बनारस के पक्का महल इलाके के इस घर में टिया और रिया के रोने की आवाजें सुनसुन कर आसपास के लोगों को भी चैन नहीं आ रहा था. यह समय भी तो ऐसा ही था. महामारी ने लोगों को मजबूर कर दिया था. वे चाह कर भी इन 8 साल की जुड़वां बहनों को गले लगा कर चुप नहीं करवा पा रहे थे. कोरोना देखते ही देखते इन बच्चियों का सबकुछ छीन ले गया था. दादादादी रामशरण और सुमन और टिया व रिया के मम्मीपापा सब एकएक कर के कोरोना के शिकार होते गए थे. अब ये बच्चियां हर तरफ से अकेली थीं. कोई नहीं था जो इन के सिर पर हाथ रखता. पड़ोसी सावधानी बरतते हुए किसी तरह खाने के लिए कुछ दे जाते. शाम होतेहोते बच्चियां डर कर ऐसे रोतीं कि सुनने वालों के दिल दहलते.
इन घरों की बनावट किसी बंद किले से कम न थी. घर का मुख्य दरवाजा बंद होते ही बाहर की दुनिया जैसे कट जाती. बस, घर में काम करने वाली दया कोरोना के माहौल की परवा न करते हुए इन बच्चियों के पास ही रुक गई थी. सो, दोनों को घर में एक इंसान तो दिख रहा था. इस गली में सभी घर बाहर से एकदम बंद से दिखते.
यह भी बहुत पुराना बना मकान था. सब से नीचे ग्राउंडफ्लोर पर दया के लिए एक छोटा सा कमरा और वाशरूम था. दया यहां सालों से थीं. पुराने सामान से भरा एक स्टोर था. घर का बड़ा सा दरवाजा बंद ही रहता. उसे खोलने के लिए एक बड़ी सी चेन कुछ इस तरह से बंधी रहती कि उसे खींच कर ऊपर से भी दरवाजा खोला जा सके. पहले ऊपर से देख लिया जाता कि कौन है, फिर दरवाजा खोला जाता. सुरक्षा की दृष्टि से तो घर पूरी तरह सेफ था पर अकेला घर अब अजीब से सन्नाटे में घिरा रहता. बच्चियों को तो क्या कहा जाए, खुद दया का दिल इस सन्नाटे पर हौलता सा रहता.
पहली मंजिल पर रामशरण और सुमन का बड़ा सा बैडरूम था जिस में सब सुविधाएं थीं. दूसरी मंजिल पर एक बैडरूम संजय और मधु का था और एक कमरा बच्चियों का था. किचन पहली मंजिल पर ही था. जहां टिया और रिया सारे दिन ऊपरनीचे दौड़ा करतीं थीं वहां अब पूरा दिन, बस, दया के आगेपीछे रोतींसिसकतींघूमतीं और फिर थक कर अपने कमरे में जा कर चुपचाप लेटी रहतीं.
अपने अंतिम दिनों में जब मधु को एहसास हुआ कि वे भी नहीं बचेंगीं तो उन्होंने लखनऊ में रहने वाले अपने भाई अनिल को फोन कर के कहा था, ‘अनिल, बड़ी मुश्किल से तुम से बात कर रही हूं. सुनो, हमारे बाद टिया और रिया का ध्यान रखोगे न? उन के बारे में सोचसोच कर किसी पल चैन नहीं आ रहा है, मेरी बच्चियां…’ यह कहतेकहते मधु फूटफूट कर रो पड़ी थीं. अनिल ने कहा था, ‘दीदी, आप बस ठीक हो जाओ, सब ठीक होगा, चिंता न करो, मैं हूं न. सब संभाल लूंगा.’
टिया व रिया का परिवार एक बार जो हौस्पिटल गया, लौटा ही नहीं था. कुछ पड़ोसियों ने अनिल को फोन किया. सब परेशान थे कि इन बच्चियों का होगा क्या. सभी उन की दूरदूर से देखभाल कर रहे थे, पर कितने दिन. अनिल कुछ दिन बाद ही बनारस आया. बच्चियों की हालत देख कर हैरान रह गया. एकदम फूल सी खिली रहने वाली बच्चियां मुरझा सी गई थीं. उस से लिपटलिपट कर दोनों खूब रोईं, “मामा, अब मत जाना कहीं, हमारे साथ ही रहना.”
दया ही खाना बना कर दोनों को खिलाती, जो हो सकता, उन के लिए करती. पर उस की भी एक सीमा थी न. अनिल के सामने हाथ जोड़ कर कहने लगी, “भैया जी, बच्चियों का क्या होगा? आप इन्हें अपने साथ ले जाएंगे? मैं भी कब तक यहां रहूंगी?”
“क्यों, क्यों नहीं रह सकती? देखता हूं कि दीदी की अलमारी में कुछ पैसे रखे हों तो कुछ ले लो, और रहो बच्चियों के साथ, तुम्हारा कौन सा घरपरिवार है.”
अनिल ने टिया को पुचकारा, “बेटा, मम्मी की अलमारी की चाबी है न?”
“मामा, दया मौसी के ही पास है.”
अनिल ने दया की तरफ घूर कर देखा तो उस ने कहा, “जिस दिन संजय भैया नहीं रहे, उसी दिन मधु दीदी को शायद अपने जाने की आशंका भी हो गई थी. उन्होंने मुझे चाबी रेखा दीदी के यहां जा कर देने के लिए कहा था पर मैं बच्चियों को छोड़ कर निकल ही नहीं पाई. फिर वे आती भी हैं तो मैं ही भूल जाती हूं चाबी उन्हें देना.”
“कौन रेखा?”
“संजय भैया के साथ उन के औफिस में काम करती हैं. इसी गली में आगे जा कर रहती हैं. इस समय बच्चियों के पास, बस, वही आतीजाती हैं.”
“लाओ, चाबी मुझे दो.”
दया उसे चाबी देना तो नहीं चाह रही थी पर मजबूर थी, दे दी. अनिल ने मधु की अलमारी खोली, उस में रखे रुपयों में से कुछ दया को देते हुए कहा, “ये रख लो, बच्चों की देखभाल तुम्हें करनी है.”
“पर मैं कब तक करूंगी? आप इन्हें अपने साथ ले जाते, तो अच्छा होता.”
“नहीं, मैं नहीं ले जा पाऊंगा.”
टिया और रिया यह सुन कर रोने लगीं. अनिल ने मधु की अलमारी से काफीकुछ निकाल कर अपने बैग में रखते हुए कहा, “मैं जल्दी ही वापस आऊंगा, अभी मुझे जाना होगा.”
बच्चियां रोती रह गईं. उन के मामा को उन से कोई स्नेह न था. झूठे दिलासे दे कर वह चला गया. रेखा एक उदार महिला थीं, संजय के औफिस में ही काम करती थीं. संजय और मधु उन्हें घर का सदस्य ही मानते थे. मधु से उन की अच्छी दोस्ती थी. अगले दिन रेखा टिया और रिया से मिलने आईं, तो उन के लिए काफी चीजें बना कर लाईं थीं. दोनों को उन्होंने अपने सीने से लगा लिया और रोने लगीं. बड़ा नरम दिल था उन का. दोनों के बारे में सोचसोच कर उन्हें चैन न आता, क्या होगा इन का? दया स्थायी रूप से तो इन के साथ नहीं रह पाएगी, यह वे जानती थीं. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. दया ने अनिल के बारे में बताया तो रेखा हैरान रह गईं. अलमारी खोल कर देखा तो नाम की धनराशि छोड़ अनिल सब ले गया था. उन का मन वितृष्णा से भर गया. इस स्थिति में भी जो इंसान बेईमानी से काम ले, लूटपाट कर जाए, वह इंसान है भी क्या? रात को वे टिया और रिया के सोने के बाद ही घर गईं.
दया को इस बार रेखा बहुतकुछ समझा कर गईं. यह समय किसी पर भी विश्वास करने का नहीं था. बच्चियों के भविष्य की चिंता करते हुए उन्होंने उसी महल्ले में रहने वाले वकील जयदेव को अगले दिन ही फोन किया और बहुत देर तक उन से इस बारे में बातें करती रहीं.
2 दिनों बाद ही जौनपुर में रहने वाली, टिया रिया की बूआ, नीना आ कर रोनेकलपने लगीं, “हाय, अभागिन बच्चियां, सब चला गएन, हमार अम्मा, बाबूजी, भैया, भौजी सब चला गएन, इंकर का होये…” सीने पर दोहत्थड़ मारमार कर रोने का ऐसा नाटक किया कि बच्चियां डर कर ही रोने लगीं. दया ने कहा, “दीदी, अपने को संभालो, बच्चियां परेशान हो रही हैं.”
नहाधो कर खूब डट कर खाने के बाद नीना आराम से गहरी नींद सो गई, तो दया ने रेखा को उन के आने के बारे में बता दिया. रेखा ने जो सोचा था, उस की तैयारी करने लगीं. नीना सो कर उठी, तो पहली मंजिल पर स्थित रामशरण और सुमन के कमरे में जाने लगी जो उन की मृत्यु के बाद अकसर बंद ही रहता था. दया उस के पीछेपीछे जाने लगी तो नीना ने रुखाई से कहा, “तू आपन काम करा, हमरे पीछे काहे आवत आहा? अपने अम्माबाबूजी के कमरा मा का हम दुई मिनट बैठियू नाही सकित?”
दया बाहर चली गई पर उस ने खिड़की की झिर्री से देखा, नीना जल्दीजल्दी दिवंगत मातापिता की अलमारी खंगाल रही है. दया ने जल्दी से रेखा को फोन किया. रेखा ने जयदेव को फोन कर के बात की और थोड़ी ही देर में बच्चियों के पास पहुंच गईं. नीना अभी तक अपने मातापिता की एकएक चीज खंगालने में लगी हुई थी. दया ने जा कर उन्हें बताया, “दीदी, रेखा दीदी आईं हैं.”
नीना पहले भी आनेजाने पर रेखा से मिल चुकी थी. आतेजाते उन से जितनी भी बातें हुई थीं, रेखा से मन ही मन थोड़ा दूरी सी ही रखी थी. रेखा को देख कर जोरजोर से रोने लगी, “हाय, हम अनाथ हो गए, सब चला गएन.” रेखा ने मन ही मन इस नाटक की सराहना की और कहा, “जो हो गया, लौटाया नहीं जा सकता. अब तो बच्चियों के भविष्य की चिंता करनी है.”
जयदेव भी आ गए थे. रेखा ने जयदेव की सलाह पर अपने 2 अच्छे पड़ोसियों को पूरी बात बता कर आने के लिए कह दिया था. वे भी समय से पहुंच गए थे. दया सब के लिए चाय बनाने चली गई. रेखा ने कहा, “दीदी, आप बच्चियों को अपने साथ ले जाएंगी? आजकल तो औनलाइन क्लासेस चल रही हैं, कैसे कर पाएंगी टिया और रिया अपनी पढ़ाई. अभी भी सब छूट रहा है दोनों का. मैं ने इन की टीचर से बात तो की है पर इन्हें एक परिवार चाहिए. दया सबकुछ तो नहीं कर पाएगी न.”
“न, न, बड़ी मुश्किल अहै हमरे साथे, हम बहुत बीमार रहित हा, हम इनकर देखभाल न कय पाउब.”
रेखा ने एक नजर उन के हृष्टपुष्ट शरीर पर डाली और पूछ लिया, “दीदी, क्या हुआ आप को? संजय और मधु ने तो मुझे कभी बताया नहीं कि आप की तबीयत खराब रहती है.‘’
कुछ हुआ हो तो नीना बताती, बात बदल दी, “अउर सोचा कुछ, बच्चियन कहां रहिएं, यहां भी दया के साथ ही रह लें तो बुराई का अहै? धीरेधीरे सब सीख ही लैइहें, थोड़ी बड़ी होतीं तो हम अपने साथ ले जाती पर अभी तो इन्हें बहुत देखभाल की जरूरत है जो हम तो न कर पाउब, मधु के मायके वालों से पूछ लो.”
रेखा ने अनिल को फोन मिला लिया और वीडियोकौल पर उस से इस बारे में बात की. उस ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया जो जयदेव ने रिकौर्ड भी कर लिया. अब नीना थोड़ी उलझी, पूछा, “ई कौन है?”
“जयदेव जी हैं, वकील हैं, संजय के पडोसी भी हैं और इस मामले मैं बच्चियों के लिए क्या बेहतर होगा, यही बात करने हम अभी आए हैं.”
जयदेव ने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया, “हमें पहले सारे सामान की सूची बनानी है जिस से बच्चियों का हक कोई मार न ले जाए. जो भी सामान घर में है, बच्चियों का हक है उस पर, आप लोगों में से कोई भी बच्चियों की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है तो मैं इस समय टिया और रिया से ही पूछ लेता हूं कि वे किस के साथ रहना चाहती हैं,” कह कर उन्होंने दया से कहा, “बच्चियों को बुला दो, दया बहन.”
बच्चियां सीधे आते ही आदतन रेखा से सट कर बैठ गईं. जयदेव ने पूछा, “बेटा, आप ही बताओ कि आप किस के साथ रहना चाहती हो? अकेले तो नहीं रह पाओगी न, बेटा.”
टिया और रिया ने एकदूसरे का मुंह देखा, झुक कर एकदूसरे के कान में कुछ कहा और रेखा से चिपट गईं, एक साथ बोलीं, “रेखा आंटी के साथ रहना है.”
रेखा ने भावविभोर हो कर दोनों को सीने से चिपटा लिया, आंसू बह निकले, “मेरी बच्चियां, हां, मेरे साथ रहेंगीं.”
नीना के चेहरे पर बला टलने वाले भाव आए और झेंपती हुई वह मुसकरा दी. पड़ोसी रोहित और सुधा ने भी उठ कर बच्चियों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ”हां, रेखा आंटी के साथ रहना और हम भी हैं ही, तुम हमारा ही परिवार हो अब, बेटे.”
बच्चियां बहुत दिन बाद मुसकराई थीं. दया ने अपनी आंखें पोंछीं. जयदेव ने कहा, ”कानूनी प्रक्रिया तो मैं संभाल ही लूंगा, अब कोई चिंता नहीं. पहले जरा आज ही हम सारे सामान की एक एक लिस्ट बना लें,’’ फिर नीना की तरफ देखते हुए पूछ लिया, ”अभी आप ने किसी की अलमारी से कुछ लिया तो नहीं है न?”
”न, न, मैं तो अपने मांपिताजी की एकएक चीज उन की याद में देख रही थी. काफी सामान संभाल कर रखा है अम्मा ने. पता नहीं कितना सोनाचांदी रखा है अम्मा ने. कबहूं बताउबै नाही किहिन,’’ लालच से भरा स्वर सब को दुखी कर गया. यह समय ऐसा था कि सिर्फ बच्चियों के बारे में सोचा जाना चाहिए था पर बच्चियों के मामा और बूआ को घर में रखे रुपए पैसे और कीमती सामान में ज्यादा रुचि है. यह बात सब का दिल दुखा गई थी. वहीं, रेखा की निस्वार्थ दोस्ती और स्नेह से भरे दिल पर सब को गर्व हो आया.
जयदेव ने वहीँ बैठेबैठे अपना काम शुरू किया और रोहित व सुधा रेखा और दया के साथ मिल कर अब एकएक सामान एक फाइल में नोट करते जा रहे थे. बच्चियां दया से पूछ रही थीं, ”मौसी, यहां अब आप अकेली रहोगी?”
”नहीं, मैं भी गांव जाऊंगी, वहां मेरा घर है. जब भी तुम कहोगी, वापस आ जाऊंगी और बीचबीच में तुम से मिलने आती भी रहूंगी.”
”मौसी, अब रात को अकेला भी नहीं सोना पड़ेगा न हमें?”
”हां, मेरी बच्चियो, अब कोई डर की बात नहीं. हिम्मत रखना,” कह कर दया ने उन के सिर पर प्यारभरा हाथ रखा और दुखी, मासूम से चेहरे चूम लिए. टिया और रिया रेखा के पीछेपीछे घूम रही थीं. जीवनभर नन्हे हाथों के स्पर्श को तरसा मन जैसे नजरों ही नजरों में उन पर स्नेह लुटा रहा था. रेखा निसंतान थीं. पति की मृत्यु कुछ साल पहले हो गई थी. आज बच्चियों को अपने साथसाथ चलते देख, उन के मुसकराते चेहरे देख दिल को ऐसी ठंडक सी मिली थी जिसे वे किसी को भी समझा नहीं सकती थीं.