मैंने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता, बल्कि मैं ने कभी जरूरत ही नहीं समझ. मैं ने कभी किसी बात को दिल से नहीं लगाया. लिखना मुझे व्यर्थ की बात लगती. मैं सोचता क्यों लिखूं? क्यों अपनी सोच से दूसरों को अवगत कराऊं? मेरे बाद लोग मेरे लिखे का न जाने क्याक्या अर्थ लगाएं. मैं लोगों के कहने की चिंता ज्यादा करता अपनी कम.
अकसर लोग डायरी लिखते हैं. कुछ प्रतिदिन और कुछ घटनाओं के हिसाब से. मैं अपने विषय में किसी को कुछ नहीं बताना चाहता, लेकिन पिछले 1 सप्ताह से यानी जब से डा. नीरज से मिल कर लौटा हूं अजीब सी बेचैनी से घिरा हूं. पत्नी विनीता से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पाता. वह तो पहले ही बहुत दुखी है. बातबात पर आंखें भर लेती है. उसे और अधिक दुखी नहीं कर सकता. बेटे वसु व नकुल हर समय मेरी सेवा में लगे रहते हैं. उन्हें पढ़ने की भी फुरसत नहीं. मैं उन का दिमाग और खराब नहीं करना चाहता. यों भी मैं जिस चीज की मांग करता हूं वह मुझे तत्काल ला कर दे दी जाती है, भले ही उस के लिए फौरन बाजार ही क्यों न जाना पड़े. मैं कितना खुदगर्ज हो गया हूं. औरों के दुखदर्द को समझना ही नहीं चाहता. अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता हूं, लेकिन लगा नहीं पा रहा.
‘‘पापा, आप चिंता न करो. जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ कहता हुआ वसु जब अपना हाथ मेरे सिर पर रखता है, तो मैं समझ नहीं पाता कि यह कह कर वह किसे तसल्ली दे रहा है मुझे या अपनेआप को? उस से क्या कहूं? अभी मोबाइल पर किसी और डाक्टर से कंसल्ट करेगा या नैट में सर्च करेगा. बच्चे जैसे 1-1 सांस का हिसाब रख रहे हैं. कहीं 1 भी कम न हो जाए और मैं बिस्तर पर पड़ा इन सब की हड़बड़ी, हताशानिराशा उन से आंखें चुराते देखता रहता हूं. उन की आंखों में भय है. भय तो अब मुझे भी है. मैं भी कहां किसी
से कुछ कह पा रहा हूं. डा. राजेश,
डा. सुनील, डा. अनंत सभी की एक ही राय है कि वायरस पूरे शरीर में फैल चुका है. लिवर डैमेज हो चुका है. जीवन के दिन गिनती के बचे हैं. डा. फाइल पलटते हैं, नुसखे पढ़ते हैं और कहते हैं कि इस दवा के अलावा और कोई दवा नहीं है.
सुन कर मेरे अंदर छन्न से कुछ टूटने लगता है यानी मेरी सांसों की डोर टूटने में कुछ ही समय बचा है. मेरे अंदर जीने की अदम्य लालसा पैदा होने लगती है. मुझे अफसोस होता है कि मेरे बाद पत्नी और बच्चों का क्या होगा? अकेली विनीता बच्चों को कैसे संभालेगी? कैसे बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी? कैसे घर खर्च चलेगा? 2-4 लाख रुपए घर में हैं तो वे कब तक चलेंगे? वे तो डाक्टरों की फीस और मेरे अंतिम संस्कार पर ही खर्च हो जाएंगे, घर में पैसे आने का कोई तो साधन हो.
विनीता ने कितना चाहा था कि वह नौकरी करे पर मैं ने अपने
पुरुषोचित अभिमान के आगे उस की एक न चलने दी. मैं कहता कि तुम्हें क्या कमी है? मैं सभी की आवश्यकताएं आराम से पूरी कर रहा हूं. पर अब जब मैं नहीं रहूंगा तब अकेली विनीता सब कैसे संभालेगी? घर और बाहर संभालना उस के लिए कितना मुश्किल होगा. मैं अब क्या करूं? उसे कैसे समझऊं? क्या कहूं? कहीं मेरे जाने के बाद हताशानिराशा में वह आत्महत्या ही न कर ले. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती. वह इतनी कमजोर नहीं है. मैं भी न जाने क्या उलटीसीधी बातें सोचने लगता हूं. पर विनीता से कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे हैं.
रिश्तेदार 1-1 कर आ जा रहे हैं. कुछ मुझे तसल्ली दे रहे हैं तो कुछ स्वयं को. पत्नी विनीता और बेटा वसु गाड़ी ले कर मुझे डाक्टरों को दिखाने के लिए शहर दर शहर भटक रहे हैं. आय के सभी स्रोत लगभग बंद हैं. वे सब मुझे किसी भी कीमत पर बचाने की कोशिश में लगे हैं.
मैं डाक्टर की बातें सुन और समझ रहा हूं, लेकिन इस प्रकार दिखावा कर रहा हूं कि डाक्टरों की बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं.
विनीता और वसु के सामने उन का मन रखने के लिए कहता हूं, ‘‘डाक्टर बेकार बक रहे हैं. मैं ठीक हूं. यदि लिवर खराब है या डैमेज हो चुका है तो खाना कैसे पचा रहा है? तुम सब चिंता मत करो. मैं कुछ दिनों में ठीक हो कर चलने लगूंगा. तुम डाक्टरों की बातों पर विश्वास मत करो. मैं भी नहीं करता.’’
पता नहीं मैं स्वयं को समझ रहा हूं या उन्हें. पिछले 5 सालों से यही सब हो रहा है. मैं एक भ्रम पाले हुए हूं या सब को भ्रमित कर रहा हूं. 5 साल पहले बताए गए सभी कारणों को डाक्टरों की लफ्फाजी बता कर नकारने की कोशिश करता रहा हूं. यह छल पत्नी और बच्चों से भी किया है पर स्वयं को नहीं छल पाया हूं.
एचआईवी पौजिटिव बहुत ही कम लोग होते हैं. पता नहीं
मेरी भी एचआईवी पौजिटिव रिपोर्ट क्यों कर आई.
विनीता के पूछने पर डाक्टर संक्रमित खून चढ़ना या संक्रमित सूई का प्रयोग होना बताता है, लेकिन मैं जानता हूं विनीता मन से डाक्टर की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही. वह तरहतरह की पत्रिकाओं और किताबों में इस बीमारी के कारण और निदान ढूंढ़ती रहती है.
मैं जानता हूं कि 7 साल पहले यह बीमारी मुझे कब और कैसे हुई? जीवन में पहली बार मित्र के कहने पर लखनऊ में एक रात रुकने पर उसी के साथ एक होटल में विदेशी महिला से संबंध बनाए. गया था रात हसीन करने, जीवन का आनंद लेने पर लौटा जानलेवा बीमारी ले कर. दोस्त ने धीरे से कंधा दबा कर सलाह भी दी थी कि सावधानी जरूर बरतना. पर मैं जोश में होश खो बैठा. मैं ने सावधानी नहीं बरती और 2 साल बाद जब तबीयत बिगड़ीबिगड़ी रहने लगी तब डाक्टर को दिखाया और ब्लड टैस्ट कराया. तभी इस बीमारी का पता चला. मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई. अब क्या हो सकता था, सिवा इलाज के? इलाज भी कहां है इस बीमारी का? बस धीरेधीरे मौत के मुंह में जाना है. न तो मैं दिल खोल कर हंस सकता और न ही रो. अपनी गलती किसी को बता भी नहीं सकता. बताऊं भी कैसे? मैं ने विनीता का भरोसा तोड़ा था, यह कैसे स्वीकार करता?
विनीता से कई लोगों ने कहने की कोशिश भी की, लेकिन उस का उत्तर हमेशा यही रहा कि मैं अपने से भी ज्यादा समीर पर विश्वास करती हूं. वे ऐसा कुछ कभी कर ही नहीं सकते. समीर अपनी विनीता को धोखा नहीं दे सकते. मुझे लग रहा था कि विनीता अंदर ही अंदर टूट रही है. स्वयं से लड़ रही है, पर मुखर नहीं हो रही, क्योंकि उस के पास कोई ठोस कारण नहीं है. मैं भी उस के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता.
पिछले 5 सालों से हमारे बीच पतिपत्नी जैसे संबंध नहीं हैं. हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मुझे कई बार अफसोस होता कि मेरी गलती की सजा विनीता को मिल रही है. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि शारीरिक संबंध न बनाए जाएं. मेरी इच्छा होती तो उस का मैं कठोरता से दमन करता. विनीता भी मेरी तरह तड़पती होगी. कभी विनीता का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेता, लेकिन उस का सूनी आंखों में झंकने की हिम्मत न कर पाता. वह मुझे एकटक देखती तो लगता कि पूछ रही है कि तुम यह बीमारी कहां से लाए? मेरी नजरें झक जातीं. मैं मन ही मन दोहराता कि विनीता मैं तुम्हारा अपराधी हूं. तुम
से माफी मांग कर अपना अपराध भी कम नहीं कर सकता.
मैं रोज तुम्हारे कमरे में आ कर तुम्हें छाती पर तकिया रखे सोते देखता हूं. आंखें भर आती हैं. मैं इतना कठोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. तुम्हें आगोश में भरने का मेरा भी मन है. मेरी इच्छाएं भी अतृप्त हैं. एक घर में रह कर भी हम एक नदी के 2 किनारे हैं. तुम पलपल मेरा ध्यान रखती हो. वक्त से खाना और दवा देती हो. मुझे डाक्टर के पास ले जाती हो. फिर भी मैं असंतुष्ट रहता हूं. मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. तुम मुझ से दूर भागती हो और मैं तुम्हें पाना चाहता हूं. मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता तो वे क्रोध में मुखर होने लगती हैं. सोच और विवेक पीछे छूट जाते हैं. मैं तो मर ही रहा हूं तुम्हें भी मृत्यु देना चाहता हूं. मैं कितना खुदगर्ज इंसान हूं विनीता.
वक्त के साथ दूरी बढ़ती ही जा रही है.
मेरा जीना सब के लिए व्यर्थ है. मैं जी कर घर
भी क्या रहा हूं सिवा सब को कष्ट देने के? मेरे रहते हुए भी मेरे बिना सब काम हो रहे हैं, मेरे बाद भी होंगे.
आज की 10 तारीख है. मुझे देख कर डाक्टर अभीअभी गया है. मैं बुझने से
पहले तेज जलने वाले दीए की तरह अपनी जीने की पूरी इच्छा से बिस्तर से उठ जाता हूं. विनीता और बच्चों की आंखें चमक उठती हैं. मैं टौयलेट तक स्वयं चल कर जाता हूं. फिर लौट कर कहता हूं कि मैं चाहता हूं विनीता कि मेरे जाने के बाद भी तुम इसी तरह रहना जैसे अब रह रही हो. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम नहीं जानतीं कि मैं पिछले सप्ताह से बसु से अपने एटीएम कार्ड से रुपए निकलवा कर तुम्हारे खाते में जमा करा रहा हूं. ताकि मेरे बाद तुम्हें परेशानी न हो. मैं ने सब हिसाबकिताब लिख कर दिया है, समझदार हो. स्वयं और बच्चों को संभाल लेना. मुझे तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना जरा भी अच्छा नहीं लग रहा, पर जाना तो पड़ेगा. मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है कि तुम से कहूं, फिर कहनेसुनने से दूर हो जाऊंगा. तुम भी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती होगी पर मेरी परेशानी देख कर चुप हो. न मैं तुम से कुछ कह पाऊंगा और न तुम सुन पाओगी. तुम्हें देखतेदेखते ही किसी भी पल अलविदा कह जाऊंगा. मैं जानता हूं तुम्हें हमेशा यही डर रहता है कि पता नहीं कब चल दूं. इसीलिए तुम मुझे जबतब बेबात पुकार लेती हो. हम दोनों के मन में एक ही बात चलती रहती है. मुझे अफसोस है विनीता कि मुझे अपना वादा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी किए बगैर ही जाना पड़ेगा.
तुम सो गई हो. सोती हुई तुम कितनी सुंदर लग रही हो. चेहरे पर थकान और विषाद की रेखाएं हैं. क्या करूं विनीता आंखें तुम्हें देख रही हैं. दम घुट रहा है. कहना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूं.
विनीता यह जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नए जीवन की शुरुआत है. अंधेरा दूर होगा, सूरज निकलेगा. इतने दिन से जो धुंधलापन छाया था सब धुलपुंछ जाएगा. तुम्हारा कुछ भी नहीं गया है. यह मैं क्या समझ रहा हूं? क्या तुम्हें नहीं समझता? समझता हूं तभी समझ रहा हूं. अब मेरा जाना ही ठीक है. वसु को कोर्स पूरा करना है. उसे प्लेसमेंट जौब मिल गई है. एक रास्ता बंद होता है. दूसरा खुल जाता है. नकुल भी शीघ्र ही अपनी मंजिल पा लेगा.
विनीता, तुम्हारे पास मेरे सिवा सभी कुछ होगा. मैं जानता हूं मेरे बाद तुम्हें अधूरापन, खालीपन महसूस होगा. तुम अपने अंदर के एकाकीपन को किसी से बांट नहीं पाओगी. मैं भी तुम्हारा साथ देने नहीं आऊंगा. पर मेरे सपनों को तुम जरूर पूरा करोगी. मन से मुझे माफ कर देना. अब बस सांस उखड़ रही है… अलविदा विनीता अलविदा… तुम्हारा समीर