इस 21वीं शताब्दी में भी 87 फीसदी से ज्यादा भारतीय युवा अपनी शादी के लिए मां-बाप पर निर्भर हैं. जबकि अमरीका में महज 23 फीसदी, ब्रिटेन में करीब 17 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 38 फीसदी और औस्ट्रेलिया में सिर्फ 27 फीसदी नौजवान ही अपनी शादी के लिए अपने मां-बाप पर निर्भर हैं. अगर हिंदुस्तान में होने वाले 10 से 12 फीसदी प्रेमविवाहों की भी बात करें तो उनमें भी कम से कम 5 फीसदी शादियों में मां-बाप का सीधे रोल है. हिंदुस्तान में इस समय छोटे बड़े कोई 55 मैरिज ब्यूरो जैसी वेबसाइटें अस्तित्व में हैं जो शादी की उम्र के लड़कों और लड़कियों को आपस में मिलाते हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि यह काम भी 60 फीसदी से ज्यादा युवा खुद अपने लिए लड़की या लड़का नहीं ढूंढ़ते बल्कि यह काम उनके मां-बाप उनके लिए करते हैं.
सवाल है क्या यह महज हमारी पारिवारिक संस्कृति की वजह से है? क्या भारतीय युवा अपने मां-बाप से बहुत प्यार करते हैं, इसलिए वो चाहते हैं कि उनकी शादी का निर्णय वही लें और इस तरह उनका अपने बच्चों के साथ लगाव और बच्चों का अपने मां-बाप के साथ निर्भरता जाहिर हो? क्या हिंदुस्तानी युवा अपनी शादी का जिम्मा अपने मां-बाप पर छोड़कर उन्हें गर्व की अनुभूति कराते हैं? या फिर इस सबके पीछे भारतीय युवाओं की एक खास किस्म की बेफिक्री और निर्णय न ले पाने की खामी है? सुनने में बुरा लग सकता है, लेकिन असली बात यही है कि आज भी भारतीय युवा अपने निजी फैसलों को लंबी उम्र तक ले पाने में हिचकिचाते है या वाकई असमर्थ रहते हैं. आखिर इसकी वजह क्या है? इसकी तह में जाएं तो सबसे बड़ी वजह भारत में बच्चों की परवरिश है.
ये भी पढे़ं- तानों के डर से पेरेंट्स अपने बच्चों को घर से निकाल देते है –नाज़ जोशी
ऐसा नहीं है कि भारतीय युवा विदेशी युवाओं के मुकाबले कम कमाते हैं या बहुत देर से कमाते हैं. सच्चाई तो यह है कि भारतीय युवा अमेरिकन युवाओं के मुकाबले करीब 3 साल पहले ही कमाने लगते हैं. ब्रितानी युवाओं के मुकाबले करीब साढ़े तीन साल पहले और पूरी दुनिया के युवाओं को देखें तो भारतीय युवा अपने पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, नेपाली जैसे समकक्षों के साथ ही दुनिया के दूसरे युवाओं के मुकाबले औसतन एक से डेढ़ साल पहले ही कमाना शुरु कर देते हैं. यही नहीं भारतीय युवा कमाये हुए पैसों को जोड़ने के मामले में दुनिया में सबसे बेजोड़ हैं. मध्यवर्ग के भारतीय युवा जो व्हाइट या ब्लू कालर जौब में अपना भविष्य सुनिश्चित करते हैं, वे अपने मां-बाप के मुकाबले औसतन 11 साल पहले गाड़ी यानी कार ले लेते हैं और करीब 12 से 13 साल पहले अपना फ्लैट ले लेते हैं. ईएमआई के मामले में भी मौजूदा भारतीय नौजवान अपने मां-बापों से 15 से 17 साल आगे हैं यानी आज के नौजवान बहुत कम उम्र से ईएमआई भरना शुरु कर देते हैं.
सवाल है आखिर ये तमाम तथ्य किस बात की तरफ इशारा करते हैं? क्या वाकई भारतीय युवा विदेशी युवाओं के मुकाबले अपने मां-बाप पर ज्यादा निर्भर हैं? इस सवाल का वाकई बड़ा मिश्रित सा जवाब है. अगर व्यवहारिक रूप से देखें तो सचमुच ऐसा है. भारतीय युवा अपने मां-बाप पर कहीं ज्यादा निर्भर दिखते हैं, लेकिन इस निर्भरता के पीछे उनकी कोई कमी नहीं बल्कि खासतौर पर परवरिश का ढांचा जिम्मेदार है. भारत में आज भी परिवार व्यवस्था में जो सामाजिक दबाव हैं, उनके चलते लंबे समय तक मां-बाप बच्चों को इस तरह परवरिश देते हैं कि बहुत दिनों तक वे स्वतंत्र रूप से कुछ करने की सोच ही नहीं पाते.
भारत में करीब 93 फीसदी बच्चे 10$2 तक की पढ़ाई अपने मां-बाप के साथ रहते हुए करते हैं. इस कारण वे अपने तमाम काम खुद कर पाने की आदत से वंचित रहते हैं. भारत में आमतौर पर पढ़ाई करने के लिए घर से दूर 12वीं के बाद ही बच्चे जाते हैं. ऐसा नहीं है कि आज की तारीख में हिंदुस्तानी युवा अपने लिए जीवनसाथी चुनने की कोशिश नहीं करते. बड़े पैमाने पर युवा ऐसा करते हैं. लेकिन सामाजिक संस्कार और संस्कृति में आज भी पारिवारिक वर्चस्व इस तरह का है कि लव मैरिज भी अंततः मां-बाप की इजाजत का हिस्सा बन जाती है. भारत में अभी भी युवाओं में सेंस आॅफ इंडीविजुअल्टी का वैसा एहसास नहीं है, जैसा दुनिया के दूसरे देशों में युवाओं को होता है.
चूंकि हमारे समाज के ज्यादातर बड़े बूढ़े लोग इस बात को एक सांस्कृतिक गर्व की तरह प्रस्तुत करते हैं, इसलिए भी भारतीय युवा अपने को ज्यादा निर्भर और खुद अपने निर्णय लेने वाला नहीं दिखना चाहता. इसके तमाम फायदे भी हैं, लेकिन इसके तमाम नुकसान भी हैं. पारिवारिकता, सामाजिकता और रिश्तों का यह चक्रव्यूह जहां कई लोगों को सामाजिक सहूलियतें देता है, वहीं कई लोगों के विकास में बाधक भी बनता है. जहां तक मां-बाप पर निर्भरता का सवाल है तो इसके पीछे सामाजिक कारणों के साथ-साथ आर्थिक कारण भी हैं. भारत में आज भी बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों की तादाद है, जो अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर परवरिश तक काफी तंग हालत में करते हैं, बच्चे इस हकीकत के गवाह होते हैं. इसलिए उनमें अकेले जीवन जीने का तो हिम्मत या हौसला होता ही नहीं है, जब थोड़े बहुत वह इस लायक हो भी जाते हैं तो भी उन्हें मां-बाप को तुरत फुरत छोड़कर अलग रहना एक अपराधबोध पैदा करता है.
ये भी पढ़ें- हाउसवाइफ से मेयर बनने तक का सफर: अनामिका मिथिलेश
इसलिए भी भारतीय युवा आज भी दूसरे देशों के युवाओं के मुकाबले अपने मां-बाप पर ज्यादा निर्भर होते हैं. यही वजह है कि आज भी उनकी शादी के निर्णय उनसे ज्यादा उनके मां-बाप ही लेते हैं. लेकिन ये परंपरा अब धीरे धीरे टूट रही है और अगर अगले 10 सालों तक भारत में लगातार आर्थिक विकास की दर 7 फीसदी या इससे ऊपर रहे तो हिंदुस्तान के सांस्कृतिक परिदृश्य में जबरदस्त बदलाव देखा जा सकता है. बड़े पैमाने पर युवा स्वतंत्र रूप से अपनी जिंदगी जीने की शुरुआत कर सकते हैं और भारतीय युवा भी विदेशी युवाओं की तरह बहुत कम उम्र में अपने तमाम निर्णय अपने तईं लेना शुरु कर सकते हैं.