लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
चलते समय एक बार और अंशिका के कंधे, सिर और गाल पर हाथ फेरता हुआ बनवारी चला गया.
पर, आज उसे न जाने क्यों बनवारी अंकल की नीयत में खोट नहीं दिखाई दिया. उसे तो औफिस इंचार्ज वाली कुरसी दिखाई दे रही थी.
फिर कंधे, सिर और गाल पर तो उस के पापा भी हाथ फेर लिया करते थे.
अगले दिन 2 बजे तक अंशिका अपने सारे प्रमाणपत्र फाइल में रख कर तैयार हो कर ड्राइवर का इंतजार कर रही थी. बहुत दिनों बाद जिस ढंग से उस ने मां के कहने पर उन की सुंदर सी साड़ी पहन कर अपने को सजायासंवारा था, उस से उस की सुंदरता इतनी निखर आई थी कि मां को उसे अपने पास बुला कर उस के कान के पीछे काजल का टीका लगा कर कहना पड़ा, “मेरी ये साड़ी पहन कर तू कितनी सुंदर लग रही है. मेरा ब्लाउज भी तुझे एकदम फिट आया है. तू तो शादीलायक हो गई है. काश, तेरे पापा और भैया…” कहतेकहते कुमुद रोने लगी.
अंशिका ने पास जा कर मां को संभाला. मुझे रो कर इंटरव्यू के लिए भेजोगी, तो मैं पास होने से रही. और मां रोने से होगा क्या… दिन में कितनी बार रोरो कर तुम अपना बुरा हाल…
अंशिका इतना ही कह पाई थी कि किसी ने बाहरी दरवाजा खटखटाया. अंशिका समझ गई कि उसे लेने बनवारी अंकल का ड्राइवर आ गया है.
उस ने जा कर दरवाजा खोला. जुगल ही था. सजीधजी अंशिका को देख कर वह ठगा सा खड़ा रह गया. ऐसी ही तो पत्नी पाने की चाह वह रखता था. और ये उस सियार के पास नौकरी पाने के लिए इंटरव्यू देने जा रही है, जो कई मजबूर जीवों का खून चूस कर छोड़ चुका है.
उसे अपनी ओर अपलक यों देखता पा कर अंशिका बोली, “अरे जुगल, मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो? क्या कभी साड़ी पहने लड़की नहीं देखी…?”
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तभी कुमुद बाहरी दरवाजा बंद करने के इरादे से अंशिका के पीछे आ कर खड़ी हो गई. उन्होंने पूछा, ”क्या हुआ बेटी?”
“कुछ नहीं मां. जुगल किशोर नाम का यह ड्राइवर मुझे लेने आया है. मैं जा रही हूं. तुम ठीक से दरवाजा बंद कर लो.”
कुमुद को देखते ही जुगल ने हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्ते की, फिर अंशिका को अपने साथ वाली आगे की सीट पर बैठा कर कार को आगे बढ़ा ले गया.
यों तो अंशिका वाले घर से संस्था के औफिस तक का रास्ता बमुश्किल 30 मिनट का था, लेकिन जुगल ने थोड़े लंबे वाले रास्ते पर कार को मोड़ दिया, तभी अंशिका पूछ बैठी, “बनवारी लालजी वाला सेवा संस्थान का औफिस यहां से कितनी दूर है?”
“रीवा के न्यू टाउन आउटर इलाके में कृषि विकास प्राधिकरण के नवनिर्मित भवन के पास,” ड्राइवर जुगल ने बताया.
“लेकिन, वहां पहुंचने के लिए पीछे एक टर्न भी तो था, जिसे तुम ने छोड़ दिया. उस से मुड़ते तो हम थोड़ा जल्दी पहुंच जाते.”
“अरे, आप तो यहां के रास्तों से खूब परिचित हैं.”
“सालों से यहां रह रही हूं. यहीं पढ़ीलिखी हूं. खूब परिचित हूं रास्तों से.”
“रास्तों से भले ही परिचत हों, लेकिन आप यहां के इनसानों से परिचित नहीं हैं.”
“क्या मतलब है तुम्हारा…?
“मैं सीधेसीधे यह कहना चाहता हूं कि मेरा दिल आज से आप को चाहने लगा है. जिसे मेरा दिल चाहता है, उसे दलदल की तरफ जाने से रोकना मेरा कर्तव्य है.”
“तुम्हारे कहने का मतलब क्या है…?”
“मेरे कहने का मतलब यही है कि जिस बनवारी लाल के पास आप इंटरव्यू देने जा रही हैं, वह सफेदपोश भेड़िया है. न जाने कितनों का शोषण कर के वह उन की जिंदगी बरबाद कर चुका है. मैं अब किसी और की जिंदगी बरबाद होते नहीं देख सकता.”
“पहले मेरी भी उन के प्रति यही धारणा थी. तुम ने शायद सुनीसुनाई बातों पर विश्वास कर रखा है. मेरे पापा के वे तबके दोस्त हैं, जब मैं 14 साल की थी. वे मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं करेंगे. मैं उन के पास जा कर इंटरव्यू अवश्य दूंगी,” अंशिका अपनी बात पर अड़ गई.
आखिरकार ड्राइवर जुगल को बनवारी लाल नाम के सफेद सियार की मांद में अंशिका को भेजना पड़ा. लेकिन सावधानीवश उस ने वहां के गार्ड शुभम को फोन कर के कुछ निर्देश दे दिए.
इसलिए अंशिका का इंटरव्यू लेने के बहाने जब बनवारी लाल ने उसे साउंडप्रूफ केबिन के अंदर बने एक और केबिन में ले जाने से पहले शुभम को इंसट्रक्शन दिए, ”तुम बाहर ‘डू नोट डिस्टर्ब’ का बोर्ड लगा दो. और जब तक इंटरव्यू खत्म न हो जाए, किसी को भी अंदर मत आने देना.”
आज इंपोर्टेंट इंटरव्यू के बहाने से उन्होंने गार्ड को छोड़ कर सभी स्टाफ को छुट्टी दे रखी थी.
उधर, 10-15 मिनट ही बीत पाए थे कि बाहर से तेज कदमों से चलता हुआ ड्राइवर जुगल आया और शुभम के पीछे बाहर वाले केबिन के कांच के दरवाजे को धकियाता हुआ फिर अंदर वाले केबिन का दरवाजा लात, फिर कंधे की मदद से तोड़ता हुआ अंदर पहुंच गया. पीछेपीछे गार्ड शुभम भी था.
अंदर डरीसहमी, घबराई सी अंशिका बदहवास एक कोने में पेटीकोटब्लाउज में खड़ी थी. उस की साड़ी एक तरफ उतरी पड़ी थी. ऐसा लग रहा था, अपनी इज्जत बचाने के लिए वह सघर्ष करने में जुटी पड़ी थी.
ड्राइवर जुगल को देखते ही अंशिका उस के पास आ कर लिपटते हुए बोली, “तुम सही कह रहे थे कि ये अंकल नहीं भेड़िया है. उधर अंडरवीयर और बनियान में ही अपना सफेद कुरतापाजामा उठा कर केबिन से बाहर जाने की फिराक में बनवारी को दरवाजे की तरफ सरकता देख गार्ड शुभम ने दरवाजा अंदर से बंद कर जुगल के साथ सोने के मूठ वाली छड़ से तब तक तुड़ाई की, जब तक उस ने कह नहीं दिया कि आज से वह किसी की भी इज्जत से खिलवाड़ नहीं करेगा.
अंशिका के पैर छू कर माफी मांगते हुए वह जुगल और शुभम के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा होते हुए बोला, “तुम दोनों इस बात को अपने तक ही रखना. मैं कल ही अंशिका के नाम वो वाला घर कर दूंगा और इस औफिस का भार भी उसे सौंप देता हूं.”
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कुछ देर बाद सब उस केबिन से इस तरह बाहर निकले, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
अंशिका ने अपने को संवार लिया था और बनवारी लाल पिटने के बाद भी सामान्य सी अवस्था में बाहर आ कर अपनी रिवाल्विंग चेयर पर बैठते हुए अंशिका के लिए पहले से ही टाइप किए हुए अपायंटमेंट लैटर पर साइन करने में जुट गया.
ड्राइवर जुगल के साथ कार से वापस लौटते समय अंशिका ने कार एक सन्नाटे वाले पार्क के गेट पर रुकवा ली, फिर अंदर एक मोटे तने वाले पेड़ की आड़ में जुगल के आलिंगन में बंधते हुए वह बोली, “तुम मुझे आप नहीं अंशिका कह कर बुलाया करो. आज मेरी इज्जत तुम ने बचाई है. तुम्हारा प्यार और नई जिंदगी पा कर मैं धन्य हो गई.
“पर, एक बात बताओ, बनवारी अंकल ने मुझे अपायंटमेंट लेटर तो दे दिया है, लेकिन फिर उस की नीयत बिगड़ी तो…?”
“तुम पर क्या, अब तो किसी पर भी उस ने बुरी नजर डाली तो इस से भी ज्यादा हम उस की तुड़ाई करेंगे.”
“और उन्होंने तुम्हारे खिलाफ कोई केस बना कर जेल भिजवा दिया तो…?”
“अव्वल तो चरित्र से कमजोर और भ्रष्ट आदमी को अपनी इज्जत की चिंता ज्यादा रहती है, इसलिए वे किसी को फंसाने के बजाय अपने को बचाए रखने में ही भलाई समझता है.
“बनवारी के खिलाफ हम ने इतने सुबूत इकट्ठा कर रखे हैं कि वे हमें नहीं, बल्कि हम उन्हें जेल भिजवा सकते हैं.”
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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
अंशिका जो बड़े ध्यान से अब तक जुगल की बातें सुन रही थी, अचानक पूछ बैठी, “अच्छा जुगल, एक बात बताओ. तुम इतने उदास और गंभीर क्यों रहते हो?”
“इन सब के पीछे लंबी दास्तान है. शोषण, स्वार्थ और सफेदपोश दिखने वाले लोगों से मैं जितनी नफरत करता था, आज उन्हीं के बीच मजबूरी में ये नौकरी कर रहा हूं. मैं ही नहीं मेरा भाई शिवम, जो उन के औफिस या यों कहो कि पर्सनल सिक्योरिटी में रातदिन लगा रहता है. वह तो इन की काली करतूतें देख कर खून का घूंट पी कर रह जाता है.”
“काली करतूतें…? मैं कुछ समझी नहीं.”
“आप न ही समझिए तो अच्छा है. हम तो मजबूर हैं, इसलिए जमे हुए हैं. जिस दिन स्थितियां अनुकूल होंगी और फैक्टरियां खुल जाएंगी, उसी दिन ऐसी नौकरी को हम लात मार कर चले जाएंगे.”
अंशिका ने आगे पूछा, “तुम्हारे इस संस्थान में कुछ लड़कियां भी काम करती हैं क्या?”
“हां, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का काम 3 लड़कियां करती हैं और एक मजबूर शादीशुदा लड़की को उन्होंने अभी कोई एक महीना पहले उस के पति की कोरोना से मौत हो जाने के बाद रखा है.”
“इन दिनों तो इस संस्थान ने हेल्थ वर्कर्स को अपौइंटमेंट कर के अस्पतालों में ड्यूटी पर भेजने का भी ठेका ले रखा है.”
जुगल के जाने के बाद अंशिका सोचने लगी, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का कोर्स तो उस ने भी किया हुआ है और मैं यह काम अच्छे से कर भी सकती हूं. लेकिन, बनवारी अंकल की वो गंदी नीयत…
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कई बार उस का मन हुआ कि वह उन्हें फोन लगा कर पूछे, ‘अंकल, क्या मैं भी आप के संस्थान वाले औफिस में डाटा एंट्री औपरेटर के रूप में जौब पा कर कुछ इनकम कर सकती हूं?’
वह जानती थी कि कुछ महीनों पहले तक जो उसे देखने, छूने के बहाने प्यार करने के लिए बेचैन हो जाता था, वह उस की इतनी बात तो मान ही लेगा.
कुमुद की मनोदशा को समझते हुए उस ने इस विषय में अब तक कोई बात नहीं की थी. लेकिन, इस महीने के अंतिम दिन जब बनवारी का फोन अंशिका के पास आया, तो उस ने स्पीकर औन कर के मां को फोन पकड़ाते हुए धीरे से कहा, “बनवारी अंकल का फोन है. लो, बात कर लो.”
उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “भाभीजी, आप सोच रही होंगी कि मधुसूदन का ये कैसा दोस्त है, जिस ने उन के और बेटे के कोरोना के कारण जान गंवाने के बाद घर आ कर सुध तक नहीं ली. लेकिन, ऐसा नहीं है. मेरे समाजसेवी संस्थान के वर्कर्स लगातार अंशिका के संपर्क में थे. मैं ने 2-3 बार आप को फोन भी मिलाया, पर शायद अंशी ने काट दिया.”
उधर से इतना सुनते ही अंशिका ने फोन अपने हाथ में ले कर कहा, ”अंकल, मां वैसे ही इतने सदमे में थी. बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें संभाले हुए थी. और आप की आवाज सुन कर वह फिर बीते हुए समय में चली जातीं, तब उन्हें संभालना और भी मुश्किल हो जाता, इसलिए मैं ने फोन…”
बात खत्म होने से पहले ही उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “मैं समझ सकता हूं अंशी. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. कल से लौकडाउन खत्म हो रहा है. मैं कल तुम्हारे घर आ रहा हूं. बोलो, तुम्हारे लिए क्या लेता आऊं. जलेबी या गरमागरम समोसे…”
“जो भी आप को अच्छा लगे ले आइए अंकल,” अपनी आवाज में पूरी मिठास घोलते हुए अंशिका ने कहा. इस समय तो उस ने बनवारी लाल के संस्थान में नौकरी करने का पक्का मन बना लिया था.
बनवारी लाल भला क्यों न आता. वह आया झक सफेद पठान सूट में. काले रंगे हुए बाल और मूंछ, सुनहरी मूठ वाली छड़ी.
आते ही बनवारी ने जलेबी और समोसे मुसकराते हुए अंशिका को पकड़ाए. पैकेट पकड़ाते समय अंशिका ने अपनी गुदाज हथेली पर बनवारी के उस रेशमी स्पर्श से मिलने वाले प्यार के संकेत को भांप लिया था. परंतु ना जाने क्यों उसे बुरा न लगा. अब कोई किसी को कुछ देगा तो ऐसा स्पर्श स्वाभाविक भी हो सकता है. उस ने अपने मन को समझाया.
इतना तो बनवारी रूपी सफेद सियार के लिए बहुत था कि वह अंशिका रूपी जिस बिल्ली पर कई सालों से घात लगाए बैठा था, वह खुद उस के करीब आने वाली है. इसलिए बनवारी को अपने सामने देख जब कुमुद मधुसूदन को याद कर के विलाप करने लगी, तो वह अपनापन दिखाते हुए बड़े मीठे शब्दों में बोला, “अब देखो न भाभी, होनी कितनी बलवान होती है. उस दिन मधुसूदन को वैक्सीन का पहला टीका लग जाता तो ये सब न हुआ होता. अब जो होना था हो गया. अब मुझे आदेश दो कि मैं तुम्हारी और क्या सहायता कर सकता हूं.”
कुमुद कुछ कहती, इस से पहले ही ट्रे में चाय और प्लेटों में बनवारी द्वारा लाए समोसे, जलेबी सामने वाली मेज पर रखती हुई अंशिका बोली, “अंकल, आप तो बस इतना कर दो कि मुझे अपनी संस्था वाले औफिस में डाटा एंट्री आपरेटर के रूप में नौकरी पर रख लो.”
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“बस इतनी सी बात… मेरे रहते तू डाटा एंट्री आपरेटर की नौकरी करेगी. अरे, तेरे लिए मैं औफिस इंचार्ज की पोस्ट क्रिएट कर के वहां बैठा दूंगा. बस तुझे अपने सारे सर्टिफिकेट ले कर कल शाम तक इंटरव्यू के लिए आना होगा. अब संस्था में नौकरी के लिए फोरमैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी.”
“अंकल, मेरा इंटरव्यू तो आप ही लोगे ना?”
“तुझे इतना सब सोचने की जरूरत नही है,” कहते हुए बनवारी ने समोसा खाने के बाद चाय का घूंट भरते हुए कहा, “देख रही हो भाभी, मुझे यह अंकल भी कहती है और डरती भी है, जबकि सेलेक्शन मुझे ही करना है.”
“बेटी, जब अंकल कह रहे हैं तो डरना कैसा…? मेरे लिए तो इस से अच्छी कोई बात हो ही नहीं सकती कि जानपहचान वाली जगह पर तू नौकरी करेगी, तो मैं भी बेफिक्र रहूंगी और घर में खर्चे के लिए कुछ रुपए भी आने लगेंगे. वैसे भी इस महीने का किराया भी तेरे अंकल को देना है.”
“भाभी, वह तो तुम पेटीएम कर देना. अब मैं चलता हूं. कल ड्राइवर को कार के साथ भेजूंगा. वह अंशी को घर से पिकअप कर लेगा और औफिस के इंटरव्यू रूम तक पहुंचा देगा.”
आगे पढ़ें- आज उसे न जाने क्यों बनवारी…
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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
अंशिका ने कार के पीछे वाले कांच पर पेंट से लिखा हुआ प्रचार विज्ञापन पढ़ा, “कोरोना विपदा की इस घड़ी में आप का सच्चा साथी ‘जागृति सेवा संस्थान’. उस के नीचे ब्रैकेट के अंदर छोटे अक्षरों में लिखा था, “आप भी इस संस्था को कोई भी राशि दान कर सकते हैं. आप का छोटा सा सहयोग इस आपदा की घड़ी में गरीबों और जरूरतमंदों के काम आ सकता है.”
उन के जाते ही बाहरी दरवाजा बंद कर के अंदर आ कर अंशिका ने सामान एक तरफ रखा. कमरे में झांक कर मां को देखा. वे अभी भी सो ही रही थीं.
पूरे घर में उदास सा सन्नाटा पसरा था. फ्रेश होने के लिए बाथरूम की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अंशिका ने हाथ में पकड़े कार्ड पर नजर डाली और संस्था के संस्थापक और संचालक का नाम पढ़ कर चौंक पड़ी, ‘बनवारी लाल’.
फ्रेश होने के बाद वह चाय का थर्मस और 2 कप लिए हुए गहरी नींद में सो रही मां के पलंग के पास पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गई. उस ने एक बार और कार्ड को फिर से उलटपुलट कर देखा और सोचने लगी कि बनवारी अंकल तो बहुत बड़ी समाजसेवा में जुटे हैं. उन के प्रति अब तक तो वह बहुत गलत धारणा पाले हुए थी.
उस की नजरों मे वो दृश्य घूम गया, जब 4 साल पहले वह अपने मातापिता और भैया के साथ बनवारी अंकल की कार में बैठ कर उन का ये घर देखने आई थी. उसी साल उस के पिता फर्टिलाइजर फैक्टरी के स्टोर इंचार्ज पद से रिटायर हुए थे. पेंशन न के बराबर थी. फंड का जो पैसा मिला था, उस में से कुछ रकम उन्होंने एफडी में डाल दी थी और कुछ रुपया जमीन खरीदने में फंसा दिया था.
मधुसूदन सोचते थे कि जमीन मिलते ही रजिस्ट्री करवा कर अंशिका की शादी के लिए जब वह उसे बेचेंगे तो अच्छी रकम हाथ आ जाएगी, इसलिए वह निश्चिंत थे.
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मधुसूदन के रिटायरमेंट से कुछ महीने पहले आलोक का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था. उस की रुचि टूर ऐंड ट्रेवल्स के क्षेत्र में जाने की ज्यादा थी, इसलिए उस ने मास्टर इन टूरिज्म का डिप्लोमा करने के बाद कई जगह एप्लाई करना शुरू कर दिया था. दिन बीत रहे थे, लेकिन कोरोना ने सारी प्लानिंग चौपट कर दी थी.
हालांकि तब तक वे सब इस घर में आ चुके थे.
इस से पहले जिस घर में पिछले कई सालों से वे किराए पर रहते थे, वह काफी पुराना और कई तरह की सुविधाओं से वंचित था. धूप तो आती ही नहीं थी. पानी की भी हमेशा किल्लत बनी रहती थी.
फिर जब एक दिन मधुसूदन ने घर आ कर बताया कि कभी उन के साथ ही स्टोर का कार्यभार संभालने वाला बनवारी लाल, जो बीच में ही नौकरी छोड़ कर क्षेत्रीय राजनीति में घुस कर ठेकेदारी करने लगा था, उस का धनबाद में एक नया बना मकान खाली पड़ा है और वो हमें किराए पर देने को तैयार है.
उन सब को अपनी कार में ले कर जब वह इस घर में आया, तो मकान दिखाते समय बनवारी ने कई बार अंशिका के कंधों पर, पीठ पर या फिर सिर पर प्यार भरे हाथ फेरते हुए उसे अंशिका की जगह अंशी कहते हुए पूछा, “क्यों अंशी, कैसा लगा मकान?”
बनवारी का स्पर्श तभी होता था, जब सब का ध्यान मकान में बनी सुविधाएं देखने में लगा होता.
जब अंशिका उन की तरफ देखती, तो उसे अंकल की नीयत में खोट लगती. वह दौड़ कर मां या भाई के पास पहुंच कर खड़ी हो जाती.
मधुसूदन, कुमुद और आलोक के साथ मकान तो अंशिका को भी पसंद आ गया था, परंतु उसे बनवारी अंकल की नीयत समझ में नहीं आई थी. उस ने अपने मन को समझाया, ”अरे, कौन सा मुझे यहां अकेले रहना है…? पापा, भैया और मम्मी सभी तो साथ रहेंगे.”
मधुसूदन और उस का पूरा परिवार बनवारी के इस मकान में किराए पर रहने लगा. बनवारी 1 से 7 तारीख के बीच मिलने आ जाता. एक मकसद तो किराया लेना होता था और दूसरा अंशिका पर अपना प्रभाव डालना.
इस के लिए बनवारी कभी जलेबी, तो कभी गरमागरम समोसे, गुलाब जामुन या फिर खस्ता कचौड़ी अवश्य ले आता और तब खाता, जब पापा या मम्मी द्वारा अंशिका को सामने बुला कर बैठा न लेता…
मधुसूदन के हार्ट के आपरेशन के बाद जब कुमुद अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में देखरेख के लिए वहीं रहती और आलोक घर से अस्पताल की दौड़भाग में लगा होता, तो बनवारी मौका ताड़ कर अंशिका से मिलने चला आता.
हाथ में पकड़े हुए गरम समोसे और जलेबी के पैकेट अंशिका को पकड़ाते हुए कहता, “तुम्हारे पापा को देख कर अस्पताल से लौट रहा था, तो मन हुआ कि अपनी अंशी के लिए लेता चलूं और उस के हाथ की चाय पीता जाऊं.”
अंशिका को समझ में नहीं आता कि वह करे तो क्या करे. वह उन के लिए जल्दी चाय बना लाती, ताकि जल्द ही वह घर से चला जाए. बनवारी की नीयत वह खूब समझती थी.
एक दिन अंशिका ने हिम्मत कर के टोक ही दिया, ”अंकल, अब मुझे न समोसे पसंद आते हैं और न ही जलेबी. आप को ये सब लाने की कोई जरूरत नहीं है.”
“तो तुझे और क्या पसंद है, मुझे बता. मैं वही चीज ले आया करूंगा.”
“मुझे एकांत और अकेले में रहना पसंद है. मैं चाहती हूं कि कोई मुझे डिस्टर्ब न करे.”
उस के बाद बनवारी के आने वाले समय पर अंशिका घर में ताला लगा कर अड़ोसपड़ोस की किसी सहेली के यहां चली जाती और वहीं से भाई आलोक को फोन कर के बता देती कि लौटते समय वह उसे ले ले.
मधुसूदन के अस्पताल से वापस आने तक यही चलता रहा. फिर सब सामान्य हो गया.
बनवारी मधुसूदन से किराया लेने तो आता, पर उसे लगता कि अंशिका ने अपनी मां को कहीं सब बता न दिया हो, क्योंकि वह एक अज्ञात डर से कुमुद से बहुत देर तक आंख मिला कर बात नहीं करता.
एक बार कुमुद ने टोक दिया, “क्यों बनवारी भैया, अब तुम हमें समोसे ला कर नहीं खिलाते.”
इतना सुनते ही वह चौंक गया, फिर बात बनाते हुए बोला, “अरे भाभी, अब मेरा उधर जाना नहीं होता. और फिर मुझे अब समोसेजलेबी अच्छे भी नहीं लगते,” कहते हुए वह किराया ले कर तुरंत मधुसूदन के पास से उठ जाता, लेकिन उस की चोर निगाहें अंशिका को आसपास खोजतीं जरूर.
समय ऐसे ही बीत रहा था.
वह तो भला हो कि पिछला पूरा साल लौकडाउन में बीता और बनवारी लाल का इस घर में आनाजाना न के बराबर हो गया. शायद उसे डर था कि कहीं वह भी कोरोना वायरस की चपेट में न आ जाए.
आलोक ने अपनी मां कुमुद के मोबाइल पर पेटीएम अकाउंट बना दिया था. महीने का किराया उसी से बनवारी के पेटीएम अकाउंट में जमा हो जाता था.
अचानक अंशिका विचारों से बाहर निकल आई. कुमुद की आंख खुल गई थी. हड़बड़ा कर वह उठ कर पलंग के नीचे पैर लटका कर बैठ गई.
कुछ देर बाद जैसे ही उस के मस्तिष्क ने कल रात के घटनाक्रम को आज के समय से जोड़ा, तो वह फिर जोरों से कराह उठी, रोने और सिसकने लगी.
अंशिका ने कुरसी से उठ कर मां से सट कर बैठते हुए बड़ों की तरह समझाया, “मां, अब हमें धैर्य और हिम्मत से काम लेना होगा. रोनेधोने से कोई भी वापस आने वाला नहीं. तुम उठो, फ्रेश हो, हाथमुंह धो लो, कुल्लामंजन करो, फिर मैं तुम्हें गरमागरम चाय बना कर पिलाती हूं.”
“अरे, चाय तू ने कब बनाना सीख ली. तुझे तो पता है कि घर में किसी की डेथ हो जाने के बाद 5 दिन तक चूल्हा नहीं जलता है… और तू…”
“लेकिन मां, मैं ने चूल्हा नहीं जलाया. हां, यदि समाजसेवी संस्था वाले इस थर्मस में चाय और दोनों वक्त का खाना न दे जाते तो मैं गैस जला कर चाय और खाना जरूर बनाती. आप को भूखा थोड़े ही रहने देती और न खुद रहती.”
“लेकिन, अभी दाह संस्कार और शुद्धि हवन तक नहीं हुआ है और…”
“सब हो गया मां. समाजसेवी संस्था के जो लोग आए थे, उन्होंने पापा और भैया का दाह संस्कार भी कर दिया और शुद्धि हवन भी वही करवा देंगे.”
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“लेकिन बेटी…?”
“मां प्लीज अब सामने जो सच है, उसे स्वीकार करो. और सोच लो कि अब हमें और तुम्हें ही अपना जीवन चलाना है. तुम ने ही नहीं, मैं ने भी अपनों को खोया है, लेकिन ये निराशा भरी और पुरानी सोच वाली बातें भूल जाओ, पहले फ्रेश हो कर आओ.”
कुमुद यंत्रवत सी उठी. लौटी तो अंशिका ने उन्हें चाय पिलाई.
देखते ही देखते ये हफ्ता, इस से अगला हफ्ता भी बीत गया. लौकडाउन की अवधि 1-1 हफ्ते के हिसाब से राज्य सरकार द्वारा बढ़ाई जाती रही.
‘जागृति सेवा संस्थान’ के लड़के अदलबदल कर हालचाल लेने और आवश्यक घरेलू सामान पहुंचाने आते रहे. उन्हीं में से एक लड़का इधर लगातार आ रहा था, जो देखने मे हैंडसम और पहनावे से कुछ पढ़ालिखा और किसी अच्छे परिवार का लग रहा था, लेकिन कम बोलता था. चेहरे से हमेशा गंभीर बना रहता था. उस से अंशिका ने एक दिन पूछ लिया, ”क्या नाम है तुम्हारा?”
“जुगल किशोर.”
“इस संस्था में कब से जुड़े हो?”
“पिछले 5 महीने से. मोटर के स्पेयर पार्ट बनाने वाली फैक्टरी पिछले लौकडाउन में ही बंद हो गई थी और हमारे जैसे सभी टेक्निकल सर्टिफिकेट कोर्स करे हुए मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया था.
“अब घर में सब का पेट तो भरना ही है, इसलिए बनवारी लाल के सेवा संस्थान में ड्राइवर की नौकरी कर ली. उन की परमिट मिली गाड़ी ले कर संस्थान के काम से इधरउधर जाता रहता हूं.
“मेरा शादीशुदा चचेरा भाई भी बेरोजगार हो कर परेशान था. उसे भी मैं ने इस संस्थान के औफिस में सिक्योरिटी गार्ड की ड्यूटी पर लगवा दिया है.”
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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
आईसीयू के गहरे नीले रंग के कांच के बाहर उसे रोक कर वार्ड बौय ने स्ट्रेचर पर पड़े पिता को अंदर ले जा कर एडमिट करा दिया.
अंदर से आईसीयू की नर्स ने बाहर निकल कर आलोक से कुछ कागजों पर आवश्यक डिटेल भरवाई, फिर कई जगह आलोक के दस्तखत ले कर कहा, “मिस्टर आलोक, आज तो मजबूरी थी, वरना कोविड के आईसीयू वार्ड के आसपास किसी का भी आनाजाना वर्जित है. कल से आप को नीचे रिसेप्शन लौबी में कुछ देर के लिए प्रवेश मिलेगा और वहीं से संबंधित रोगी का स्वास्थ्य स्टेटस भी मिल जाएगा. अब आप जा सकते हैं.”
कांच के बाहर से ही आलोक ने एक असहाय सी नजर से आईसीयू के बेड पर लिटा दिए गए बेहोश पिता को देखने का प्रयास किया. उन के चेहरे पर औक्सीजन मास्क चढ़ा दिया गया था. स्लाइन और दवाएं भी हथेली की नसों के द्वारा शरीर में जानी शुरू हो गई थीं.
आलोक का वहां से हटने का मन नहीं हो रहा था. वह कुछ देर और वहीं खड़ा रहना चाहता था, तभी आईसीयू की सिक्योरिटी में लगे गार्ड ने आलोक के साथ वहां इक्कादुक्का और भी फालतू खड़े लोगों को बाहर निकाल दिया.
उस दिन आलोक घर तो आ गया. मां को सब हाल बता कर संतुष्ट भी कर दिया, पर भीतर ही भीतर बहुत बेचैन था. ये कैसी महामारी है, जिस ने सब का पिछला साल भी खराब कर दिया और इस साल भी भयंकर रूप से फैले चली जा रही है.
उस के बाद अगले 26 दिनों तक वह घर से अस्पताल लौकडाउन की सारी बाधाओं को दूर कर अस्पताल तो पहुंच जाता, जबकि उसे पता चल गया था कि उस की रिपोर्ट भी पोजिटिव आई है, लेकिन अगर उस ने बता दिया और कहीं उसे भी एडमिट कर लिया गया तो मां और अंशिका का क्या होगा. कौन दौड़भाग करेगा, इसलिए उस ने इस बात को अपने भीतर ही छुपा लिया.
अब तक बैंक के बचत खाते में जमापूंजी भी तेजी से घटती जा रही थी. उसे याद आया कि उस ने पापा और मम्मी के लिए ‘आयुष्मान भारत’ कार्ड के औनलाइन आवेदन के बाद कितनी दौड़भाग की थी, लेकिन स्वास्थ्य विभाग को सारी जानकारी उपलब्ध कराने के बाद भी उन का कार्ड नहीं बन पाया था.
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हालत और बिगड़ने पर मधुसूदन को वेंटिलेटर पर रख दिया गया था. रोज महंगा रेमडेसिविर इंजेक्शन, औक्सीजन के सिलेंडर का खर्चा. वह तो उस वार्ड बौय की मदद से उसे थोड़ा महंगे दामों में ही सही, लेकिन उपलब्ध हो जाता था वरना कुछ लोग तो उस इंजेक्शन को खरीदने के लिए अस्पताल की फार्मेसी के बाहर लगी लाइन में खड़े ही रह जाते थे.
रुपया पानी की तरह बहता चला जा रहा था. आलोक रोज अस्पताल तो आ जाता, पर पिता के दर्शन न हो पाते. बस इतना पता चलता कि उन की काफी देखभाल की जा रही है. हालत स्थिर बनी हुई है.
कोई 26-27 दिन के इलाज के बाद जब अगले दिन आलोक अस्पताल के वेटिंग लाउंज मे पहुंचा, तो उस का शरीर पसीने से नहा उठा, सांस घुटने सी लगी और औक्सीजन लेवल एकदम से गिर गया. पसलियों में उठने वाली असीम पीड़ा से कराहता हुआ वह धड़ाम से वहीं फर्श पर गिर गया. जब तक उसे उठा कर इमर्जेंसी वार्ड तक ले जाया जाता, उस के प्राण पखेरू उड़ चुके थे.
उसी समय वेटिंग लाउंज में लगे टीवी पर कल रात कोविड संक्रमण से मरने वालों के जो नाम लिए गए थे, उन में एक नाम मधुसूदन का भी था.
एक रात के इंतजार के बाद और लाशों के साथ मधुसूदन और आलोक की लाशों को भी प्लास्टिक में लपेट कर अस्पताल की खचाखच लाशों से भरी मोर्चरी में अंतिम संस्कार के लिए ले जाने के क्रम में रख दिया गया.
पूरी रात और अगली दोपहर तक जब आलोक घर नहीं पहुंचा, तो कुमुद का मन कई सारी आशंकाओं से घिर कर बेचैन हो उठा. वह अंशिका से बोली, “बेटी, मुझे बहुत घबराहट हो रही है. तू मुझे अस्पताल ले चल.”
“अरे मम्मी, आप परेशान मत हो. हो सकता है कि पापा ठीक हो गए हों. भैया पापा को ले कर आते हों.”
कुमुद कुछ देर के लिए तो शांत हो गई, लेकिन फिर से उस का मन किसी अज्ञात आशंका से घबरा उठा. लौकडाउन की अवधि लगातार बढ़ती जा रही थी. परिस्थितियां सामान्य होतीं, तो वह मधुसूदन की देखरेख के लिए अस्पताल में ही होती.
2 साल पहले प्राइवेट अस्पताल में उन के हार्ट के आपरेशन के समय कुमुद किस तरह उन के पास ही रही थी. लेकिन इन दिनों कोविड संक्रमण और लौकडाउन के भय ने सब को बांध कर रख दिया था.
लोग अपने रिश्ते और कर्तव्य निभाने में भी असमर्थ थे. यहां तक कि अपनों की मौत के बाद लोग कंधा देने को तरस रहे थे.
सोचतेसोचते अचानक कुमुद को कुछ खयाल आया. उस ने अंशिका से कहा, “तू बनवारी अंकल को फोन लगा. वही कुछ पता लगा कर बता सकते हैं.”
अंशिका ने बनवारी को फोन लगा कर सारी स्थिति से अवगत कराया, तो उन्होंने कहा, “बेटी, मैं संक्रमित होने के डर से चूंकि घर से बाहर झांक तक नहीं रहा हूं, इसलिए अस्पताल जा तो सकता नहीं. हां, वहां की एक हेल्थ वर्कर मेरी परिचित है. मैं उस से पता कर के कुछ देर में तुम्हें फोन करता हूं. अपनी मां से कहो कि वह परेशान न हों.”
कुछ ही देर बाद उधर से बनवारी ने जो सूचना दी, तो कुमुद तो दहाड़े मारमार कर छाती पीटने लगी और अंशिका किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई.
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बनवारी ने उसी मोबाइल पर व्हाट्सएप मैसेज में वो फोटो भी फोरवर्ड कर दी थी, जिस में पौलीथिन में लिपटे, केवल चेहरा खुले मृतक मधुसूदन और आलोक के शव थे, जिन्हें देख कर कुमुद का रुदन और तेज हो गया. वह बाहरी दरवाजे की ओर पागलों सी चिल्लाती भागने को हुई. अंशिका ने पूरी ताकत लगा कर अपनी मां को दोनों बांहों में कस कर जकड़ लिया और बोली, “कहां जाना चाह रही हो मां? तुम अस्पताल पहुंच भी गईं तो कौन मिलेगा वहां? उन के दाह संस्कार के लिए हमें बौडी तो मिलने से रही… फिर उन दोनों की मौत कोरोना से हुई है. कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?”
कुमुद के शरीर में थोड़ी शिथिलता आई, लेकिन रोना जारी था. अंशिका ने उन्हें वापस ला कर बिठाया. वह भी खूब चीखचीख कर रोना चाह रही थी, परंतु अपने को संभाले हुए कुमुद के सीने से लिपट उन के घायल दिल से निकलने वाले शब्द सुनते हुए सिसक रही थी.
“अरे, ये क्या हो गया… अब हमारा और इस बच्ची का क्या होगा… हायहाय, हम दोनों को भी कोरोना क्यों नहीं हो गया… अब हम किस के लिए और कैसे जिएंगे…”
“मम्मी, तुम्हें मेरे लिए जीना होगा और मुझे तुम्हारे लिए.”
वह रात मातम मनाते हुए, रोते हुए ही कटी. ऐसे में चीखपुकार और रोना सुन कर भी अड़ोसपड़ोस से कोई नहीं आया.
अगले दिन भोर के समय दोनों की आंख लगी. जब धूप चढ़ आई, कोई 10 बजे का समय रहा होगा. बाहरी दरवाजे पर किसी ने जोरों से दस्तक दी. अच्छा हुआ कि अंशिका की आंख पहले खुली. उस ने जा कर दरवाजा खोला. चेहरे पर मास्क लगाए 2 युवक थे.
अंशिका को देखते ही उन में से एक युवक बोला, “हम ‘जागृति सेवा संस्थान’ के कार्यकर्ता हैं. आज सवेरे ही बनवारीजी ने हमें आप के पिता और भाई की कोरोना से हुई मृत्यु का समाचार दिया था और सहायता करने को कहा था.”
तभी दूसरे युवक ने बताया, “अभी हम आप के पिता और भाई का दाह संस्कार करवा कर आ रहे हैं. इस तरह की सेवा के अलावा प्रभावित घरों तक भोजन और राशनपानी की व्यवस्था करना आदि ऐसे ही और संबंधित काम हमारी संस्था हम से करवाती है…
“हम आप के लिए थर्मस में गरम चाय और पैकेट में दोनों वक्त के हिसाब से खाना ले आए हैं,” कहते हुए उन में से एक युवक ने लाया हुआ सामान अंशिका की तरफ बढ़ा दिया और दूसरा संस्था का छपा हुआ विजिटिंग कार्ड और साथ में 2 मास्क उसे देते हुए बोला, “ये हमारा कार्ड है. इस में सारे फोन नंबर भी दिए हैं. रातबिरात कोई जरूरत हो, तो फोन कर दीजिएगा. हम नहीं तो हमारा कोई ना कोई सेवक उपस्थित हो जाएगा,” इतना कह कर वे दोनों युवक जिस कार से आए थे, उसी से वापस चले गए.
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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
अंशिका पानी ले आई थी. खांसी थोड़ी शांत हुई, तो पत्नी कुमुद ने गिलास मधुसूदन के होंठों में फंसा कर जैसेतैसे पानी पिलाया.
पानी पीने के बाद थोड़ी राहत मिली तो वे बोले, “कुमुद, अपना मकान मालिक बनवारी रास्ते में मिल गया था. मुझे जबरदस्ती उस कैंप में ले गया, जहां वरिष्ठ नागरिकों को वैक्सीन की पहली डोज लग रही थी.”
“तो पापा, आप टीका लगवा आए,” अंशिका खुश होते हुए बोली.
“नहीं बेटी, तुम्हारे बनवारी अंकल तो सारे दंदफंद जानते हैं. मेरा आधारकार्ड मेरे पास होता तो मुझे भी लग जाता, लेकिन मैं अपना आधारकार्ड नहीं ले गया था.”
“ओह, कोई बात नहीं. आलोक कल धनबाद से इंटरव्यू दे कर लौट आए, तब हम दोनों साथ जा कर लगवा आएंगे,” कहते हुए कुमुद अंशिका से बोली, “तू अपने पापा के पास बैठ. मैं इन के लिए काढ़ा बना कर लाती हूं.”
कुमुद काढ़ा बनाने चली गई, तो मधुसूदन ने अंशिका से कहा, “तेरी पढ़ाई तो पूरी हो ही चुकी है. अब ये लौकडाउन और कोरोना का हौआ खत्म हो तो अच्छा सा लड़का ढूंढ कर तेरी शादी करा दूं, वरना बैंक में जमा सारे रुपए मेरी बीमारी ही खा जाएगी.
“अब देख न, एकमात्र 10 लाख रुपए की एफडी मेरे हार्ट के आपरेशन में ही तुड़वानी पड़ी, जिस में से 4 लाख रुपए तो इलाज में ही खर्च हो गए. बाकी बची रकम से जैसेतैसे काम चल रहा है.”
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“उधर, प्लाट खरीदने के लिए जिस बिल्डर को 3 लाख रुपए एडवांस दिए थे, वह भी पिछले साल के शुरू तक तो बहलाता रहा, फिर तालीथाली बजाने के बाद जब कोरोना महामारी के चलते कंप्लीट लौकडाउन लगा कर पूरे देश को घरों में कैद कर दिया गया, तब सारा आवागमन ठप हो गया. इस का फायदा उठा कर वह ऐसा गायब हुआ कि न तो अब उस का फोन लगता है और न ही वह साइट पर दिखता है…”
“अरे, इन सब बातों को अंशिका को बताने से क्या फायदा मिलेगा…? आलोक कह तो रहा था कि पापा बेकार ही चिंता करते रहते हैं. परिस्थितियां सामान्य होते ही मैं उस हरामखोर बिल्डर को पाताल से भी ढूंढ़ निकालूंगा,” कुमुद बीमार मधुसूदन के हाथों में काढ़े का मग पकड़ाती हुई बोलीं.
लेकिन जब परिस्थितियां सामान्य हुईं, तो स्टेट टूरिज्म डिपार्टमेंट में आलोक द्वारा औनलाइन किए हुए आवेदन के फलस्वरूप चयन प्रक्रिया के लिए उसे सिंदरी से धनबाद जाना पड़ गया. इस बीच वह इंटरव्यू की तैयारी में भी जुटा रहा.
उसे गए हुए 2 दिन हो गए थे. आज तीसरा दिन था. सब्जी, फल और इक्कादुक्का बहुत जरूरी घरेलू चीजें पास के ही बाजार से लाने के लिए कुमुद ने मधुसूदन को थैला दे कर भेज दिया था. आपरेशन के बाद से सवेरे वे सामने वाले पार्क में थोड़ी देर टहलने जाते ही थे.
कुमुद के हाथ का बना घरेलू काढ़ा पीने के लिए वे उठ कर बैठ गए, तभी आलोक का फोन आ गया.
अंशिका ने फोन उठाया और स्पीकर औन कर दिया, ताकि सभी आलोक की आवाज सुन सकें.
आलोक कह रह था, ”पापा, आज लिस्ट निकल आई है. मैं सेलेक्ट हो गया हूं. अपौइंटमेंट लेटर घर पहुंचेगा. आज रात वाली बस से चल कर कल सवेरे मैं सिंदरी पहुंच जाऊंगा.”
“सुन कर बहुत खुशी हुई बेटा. मुझे पता था कि मेरा बेटा जरूर सेलेक्ट होगा. अब तू जल्दी से आ जा, ताकि कल चल कर तेरे पापा को डाक्टर को दिखा दें,” ये कुमुद की आवाज थी.
“क्या हुआ पापा को?” उधर से आलोक ने पूछा.
“उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही है.”
“ठीक है मां, मैं कल सुबह तक पहुंचता हूं, तब तक आप पापा का खयाल रखना,” कहते हुए आलोक ने फोन काट दिया.
सवेरे जिस समय आलोक घर पहुंचा, मधुसूदन की तबियत बहुत बिगड़ चुकी थी. सांस लेने में दिक्कत, तेज बुखार, गला जैसे चोक हो गया हो. वे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे.
आलोक ने तुरंत एम्बुलेंस की व्यवस्था की और पहले उस प्राइवेट अस्पताल ले गया, जहां उन का हार्ट का आपरेशन हुआ था. उन्होंने देखते ही आलोक से कहा, “ये तो कोविड केस है. तुम इन्हें कोविड केयर सेंटर ले जाओ.”
सरकारी कोविड केयर सेंटर की भीड़ और अव्यवस्था देख कर आलोक हैरान रह गया. उस ने पास के ही एक प्राइवेट अस्पताल में ले जाना उचित समझा. भीड़ तो वहां पर भी थी.
वहां पहले तो मधुसूदन के साथसाथ उस का भी कोविड टेस्ट हुआ. नाक और मुंह में पतली नली डाल कर स्वाब के सैंपल ले कर जांच के लिए भेज दिए गए. वहां व्यवस्था देख रहे एक वार्ड बौय ने आलोक से कहा, “चलो, तुम्हारे पिता को स्ट्रेचर से उतार कर बेंच खाली करा कर बैठा देते हैं.”
सुनते ही आलोक भड़क गया. वह मास्क मुंह से हटा कर चिल्लाया, ”अरे, मेरे पिता की इतनी गंभीर हालत हो रही है और उन्हें एडमिट करवाने की जगह तुम उन्हें बैठाने की बात कर रहे हो. तुम तो मुझे डाक्टर से मिलवा दो.”
दोनों की बहस होती देख वहां से गुजरती एक सीनियर नर्स बोली, “यहां सारे कोविड वार्ड संक्रमितों से भरे हुए हैं. प्राइवेट और जनरल वार्ड में एक भी बेड खाली नहीं है.
“देख रहे हो न, मरीज फर्श पर पड़े हैं. तुम चाहो तो इन्हें किसी दूसरे कोविड अस्पताल ले जा सकते हो.
“और सुनो, यहां अस्पताल में मास्क चढ़ाए रहो तो अच्छा है.”
आलोक ने मास्क तो चढ़ा लिया, लेकिन गिड़गिड़ाता सा बोला, ”प्लीज सिस्टर, कुछ करो. ये इमर्जेंसी केस है. देख रही हो, लगातार इन की हालत बिगड़ती जा रही है.”
पता नहीं, आलोक की बात सुन कर सिस्टर और वार्ड बौय के बीच आंखों ही आंखों में क्या इशारा हुआ कि वार्ड बौय बोल पड़ा, “तुम लोग कुछ समझना ही नहीं चाहते हो. हमें स्ट्रेचर दूसरे मरीजों के लिए भी तो चाहिए होता है…
“चलो, तुम मेरे साथ रिसेप्शन पर चलो. अगर कोई बेड खाली हुआ होगा, तो तुम्हारे लिए जुगाड़ बैठाते हैं. तुम्हें तकरीबन 50,000 रुपए एडवांस जमा करने होंगे.”
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एम्बुलेंस के 5,000 रुपए देने के बाद आलोक ने अनुमान लगाया कि घर में इमर्जेंसी आने की स्थिति के लिए पापा और मम्मी के संयुक्त बचत खाते में जो रुपए पड़े थे, उन्हीं में से 50,000 रुपए कुमुद ने घर ला कर रख लिए थे, अस्पताल जाते समय आलोक को पकड़ा दिए. उन्हीं की गुणागणित बैठाता हुआ आलोक बोला, “अभी तो इतना जेब में नहीं है. तकरीबन 25-30 हजार रुपए होगा.”
वार्ड बौय ने कुछ सोचा, फिर बोला, “तुम 2 मिनट यहीं रुको. मैं हेड सिस्टर से बात कर के आता हूं,” कहते हुए वह जा कर उसी रूम में घुस गया, जिस में कुछ देर पहले उस से बात करने वाली सिस्टर गई थी.
कुछ देर बाद वार्ड बौय लौटा तो स्ट्रेचर को रिसेप्शन की तरफ धकेलता हुआ साथ चलते हुए आलोक से बोला, ”अभीअभी इमर्जेंसी वार्ड में एक बेड खाली हुआ है. तुम जितना है, उतना जमा करा दो. लेकिन कल सवेरे आ कर बाकी रकम पूरी कर देना.”
आलोक का मन अस्पताल के अंदरबाहर कराहते, तड़पते, झुंझलाते और संक्रमित होने के बाद इलाज के दौरान मर जाने वाली लाशों को प्लास्टिक की किट में लपेट कर श्मशान ले जाते देख घबरा उठा.
उस ने अर्धबेहोशी की हालत में स्ट्रेचर पर पड़े लाचार पिता की तरफ देखा. जेब से निकाल कर 25,000 रुपए रिसेप्शन काउंटर पर जमा कराए.1,500 रुपए वार्ड बौय ने अपनी बख्शीश मांग ली.
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