story in hindi
story in hindi
आज की व्यस्त ग्राहकी जितनी होनी थी, वह भी लगभग हो चुकी है. अब वह जानेमन के पास जाएगा, शायद, वह अपने बाल संवार रही होगी या तकिया सीने पर टिकाए कुछ सोच कर हंस रही होगी. आज उस के लिए कोई सुंदर सी ना…नहीं…नहीं… यह जरा जल्दबाजी होगी. जरा रुक जाता हूं, कल या परसों ही कोर्ट में विवाह कर के एक नए दिन में नई शाम होगी, तब सब ले आऊंगा. यह जिंदगी अब मेहरबान हो गई है, तो भला हड़बडी़ कर के काम क्यों करना. देर शाम तक उस से बातें करूंगा और एक बढ़िया फिल्म दिखाने हर रविवार को ले जाऊंगा और ढाबे पर छोलेकुलचे या पावभाजी हो जाए, तो होने वाले सुंदर लमहे सुनहरे हो जाएंगे.
ये विचार करतेकरते उस के मन का बोझ हलका होने लगा और वह खुद को दुनिया का सब से सुखी मर्द मानने लगा. जिसे इतनी औरतों ने बेहिसाब प्यार किया, उस को अब एक सलोनी पत्नी मिलने जा रही है. यहां तो वह बेपनाह इश्क में कोई कमी छोड़ेगा ही नहीं. मोनिका कितनी कोमलता से 2 चपाती सेंक कर परोस देती है, स्वाद ऐसा आता है जैसे सादी रोटी नहीं, घी का हलवा खा रहे हों. मोनिका ने कितनी उम्मीद से खुद को उस के इंतजार में अब तक सजाया होगा. यह सब सोचसोच कर वह यों ही लहालोट हुआ जाता था. उसी मखमली अंदाज में वह भी अपनी पत्नी मोनिका में प्यार के सुरों को पिरोएगा. उसी अंदाज़ में उस के होंठों पर अपने होंठ रख मधुर, मीठा, रसीला, आनंद, सुख आदि ये सब भाव एकएक कर के उस को गुदगुदा रहे थे. वह ही जानता था कि पिछले 48 घंटे उस ने कैसे काटे थे? मालिक ने उस को 2 दिनों के लिए यहां से सौ किलोमीटर दूर काशीपुर भेजा था. वहां पर 2 हफ्ते बाद ही सहकारी समिति का मेला होने वाला था. उस को वहां जा कर 2 बैठकों मे शामिल हो कर सब फाइनल कर के आना था.
वह एक दिन पहले ही काशीपुर से लौटा था और, बस, दिल में मोनिकामोनिका ही किए जा रहा था. उस पगले का यह बचाखुचा जीवन जितना भी था, अब, बस, उस के ही के दामन में बेपरवाह भीग जाना चाहता था और उस में उस के अलावा अब किसी और को बिलकुल भी राजदार, भागीदार नहीं बनाना चाहता था. बस, यही सब सपने बुनता वह दीवाना एकएक कर बिखरी चादरें समेट रहा था, उन की तहें बना रहा था कि मोनिका अचानक ही आई और आ कर सामने ही बैठ गई. वह अकबका सा गया, ‘वह तो यहां आती नहीं थी, फिर कैसे आ गई?’ वह सोचता रहा.
मोनिका नकली सी हंसी के साथ मुसकरा दी. ‘मोनिका…’ अचानक उस के मुंह से निकला. उस ने अचानक महसूस किया कि अंतरंग क्षणों में वह उस के कानों में इसी भावुकता से फुसफुसाता था. ‘मोनिका…’ वह दोबारा मन में बोला. इतने में वह साफसाफ बोली, ” पैसे, पैसों के हिसाब के लिए आई हूं.”
ये भी पढ़ें- कैसी दूरी: क्या शीला की यह बेचैनी रवि समझ पाया?
“ओह, अच्छा.” वह समझा कि मोनिका बहुत ही सुसंकृत है और वह सब के सामने बहुत कायदे से पेश आना चाहती है, इसलिए उस ने गरदन दाएं और बाएं दौडा़ कर देखा. मगर आसपास तो उन दोनों के सिवा और कोई भी था ही नहीं. सो, उस को लगा कि उस की गैरहाजिरी में शायद वह चादरें पसंद कर ले गई होगी. तो, आज उन के पैसे देने आई होगी.
“हां, तो मोनिका…” उस ने आंखें मिला कर कहा तो वह नजर नीची कर के फिर बोली, “आज तुम मेरा हिसाब पूरा कर दो, 5 बार के मेरे पैसे दे दो, 2 हजार रुपए के हिसाब से 10 हजार बनते हैं. आप, 8 हजार रुपए दे दो.”
मोनिका ऐसा कह कर खामोश हो गई, पर उस की आंखें नीची ही रहीं. उस के कानों ने यह सुना, तो वह तो जैसे आसमान से गिरा. उस को लगा कि वह जैसे किसी सडे़ हुए गोबर में फेंक दिया गया हो, छपाक… यह वही मोनिका है और किस बात के पैसे मांग रही है, उन मुलाक़ातों, ताल्लुकातों के जिन में वह भी अपनी मरजी से शामिल हुई. मगर वह तो उस से बहुत प्यार करती थी.
ये भी पढ़ें- नहीं बचे आंसू : शहर में क्या हुआ था सुधा के साथ
“मोनिका,” उस के मुंह से निकला और मुंह खोलते ही जैसे सडा़ हुआ गोबर सीधा उस के मुंह में गया, लेकिन उस ने अपनी आंखों से, पलकों से वह बदबूदार गोबर हटाया और पलकें झपकाते हुए कहा, “मोनिका, हम तो एकदूसरे की पूरी सहमति से… है ना… और यह तो प्यार था.”
“मगर, मैं तो किसी प्रेमव्रेम को बिलकुल भी नहीं मानती. चादर की तरह मेरी देह भी, बस, बिक्री के लिए ही सजतीसंवरती है.
“तुम, गंदे आदमी, जिस से पता नहीं कैसीकैसी मछली सी भयानक बदबू आती रहती है. तुम, जो मुझे एक चुन्नी के समान अपने अंग में लपेटे रखना चाहते हो, तुम, जो केवल अपनी शारीरिक वासनाओं को तृप्त करना चाहते हो, तुम, कैसे राक्षस हो, दैत्य हो, मुझे पता है क्योंकि तुम को मैं ने सहा है. और तुम कहते हो मुझे प्यार करते हो? तुम…” और वह चुप हो गई.
अब वह गिड़गिडा़ने लगा, “मोनिका, अब तो मैं ने अपना जीवन तुम्हारे हाथ में दे दिया है. मेरे पास शब्द नहीं हैं, मेरे मन की आवाज सुनो. तुम आज मेरे कोमल दिल को लात मार रही हो पर एक दिन जरूर…”
मगर मोनिका बिलकुल ही जड़ हो कर बैठी थी. अचानक उस से बेहतर होने का तेज मोनिका के हावभाव में उदित हुआ. विश्वास और व्यावहारिकता के रंग उस की आंखों में छा गए. वह जैसे किसी जरूरी काम को याद कर के उठ खड़ी हुई. उस के इस रूखेपन से अब तो वह जैसे दोबारा उस गोबर में सन कर लथपथ हो गया था. उस बदबू से बचने के लिए उस ने जल्दी से 5 हजार रुपए थमा दिए और उस की तरफ से अपना मुंह मोड़ लिया.
मोनिका रुपए लपक कर सीधे अपने रास्ते चलती गई. अब वह जरा सा दूर थी. लेकिन अब भी गोबर की हलकीहलकी गंध वहां पर रह गई थी. उस ने पानी से भरा हुआ एक जग लिया और अपना मुंह छपाकछपाक कर धो लिया. एक सूखे कपड़े से मुंह साफ कर अब वह छिम्मा को याद कर रहा था. उस को तो गलती से ही कभीकभार ही उस पर प्यार उमड़ता क्योंकि छिम्मा तो उस के लिए, बस, एक टाइमपास ही थी. मगर वह औरत बड़ी दिलदार थी. वस्त्र पहनतेपहनते ही उस के हाथ पर सौदोसौ रुपए रख ही देती थी. कितनी मधुर मोहरे वाली महक आती थी उस के भीगे बदन से. और एक यह थी, निर्लज्ज मटर गली वाली लालची. छि: कितना गंदा नाम, बदनाम, मोनिका.
वह टूट कर बिखरा, बेकार, बेजान खिलौना सा बन गया था. जाते हुए मोनिका की चप्पल दूर से ही आवाज कर रही थी और उसे एकाएक लगा कि एक चप्पल ऊपर उठी और उड़ती हुई सीधी उस के गाल पर चट से आ लगी है. अपने कोमल गाल पर मोनिका की चप्पल खा कर वह दर्द से कराहने लगा कि उस के कान में सर्कस के मैनेजर की आवाज पड़ी. वह वहीं पर एक जोकर को समझा रहा था कि, “तू तो है ही इस काबिल कि तेरी जम कर हंसी उडा़ई जाए. हमें पता है कि तेरा कौन सा बटन कब और कैसे दबाना है, समझा कि नहीं? तुझे शरबत पिला कर तेरा सत्कार कर रहे हैं, तो ऐसे ही नहीं, हम तुझ से दोगुना काम भी निकाल लेंगे, यह मत भूलना.”
उस को लगा कि यह डायलौग उस के लिए फिट था. उस ने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर लिए और मदहोशी वाली हालत में कदमताल करताकरता बाहर निकल पड़ा. और सर्कस का मैदान छोड़ कर वह आगे कहीं किसी सड़क पर आ गया.
ये भी पढ़ें- कालगर्ल : क्यों पायल का दीवाना हो गया था वह
“अरे, यह सुराही तो बहुत जतन से सांचे पर ढाल कर पकाई थी. इस से तो यह उम्मीद नहीं थी. हम ने सोचा था, यह बहुत दिन साथ निभाएगी. पर यह शायद नए पानी की तासीर से डर गई. ओह, धत तेरी की. चल.” वहां एक आदमी था जो टुकड़ेटुकड़े हो गई सुराही को ठिकाने लगा रहा था.
उस ने यह सब अनदेखा किया मगर हर चीज तो वश में नहीं होती न. अचानक वह अपने सामने देखता है कि फैला हुआ लंबा उजाड़ रास्ता है. यह देख कर वह लड़खडा़ने सा लगा और उसी रास्ते पर एक जगह लुढ़क गया. उस ने बंद आंखों से कुछ चित्र देखे, रमा और छिम्मा अपने हाथ हिला कर उसे बुला रही थीं. वह एकाएक उठा और उठ कर खड़ा हो गया. ऐसा लगा कि कोई लतिका उस के पीछे दौड़ती आ रही थी. फिर वह उस का हाथ पकड़ कर पूछ रही थी, ‘सुनिए, ये वाली 10 चादरें खरीदनी हैं, कितना डिस्काउंट मिलेगा?’
मगर उस को कुछ और भी याद आने लगा था…उस दिन एक फोन आया था कि नहींनहीं, मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. तो, ऐसे ही सारी जाजिम बिछाई जाती है. पहले चादर देखो, फिर वही चादर बिछा दो.
एक रात जब चांदनीरात जैसे दूध में नहा कर भीग रही थी और काठगोदाम के कुछ पहाड़ सफेद हो कर दूर से ही चांदी जैसे चमक रहे थे, नीचे रानीबाग की तरफ गौला नदी का शोर संगीत सा लग रहा था. उस ने अपना फोन लिया और मोनिका के नंबर पर लगा दिया. मगर डरकर दोबारा नहीं किया. तो उसी समय मोनिका ने ही फोन कर दिया, पूछने लगी, “ओ बुद्धू सेल्समैन.”
“अ,हां,” उस ने घबरा कर कहा.
“इस समय फ़ोन कैसे किया?”
“बस, यह बताना था कि आज शाम ही चादरों की एक नई गांठ आई है. तुम अपनी किटी की 7-8 सहेलियों के लिए कह रहीं थी न. बिलकुल रोमांटिक छपाई है.”
“कैसी रोमांटिक, यह कैसी छपाई होती है, मैं नहीं समझी?”
“अब यह तो उन को छू कर पता लगेगा.”
“अच्छा, बुद्धू सेल्समैन, जब तुम ने छुआ तो तुम को कैसा लगा, यह तो बताओ?” मोनिका की आवाज में बहुत शरारत थी.
वह दीवाना हुआ जा रहा था. पर अब आगे और कुछ भी बात नहीं करना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि मिनटदोमिनट बाद ही सही फोन तो बंद करना ही होगा. उस ने बहाना बना कर अलविदा कहा, फोन बंद कर दिया.
पर वह साफसाफ कल्पना कर पा रहा था कि खुले हुए बाल कभी मोनिका के गालों से तो कभी उस की गरदन पर खेल रहे होंगे. वह वहां होता तो अभी वह गरमागरम… वह फिर अपना ध्यान हटा कर कहीं कुछ और ही सोचने लगा.
सर्कस की अपनी भोजन व्यवस्था थी. वहां सुबह चायपोहा, दोपहर में दालरोटीखिचड़ी, शाम को चायपकौड़े और रात को रस वाले आलू-तेल के परांठे मिलते थे. साथ ही, मालिक उस को एक प्लेट राजमाचावल खाने के पैसे अलग से रोज नकद दिया करता था. पर यहां मोनिका के हाथों के भरवां करेले, आलूशिमलामिर्च, आलूमटरगोभी का स्वाद ही निराला था.
ये भी पढ़ें- मैली लाल डोरी: अपर्णा ने गुस्से में मां से क्या कहा?
कुल मिला कर जिंदगी का हर पल यहां चादर की दुकान और टैंट में मोनिका के बगैर एक बहुत बरबाद चीज़ ही साबित हो रही थी. बहुत बोर. रोज़ चादरों की तह करो और उसी तह में तहमद बनते रहो. कहीं कोई रंग नहीं, कोई रस नहीं. मशीनी हाट और मशीनी काम. यह जीना भी कोई जीना था. हां, अब दुनिया में हर कोई अपना एक जीवन तो चुन ही लेता है और बाकी बारहखडी़ भी उसी हिसाब से तय होती जाती है.
एक दिन उस के लिए कितना भावुक करने वाला पल आया था कि जब मोनिका उस से खुद को कुछ सैकंड के लिए अलग कर के शायद कहीं शून्य में खो गई और एक गीत ‘रोजरोज आंखों तले एक ही सपना चले’ बस, इतना सा टूटाफूटा गुनगुना कर वह कुछ देर चुप रही और पलंग के नीचे कच्चे फर्श को ताकने लगी. वहां अपनी आंखों की कलम से ज़मीन पर कुछ चित्र बनाती रही, फिर अचानक बोली, “हां, जो भी हो, उम्मीद तो बना कर रखनी चाहिए. सब खत्म होने तक भी अच्छे होने की उम्मीद करते रहना, कुदरत का फरमान है. देह भले ही कितनी उम्र पार कर चुकी हो, तो भी उम्मीद को जवानी का एहसास छू कर रखना चाहिए, अगर कहीं यह कमजोर देह डगमगा गई और हमारा आत्मबल मुंह के बल गिर पड़े. तो चट संभल जाए. इस तरह जीवन के कंधे पर निराशा का बोझ नहीं पड़ता.”
मोनिका से यह सब सुन कर उस को अचंभा हुआ और फिर वह भी मोनिका के सुर मे सुर मिला कर बोल पड़ा, “हां मोनिका, हरेक पल को स्वीकार करना जरूरी है. स्वीकृति ही तो हर चीज से मुक्त कर देती है. यही रास्ता है. स्वीकृति सहनशीलता से कहीं ज्यादा बेहतर है. लेकिन अगर हम जागरूक नहीं हैं, अगर स्वीकार करना आप के लिए संभव नहीं है और आप हर छोटीछोटी चीज के लिए भी चिड़चिड़ा जाते हैं तो उस से बचने के लिए कम-से-कम कुछ सहनशीलता तो विकसित कर ही लेनी चाहिए. मैं ने आज तक यही माना कि यह जीवन, बस, एक सहनशीलता पर ही टिका है. मैं खुद कितनी छोटी उम्र से कैसे शहरशहर किसी का नौकर बन कर जूझ रहा हूं. मगर मैं हमेशा यही देख पाता हूं कि कोई चीज सुविधाजनक नहीं है, तो उस के बारे में शिकायत करने का क्या लाभ. सब स्वीकार कर लो, यही सब से अच्छा और आरामदायक रास्ता है.”
यह सुन कर मोनिका उस से कैसे लता सी लिपटती गई थी. तब से मोनिका के हर स्पर्श में उस को एक कोमलता लगती. उसे बारबार महसूस होता कि वह एक पोखर है और उस के समूचे उदास पानी में वह एक लहर पैदा कर देती है. वह अब एक ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज थी जो परिभाषित तो नहीं हो पा रही थी पर वह कुछ ऐसी तो थी जो उस के मर्म पर और आंतरिक इच्छा पर राज करने लगी थी.
मोनिका के बिना यहां इस सर्कस में इतना टिक पाना उस के लिए तकरीबन असंभव ही होता. मालिक भी तो यही देख रहा था कि वह कब तक यहां रहना सहन करता है. कभीकभी उस को यह लगता कि पूरी दुनिया में, बस, यह एक मोनिका ही तो है जो उस के अकेलेपन को पहचानती है, उस के भीतर घुमड़ रहे उन खामोश बादलों को सुन पाती है जिन्हें केवल उस का उदास बिस्तर सुन पाता है या तकिया और यह वह मोनिका से पहले शायद अपने अकेले में सुनता रहा.
पहले जिन महिलाओं के दामन में वह भीग कर तर हुआ था वे सब इतनी मुलायम नहीं थीं, न दिल के स्तर पर और न ही गुफ्तगू के स्तर पर.
यों आज तक उस ने कभी भी अपने लिए एक मनपसंद जीवन की कामना नहीं की थी, वह लगभग 40 वर्ष का हो चला था. मालिक के पास रह कर काम करतेकरते उस को 20 साल हो गए, पर उस के मन में काम को ले कर कभी खीझ पैदा नहीं हुई. वह रांची से भोपाल, ओडिशा से हैदराबाद, गाजियाबाद से लखीमपुर खीरी कहांकहां नहीं रहा. कोई शहर, गांव या इंसान उस को सब मजा ही मजा मिलता रहा. रहनसहन के मामले में तो वह हमेशा एकजैसे ही रहा- टीशर्ट और जींस. फैशनेबल कपड़ों के मामले में उस के मन का मिजाज कभी भी विचलित नहीं होता. शायद, यही उस का खास अंदाज रहा जो सब, खासकर आजकल मोनिका, को भी मोहित कर जाता है.
ये भी पढ़ें- अभिषेक: अम्मा से मानस ने क्या किया सवाल ?
मोहित करना भी तो भ्रम में रखना ही है और सच पूछा जाए तो हर एक इंसान को जी सकने के लिए सांसों के साथ भरपूर भ्रम भी चाहिए, वरना ज़िंदगी उसे सत्य की पहचान करवा कर किस अवसाद में या किस मुसीबत में डाल दे, पता नहीं.
बहुत कम लोग हैं जो उस की तरह अपना सच जान कर भी उस को सम्पूर्ण रूप से किसी भ्रम के परदे से ढक कर जीवन का फ़ायदा उठा कर आनंद के द्वार पर पहुंचते हैं.
वैसे, अधिकांश लोगों में उस की ही तरह ज्यादा होते होंगे. ज़िंदगी की इस रंगीन फिल्म के आकर्षण से अपने मन को रोक पाना इतना आसान तो है भी नहीं. कुत्ते की गरदन में जितना सुंदर पट्टा उस पर उतनी ही नजरें टिकी रहती हैं, पर वह तो कुत्ता नहीं है और न ही किसी तरह से हलका इंसान. वह मोनिका से सच्चा प्यार करता है, बहुत सच्चा.
मोनिका को सुखी रखना उस के अलावा और किसी के वश में है ही नहीं. वह इतने प्यार से उस से जुड़ी है, तो रिश्ता तो उस को भी निभाना ही होगा. हां, यह वफादारी उस को कुछ बेचैन भी करेगी. आगे और भी जवान और मदमाते हुए आकर्षण आएंगे लेकिन मोनिका से गठबंधन उस को एकदम योगी बना देगा. वह अब किसी तरफ नजर ही नहीं डालेगा.
आज उस के पास 20 साल की पक्की नौकरी है. मालिक का इतना स्नेह और दुलार है. अब मोनिका भी उसी की होगी. वह मोनिका को सम्मान से अपनाने में कतई पीछे नहीं हटेगा. जब कुदरत आगे बढ़ कर उस को इतनी मखमली डोरी से बांध रही है तो वह इस संकेत का अपमान भला कैसे कर सकता है. यह सोच कर ही उस को मीठीमीठी गुदगुदी सी होने लगी.
आगे पढ़ें- मोनिका नकली सी हंसी के साथ…
ये भी पढ़ें- दिल्लगी बन गई दिल की लगी: क्यों शर्मिंदा थी साफिया
मन का बोधबिंदु जब बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.
दिल्ली के सदर बाजार से जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8 दिनों पहले उस को बता रहे थे कि उन के दादाजी भी इस जगह को इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी, लहसुन, प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.
पर, अब इस का चेहरामोहरा बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.
यहीं मटर गली से पतली सी पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो उस को कुछ भी मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि पहले भी यह एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी कच्ची ही रह गई है यह पगडंडी.
वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर चलते हुए पहली बार मोनिका से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली में ही घड़ी ठीक करने का काम करता था और कुछ दलाली वाले वैधअवैध काम भी करता था. उस दोपहर मोनिका परदे से सटी उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा था.
ये भी पढ़ें- लेडी डौक्टर कहां है: मीरा और उसकी सास के बीच कैसा था रिश्ता
मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना पहले ही हुई थी जब उस ने अपने मालिक के साथ बैडशीट और चादरों की स्टाल सर्कस मैदान में ही लगा रखी थी.
यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और चादरों की यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की विधा यानी एक कलाबाजी ही थी.
वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा और जयपुर से चादरों की एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात की चर्चा कर के मालिक के साथ हंस रहा था कि मोनिका अचानक ही सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट की तरफ निकल गया.
अब मोनिका आराम से बैठ गई और एक चादर की तरफ अपनी उंगली से इशारा करती हुई उस की डिटेल्स पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की गाड़ी की स्टेयरिंग भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का परिचय कराया. वह चादरों का कपड़ा और उन के प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी. उस के बदन से किसी मोगरे वाले साबुन की भीनीभीनी महक आ रही थी. मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां, उस को अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के साथ ओडिशा एक मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.
वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों बाद जब वह उस के पास ही था तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी. तब छिम्मा ने राई और मिर्च से नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर उस की कितनी सेवा की थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था और अब वह छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की रमा और गोवा की डेल्मा की तरह उस पर कोई रुपया खर्च ही नहीं करना पड़ा था.
छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की तरह बिलकुल ही फोकट में उस को हासिल हो गई थी. पर, वह आज, बस, इसी महक के कारण छिम्मा को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब भा रही थी.
जैसे दोपहर की अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक भीनीभीनी शाम. तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी, ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है, मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.
ये भी पढें- घर का न घाट का: सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था
तब उस ने हंस कर मोनिका को चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए बताया था कि इस चादर की दुकान का परिचय करवाया 2 दिनों पहले के अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था. कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम दाम.
मोनिका जिस दोपहर को चादरें ले गई थी, उसी दिन की शाम उस को बारबार कहीं भगा कर ले जाती. उस रात उस की रात में भी, बस, रात ही रात थी. फिर भोर हुई, दिन चढ़ा और एक फोन आया. हालांकि वह औपचारिक फोन था मगर जब 2-3 चादरों के गड़बड़ और उन में कुछकुछ घिसे हुए प्रिंट को ले कर मोनिका ने शिकायतभरा फोन किया तो उस ने घर का सब अतापता पूछ कर खुद ही सही, सुंदर, सुघड़ छपाई की नईनई चादरें उस के घर पर जा कर अपने हाथों से मोनिका के हाथों में दी थीं. तब से करीबकरीब वह 4 बार तो वहां जा ही चुका था.
एक दिन जब वह मोनिका के घर पर भोजन और शयन कर के चाय की चुस्कियां ले रहा था तभी मोनिका के दरवाजे पर एक बरतन वाला आ गया. पुराने कपड़े के बदले बरतन बेचने वाला वह धंधेबाज मोनिका को उस की 3 पुरानी चुन्नियों के एवज में एक कटोरी पकड़ा गया. उस के जाने के बाद मोनिका को ऐसा लगा कि वह ठगी गई है.
तब उस ने मोनिका के गालों को सहलाते हुए कहा था कि मोना, जाने दो न, भूल जाओ, दूसरों को मूर्ख बना कर खुश होने वाला अंत में पछताता है. हमारी उदासी और खुशी हमारे सोचने पर और मन की दशा पर निर्भर करती है. अपने कष्ट के लिए औरों को दोषी कहने वाला रोज कष्ट में रहता है. सुखदुख कुछ नहीं है, हमारा चुनाव है मोना. वह मन ही मन हंस रहा था कि गोवा की डेल्मा का कहा उस को हूबहू याद रह गया, वाह.
मोनिका ने उस के चुप होने का इंतजार किया और यह कीमती सलाह सुन कर उस को प्यार से एक मधुर चुंबन दिया. ओह, मोनिका…
वह हौलेहौले मोनिका का कितना आदी होता जा रहा था. मोनिका के साथ उस को जीवन एकदम से ही सरस और मधुमय लगने लगा था. कभी लगता कि इसीलिए हर मधुरता भी एक हद तक ही रहती है, कहीं यह समय गुजर न जाए. फिलहाल भले ही चादरों का ही बहाना होता था मगर उस को लगता कि यह तकदीर का संकेत था. उस के इस तुच्छ से प्रेमिल संसार में भले ही किसी महान हीरो वाला का पुट न हो, भले ही मोनिका को ले कर वह, बस, कोई सपना ही देख रहा हो पर आज तो ये सब अनुभूतियां ही उस के जीवन को रोमांचक बना रही हैं.
आगे पढ़ें- सर्कस की अपनी भोजन व्यवस्था थी. वहां…