बोला.

‘‘ठीक हूं भैया, घरगृहस्थी का जंजाल जो ठहरा, कहीं आनाजाना ही नहीं होता… तुम सुनाओ, कैसे हो?’’

‘‘बस देख ही रहे हो…जा रहा हूं आज.’’

‘‘नंदन बेटा, नाश्ता कर ले, बातें रास्ते में करते रहना. समय हो रहा है, गाड़ी निकल न जाए,’’ मां बोलीं.

‘‘चाची, मैं पहले बसंत भैया को छोड़ कर आता हूं, फिर वापस आ कर नाश्ता कर लूंगा.’’

नंदन सामान उठाए आंगन में बसंत का इंतजार कर रहा था. बसंत ने देखा कि नंदन नंगे पांव है. उसे अपना बचपन याद आने लगा और वह कई वर्ष पीछे चला गया.

‘‘चलो बसंत भैया, समय हो रहा है,’’ नंदन की आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘नहीं, नंदन भैया, बरसाती कंकड़ बहुत नुकीले होते हैं…यह बैग जरा मुझे देना,’’ बसंत गंभीरता से बोला. उस ने बैग से अपने सफेद जूते निकाले और नंदन को पहना दिए.  नंदन बस अड्डे पहुंच कर जूते उतारने लगा तो बसंत ने उस का हाथ रोक दिया, ‘‘नहीं, नंदन भैया, मैं ने उतारने के लिए नहीं दिए हैं, पहने रहो. मेरे पास दूसरी जोड़ी है.’’

नंदन उसे एकटक देखते हुए अतीत में खो गया, ‘इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते…हा…हा…हा…’ उस के कानों में बहुत दूर से गूंज सी सुनाई दी.  बस धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी और धूल उड़ाती हुई आंखों से ओझल हो गई. नंदन सफेद जूते पहने खड़ा हुआ शर्म महसूस कर रहा था. जूते उतार कर उस ने बगल में दबाए और घर की ओर चल दिया.

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