तनाव में है हर इंसान

मां और पत्नी हर आदमी के लिए इतनी ही अजीज होती हैं कि वह उन के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है. पर कई बार इस के बिलकुल विपरीत होता है. अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के इकबाल सिंह ने अपनी 90 साल की आयु की मां और पत्नी की एक दिन हत्या कर डाली और फिर दूसरे शहरों में रह रहे बच्चों को फोन कर के कहा कि वे पुलिस को खबर कर दें.

एशियन खेलों में गोला फेंकने पर 1983 में कांस्य पदक जीतने वाला 63 साल का इकबाल सिंह टाटा स्टील और पंजाब स्टील में नौकरी करने के बाद अमेरिका में सैटल हो गया था. यह उम्र ऐसी थी जब विवाद बहुत हो जाते हैं और हर जना जीवन जैसा है, वैसा है को मानने लगता है और विवाद सुलझाता है, खड़े नहीं करता.

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मनोवैज्ञानिकों को इस तरह के मामलों का पहले से ही बहुत डर था. जब भी कोई आपदा आती है और बहुत से लोग उस से निबटने की ताकत नहीं जुटा पाते तो वे छोटी सी बात पर भी आपे से बाहर हो सकते हैं. इकबाल सिंह ने अभी अपनी बात पूरी तरह नहीं बताई पर कोरोना के लौकडाउनों का असर भी हो सकता है, जिस में हर जना बेहद तनाव में है, क्योंकि नौकरियां जा रही हैं, आमदनियां बंद हो रही हैं और हालात सुधरते नजर नहीं आ रहे. इकबाल सिंह एक अच्छेखासे 2 मंजिले मकान में रह रहा था जो भारत में खासे मध्यवर्ग के अमीरों को ही मिलता है.

इकबाल सिंह की कहानी धीरेधीरे खुलेगी पर पुलिस की नौकरी की छाया इन हत्याओं पर होने की पूरी संभावना है. भारत हो या अमेरिका पुलिस की नौकरी हरेक को हिंसक बना देती है और अच्छेअच्छे तनाव में पुलिसिया वहशीपन पर उतर आते हैं. इकबाल सिंह भी उसी गिनती में आए तो बड़ी बात नहीं, पुलिस की नौकरी और गोला फेंक में दक्षता दोहरा गुण भी है और अवगुण भी.

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#lockdown: जानलेवा बेरोजगारी

भारत की सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए पेश किया गया केंद्र सरकार का आर्थिक पैकेज बेरोज़गारी दूर नहीं कर सकेगा. देश में बेकारी की समस्या जानलेवा बीमारी जैसी हो चुकी है.

हालत यह है कि करोड़ों परिवारों के पास इतना भी पैसा नहीं है कि वे हफ्तेभर की जरूरी चीजें खरीद सकें. लोग कम खाना खा रहे हैं. यहां उनकी बात नहीं की जा रही जो बेघर हैं और भूखे रहते हैं. बात उनकी है जो कुछ काम करते थे, सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों के शिकार होकर बेरोज़गार हो गए.

जानकारों की मानें तो लंबे समय तक नौकरी न मिल पाने की समस्या को वक़्त रहते नहीं सुलझाया गया तो देश में सामाजिक अशांति बढ़ेगी. मारकाट होगी, लोगों की जानें जाएंगी.

दरअसल, जब देश में कार्य करने वाली जनशक्ति अधिक होती है किंतु काम करने के लिए राजी होते हुए भी उसको प्रचलित मजदूरी पर काम नहीं मिलता, तो उस विशेष अवस्था को ‘बेरोजगारी’ की संज्ञा दी जाती है.

लौकडाउन की वजह से देश में लगभग सभी व्यापारिक गतिविधियां रुकी हुई हैं. अधिकांश ग़ैरसरकारी दफ़्तर बंद हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोगों का काम ठप हो चुका है. इस दौरान 67 फ़ीसदी लोगों का रोज़गार छिन गया है. अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा सिविल सोसाइटी की 10 संस्थाओं के साथ किए गए सर्वे में यह जानकारी सामने आई है.

आर्थिक मामलों पर गहन शोध करने के लिए जानी जाने वाली संस्था सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी यानी सीएमआईई का अनुमान है कि तालाबंदी की वजह से भारत में अब तक 12 करोड़ लोग अपनी नौकरी गंवां चुके हैं. आज खाद्य सामग्री और दूसरी ज़रूरी वस्तुओं की मांग में आई गिरावट यह बताती है कि देश के सामान्य आदमी और ग़रीब की ख़र्च करने की क्षमता कम हुई है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन यानी इंटरनेशनल लेबर और्गेनाइजेशन के अनुसार, यह गिरावट बहुत गंभीर होने वाली है. आईएलओ का अनुमान है कि भारत के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले क़रीब 400 करोड़ लोग पहले की तुलना में और ग़रीब हो जाएंगे.

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अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और सिविल सोसाइटी की 10 संस्थाओं के साझा सर्वे के मुताबिक़, शहरी क्षेत्र में 10 में से 8 और गांवों में 10 में से 6 लोगों को रोज़गार खोना पड़ा है. सर्वे में आंध्रप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल के लोगों से बातचीत की गई. उनसे लौकडाउन के कारण रोज़गार, आजीविका पर पड़े असर और सरकार की राहत योजनाओं तक उनकी पहुंच को लेकर सवाल पूछे गए.

सर्वे से पता चला है कि शहरी इलाक़ों में स्वरोज़गार करने वालों में से 84 फ़ीसदी लोगों का रोज़गार छिन गया है. इसके अलावा वेतन पाने वाले 76 फ़ीसदी कर्मचारी और 81 फ़ीसदी कैजुअल वर्करों का भी रोज़गार चला गया है. ग्रामीण इलाक़ों में 66 फ़ीसदी कैजुअल वर्करों को रोज़गार खोना पड़ा है जबकि वेतन पाने वाले ऐसे कर्मचारी 62 फ़ीसदी हैं.

सर्वे के मुताबिक़, ग़ैरकृषि आधारित काम करने वाले लोगों पर भी लौकडाउन की जोरदार मार पड़ी है. इनकी कमाई में 90 फ़ीसदी की कमी आई है. पहले ये सप्ताह में 2,240 रुपए कमाते थे, अब इनकी कमाई सिर्फ़ 218 रुपए रह गई है.

सैलरी पाने वालों में से 51 फ़ीसदी कर्मचारियों की या तो सैलरी कटी है या फिर उन्हें सैलरी मिली ही नहीं है. इसके अलावा, यह भी जानकारी सामने आई है कि 49 फ़ीसदी घरों की ओर से कहा गया है कि उनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वे एक हफ़्ते का ज़रूरी सामान ख़रीद सकें. शहरी इलाक़ों में रहने वाले 80 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले 70 फ़ीसदी घरों की ओर से कहा गया है कि वे पहले से कम खाना खा रहे हैं.

टाटा इंस्टिट्यूट औफ़ सोशल साइंसेज़ के चेयरप्रोफ़ैसर आर रामाकुमार कहते हैं, “भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2018 की तुलना में पहले ही धीमी थी जबकि असमानता की दर असामान्य रूप से बढ़ी हुई थी. 2011-12 और 2017-18 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक बेरोज़गारी ऐतिहासिक रूप से बढ़ी हुई थी और ग्रामीण ग़रीबों द्वारा खाद्य सामग्री पर कम ख़र्च किया जा रहा था.

औब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वरिष्ठ सदस्य और इकोनौमी ऐंड ग्रोथ प्रोग्राम के प्रमुख मिहिर स्वरूप शर्मा ने एक न्यूज पोर्टल से बातचीत में कहा, “युवा भारतीयों के सबसे आकांक्षात्मक खंड पर महामारी की वजह से जो अभूतपूर्व आर्थिक तनाव पड़ेगा, वह उनमें एक बड़े असंतोष को जन्म देगा. और घोर चिंताजनक बात यह है कि इससे अल्पसंख्यकों व दूसरे कमज़ोर वर्गों को लक्षितहिंसा का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर, अगर महामारी का सांप्रदायीकरण जारी रहता है.”

गौरतलब है कि सरकार के कई मंत्री, सत्ताधारी दल भाजपा के नेता, आरएसएस से जुड़े संगठन, भाजपा का आईटी सैल और गोदी मीडिया देश में सांप्रदायिक नफरत फ़ैलाने में जुटे हैं. वे वायरसी महामारी के फैलने का ठीकरा संप्रदायविशेष पर फोड़ने में भी लगे हैं.

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ऐसे में सरकार, जो धर्मों से हटकर सभी देशवासियों के लिए होती है, का दायित्व बनता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि मौजूदा घोर आर्थिक संकट का ख़मियाज़ा सिर्फ़ ग़रीबों को ही न उठाना पड़े. हालांकि, 6 वर्षों के मोदी सरकार के प्रदर्शन पर नजर डालें, तो यही समझ आता है कि वह अमीरों की हिमायती है.

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