उपलब्धि – ससुर के भावों को समझ गयी बहू

लेखक- डा. क्षमा चतुर्वेदी

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

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विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

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शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

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शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

उपलब्धि: नई नवेली दुलहन कैसे समझ गई ससुरजी के मनोभाव

Serial Story: उपलब्धि (भाग-2)

बाबूजी के प्रति एक नई स्नेहधारा प्रवाहित होने लगी उस के हृदय में. उस की थीसिस जमा हो गई थी. अब बाकी रहा था साक्षात्कार. सुबहसुबह बस से इंटरव्यू के लिए जाना था. घर के सभी सदस्य अभी सो रहे थे. उस के एक परीक्षक आज ही वापस भी चले जाने वाले थे शाम की गाड़ी से, इसलिए इतनी सुबह जाना था. किसी तरह तैयार हो कर वह निकली. सामने कांपते हाथों में चाय का प्याला पकड़े बाबूजी खड़े थे. लज्जित हो वह बोली, ‘‘आप ने क्यों तकलीफ की?’’

सस्नेह वे बोले, ‘‘मेरी कामना है कि तुम्हारा उद्देश्य सफल हो.’’ झुक कर उन के पांव छू कर वह चल दी.

एकांत के सुनहरे क्षणों में स्नेहमयी बांहों की घेराबंदी से अपने को मुक्त करती हुई वह बोली, ‘‘आज मुझे सुबहसुबह बड़ी अजीब सी स्थिति का सामना करना पड़ा. बाबूजी ने स्वयं अपने हाथों से मुझे चाय बना कर ला कर दी है.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, रानी? बाबूजी तो काफी समय से यही करते आए हैं. मां इतनी सुबह उठ नहीं पाती थीं. रात में घर के ढेरों काम रहते थे. बाबूजी रोज 5 बजे सुबह हम लोगों को चाय बना कर देते थे. तब कहीं जा कर हम लोग पढ़ने के लिए बैठते थे.’’ ‘‘ओह डार्लिंग, जिस बात को तुम लोग इतना सामान्य मानते हो, वह मेरे लिए एक निहायत ही मूल्यवान अनुभव है,’’ वह बोली, और उत्तर में मिली एक मुसकान.

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इस घर के चारों ओर जो हरियाली थी उसी के कारण पड़ोसी उसे ग्रीन हाउस कहते और इस परिवार के सदस्यों का आपसी स्नेह सब की ईर्ष्या की वस्तु थी. नई बहू का शोषण करने के इरादे से कोई बातूनी आ कर कहती, ‘‘चलो न, छोटी, आज मेरे पति फ्री हैं. हम दोनों नाइट शो देख आएं. मेरे पति, तुम्हारे पति के सहकर्मी ही नहीं, जिगरी दोस्त भी हैं.’’ तनिक झिझक से वह कहती, ‘‘बाबूजी को ज्यादा रात गए घर लौटना पसंद नहीं है.’’

‘‘ओह, अपने बूढ़े ससुर से कहो ये दकियानूसी बातें भूल जाएं. आखिर एक मैट्रिकुलेट का देखनेसोचने का क्षेत्र तो सीमित होगा ही.’’

छोटी का दिल छलनी होने लगा. बाबूजी ज्यादा पढ़ नहीं पाए, क्या इसलिए वे व्यापक रूप से देखसमझ नहीं पाते? काश, ये छींटे कसने वाली यह गु्रेजुएट महिला जानती कि कितनी तमन्ना थी उन में पढ़ने की. पर कौन पढ़ाता उन्हें? दूर के रिश्ते के एक मामा ने मैट्रिक पास करते ही असम के जंगलों में भेज दिया उन्हें नौकरी करने. किसी तरह अपने को संभाल कर बोली, ‘‘छोटी ननदें हैं न घर में, उन पर क्या असर पड़ेगा?’’ ‘‘अरे, छोड़ो भी. वे क्या तुझे आदर्श बना कर जी रही हैं. ये स्कूलकालेजों में पढ़ने वाली छोकरियां तो अब तक अपना आदर्श ढूंढ़ चुकी होंगी.’’

अब वह क्या कहती? शिक्षा के दीवाने बाबूजी क्या उन लोगों को छोड़ने वाले हैं? हाथ धो कर पीछे लगे रहते हैं ताकि उन लोगों की पढ़ाई पूरी हो जाए. शांत, समझदार सास कभीकभी तुनक भी उठतीं, ‘पढ़ाई के पीछे होशोहवास खो बैठते हैं. यही एक नशा है इन को. लड़कियां घर का कामधाम भले ही न सीखें, बस दिनरात किताबें लिए रटती रहेंगी. लड़कों को तो पढ़ालिखा कर बड़ा लाट बना दिया.’ ‘लाट नहीं तो क्या? उन के ठाठ क्या किसी से कम हैं?’ बाबूजी एक संतोषपूर्ण मुखमुद्रा में चिल्लाचिल्ला कर कहते, ‘पड़ोसी पूछते हैं कि तुम्हारा कितना बैंक बैलेंस है? मैं कहता हूं कि मैं ने अपना पैसा बैंकों में जमा कर दिया है. पांचों बेटे मेरे हीरे हैं.’ उन्हें बैंक बैलेंस शून्य होने का कोई भी दुख नहीं था.

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बेटे कभीकभी चिढ़ जाते, ‘हां, हां, लिखायापढ़ाया ही तो है. और क्या दिया है? हम लोग अपनी मेहनत से आगे बढ़े. तुम ने खापी कर सब खर्च कर दिया.’ ‘जरूर किया. कमाया है, खाऊंगा नहीं?’ बाबूजी अपना धीरज खो बैठते. भिन्नभिन्न प्रकार के पकवानों के प्रति वे अपना लोभ न रोक पाते. खाने का शौक बराबर रहा है उन्हें. यह तो उन के बाजार से अपनी मनपसंद चीजें लाने का शौक देख कर ही वह समझ जाती. दूसरी बहुएं और सास मुंह में कपड़ा ठूंस कर ठिठोली करतीं, ‘‘दांत नहीं रहे, फिर भी खाते किस शौक से हैं. शायद उम्र के साथ लालच और भी बढ़ गया है.’’

मनोविज्ञान की छात्रा छोटी सोचती कि इन लोगों को कौन समझाए. स्नेह और प्यार की वह भूख जो मिट न पाई, उसे जीभ की संतुष्टि द्वारा पेटभर कर मिटाना चाहता है स्नेह का प्यासा वह व्यक्ति. उस के अतृप्त मन ने अपना समाधान खोज निकाला है, पर यदि वह बोलने लगे तो वे हंस कर बोलेंगी, ‘‘चल री, यह कोई तेरी विश्वविद्यालय की कक्षा है, जो लैक्चर झाड़ रही है. अपनी छात्राओं को सिखाना जा कर.’’ प्यार मिला नहीं, पर प्यार लुटाना आता है बाबूजी को. पतंग पकड़ने के लिए जाने पर किस तरह मामा के हाथों पिटाई हुई थी, वही किस्सा सुनातेसुनाते वे मंडू को पतंग बनाना सिखाते. ‘‘स्कूल खुल रहे हैं, मीतू की बरसाती लानी है,’’ सुबह से ही वे हल्ला मचाने लगते मानो मीतू की बरसाती लाने से बड़ा कोई काम इस दुनिया में बचा ही न हो. जब मीतू शैतानी करती तब संझली कहती, ‘‘अब मैं इसे होस्टल में डाल दूंगी.’’

‘‘मजाक में भी होस्टल का नाम मत लेना. बेटी, मांबाप के रहते बच्ची को भला होस्टल में क्यों रहना पड़े इस कच्ची उम्र में? मुझे भी मामा ने 9वीं कक्षा में होस्टल में रख दिया था…’’ वे खो जाते उन दिनों की याद में जब उन्हें पोखर से कमल चुरा कर लाने में बड़ा आनंद आता था. लालाजी के कुम्हड़े की बेल काट कर फेंक देने में हर्ष होता था. और कितना मजा आता था चाचाजी की गाय के बछड़े को छोड़ देने में, जिस से पूरा दूध बछड़ा पी जाए और लल्लन चाचा उसे गालियां सुनाने घर आ धमकें. इस खेल में उपलब्धि शायद भौतिक लाभ की दृष्टि से कुछ भी न होती, पर एक किशोर बालक का अहं तृप्त हो जाता. पर किस को परवा थी उस के अहं की. वह तो पराश्रित अनाथ बालक था, इसीलिए मामा ने उसे होस्टल में भरती कर दिया था.

आगे पढ़ें- वह प्रथम आई है, इस की खुशी….

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Serial Story: उपलब्धि (भाग-3)

‘‘जाड़े के दिन थे. बहू और मामा नई रजाई दे गए थे मुझे. लड़कों ने मेरी नईनई रजाई देखी तो ईर्ष्यावश दौड़े आए और हंसने लगे, ‘अरे, मुंडी रजाई है, मुंडी.’ मेरी रजाई के किनारों पर पाइपिंग नहीं थी. बस, छोकरों को बहाना मिल गया. सब के सब टूट पड़े मुंडी रजाई पर और सारी रुई नोचनोच कर हवा में उछालने लगे. एक असहाय किशोर पर उस रात क्या बीती, यह उस का दिल ही जानता है.

‘‘कमरे में रुई के गुब्बारे नहीं, उस के मथे हुए अरमानों की धूल उड़ रही थी. मेरे देखते ही देखते उन्होंने रजाई के चीथड़े कर दिए. ठंड से ठिठुर कर वह जाड़ा गुजारा मैं ने, पर मामा से दूसरी रजाई मांगने का साहस न जुटा पाया. जीवनभर कभी भी किसी से जिद कर के कुछ मांगने का दिन नहीं आया. ‘‘आज किसी बच्चे की कोई भी जिद पूरी कर के मुझे बड़ी आत्मतृप्ति होती है.

‘‘इस कच्ची उम्र में होस्टल में मत भेजो, जबकि तुम लोग जिंदा हो, मैं जिंदा हूं. कल से मैं पढ़ाया करूंगा मीतू को. वह सुधर जाएगी. मांबाप के प्यार में वह ताकत है जो शायद होस्टल के कठोर अनुशासन में नहीं है.’’ छोटी बहू की आंखें सजल हो उठतीं. क्या किसी के पास थोड़ा सा भी अतिरिक्त प्यार नहीं बचता है एक अनाथ बच्चे के लिए? थोड़ा सा स्नेह जहां जादू कर सकता है, सारे विष को अमृत में बदल सकता है, वहां ये समर्थ दुनिया वाले अपनी क्षमता का दुरुपयोग क्यों करते हैं?

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कुछ देर के लिए बाबूजी की उन धुंधली आंखों की सजल गहराई में डूबतीउतराती वह वर्षों पीछे घिसटती चली जाती. प्यार का लबालब भरा प्याला किसी के होंठों से लगा है, पर वह उस स्वाद की अहमियत नहीं जानता और जिस के आगे से अचानक प्यार की भरी लुटिया खींच ली गई हो वह प्यासे मृग की भांति भाग रहा है. और वह खो जाती है अपने वार्षिक परीक्षाफल की घोषणा के दिनों की याद में. वह कक्षा में प्रथम आती है और उस से उम्र में बड़ी चचेरी बहन किसी तरह पास हो जाती है. चाची हाथ मटकामटका कर कहती है, ‘‘देखो, आजकल की बहुरूपिया लड़कियों को, कैसे दीदे फाड़ कर चीखती थी कि हाय, मेरा परचा बिगड़ गया. इधर देखो तो पहला नंबर ले कर आ रही है. हाय, कितने नाटक रचे.’

वह प्रथम आई है, इस की खुशी मनाना तो दूर रहा, पर कभी परचा बिगड़ जाने पर रो पड़ने की बात पर चाची उलाहना देना न भूलीं. स्वाभाविक था कि कितना भी अच्छा विद्यार्थी हो, वह परीक्षा के दिनों में ऊटपटांग सोचता है, डरता है. पर उस के लिए तो स्वाभाविक बात या व्यवहार करना भी संभव न था. वह सब की नजरों में एक वयस्क, समझदार और सख्त लड़की थी, जिस के लिए नाबालिग की तरह व्यवहार करना अशोभन था. और जब आर्थिक झंझटों के बावजूद बाबूजी ने उसे अपनी छोटी बहू मनोनीत किया था, तब तो मानो कहर बरपा था.

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‘क्या देख कर ले जा रहे हैं?’ एक ने कटाक्ष करते हुए कहा था. ताईजी का स्नेह जरूर था इस पर. हौलेहौले वे बोली थीं, ‘अजी, ऐसा मत कहो. हमारी बिटिया का चेहरामोहरा तो अच्छा है. हरदम हंसती आंखें, तीखी नाक और पढ़ाई में अव्वल.’

हां, उस के साधारण से चेहरे पर एक ही असाधारण बात थी. उस की हंसती हुई आंखें-जैसे प्रतिज्ञा कर ली थी उन आंखों ने कि हर उदासी को हरा कर रहेंगे और यही उस का गुण बन गया था-हंसमुख बने रहना. वह अपने आसपास देखती कि इस अभावग्रस्त दुनिया में सुखसुविधा के बीच भी आदमी अभाव का अनुभव कर रहा है. जो भौतिक सुखों से वंचित है वह भी और जो सुविधाप्राप्त है वह भी. शायद भौतिक सुख दुनिया के हर कोने तक पहुंचाने में हम असमर्थ हैं, पर स्नेह के अगाध सागर से लबालब भरा है यह मानव मन. यदि थोड़ा सा भी सिंचन करना शुरू कर दे हर कोई तो सारी धरती, सारी जगती सिंच जाए. इतना थोड़ा सा त्याग वह भी करेगी और करवाएगी. आखिर इस में तो कोई खर्च नहीं है? आजकल की दुनिया में हिसाब से चलना पड़ता है, पर मन का कोई बजट नहीं बन सका है आज तक और न ही प्यार का कोई माप. इसलिए जहां तक स्नेहप्रेम खर्च करने का सवाल है, बेझिझक आगे बढ़ा जा सकता है. वहां न कोई औडिट होगा न कोई चार्ज.

पर हिसाबी है न मानव मन. हो सकता है कभी कोई माप निकल आए और स्नेह का भी हिसाब देना पड़े. शायद यही सोच कर स्नेह के भंडार भरे पड़े हैं और रोते दिलों को लुटाने को कोई तैयार नहीं दूरदर्शी, समझदार आदमी की जात. खिलखिला कर हंस उठी वह. ‘‘कैसी पगली हो तुम? मन ही मन हंसती हो और रोती हो,’’ पति की मीठी झिड़की सुन कर चुप हो गई वह. फिर तुनक कर बोली, ‘‘क्यों, हंसने पर कोई टैक्स तो है नहीं और जहां तक रोने का सवाल है, तुम्हें पा कर, तुम लोगों के बीच इस ग्रीन हाउस की ठंडी छांव में रो कर भी शांति मिलती है. मानो, बीती कड़वी यादों को धो कर बहाए दे रही हूं.’’

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कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. परिवार के सभी सदस्य रजाई में दुबके पड़े थे, पर इतना शोरगुल होने लगा कि एकएक कर सब उठने को मजबूर हो गए. बैठक से शोरगुल की आवाज आ रही थी. एकएक कर सब भीतर झांकने लगे.

‘‘आइए, आइए,’’ छोटी का सदा सहास स्वर. मेज पर एक बड़ा सा केक रखा था. और चाय की प्यालियां सजी थीं. सारे बच्चे बाबूजी को खींच कर मेज तक ला रहे थे. छोटी ने प्यालियां भरनी शुरू कीं. चाय की सुगंध से कमरा महक उठा. बच्चों ने दादाजी को ताजे गुलाब के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया. छोटी ने उन की कांपती उंगलियों में छुरी पकड़ा दी. बच्चे एकसाथ गाने लगे, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू… दादाजी, जन्मदिन मुबारक हो…’’

परिवार के सदस्यों ने भुने हुए काजुओं के साथ चाय की चुस्की ली. केक का बड़ा सा टुकड़ा छोटी ने बाबूजी को पकड़ा दिया. कनखियों से सास की ओर देखा बाबूजी ने. फिर उन की आंखों में जो स्नेह का सागर उमड़ रहा था वह सब के कल्याण के लिए, सारी दुनिया के वंचित लोगों के लिए, सारी जगती के अतृप्त बच्चों के मंगल के लिए बहने लगा… ‘‘मेरा जन्मदिन आज तक किसी ने नहीं मनाया था, बेटी…’’ और छोटी को लगा, स्नेह के इन कीमती मोतियों को वह पिरो कर रख ले.

Serial Story: उपलब्धि (भाग-1)

पहले आने वालों का तांता लगा रहा और अब जाने वालों का सामान बंध रहा था. घर एक चौराहा बन गया था, न वहां किसी को पहचानने का काम था न जानने की फुरसत. सपने की तरह दिन बीत गए और अब एकदूसरे के करीब आने का वक्त मिला था. बैंडबाजे, शहनाई की इतराती धुन और बच्चों के कोलाहल के बाद यह मधुर शांति अच्छी ही लग रही थी उसे. केवल बहुत ही नजदीकी संबंधियों और इस बड़े परिवार के सदस्यों के सिवा लगभग सभी मेहमान विदा हो चुके थे.

जब भी खाली समय मिलता, अवकाशप्राप्त वृद्ध ससुर नई छोटी बहू के पास आ कर बैठ जाते. नयानया घूंघट बारबार खिसक जाता और मंद मुसकान से भरी 2 आंखें वृद्ध की ओर सस्नेह ताकती रहतीं. यह सब बिलकुल नयानया लग रहा था उसे. वास्तविकता की क्रूर धरती पर पली, आदर्श की सूखी ऋतुओं को झेलती, हर परिस्थिति से जूझने की क्षमता रखने वाली वह इस अनोखे स्नेहसिक्त ‘ग्रीन हाउस’ की छत तले अपनेआप को नए सांचे में ढाल रही थी. ‘‘बेटी, अधूरी मत छोड़ना अपनी पढ़ाई, तुझे कोई सहयोग दे न दे, मैं पूरा सहयोग दूंगा. मैं तो दीवाना हूं लिखाईपढ़ाई का.’’ वृद्ध बारबार उस से यह आशा कर रहे थे कि वह उन की बात का उत्साह से जवाब देगी जबकि वह लाज से सिमटी कनखियों से जेठानी व ननदों की भेदभरी मुसकान का सामना कर रही थी.

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क्या बाबूजी भूल गए कि उस का ब्याह हुए केवल 3 ही दिन हुए हैं और अभी वह जिस दुनिया में विचर रही है, वह पढ़ाईलिखाई से कोसों दूर है? पर बाबूजी की निरंतर कथनी न जाने किस अंतरिक्षयान की सी तेज रफ्तार से उसे चांदसितारों की स्वप्निल दुनिया से वास्तविकता की धरती पर ला पटके दे रही थी. पिछले कुछ दिनों में वह लगभग भूल गई थी कि उसे अपने शोधकार्य की थीसिस इसी माह के अंत में जमा करनी है. नातेरिश्तेदारों के मानसम्मान, आवभगत और बच्चों के कोलाहल के बीच भी बाबूजी बराबर उसे आआ कर कुरेदते रहते थे, ‘‘देख बेटी, राजा अपने देश में ही पूज्य होता है, पर विद्वान

का हर जगह सम्मान होता है. तुम विदुषी हो, अपना ध्यान बंटने न देना. तुम्हारे हमजोली लाख भड़काएं, तुम अडिग रहना.’’ और यह कुछ हद तक सच भी था. बड़ी ननद 2-3 बार मजाक में कह चुकी थी, ‘‘अब मेरा भैया ही इस की थीसिस बन गया है. क्या होगी अब लिखाईपढ़ाई इस से. और पीएचडी कर के भी क्या करना है? आखिर में तो वही चूल्हाचौका करना है.’’

‘‘सिर्फ यही दीदी?’’ मझली जेठानी ने आंख मारते हुए कहा था और लाज से उस के कान लाल हो उठे थे. परिवार की हमउम्र सदस्याएं कहती थीं, ‘‘यह दिन रोजरोज नहीं आएगा. जाओ, क्वालिटी में तुम दोनों आज नाइट शो में फिल्म देख आओ.’’ भरेपूरे परिवार में 2 सहमतेधड़कते दिलों को मिलाने वाले मासूम एकांत क्षण, भविष्य के सुनहरे स्वप्नजाल और एकदूसरे में खो जाने के अरमान, पर घड़ी की टिकटिक की तरह बूढ़े बाबूजी की वही रट हरदम मानो कानों पर चोट करती रहती और वह अपनेआप को अपराधी महसूस करने लगती. ओह, ज्यादा पढ़लिख लेना भी अच्छा नहीं, जीना दूभर हो जाता है.

मधुर मिलन की मीठी घडि़यों में भी एक अपराधी सी हो उठती वह. क्या यही चीज कभी उस की कम पढ़ीलिखी जेठानी या बड़ी ननद को कचोटती न रही होगी? कभी नहीं. वे तो जीवन की स्थूल उपलब्धि से ही बेहद संतुष्ट दिखलाई देती हैं. वह केवल सूक्ष्मतम उपलब्धि की बात क्यों सोचती है? इतने बड़े मकान की बंद हवा में वह घुटन सी महसूस करती और इसीलिए वह छत पर जा कर आसमान के नीचे खुले में खड़ी हो जाती. एक बार वह बादल के एक सफेद टुकड़े की सूर्यकिरणों के साथ होती अठखेलियां देखने में मग्न थी कि उस के कानों में कुछ खुसुरफुसुर सुनाई दी.

‘‘बाबूजी का सारा स्नेह मानो बरसात की तरह उमड़ा आ रहा है. छोटी बहू ने आज क्या खाना खाया? वह कमजोर होती जा रही है? और देखा, ढेर सारे फल उस के लिए बाजार से खरीद लाए. खाए चाहे न खाए. हम लोगों से भी तो पूछना था?’’ तभी उसे याद आया. नई जगह में आ कर उसे भूख ही नहीं लग रही थी. यह बात जान कर कि उसे रोज रात को गरम दूध पीने की आदत थी, ससुर अपने सामने बैठा कर दूध का गिलास देने लगे थे. फिर जब भूख नहीं सुधरी तो बारबार पूछते, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है, बेटी, शरमाना मत. जरूर बतलाना.’’ और फिर एक दिन ढेरों फल ले आए थे. वह क्या बोलती? स्मितभरी आंखों से उन की ओर ताकती रही. उसे यह सब अजीब सा लगता.

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बचपन में ही वह मातापिता को खो बैठी थी. ताऊचाचा, ताईचाची और फुफेरेचचेरे भाईबहनों के कठोर अनुशासन के बीच वह जान ही न पाई थी कि ममता का स्रोत उस के जीवन में सूख गया है. स्नेहममता का यह नया झरना उस के लिए अनोखा था. समय पर उसे खानेपहनने को मिल जाता है. पर कभी किसी ने उस के दिल में क्या है, जानने का न तो प्रयत्न किया था और न ही कभी यह सोचा था कि उस की भी कोई इच्छा हो सकती है. ये छोटीछोटी बातें, ये जराजरा से आग्रह उस के लिए तो हिमालय जैसे थे.

सीढि़यों पर पदचाप ऊपर की ओर ही आ रहा था. मझली के उलाहने का उत्तर देती हुई मझली बोली, ‘‘तुम ठीक कह रही हो, दीदी, पर बाबूजी ने छोटी को देखने के बाद यही कहा था, ‘लड़की देखनेसुनने में साधारण है, पर प्रतिभाशाली लगती है. खैर, प्रतिभाशाली लड़कियां तो मेरे छोटे बेटे के लिए कई मिली हैं, लेकिन मैं यहीं उस की शादी करूंगा.’ मालूम है क्यों? छोटी के मांबाप नहीं हैं न. बाबूजी उस की पीड़ा शायद हम लोगों से ज्यादा समझते हैं.’’ ‘‘हां, यह तो सच है. उस लिहाज से देखो तो बाबूजी का स्नेह भले ही पक्षपातपूर्ण हो, पर है सही.’’

उस ने हौलेहौले चूडि़यां खनका दीं. दोनों तब तक ऊपर आ चुकी थीं. ‘‘अरे छोटी, तेरी चूडि़यों की खनक से पता चला, तू यहां है. तेरी ही बात हो रही थी. बाबूजी तुम से बेहद स्नेह करते हैं. मालूम है क्यों? उन्हें भी न मां का प्यार मिला, न पिता का लाड़.’’ फिर उसे प्यार से अपनी छाती से सटा कर मझली बोली, ‘‘मेरे प्यारे देवर को पाने के बाद तुझ सा प्रसन्न भला और कौन हो सकता है?’’ प्यार के इस छोटे से प्रदर्शन से ही उस का दिल कुलांचें भरने लगा. कभी भी किसी ने उसे इस तरह प्यार नहीं किया था. बचपन से ही वह वयस्कों में मानी जाने लगी थी. उस की बालसुलभ आकांक्षाओं को भी तो असमय ही कुचल दिया गया था अनुशासन की कुल्हाड़ी से.

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Short Story: उपलब्धि- शादीशुदा होने के बावजूद क्यों अलग थे सुनयना और सुशांत?

कभी कभीहालात इनसान को ऐसे मोड़ पर ले आते हैं कि वह समझ ही नहीं पाता कि अब क्या करे, किस ओर जाए? कुछ ऐसा ही हुआ था सुनयना के साथ. एक पल में कितना कुछ बदल गया था उस की जिंदगी में.

काश, आज उस ने सुबह चुपके से सुशांत की बातें न सुनी होतीं. वह किसी से मोबाइल पर कह रहा था, ‘‘हांहां डियर, मैं ठीक 5 बजे पहुंच जाऊंगा नक्षत्र होटल. वैसे भी अब तो सारा वक्त आप के खयालों में गुजरेगा,’’ कहते हुए ही सुशांत ने फोन पर ही किस किया तो सुनयना का दिल तड़प उठा.

सुनयना मानती थी कि सुशांत ने उसे साधारण मध्यवर्गीय परिवार से निकाल कर शानोशौकत की पूरी दुनिया दी. गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, कपड़े, जेवर… भला किस चीज की कमी रखी? फिर भी वह आज स्वयं को बहुत बेबस, लाचार और टूटा हुआ महसूस कर रही थी. वह बेसब्री से 5 बजने का इंतजार करने लगी ताकि नक्षत्र होटल पहुंच कर हकीकत का पता लगा सके. खुद को एतबार दिला सके कि यह सब यथार्थ है, महज वहम नहीं, जिस के आधार पर वह अपनी खुशियां दांव पर लगाने चली है.

पौने 5 बजे ही वह होटल के गेट से दूर गाड़ी खड़ी कर के अंदर रिसैप्शन में बैठ गई. दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और काला चश्मा भी लगा लिया ताकि सुशांत उसे पहचान न सके.

ठीक 5 बजे सुशांत की गाड़ी गेट पर रुकी. स्मार्ट नीली टीशर्ट व जींस में वह

गाड़ी से उतरा और रिसैप्शन की तरफ बढ़ गया. वहां पहले से ही एक लड़की उस का इंतजार कर रही थी. दोनों पुराने प्रेमियों की तरह गले मिले, फिर हाथों में हाथ डाले लिफ्ट की तरफ बढ़ गए.

सुनयना की आंखें भर आईं. उस का कंठ सूखने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह फूटफूट कर रो पड़ेगी. थोड़ी देर डाल से टूटे पत्ते की तरह वहीं बैठी रही. फिर तुरंत स्वयं को संभालती हुई उठी और गाड़ी में बैठ गई. घर आ कर औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. देर तक रोती हुई सोचती रही कि किस मोड़ पर उस से क्या गलती हो गई जो सुशांत को यह बेवफाई करनी पड़ी? वह स्वस्थ है, खूबसूरत है, अपने साथसाथ सुशांत का भी पूरा खयाल रखती है, इतना प्यार करती है उसे, फिर सुशांत ने ऐसा क्यों किया?

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हमेशा की तरह सुनयना ने स्वयं को संभालने और दिल की बातें करने के लिए सुप्रिया को फोन लगाया जो उस की सब से प्रिय सहेली थी. उस से वह हर बात शेयर करती. सुनयना की आवाज में झलकते दुख व कंपन को एक पल में सुप्रिया ने महसूस कर लिया. फिर घबराए स्वर में बोली, ‘‘सुनयना सब ठीक तो है? परेशान क्यों लग रही है?’’

सुनयना ने रुंधे गले से उसे सारी बातें बताईं, तो सुप्रिया ठंडी सांस लेती हुई बोली, ‘‘हिम्मत न हार. मैं मानती हूं, जिंदगी कई दफा हमें ऐसी स्थितियों से रूबरू कराती है, जहां हम दूसरों पर क्या, खुद पर भी विश्वास खो बैठते हैं. तू नहीं जानती, मैं खुद इस खौफ में रहती हूं कि कहीं मेरी जिंदगी में भी कोई ऐसा शख्स न आ जाए, जिस के लिए प्रेम की कोई कीमत न हो. मैं घबराती हूं, ठगे जाने से. प्यार में कहीं पछतावा हाथ न लगे, शायद इसलिए अपने काम के प्रति ही समर्पित रहती हूं.’’

‘‘शायद तू ठीक कह रही है, सुप्रिया मगर मैं क्या करूं? मैं ने तो अपनी जिंदगी सुशांत के  नाम समर्पित की थी.’’

‘‘ऐसा सिर्फ  तेरे साथ ही नहीं हुआ है सुनयना. तुझे याद है, स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली नेहा?’’ सुप्रिया बोली.

‘‘कौन वह जिस की मां हमारे स्कूल में क्लर्क थीं?’’

‘‘हांहां, वही. अब वह भी किसी स्कूल में छोटीमोटी नौकरी करने लगी है. कभीकभी मां को किसी काम में मदद की जरूरत होती है, तो मैं उसे बुला लेती हूं. अटैच हो गई है हम से. पास में ही उस का घर है. अपने बारे में सब कुछ बताती रहती है. उस ने लव मैरिज की थी, पर उस के साथ भी यही कुछ हुआ.’’

‘‘उफ, फिर तो वह भी परेशान होगी. आ कर रो रही होगी, तेरे पास. अंदर ही अंदर घुट रही होगी, जैसे मैं…’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं. उस का रिऐक्शन बहुत अलग रहा. उस ने उसी वक्त खुल कर इस विषय पर अपने पति से बात की. जलीकटी सुना कर अपनी भड़ास निकाली. फिर अल्टीमेटम भी दे दिया कि यदि आइंदा इस घटना की पुनरावृत्ति हुई, तो वह घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकेगी.’’

‘‘उस ने ठीक किया. मगर मैं ऐसा नहीं कर सकती. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’ बुझे स्वर में सुनयना ने कहा.

‘‘यार, कभीकभी ऐसा होता है, जब दिमाग कुछ कहता है और दिल कुछ. तब समझ नहीं आता कि क्या किया जाए. बहुत असमंजस की स्थिति होती है खासकर जब धोखा देने वाला वही हो, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. मेरी बात मान अभी तू आराम कर. सुबह ठंडे दिमाग से सोचना और वैसे भी छोटीछोटी बातों पर परेशान होना उचित नहीं.’’

‘‘यह बात छोटी नहीं प्रिया, मेरी पूरी जिंदगी का सवाल है. फिर भी चल, रिसीवर रखती हूं मैं,’’ कह कर सुनयना ने रिसीवर रख दिया और कमरे में आ कर सोने का प्रयास करने लगी. मगर मन था कि लौटलौट कर उसी लमहे को याद करने लगता, जब दिल को गहरी चोट लगी थी.

और फिर यह पहली दफा नहीं है जब सुशांत ने उस का दिल तोड़ा हो. इस से पहले भी रीवा के साथ सुशांत का बेहद करीबी रिश्ता होने का एहसास हुआ था उसे. मगर तब सुशांत ने यह  कह कर माफी मांग ली थी कि रीवा उस की बहुत पुरानी दोस्त है और उस से एकतरफा प्यार करती है. वह उस का दिल नहीं तोड़ना चाहता.

सुनयना यह सुन कर खामोश रह गई थी, क्योंकि प्रेम शब्द और उस से जुड़े एहसास का   बहुत सम्मान करती है वह. आखिर उस ने भी तो सुशांत से मुहब्बत की है. यह बात अलग है कि सुशांत के व्यक्तित्व व संपन्नता के आगे वह स्वयं को कमतर महसूस करती है और जबरन उसे स्वयं से बांधे रखना नहीं चाहती थी. आज जो कुछ भी उस ने देखा, उसे वह मुहब्बत तो कतई नहीं मान सकती थी. यह तो सिर्फ और सिर्फ वासना थी.

देर रात जब सुशांत लौटा तो हमेशा की तरह बहुत ही सामान्य व्यवहार कर रहा था. उस का यह रुख देख कर सुनयना के दिल में कांटे की तरह कुछ चुभा. मगर वह कुछ बोली नहीं. कहती भी क्या, जिंदगी तो स्वयं ही उस के साथ खेल खेल रही थी. पिछले साल उसे पता चला था कि सुशांत ड्रग ऐडिक्ट है, मगर तब उसे इतना अधिक दुख नहीं हुआ, जितना आज हुआ था. उस समय विश्वास टूटा था और आज तो दिल ही टूट गया था.

इस बात को बीते 2 माह गुजर चुके थे, मगर स्थितियां वैसी ही थीं. सुनयना खामोशी से सुशांत की हरकतों पर नजर रख रही थी. सुशांत पहले की तरह अपनी नई दुनिया में मगन था. कई दफा सुनयना ने उसे रंगे हाथों पकड़ा भी, मगर वह पूरी तरह बेशर्म हो चुका था. उस की एक नहीं 2-2, 3-3 महिलाओं से दोस्ती थी.

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सुनयना अंदर ही अंदर इस गम से घुटती जा रही थी. एक बार अपनी मां से फोन पर इस बारे में बात करनी चाही तो मां ने पहले ही उसे रोक दिया. वे अपने रईस दामाद के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं, उलटा उसे ही समझाने लगीं, ‘‘इतनी छोटीछोटी बातों पर घर तोड़ने की बात सोचते भी नहीं.’’

सुनयना कभीकभी यह सोच कर परेशान होती कि आगे क्या करे? क्या सुशांत को तलाक देना या घर छोड़ने की धमकी देना उचित रहेगा? मगर वह ऐसा करे भी तो किस आधार पर? यह सारा ऐशोआराम छोड़ कर वह कहां जाएगी? मां के 2 बैडरूम के छोटे से घर में? उस ने ज्यादा पढ़ाई भी नहीं की है, जो अच्छी नौकरी हासिल कर चैन से दिन गुजार सके. भाईभाभी का चेहरा यों ही बनता रहता है. तो क्या दूसरी शादी कर ले? मगर कौन कह सकता है कि दूसरा पति उस के हिसाब का ही मिलेगा? उस के विचारों की उथलपुथल यहीं समाप्त नहीं होती. घंटों बिस्तर पर पड़ेपड़े वह अपनेआप को सांत्वना देती रहती और सोचती कि पति का प्यार भले ही बंट गया हो, पर घरपरिवार और समाज में इज्जत तो बरकरार है.

धीरेधीरे सुनयना ने स्वयं को समझा लिया कि अब यही उस की जिंदगी की हकीकत है. उसे इसी तरह सुशांत की बेवफाइयों के साथ जिंदगी जीनी है.

फिर एक दिन सुबहसुबह सुप्रिया का फोन आया. वह बड़ी उत्साहित थी. बोली, ‘‘सुनयना, जानती है अपनी नेहा ने पति को तलाक देने का फैसला कर लिया है? वह पति का घर छोड़ कर आ गई है.’’

सुनयना चौंक उठी, ‘‘यह क्या कह रही है तू? उस ने इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया?’’

‘‘मेरे खयाल से उस ने कुछ गलत नहीं किया सुनयना. आखिर फैसला तो लेना ही था उसे. मैं तो कहती हूं, तुझे भी यही करना चाहिए. उस ने सही कदम उठाया है.’’

‘‘हूं,’’ कह रिसीवर रखती हुई सुनयना सोच में पड़ गई. दिन भर बेचैन रही. रात भर करवटें बदलती रही. दिल में लगातार विचारों का भंवर चलता रहा. आखिर सुबह वह एक फैसले के साथ उठी और स्वयं से ही बोल पड़ी कि ठीक है, मैं भी नेहा की तरह ही कठोर कदम उठाऊंगी. तभी सुशांत को पता चलेगा कि उस ने मेरा दिल दुखा कर अच्छा नहीं किया. बहुत प्यार किया था मैं ने उसे, मगर वह कभी मेरी कद्र नहीं कर सका. फिर सब कुछ छोड़ कर वह बिना कुछ कहे घर से निकल पड़ी. वह नहीं चाहती थी कि सुशांत फिर से उस से माफी मांगे और वह कमजोर पड़ जाए. न ही वह अब सुशांत की बेवफाई के साथ जीना चाहती थी, न ही अपना दर्द दिल में छिपा कर टूटे दिल के साथ ऐसी शादीशुदा जिंदगी जीना चाहती थी.

मायके वाले उस के काम नहीं आएंगे, यह एहसास था उसे, मगर इस खौफ की वजह से अपनी मुहब्बत का गला घुटते देखना भी मंजूर नहीं था. वह निकल तो आई थी, मगर अब सब से बड़ा सवाल यह था कि वह आगे क्या करे? कहां जाए? बहुत देर तक मैट्रो स्टेशन पर बैठी सोचती रही.

तभी प्रिया का फोन आया, ‘‘कहां है यार? घर पर फोन किया तो सुशांत ने कहा कि तू घर पर नहीं. फोन भी नहीं उठा रही है. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां यार, मैं ने घर छोड़ दिया,’’ रुंधे गले से सुनयना ने कहा तो यह सुन प्रिया सकते में आ गई. बोली, ‘‘यह बता कि अब जा कहां रही है तू?’’

‘‘यही सवाल तो लगातार मेरे भी जेहन में कौंध रहा है. जवाब जानने को ही मैट्रो स्टेशन पर रुकी हुई हूं.’’

‘‘ज्यादा सवालजवाब में मत उलझ. चुपचाप मेरे घर आ जा,’’ प्रिया ने कहा तो सुनयना के दिल में तसल्ली सी हुई. उस को प्रिया का प्रस्ताव उचित लगा. आखिर प्रिया भी तो अकेली रहती है. 2 सिंगल महिलाएं एकसाथ रहेंगी तो एकदूसरे का सहारा ही बनेंगी.

सारी बातें सोच कर सुनयना चुपचाप प्रिया के घर चली गई. प्रिया ने उसे सीने से लगा लिया. देर तक सुनयना से सारी बातें सुनती रही. फिर बोली, ‘‘सुनयना, आज जी भर कर रो ले. मगर आज के बाद तेरे जीवन से रोनेधोने या दुखी रहने का अध्याय समाप्त. मैं हूं न. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बनेंगी.’’

सुनयना की आंखें भर आईं. रहने की समस्या तो सहेली ने दूर कर दी थी, पर कमाने का मसला बाकी था. अगले दिन से ही उस ने अपने लिए नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी. जल्दी ही नौकरी भी मिल गई. वेतन कम था, मगर गुजारे लायक तो था ही.

नई जिंदगी ने धीरेधीरे रफ्तार पकड़नी शुरू की ही थी कि सुनयना को महसूस हुआ कि उस के शरीर के अंदर कोई और जीव भी पल रहा है. इस हकीकत को डाक्टर ने भी कन्फर्म कर दिया यानी सुशांत से जुदा हो कर भी वह पूरी तरह उस से अलग नहीं हो सकी थी. सुशांत का अंश उस की कोख में था. भले ही इस खबर को सुन कर चंद पलों को सुनयना हतप्रभ रह गई, मगर फिर उसे महसूस हुआ जैसे उसे जीने का नया मकसद मिल गया हो.

इस बीच सुनयना की मां का देहांत हो गया. सुनयना अपने भाईभाभी से वैसे भी कोईर् संबंध रखना नहीं चाहती थी. प्रिया और सुनयना ने दूसरे इलाके में एक सुंदर घर खरीदा और पुराने रिश्तों व सुशांत से बिलकुल दूर चली आई.

बच्ची थोड़ी बड़ी हुई तो दोनों ने उस का एडमिशन एक अच्छे स्कूल में करा दिया. अब सुनयना की दुनिया बदल चुकी थी. वह अपनी नई दुनिया में बेहद खुश थी. जबकि सुशांत की दुनिया उजड़ चुकी थी. जिन लड़कियों के साथ उस के गलत संबंध थे, वे गलत तरीकों से उस के रुपए डुबोती चली गईं. बिजनैस ठप्प होने लगा. वह चिड़चिड़ा और क्षुब्ध रहने लगा. इतने बड़े घर में बिलकुल अकेला रह गया था. लड़कियों के साथसाथ दोस्तों ने भी साथ छोड़ दिया. घर काटने को दौड़ता.

एक्र दिन वह यों ही टीवी चला कर बैठा था कि अचानक एक चैनल पर उस की निगाहें टिकी रह गईं. दरअसल, इस चैनल पर ‘सुपर चाइल्ड रिऐलिटी शो’ आ रहा था और दर्शकदीर्घा के पहली पंक्ति में उसे सुनयना बैठी नजर आ गई. वह टकटकी लगाए प्रोग्राम देखने लगा.

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स्टेज पर एक प्यारी सी बच्ची परफौर्म कर रही थी. वह डांस के साथसाथ बड़ा मीठा गाना भी गा रही थी. उस के चुप होते ही शो के सारे जज खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. सब ने खूब तारीफ की. जजों ने बच्ची से उस के मांबाप के बारे पूछा तो सारा फोकस सुनयना पर हुआ यानी यह सुनयना की बेटी है? सुशांत हैरान देखता रह गया. जजों के आग्रह पर सुनयना के साथ उस की सहेली प्रिया स्टेज पर आई. बच्ची ने विश्वास के साथ दोनों का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, मगर मांएं 2-2 हैं. यही दोनों मेरे पापा भी हैं.’’

सिंगल मदर और सुपर चाइल्ड की उपलब्धि पर सारे दर्शक तालियां बजा रहे थे. इधर सुशांत अपने ही सवालों में घिरा था कि क्या यह मेरी बच्ची है? या किसी और की? नहींनहीं, मेरी ही है, तभी तो इस ने कहा कि पापा नहीं हैं, 2-2 मांएं हैं. पर किस से पूछे? कैसे पता चले कि सुनयना कहां रहती है? अपनी बच्ची को गोद में ले कर वह प्यार करना चाहता था. मगर यह मुमकिन नहीं था. बच्ची उस की पहुंच से बहुत दूर थी. वह बस उसे देख सकता था. मगर उस के पास कोई चौइस नहीं थी.

सुशांत तो ऐसा बेचारा बाप था, जो अपने अरमानों के साथ केवल सिसक सकता था. सुनयना बड़े गर्व से बेटी को सीने से लगाए रो रही थी. सुशांत हसरत भरी निगाहों से उन्हें निहार रहा था.

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