रेटिंग: पांच में से डेढ़ स्टार
निर्माताः एन एफडी सी,कमल मिश्रा
लेखकः मनीष तिवारी और पद्मजा ठाकुर
निर्देषक: मनीष तिवारी
कलाकार: राजेश्वरी सचदेव,प्रशांत नारायण,रित्विक साहोर,गोविंद नाम देव,अंजन श्रीवास्तव,अवनीत कौर,रवि किशन,जयेश कार्डक,पुष्कर चिरपुतकर, नागेश भोसले,अजय जाधव मिलिंद जोशी व अन्य.
अवधिः दो घंटा एक मिनट
बिहार,अब झारखंड में जन्में, प्रारंभिक शिक्षा तिलैया सैनिक स्कूल से लेने के बाद दिल्ली,इंग्लैंड व अमरीका से शिक्षा ग्रहण करने के बाद भारत,रोम व नेपाल में संयुक्त राष्ट् संघ के खाद्य व कृषि विभाग में नौकरी की. आर्थिक व राजनीतिक विषयों पर कुछ लेख लिखे.उसके बाद उन्होने 2007 में प्रकाश झा निर्मित असफल फिल्म ‘‘दिल दोस्ती इस्टा’ का निर्देशन किया.
इसके बाद 2013 में प्रतीक बब्बर,अमायरा दस्तूर,रवि किशन व राजेश्वरी सचदेव को लेकर फिल्म ‘‘इसाक’’ का निर्देशन किया,जिसमें दो ‘भू माफिया’ के बच्चों की प्रेम कहानी पेश की थी. ‘इसाक’ का लेखन मनीष तिवारी और पद्मजा ठाकोर तिवारी ने किया था. फिल्म ‘इसाक’ अपनी आधी लागत भी वसूल नहीं कर पायी थी.अब पूरे दस वर्ष बाद मनीष तिवारी फिल्म ‘‘चिड़ियाखाना’’ लेकर आए हैं. इस फिल्म का निर्माण तो पांच वर्ष पहले ही पूरा हो गया था. 2019 में इसे सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र भी मिल गया था.
मगर अफसोस यह फिल्म अब दो जून को सिनेमाघरों में पहुॅच रही है.पिछली फिल्म ‘इसाक’ की ही तरह इस फिल्म का लेखन भी मनीष तिवारी व पद्मजा ठाकोर ने किया है. इस बार मनीष तिवारी अपनी फिल्म ‘चिड़ियाखाना’ को लेकर मंबुई पहुॅच गए हैं. पर उनके दिमाग में ‘भू माफिया’,बिहार, ‘बाहरी’ यानी कि गैर मंबुईकर, झारखंड व बिहार का नक्सलवाद पूरी तरह से छाया हुआ है.
उन्होने एक अच्छी कहानी पर ‘‘चूं चूं का मुरब्बा’’ वाली फिल्म बनाकर पेश कर दी है. वास्तव में फिल्म ‘‘चिड़ियाखाना’’ का निर्माण ‘चिल्डन फिल्म सोसायटी’’ ने किया है, जिसका अब ‘एनएफडीसी’ में विलय हो चुका है. ‘चिल्डन फिल्म सोसायटी’ का दायित्व बच्चों के लिए उत्कृष्ट सिनेमा बनवाना रहा है, पर इसमें वह बुरी तरह से असफल रहा. यूं तो फिल्म ‘चिड़ियाखाना’’ एक ‘अंडरडाॅग’ की कहानी है,जो सफलता का मुकाम हासिल करता है.फिल्म के पोस्टरों में भी लिखा है-‘‘हर इंसान के अंदर एक टाइगर यानी कि षेर होता है.’मगर इस बात को सही परिप्रक्ष्य में चित्रित करने में मनीष तिवारी विफल रहे हैं.
कहानी
कहानी के केंद्र में 14 वर्ष का बिहारी लड़का सूरज (ऋत्विक साहोरे) और उसकी मां बिभा (राजेश्वरी सचदेव) हैं. जो कि बिहार से भोपाल वगैरह होते हुए मंबुई पहुॅचा है. सूरज व उसकी मां एक झोपड़पट्टी मे रहती है.सूरज नगर पालिका यानी कि सरकारी स्कूल में पढ़ने जाने लगता है. जबकि मां बिभा एक घर में काम करने लगती है. सूरज के पिता नही है और बिभा,सूरज को उसके पिता का नाम बताना भी नही चाहती. सूरज का जुनून फुटबाल खेलना है,मगर स्कूल का मराठी भाषी गुंडा व स्कूल फुटबाल टीम का कैप्टन बाबू (जयेश कर्डक), सूरज को पसंद नही करता.
वह अपने दोस्तों के साथ सूरज का मजाक उड़ाता है. सूरज को हर लड़के में किसी न किसी जानवर का चेहरा नजर आता है. (शायद फिल्मकार ने अपनी फिल्म के नाम को जायज ठहराने के लिए ऐसा प्रतीकात्मक किया है). सूरज से उसकी सहपाठी मिली (अवनीत कौर ) प्यार करने लगती है.वह अपने तरीके से सूरज की मदद करने का प्रयास करती रहती है.
सूरज अपनी स्कूल टीम में जगह बनाने के लिए प्रयासरत रहता है,तो उसे झोपड़पट्टी के गुंडे /भाई प्रताप ( प्रशांत नारायणन ) की मदद मिलती है. जब से बिभा अपने बेटे सूरज के साथ इस बस्ती में रहने आयी है,तब से प्रताप मन ही मन बिभा को चाहने लगा है. प्रताप स्थानीय डाॅन भाउ (गोविंद नामदेव) के लिए काम करता है. यह स्थानीय डॉन बिल्डरों के एक समूह के साथ बीएमसी स्कूल के कब्जे वाली जमीन को हड़पने के लिए एक सौदा करता है,जहां यह बच्चे फुटबॉल खेलते हैं.
बीएमसी कमिश्नर भी स्कूल के प्रिंसिपल (अंजन श्रीवास्तव )की नही सुनते.पर प्रताप,भाउ की बजाय बच्चों के साथ मिलकर स्कूल के ग्राउंड को बचाना चाहता है.जिससे सूरज व अन्य बच्चे वहां पर फुटबाल खेल सके.कभी प्रताप भी इस स्कूल की फुटबाल टीम का कैप्टन रह चुका है. वह प्रिंसिपल को मेयर से मिलने की सलाह देता है. मेयर ग्राउंड बचाने के लिए षर्त रख देता है कि बीएमसी स्कूल के बच्चे एक प्रायवेट स्कूल के बच्चे की टीम को फुटबाल में हरा दे,तो वह ग्राउंड उनका रहेगा. इसी बीच बिभा का भाई बिक्रम सिंह पांडे (रवि किशन ) ,बंदूक लेकर सूरज की हत्या करने आता है. पर प्रताप के आगे वह चला जाता है. तब पता चलता है कि बिभा ने अपने परिवार वालों के खिलाफ जाकर एक नक्सली महतो से षादी की थी. महतो की मोत हो चुकी है. पर बिभा का भाई बिभा व महतो के बेटे सूरज को खत्म करना चाहते हैं.खैर,दो स्कूलों की फुटबाल टीम के बीच मैच होता हैै.
लेखन व निर्देशनः
लेखकों के साथ ही फिल्मकार मनीष तिवारी का अधकचरा ज्ञान इस फिल्म को ले डूबा.एक अच्छी कहानी का सत्यानाश कैसे किया जाता है,यह मनीष तिवारी से सीखा जा सकता है.इसकी मूल वजह यह नजर आती है कि फिल्मकार खुद तय नही कर पाए है कि वह फुटबाल पर या घटतेे खेल के मैदान या भू माफिया द्वारा खेल के मैदान हड़पने या ‘मुंबई बाहरी’ या नक्सल में से किसे प्रधानता देना चाहते हैं.
फिल्म की पटकथा इतनी लचर है कि दर्शक को पहले से ही पता होता है कि अब यही होगा.इंटरवल से पहले फिल्म ठीक ठाक चलती है. लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म पर से मनीष तिवारी की पकड़ खत्म हो जाती है. वह तो जितने मसाले डाल सकते थे,वह सब डाल देते हैं.यहां तक बिहारी अस्मिता के लिए वह सूरज के मुंह से बिहारी भाषा में कुछ संवाद भी बुलवा देते हैं. फिल्म में 2001 में आयी फिल्म ‘लगान’ की नकल भी है. फिल्मकार ‘बाहरी’ का मुद्दा भी ठीक से नही उठा पाए. इसकी मूल वजह यह है कि मुंबई जैसे शहर में यह मुद्दा कई दशक से गौण हो चुका है.
मुंबई शहर में खेल के मैदानों पर बिल्डर लाॅबी का कब्जा अहम मुद्दा है. सिर्फ मुंबई से सटे भायंदर जैसे छोटे इलाके में भाजपा के विधायक रहते हुए नरेंद्र मेहता ने जिस तरह से खेल के मैदान पर कब्जा कर अपना निजी रिसोर्ट खड़ा कर किया है, वह जगजाहिर है. पर अब तक उनके खिलाफ कोई काररवाही नही हुई. पर अफसोस की बात यह है कि जब खेल के मैदान कई सौ करोड़ो में बिक रहे हों,चिल्डन पार्क खत्म हो रहे हैं,तब भी इस मुद्दे को फिल्मकार सही परिप्रेक्ष्य में चित्रित करने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. जबकि महज इसी मुद्दे को फुटबाल खेल की पृष्ठभूमि में वह अच्छे से उठाते तो फिल्म अच्छी बन जाती.
अचानक नक्सलवाद का एंगल लाकर फिल्मकार कहानी के बहाव को रोकने का प्रयास करते हैं.बिभा के भाई बिक्रम के आगमन वाला दृष्य फिल्मकार के दिमागी दिवालियापन को ही दिखाता है.क्या बिक्रम ने वास्तव में सोचा था कि वह एक विदेशी भूमि (मुंबई उसके लिए विदेशी है) की बस्ती में किसी की हत्या करके बच जाएगा?फिल्मकार खुद झारखंड से हैं,मगर उन्हे यही नहीं पता कि उत्तर भारत में लोगों के ‘सरनेम’ क्या होते हैं? ‘चिल्डन फिल्म ‘सोसायटी’ का दायित्व बच्चों के लिए षिक्षाप्रद फिल्मों का निर्माण करना हुआ करता था,पर वह ‘चिड़ियाखाना’ जैसी फिल्म का निर्माण कर अपने मकसद से भटक गया था,शायद इसी वजह से इसे बंद कर दिया गया.
इस फिल्म में एक दृष्य में प्रताप ,बाबू को बंदूक देकर कहता है कि वह सूरज को गोली मार दे. भले ही बंदूक में गोली नही थी, मगर इस तरह के दृष्य बच्चों के मानस पटल पर किस तरह का असर डालते हैं. नक्सलवाद को जिस तरह से फिल्म में पेष किया गया है,उस तरह से एक नौसीखिया फिल्मकार भी नहीं करता. बिभा के अतीत को बेहतर ढंग से पेष किया जा सकता था. सूरज को फुटबाल खेलने का जुनून है,पर कब कहां से विकसित हुआ? वह बिहार व भोपाल होते हुए मुबई पहुॅचा है. पर इन जगहों पर फुटबाल के खेल को कम लो गही जानते हैं. मनीष तिवारी की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी विषय की नासमझी ही रही. इसी कारण वह बेहतरीन प्रतिभाषाली कलाकारों को फिल्म से जोड़ने के बाद भी अच्छी फिल्म ही बना सके.
अभिनयः
अपने बेटे की जिंदगी बचाने के लिए दर दर भटक रही मां के दर्द,अपने अतीत को अपने बेटे से छिपाने की कश्मकश,बेटे की सुरक्षा की चिंता, गरीबी, इन सारे भावों को बिभा के किरदार में जीते हुए राजेश्वरी सचदेव ने अपने अभिनय के कई नए आयामों को परदे पर उकेरा है.जबकि उन्हे अपने किरदार को निभाने के लिए पटकथा से कहीं कोई मदद नही मिलती.
उनकी अतीत की कहानी भी सही ढंग से चित्रित नहीं की गयी.सूरज के किरदार में रित्विक साहोर को देखकर कल्पना करना मुश्किल हो सकता है कि उसके अंदर कितनी प्रतिभा है. बाबू के जटिल किरदार को जिस तरह से जयेश कार्डक ने जिया है, उसे अनुभवी कलाकार भी नही निभा सकते थे,पर नवोदित कलाकार जयेश कार्डक ने तो कमाल कर दिया. प्रशांत नारायणन हमेशा नकारात्मक किरदारों में ही पसंद किए जाते रहे हैं. मगर इस फिल्म में उन्होने थोड़ा सा उससे हटकर प्रताप के किरदार को बेहतर ढंग से जिया है. प्रताप के किरदार में भाउ और स्कूल प्रिंसिपल के किरदार में अंजन श्रीवास्तव से बेहतर कोई दूसरा कलाकार हो ही नही सकता था. वैसे यह दोनो किरदार अधपके ही रहे. मिली के किरदार मे बेबी अवनीत कौर अपनी छाप छोड़ जाती हैं. कैमरा कॉन्शस तो दूर वह हर पोज को एंजॉय करती नजर आती है. पुष्करराज चिरपुतकर, अजय जाधव, नागेश भोंसले, मिलिंद जोशी, माधवी जुवेकर, संजय भाटिया, शशि भूषण, प्रशांत तपस्वी, रीतिका मूर्ति, श्रीराज शर्मा, योगिराज, लरिल गंजू, स्वाति सेठ, योगेश, अखिलेश (दो रैपर्स) भी ठीक ठाक हैं.