उपहार: क्या मोहिनी का दिल जीत पाया सत्या

 लेखक- सुजय कुमार

लेकिन मोहिनी थी कि उसे एक भी तोहफा न पसंद आता. आखिर में जब सत्या की मेहनत की कमाई से खरीदे छाते को भी नापसंद कर के मोहिनी ने फेंका तो…

‘‘सिर्फ एक बार, प्लीज…’’

‘‘ऊं…हूं…’’

‘‘मोहिनी, जानती हो मेरे दिल की धड़कनें क्या कहती हैं? लव…लव… लेकिन तुम, लगता है मुझे जीतेजी ही मार डालोगी. मेरे साथ समुद्र किनारे चलते हुए या फिर म्यूजियम देखते समय एकांत के किसी कोने में तुम्हारा स्पर्श करते ही तुम सिहर कर धीमे से मेरा हाथ हटा देती हो. एक बार थिएटर में…’’

‘‘सत्या प्लीज…’’

‘‘मैं ने ऐसी कौन सी अनहोनी बात कह दी. मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि तुम एक बार, सिर्फ एक बार ‘आई लव यू’ कह दो. अच्छा यह बताओ कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं?’’

‘‘नहीं जानती.’’

‘‘यह भी क्या जवाब हुआ भला? हम दोनों एक ही बिरादरी के हैं. हैसियत भी एक जैसी ही है. तुम्हारी और मेरी मां इस रिश्ते के लिए मना भी नहीं करेंगी. हां, तुम मना कर दोगी, दिल तोड़ दोगी, तो मैं…तो मर जाऊंगा, मोहिनी.’’

‘‘मुझे एक छाता चाहिए सत्या. धूप में, बारिश में, बाहर जाते समय काफी तकलीफ होती है. ला दोगे न?’’

‘‘बातों का रुख मत बदलो. छाता दिला दूं तो ‘आई लव यू’ कह दोगी न?’’

मोहिनी के जिद्दी स्वभाव के बारे में सोच कर सत्या तिलमिला उठा पर वह दिल के हाथों मजबूर था. मोहिनी के बिना वह अपनी जिंदगी सोच ही नहीं सकता था. लगा, मोहिनी न मिली तो दिल के टुकड़ेटुकड़े हो जाएंगे.

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सत्या ने पहली बार जब मोहिनी को देखा तो उसे दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट महसूस हुई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखें, सीधी नाक, ठुड्डी पर छोटा सा तिल, नमी लिए सुर्ख गुलाबी होंठ, लगा मोहिनी की खूबसूरती का बयान करने के लिए उस के पास शब्दों की कमी है.

मोहिनी से पहली मुलाकात सत्या की किसी इंटरव्यू देने के दौरान हुई थी. मिक्सी कंपनी में सेल्समैन व सेल्स गर्ल की आवश्यकता थी. वहां दोनों को नौकरी नहीं मिली थी.

कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी कंपनी के साक्षात्कार के समय उस ने दोबारा मोहिनी को देखा था. गुलाबी सलवार कमीज में वह गजब की लग रही थी. कहीं यह वो तो नहीं? ओफ…वही तो है. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं.

मोहिनी ने भी उसे देखा.

‘बेस्ट आफ लक,’ सत्या ने कहा.

उस की आंखें चमक उठीं. गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे.

‘थैंक यू,’ मोहिनी के होंठों से ये दो शब्द फूल बन कर गिरे थे.

यद्यपि वहां की नौैकरी को वह खुद न पा सका पर मोहिनी पा गई. माइक्रोओवन बेचने वाली कंपनी… प्रदर्शनी में जा कर लोगों को ओवन की खूबियों से परिचित करवा कर उन्हें ओवन खरीदने के लिए प्रेरित करने का काम था.

सत्या ने नौकरी मिलने की खुशी में मोहिनी को आइसक्रीम पार्टी दे डाली. मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. छुट्टी के दिन व काम पूरा करने के बाद मोहिनी की शाम सत्या के साथ गुजरती. सत्या का हंसमुख चेहरा, मजाकिया बातें, दिल खोल कर हंसने का अंदाज मोहिनी को भा गया था. वह उस से सट कर चलती, उस की बातों में रस लेती. एक बार सिनेमाहाल में परदे पर रोमांस दृश्य देख विचलित हो कर अंधेरे में सत्या ने झट मोहिनी का चेहरा अपने हाथों में ले कर उस के होंठों पर अपने जलतेतड़पते होंठ रख दिए थे.

यह प्यार नहीं तो और क्या है? हां, यही प्यार है. सत्या के दिल ने कहा तो फिर ‘आई लव यू’ कहने में क्या हर्ज है?

पिछली बार मोहिनी के जन्म-दिन पर सत्या चाहता था कि वह अपने प्यार का इजहार करे. जन्मदिन पर मोहिनी ने उस से सूट मांगा. 500 रुपए का एक सूट उस ने दस दुकानों पर देखने के बाद पसंद किया था पर खरीदने के लिए उस के पास रुपए नहीं थे क्योंकि प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद भी वह बेरोजगार था.

घर के बड़े ट्रंक में एक पान डब्बी पड़ी थी. पिताजी की चांदी की… पुरानी…भीतर रह कर काली पड़ गई थी. मां को भनक तक लगे बिना सत्या ने चालाकी से उसे बेच दिया और मोहिनी के लिए सूट खरीदा.

आसमानी रंग के शिफान कपड़े पर कढ़ाई की गई थी. सुंदर बेलबूटे के साथ आगे की तरफ पंख फैलाया मोर. सत्या को भरोसा था कि इस उपहार को देख कर मोर की तरह मोहिनी का मन मयूर भी नाच उठेगा. उस से लिपट कर वह थैंक्यू कहेगी और ‘आई लव यू’ कह देगी. इन शब्दों को सुनने के लिए उस के कान कितने बेकरार थे पर उस के उपहार को देख कर मोहिनी के चेहरे पर कड़वाहट व झुंझलाहट के भाव उभरे थे.

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‘यह क्या सत्या? इतना घटिया कपड़ा. और देखो तो…कितना पतला है, नाखून लगते ही फट जाएगा. यह देखो,’ कहते हुए उस ने अपने नाखून उस में गड़ाए और जोर दे कर खींचा तो कपड़ा फट गया. सत्या को लगा था यह कपड़ा नहीं, उस के पिताजी की पान डब्बी व मां के सेंटिमेंट दोनों तारतार हो गए हैं.

‘कितने का है?’ मोहिनी ने पूछा.

‘तुम्हें इस से क्या?’

‘रुपए कहां से मिले?’

‘बैंक से निकाले,’ सत्या ने सफाई से झूठ बोल दिया.

और इस बार छाता…उस ने मोलभाव किया. अपनेआप खुलने व बंद होने वाला छाता 2 सौ रुपए का था. दोस्तों से रुपए मिले नहीं. घर में जो कुछ ढंग की चीज नजर आई मां की आंखें बचा कर उसे बेच कर सिनेमा, ड्रामा, होटल के खर्चे में वह पहले से पैसे फूंक चुका था.

काश, एक नौकरी मिल गई होती. इस समय वह कितना खुश होता. मोहिनी के मांगने के पहले उस की आवश्यकताओं की वस्तुओं का अंबार लगा देता. चमचमाते जूते पर धूल न जमे, कपड़ों की क्रीज न बिगड़े, एक अदद सी नौकरी, बस, उसे और क्या चाहिए. पर वह तो मिल नहीं रही थी.

नौकरी तो दूर की बात, अब उस की प्रेमिका, उस की जिंदगी मोहिनी एक छाता मांग रही है. क्या करे? अचानक उसे रवींद्र का ध्यान आया जो बचपन में उस का सहपाठी था. बड़ा होने पर वह अपने पिता के साथ उन के प्रेस में काम करने लगा. बाद में पिता के सहयोग से उस ने प्रिंटिंग इंक बनाने की फैक्टरी लगा ली थी. बस, दिनरात उसी फैक्टरी में कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता था.

एक दोस्त से पैसा मांगना सत्या को बुरा तो लग रहा था पर क्या करे दिल के हाथों मजबूर जो था.

‘‘उधार पैसे मांग रहे हो पर कैसे चुकाओगे? एक काम करो. ग्राइंडिंग मशीन के लिए आजकल मेरे पास कारीगर नहीं है. 10 दिन काम कर लो, 200 रुपए मिलेंगे. साथ ही कुछ सीख भी लोगे.’’

इंक बनाने के कारखाने में ग्राइंडिंग मशीन पर काम करने की बात सोच कर ही सत्या को घिन आने लगी थी. पर क्या करे? 200 रुपए तो चाहिए. किसी भी हाल में…और कोई चारा भी तो नहीं.

10 दिन के लिए वह जीजान से जुट गया. मशीनों की गड़गड़ाहट… पसीने से तरबतर…मैलेकुचैले कपड़े… थका देने वाली मेहनत, उस ने सबकुछ बरदाश्त किया. 10वें दिन उस ने छाता खरीदा. मोलभाव कर के उस ने 150 रुपए में ही उसे खरीद लिया. 50 रुपए बचे हैं, मोहिनी को ट्रीट भी दूंगा, उस की मनपसंद आइसक्रीम…उस ने सोचा.

तालाब के किनारे बना रेस्तरां. खुले में बैठे थे मोहिनी और सत्या. वह अपलक अपने प्यार को देख रहा था. हवा के झोंके मोहिनी की लटों को उलझा देते और वह उंगलियों से उन्हें संवार लेती. मोहिनी के चेहरे की खुशी, उस की सुंदरता का जादू, वातावरण की मादकता को बढ़ाए जा रही थी. सत्या का मन उसे भींच कर अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त कर लेने का था, किंतु बरबस उस ने अपनी कामनाओं को काबू में कर रखा था.

कटलेट…फिर मोहिनी की मनपसंद आइसक्रीम…सत्या ने बैग से छाता निकाला. वह मोहिनी की आंखों में चमक व चेहरे पर खुशी देखने के लिए लालायित था.

‘‘सत्या, यह क्या है?’’ मोहिनी ने पूछा.

‘‘तुम ने एक छाता मांगा था न…यह कंचन काया धूप में सांवली न पड़ जाए, बारिश में न भीगे, इसीलिए लाया हूं.’’ मोहिनी ने बटन दबाया. छाता खुला तो उस का चेहरा ढक गया. छाते के बारीक कपड़े से रोशनी छन कर भीतर आई.

‘‘छी…तुम्हें तो कुछ खरीदने की तमीज ही नहीं सत्या. देखो तो कितनी घटिया क्वालिटी का छाता है. इसे ले कर मैं कहीं जाऊं तो चार लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? छाते को झल्लाहट के साथ बंद कर के पूरे वेग से उस ने तालाब की ओर उसे फेंका. छाता नाव से टकरा कर पानी में डूब गया.’’

सत्या उसे भौंचक हो कर देखता रहा. क्षण भर…वह खड़ा हुआ, कुरसी ढकेल कर दौड़ पड़ा. सीढि़यां उतर कर नाव के समीप गया. नाव को हटा कर उस ने पानी में हाथ डाल कर टटोला. छाता पूरी तरह डूब गया था. हाथपैर से टटोल कर थोड़ी देर की मशक्कत के बाद वह उसे ले आया. उस के चेहरे पर क्रोध व निराशा पसरी हुई थी.

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‘‘मोहिनी, इस छाते को खरीदने के लिए 10 दिन…पूरे 10 दिन मैं ने खूनपसीना एक किया है, हाथपैर गंदे किए हैं, इंक फैक्टरी में काम सीखा है. सोच रहा था कुछ दिनों में रुपए का जुगाड़ कर के क्यों न एक छोटी सी इंक फैक्टरी मैं भी खोल लूं. कितने अरमानों से इसे खरीद कर लाया था. तुम ने मेरी मेहनत को, मेरे अरमानों को बेकार समझ कर फेंक दिया. आई एम सौरी…वेरीवेरी सौरी मोहिनी…जिसे पैसों का महत्त्व नहीं मालूम ऐसी मूर्ख लड़की को मैं ने चाहा. लानत है मुझ पर…गुड बाय…’’

‘‘एक मिनट सत्या,’’ मोहिनी ने कहा.

‘‘क्या है?’’ सत्या ने मुड़ कर पूछा तो उस की आवाज में कड़वाहट थी.

‘‘तुम ने सूट खरीद कर दिया था, उसे भी मैं ने फाड़ दिया था, तब तो तुम ने कुछ कहा नहीं. क्यों?’’

‘‘बात यह है कि…’’

‘‘…कि वह तुम्हारी मेहनत के पैसों से खरीदा हुआ नहीं था. मैं तुम्हारी मां से मिली थी. तुम मेहनत से डरते हो, यह मैं ने उन की बातों से जाना. 500 रुपए के सूट को मैं ने फाड़ा तब तो तुम ने कुछ नहीं कहा और अब इस छाते के लिए कीचड़ में भी उतर गए, जानते हो क्यों? क्योंकि यह तुम्हारी मेहनत की कमाई का है.’’

‘‘मैं इसी सत्या को देखना चाहती थी कि जो मेहनत से जी न चुराए, किसी भी काम को घटिया न समझे, मेहनत कर के कमाए और मेहनत की खाए?’’

मोहिनी उस के समीप गई. उस के हाथों से उस छाते को लिया और बोली, ‘‘सत्या, यह मेरे जीवन का एक कीमती तोहफा है. इस के सामने बाकी सब फीके हैं. अब तुम मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस के समीप जा कर मोहिनी ने उसे गले लगाया.’’

‘‘उफ्, मेरे हाथपैर कीचड़ से सने हैं, मोहिनी.’’

‘‘कोई बात नहीं. एक चुंबन दोगे?’’

‘‘क्या?’’

‘‘आई लव यू सत्या.’’

सत्या के दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट का एहसास उसी तरह से हो रहा था जैसे उस ने पहली बार मोहिनी को देखने पर अपने दिल में महसूस किया था.

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उपहार: डिंपल ने पुष्पाजी को क्या दिया?

कैलेंडर देख कर विशाल चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, मुझे तो याद ही नहीं था कि कल 20 फरवरी है. कल मां का जन्मदिन है. कल हम लोग अपनी मां का बर्थडे मनाएंगे,’’ पल भर में ही उस ने शोर मचा दिया.

पुष्पाजी झेंप गईं कि क्या वे बच्ची हैं, जो उन का जन्मदिन मनाया जाए. फिर इस से पहले कभी जन्मदिन मनाया भी तो नहीं था, जो वे खुश होतीं.

अगली सुबह भी और दिनों की तरह ही थी. कुमार साहब सुबह की सैर के लिए निकल गए. पुष्पाजी आंगन में आ कर महरी और दूध वाले के इंतजार में टहलने लगीं. तभी विशाल की पत्नी डिंपल ने पुकारा, ‘‘मां, चाय.’’

आज के भौतिकवादी युग में सुबहसवेरे कमरे में बहू चाय दे जाए, इस से बड़ा सुख और कौन सा होगा? पुष्पाजी, बहू का मुसकराता चेहरा निहारती रह गईं. सुबह इतमीनान से आंगन में बैठ कर चाय पीना उन का एकमात्र शौक था. पहले स्वयं बनानी पड़ती थी, लेकिन जब से डिंपल आई है, बनीबनाई चाय मिल जाती है. अपने पति विशाल के माध्यम से उस ने पुष्पाजी की पसंदनापसंद की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी.

बड़ी बहू अंजू सौफ्टवेयर इंजीनियर है. सुबह कपिल और अंजू दोनों एकसाथ दफ्तर के लिए निकलते हैं, इसलिए दोनों के लिए सुविधाएं जुटाना पुष्पाजी अपना कर्तव्य समझती थीं.

छोटे बेटे विशाल ने एम.बी.ए. कर लिया तो पुष्पाजी को पूरी उम्मीद थी कि उस ने भी कपिल की तरह अपने साथ पढ़ने वाली कोई लड़की पसंद कर ली होगी. इस जमाने का यही तो प्रचलन है. एकसाथ पढ़ने या काम करने वाले युवकयुवतियां प्रेमविवाह कर के अपने मातापिता को ‘मैच’ ढूंढ़ने की जिम्मेदारी से खुद ही मुक्त कर देते हैं.

लेकिन जब विशाल ने उन्हें वधू ढूंढ़ लाने के लिए कहा तो वे दंग रह गई थीं. कैसे कर पाएंगी यह सब? एक जमाना था जब मित्रगण या सगेसंबंधी मध्यस्थ की भूमिका निभा कर रिश्ता तय करवा देते थे. योग्य लड़का और प्रतिष्ठित घराना देख कर रिश्तों की लाइन लग जाती थी. अब तो कोई बीच में पड़ना ही नहीं चाहता. समाचारपत्र या इंटरनैट पर फोटो के साथ बायोडाटा डाल दिया जाता है. आजकल के बच्चों की विचारधारा भी तो पुरानी पीढ़ी की सोच से सर्वथा भिन्न है. कपिल, अंजू को देख कर पुष्पाजी मन ही मन खुश रहतीं कि दोनों की सोच तो आपस में मिलती ही है, उन्हें भी पूरापूरा मानसम्मान मिलता है.

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अखबार में विज्ञापन के साथसाथ इंटरनैट पर भी विशाल का बायोडाटा डाल दिया था. कई प्रस्ताव आए. पुष्पाजी की नजर एक बायोडाटा को पढ़ते हुए उस पर ठहर गई. लड़की का जन्मस्थान उन्हें जानापहचाना सा लगा. शैक्षणिक योग्यता बी.ए. थी. कालेज का नाम बालिका विद्यालय, बिलासपुर देख कर वे चौंक उठी थीं. कई यादें जुड़ी हुई थीं उन की इस कालेज से. वे स्वयं भी तो इसी कालेज की छात्रा रह चुकी थीं.

उसी कालेज में जब वे सितारवादन का पुरस्कार पा रही थीं तब समारोह के बाद कुमारजी ने उन का हाथ मांगा, तो उन के मातापिता ने तुरंत हामी भर दी थी. स्वयं पुष्पाजी भी बेहद खुश थीं. ऐसे संगीतप्रेमी और कला पारखी कुमार साहब के साथ उन की संगीत कला परवान चढ़ेगी, इसी विश्वास के साथ उन्होंने अपनी ससुराल की चौखट पर कदम रखा था.

हर क्षेत्र में अव्वल रहने वाली पुष्पाजी के लिए घरगृहस्थी की बागडोर संभालना सहज नहीं था. जब शादी के 4-5 माह बाद उन्होंने अपना सितार और तबला घर से मंगवाया था तो कुमारजी के पापा देखते ही फट पड़े थे, ‘‘यह तुम्हारे नाचनेगाने की उम्र है क्या?’’

उन की निगाहें चुभ सी रही थीं. भय से पुष्पाजी का शरीर कांपने लगा था. लेकिन मामला ऐसा था कि वे अपनी बात रखने से खुद को रोक न सकी थीं, ‘‘पापा, आप की बातें सही हैं, लेकिन यह भी सच है कि संगीत मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है.’’

‘‘देखो बहू, इस खानदान की परंपरा और प्रतिष्ठा के समक्ष व्यक्तिगत रुचियों और इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं है. तुम्हें स्वयं को बदलना ही होगा,’’ कह कर पापा चले गए थे.

पुष्पाजी घंटों बैठी रही थीं. सूझ नहीं रहा था कि क्या करें, क्या नहीं. शायद कुमारजी कुछ मदद करें, मन में जब यह खयाल आया तो कुछ तसल्ली हुई थी. उस दिन वे काफी देर से घर लौटे थे.

तनिक रूठी हुई भावमुद्रा में पुष्पाजी ने कहा, ‘‘जानते हैं, आज क्या हुआ?’’

‘‘हूं, पापा बता रहे थे.’’

‘‘तो उन्हें समझाइए न.’’

‘‘पुष्पा, यहां कहां सितार बजाओगी. बाबूजी न जाने क्या कहेंगे. जब कभी मेरा तबादला इस शहर से होगा, तब मैं तुम्हें सितार खरीद दूंगा. तब खूब बजाना,’’ कह कुमारजी तेजी से कमरे से बाहर निकल गए.

आखिर उन का तबादला भोपाल हो ही गया. कुमारजी को मनचाहा कार्य मिल गया. जब घर पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया और एक पटरी पर चलने लगा तो एक दिन पुष्पाजी ने दबी आवाज में सितार की बात छेड़ी.

कुमारजी हंस दिए, ‘‘अब तो तुम्हारे घर दूसरा ही सितार आने वाला है. पहले उसेपालोपोसो. उस का संगीत सुनो.’’

कपिल गोद में आया तो पुष्पाजी उस के संगीत में लीन हो गईं. जब वह स्कूल जाने लगा तब फिर सितार की याद आई उन्हें. पति से कहने की सोच ही रही थीं कि फिर उलटियां होने लगीं. विशाल के गोद में आ जाने के बाद तो वे और व्यस्त हो गईं. 2-2 बच्चों का काम. अवकाश के क्षण तो कभी मिलते ही नहीं थे. विशाल भी जब स्कूल जाने लगा, तो थोड़ी राहत मिली.

एक दिन रेडियो पर सितारवादन चल रहा था. पुष्पाजी तन्मय हो कर सुन रही थीं. पति चाय पी रहे थे. बोले, ‘‘अच्छा लगता है न सितारवादन?’’

‘‘हां.’’

‘‘ऐसा बजा सकती हो?’’

‘‘ऐसा कैसे बजा सकूंगी? अभ्यास ही नहीं है. अब तो थोड़ी फुरसत मिलने लगी है. सितार ला दोगे तो अभ्यास शुरू कर दूंगी. पिछला सीखा हुआ फिर से याद आ जाएगा.’’

‘‘अभी फालतू पैसे बरबाद नहीं करेंगे. मकान बनवाना है न.’’

मकान बनवाने में वर्षों लग गए. तब तक बच्चे भी सयाने हो गए. उन्हें पढ़ानेलिखाने में अच्छा समय बीत जाता था.

डिंपल का बायोडाटा और फोटो सामने आ गया तो उस ने फिर से उन्हें अपने अतीत की याद दिला दी थी.

लड़की की मां का नाम मीरा जानापहचाना सा था. डिंपल से मिलते ही उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी थी. सभी आश्चर्य में पड़ गए. विशाल जैसे होनहार एम.बी.ए. के लिए डिंपल जैसी मात्र बी.ए. पास लड़की?

पुष्पाजी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. डिंपल अच्छी बहू सिद्ध हुई. घर का कामकाज निबटा कर वह उन के साथ बैठ कर कविता पाठ करती, साहित्य और संगीत से जुड़ी बारीकियों पर विचारविमर्श करती तो पुष्पाजी को अपने कालेज के दिन याद आ जाते.

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आज भी पुष्पाजी रोज की तरह अपने काम में लग गईं. सभी तैयार हो कर अपनेअपने काम पर चले गए. किसी ने भी उन के जन्मदिन के विषय में कोई प्रसंग नहीं छेड़ा. पुष्पाजी के मन में आशंका जागी कि कहीं ये लोग उन का जन्मदिन मनाने की बात भूल तो नहीं गए? हो सकता है, सब ने यह बात हंसीमजाक में की हो और अब भूल गए हों. तभी तो किसी ने चर्चा तक नहीं की.

शाम ढलने को थी. डिंपल पास ही खड़ी थी, हाथ बंटाने के लिए. दहीबड़े, मटरपनीर, गाजर का हलवा और पूरीकचौड़ी बनाए गए. दाल छौंकने भर का काम उस ने पुष्पाजी पर छोड़ दिया था. पूरी तैयारी हो गई. हाथ धो कर थोड़ा निश्चिंत हुईं कि तभी कपिल और अंजू कमरे में मुसकराते हुए दाखिल हुए. पुष्पाजी ने अपने हाथ से पकाए स्वादिष्ठ व्यंजन डोंगे में पलटे, तो डिंपल ने मेज पोंछ दी. तभी शोर मचाता हुआ विशाल कमरे में घुसा. हाथ में बड़ा सा केक का डब्बा था. आते ही उस ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया और मां के गले में बांहें डाल कर बोला, ‘‘मां, जन्मदिन मुबारक.’’

पुष्पाजी का मन हर्ष से भर उठा कि इस का मतलब विशाल को याद था.

मेज पर केक सजा था. साथ में मोमबत्तियां भी जल रही थीं, कपिल और अंजू के हाथों में खूबसूरत गिफ्ट पैक थे. यही नहीं, एक फूलों का बुके भी था. पुष्पाजी अनमनी सी आ कर सब के बीच बैठ गईं. उन की पोती कृति ने कूदतेफांदते सारे पैकेट खोल डाले थे.

‘‘यह देखिए मां, मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं. यह नौनस्टिक कुकवेयर सैट है. इस में कम घीतेल में कुछ भी पका सकती हैं आप.’’

अंजू ने दूसरा पैकेट खोला, फिर बेहद विनम्र स्वर में बोली, ‘‘और यह है जूसर अटैचमैंट. मिक्सी तो हमारे पास है ही. इस अटैचमैंट से आप को बेहद सुविधा हो जाएगी.’’

कुमारजी बोले, ‘‘क्या बात है पुष्पा, बेटेबहू ने इतने महंगे उपहार दिए, तुम्हें तो खुश होना चाहिए.’’

पति की बात सुन कर पुष्पाजी की आंखें नम हो गईं. ये उपहार एक गृहिणी के लिए हो सकते हैं, मां के लिए हो सकते हैं, पर पुष्पाजी के लिए नहीं हो सकते. आंसुओं को मुश्किल से रोक कर वे वहीं बैठी रहीं. मन की गहराइयों में स्तब्धता छाती जा रही थी. सामने रखे उपहार उन्हें अपने नहीं लग रहे थे. मन में आया कि चीख कर कहें कि अपने उपहार वापस ले जाओ. नहीं चाहिए मुझे ये सब.

रात होतेहोते पुष्पाजी को अपना सिर भारी लगने लगा. हलकाहलका सिरदर्द भी महसूस होने लगा था. कुमारजी रात का खाना खाने के बाद बाहर टहलने चले गए. बच्चे अपनेअपने कमरे में टीवी देख रहे थे. आसमान में धुंधला सा चांद निकल आया था. उस की रोशनी पुष्पाजी को हौले से स्पर्श कर गई. वे उठ कर अपने कमरे में आ कर आरामकुरसी पर बैठ गईं. आंखें बंद कर के अपनेआप को एकाग्र करने का प्रयत्न कर रही थीं, तभी किसी ने माथे पर हलके से स्पर्श किया और मीठे स्वर में पुकारा, ‘‘मां.’’

चौंक कर पुष्पाजी ने आंखें खोलीं तो सामने डिंपल को खड़ा पाया.

‘‘यहां अकेली क्यों बैठी हैं?’’

‘‘बस यों ही,’’ धीमे से पुष्पाजी ने उत्तर दिया.

डिंपल थोड़ा संकोच से बोली, ‘‘मैं आप के लिए कुछ लाई हूं मां. सभी ने आप को इतने सुंदरसुंदर उपहार दिए. आप मां हैं सब की, परंतु यह उपहार मैं मां के लिए नहीं, पुष्पाजी के लिए लाई हूं, जो कभी प्रसिद्ध सितारवादक रह चुकी हैं.’’

वे कुछ बोलीं नहीं. हैरान सी डिंपल का चेहरा निहारती रह गईं.

डिंपल ने साहस बटोर कर पूछा, ‘‘मां, पसंद आया मेरा यह छोटा सा उपहार?’’

चिहुंक उठी थीं पुष्पाजी. उन के इस धीरगंभीर, अंतर्मुखी रूप को देख कर कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि कभी वे सितार भी बजाया करती थीं, सुंदर कविताएं और कहानियां लिखा करती थीं. उन की योग्यता का मानदंड तो रसोई में खाना पकाने, घरगृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने तक ही सीमित रह गया था. फिर डिंपल को इस विषय की जानकारी कहां से मिली? इस ने उन के मन में क्या उमड़घुमड़ रहा है, कैसे जान लिया?

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आप एक अच्छी सितारवादक हैं. लिखना, चित्रकारी करना आप का शौक है.’’

पुष्पाजी सोच में पड़ गई थीं कि जिस पुष्पाजी की बात डिंपल कर रही है, उस पुष्पा को तो वे खुद भी भूल चुकी हैं. अब तो खाना पकाना, घर को सुव्यवस्थित रखना, बच्चों के टिफिन तैयार करना, बस यही काम उन की दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गए हैं. डिग्री धूल चाटने लगी है. फिर बोलीं, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम ये सब?’’

‘‘मालूम कैसे नहीं होगा, बचपन से ही तो सुनती आई हूं. मेरी मां, जो आप के साथ पढ़ती थीं कभी, बहुत प्रशंसा करती थीं आप की.’’

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‘‘कौन मीरा?’’ पुष्पाजी ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया. यही नाम तो लिखा था बायोडाटा में. बचपन में दोनों एकसाथ पढ़ीं. एकसाथ ही ग्रेजुएशन भी किया. पुष्पाजी की शादी पहले हो गई थी, इसलिए मीरा के विवाह में नहीं जा पाई थीं. फिर घरगृहस्थी के दायित्वों के निर्वहन में ऐसी उलझीं कि उलझती ही चली गईं. धीरेधीरे बचपन की यादें धूमिल पड़ती चली गईं. डिंपल के बायोडाटा पर मीरा का नाम देख कर उन्होंने तो यही सोचा था कि होगी कोई दूसरी मीरा. कहां जानती थी कि डिंपल उन की घनिष्ठ मित्र मीरा की बेटी है. बरात में भी गई नहीं थीं. जातीं तो थोड़ीबहुत जानकारी जरूर मिल जाती उन्हें. बस, इतना जान पाई थीं कि पिछले माह, कैंसर रोग से मीरा की मृत्यु हो गई थी.

डिंपल अब भी कह रही थी, ‘‘ठीक ही तो कहती थीं मां कि हमारे साथ पुष्पा नाम की एक लड़की पढ़ती थी. वह जितनी सुंदर उतनी ही होनहार और प्रतिभाशाली भी थी. मैं चाहती हूं, तुम भी बिलकुल वैसी ही बनो. मेरी सहेली पुष्पा जैसी.’’

पुष्पाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था, उन की नहीं, किसी दूसरी ही पुष्पा की प्रशंसा की जा रही है, लेकिन सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता. कानों में डिंपल के शब्द अब भी गूंज रहे थे. तो वह पुष्पा, अभी भी खोई नहीं है. कहीं न कहीं उस का वजूद अब भी है.

पुष्पाजी का मन भर आया. शायद उन का अचेतन मन यही उपहार चाहता था. फिर भी तसल्ली के लिए पूछ लिया था उन्होंने, ‘‘और क्या कहती थीं तुम्हारी मां?’’

‘‘यही कि तुझे गर्व होना चाहिए जो तुझे पुष्पा जैसी सास मिली. तुझे बहुत अच्छी ससुराल मिली है. तू बहुत खुश रहेगी. मां, सच कहूं तो मुझे विशाल से पहले आप से मिलने की उत्सुकता थी.’’

‘‘पहले क्यों नहीं बताया?’’ डिंपल की आंखों में झांक कर पुष्पाजी ने हंस कर पूछा.

‘‘कैसे बताती? मैं तो आप के इस धीरगंभीर रूप में उस चंचल, हंसमुख पुष्पा को ही ढूंढ़ती रही इतने दिन.’’

‘‘वह पुष्पा कहां रही अब डिंपल. कब की पीछे छूट गई. सारा जीवन यों ही बीत गया, निरर्थक. न कोई चित्र बनाया, न ही कोई धुन बजाई. धुन बजाना तो दूर, सितार के तारों को छेड़ा तक नहीं मैं ने.’’

‘‘कौन कहता है आप का जीवन यों ही बीत गया मां?’’ डिंपल ने प्यार से पुष्पाजी का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘आप का यह सजीव घरसंसार, किसी भी धुन से ज्यादा सुंदर है, मुखर है, जीवंत है.’’

‘‘घरर तो सभी का होता है,’’ पुष्पाजी धीरे से बोलीं, ‘‘इस में मेरा क्या योगदान है?’’

‘‘आप का ही तो योगदान है, मां. इस परिवार की बुलंद इमारत आप ही के त्याग और बलिदान की नींव पर टिकी है.’’

अभिभूत हो गईं पुष्पाजी. मंत्रमुग्ध हो गईं कि कौन कहता है भावुकता में निर्णय नहीं लेना चाहिए? उन्हें तो उन की भावुकता ने ही

डिंपल जैसा दुर्लभ रत्न थमा दिया. यदि डिंपल न होती, तो क्या बरसों पहले छूट गई

पुष्पा को फिर से पा सकती थीं? उस के दिए सितार को उन्होंने ममता से सहलाया जैसे बचपन के किसी संगीसाथी को सहला रही हों. उन्हें लगा कि आज सही अर्थों में उन का जन्मदिन है. बड़े प्रेम से उन्होंने दोनों हाथों में सितार उठाया और सितार के तार एक बार

फिर बरसों बाद झंकार से भर उठे. लग रहा था जैसे पुष्पाजी की उंगलियां तो कभी सितार को भूली ही नहीं थीं.

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