हंगामा है क्यों बरपा

किसी महिला डिगरी कालेज के 2-3 साल पुराने बैच की लड़कियों की आज की स्थिति का जायजा लिया जाए तो 100 छात्राओं के बैच की मात्र 3-4 लड़कियां वर्तमान में किसी अच्छी नौकरी में होंगी, 4-5 साधारण नौकरी में होंगी और अन्य सभी शादी कर के गृहस्थी का बोझ ढो रही होंगी.

भारत में लड़कियों को ग्रैजुएशन कराई ही इसलिए जाती है ताकि अच्छा घरवर मिल सके. नौकरी, बिजनैस या अन्य क्षेत्रों में बढि़या कैरियर के नजरिए से पढ़ाई करने वाली लड़कियों की तादाद मात्र 5 फीसदी है.

पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता पहले यह थी कि लड़की को पढ़ालिखा कर क्या करना है, आखिर ससुराल जा कर तो उसे रोटियां ही बनानी हैं, इसलिए चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई का काम ठीक से सिखाया जाए. मगर आजकल इस मानसिकता में थोड़ा सा बदलाव यह आया है कि लड़की अगर कम पढ़ीलिखी होगी तो उस की शादी में दिक्कत आएगी. ठीक घरवर चाहिए तो लड़की को कम से कम ग्रैजुएशन करा दो. अगर वह परास्नातक हो, इंजीनियर हो, उस के पास एमबीए या एलएलबी जैसी बड़ी डिगरी हो तो और भी अच्छी नौकरी में लगे लड़के से शादी के चांसेज बढ़ जाते हैं.

साजिश नहीं तो और क्या

अब लड़की अनपढ़ हो या परास्नातक, शादी कर के उसे बाई का काम ही करना है- रोटी पकानी है, घर साफसुथरा रखना है, पति को शारीरिक सुख देना है, बच्चे पैदा करने हैं, घर के बुजुर्गों की सेवा करनी है और ऐसे ही और तमाम कार्य करने हैं. यह भारतीय समाज में अधिकांश महिलाओं की स्थिति है और इस में कोई झूठ नहीं है. आप अपने घर में देख लें या किसी भी पड़ोसी के घर में ?ांक लें, कमोबेश सब जगह एक ही सूरत है.

मांबाप का खूब पैसा खर्च करवा कर और कई साल रातों को जागजाग कर खूब कड़ी मेहनत से पढ़ कर बड़ीबड़ी डिगरियां हासिल करने वाली लड़कियां चूल्हेचौके तक सिमट कर रह जाती हैं. पति हर महीने उन के हाथ पर पैसे रखते हैं और वे उन्हीं में अपनी गृहस्थी चला कर खुशी महसूस करती हैं. फिर जीवनभर उन का ध्यान कभी अपनी क्षमता, अपने ज्ञान और अपनी काबिलीयत पर नहीं जाता है.

बात करते हैं मध्य प्रदेश के मंत्री बिसाहूलाल सिंह द्वारा महिलाओं के संबंध में की गई टिप्पणी की, जिस के लिए उन की खूब भर्त्सना हुई और उन्हें लिखित में माफी मांगनी पड़ी. बिसाहूलाल ने अनूपपुर की एक सभा में कह दिया कि जितने बड़ेबड़े लोग हैं, वे अपने घर की औरतों को कोठरी में बंद कर के रखते हैं. बाहर निकलने ही नहीं देते. धान काटने का, आंगन लीपने का, गोबर फेंकने का का ऐसे तमाम काम हमारे गांव की महिलाएं करती हैं.

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गलत क्या है

जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को बराबरी से काम भी करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो, तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

बिसाहूलाल ने इस में क्या गलत कहा? सच बोलने पर भी उन्हें क्यों माफी मांगनी पड़ी? बिसाहूलाल ने तो समाज के सच को सामने रखा था. पढ़ीलिखी महिलाओं को गृहस्थी के चूल्हे में अपने सपने, अपनी काबिलीयत, अपने ज्ञान और अपनी डिगरियां जलाने के बजाय बाहर निकल कर अपनी क्षमताओं को समाज व देश हित में लगाने का आह्वान किया बिसाहूलाल ने. तो इस में गलत क्या था?

दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज को सच सुनना बरदाश्त ही नहीं है. वह औरत को आजादी और आर्थिक मजबूती तो हरगिज नहीं देना चाहता है. वह औरत को बस अपने रहमोंकरम और अपने टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर कर के रखना चाहता है.

बिसाहूलाल ने बड़े घरों की औरतों की बात उठाई. आमतौर पर भारत में बड़े और आर्थिक रूप से संपन्न घर सवर्ण जातियों के ही ज्यादा हैं. आर्थिक रूप से संपन्न होने के नाते महिलाओं की शिक्षादीक्षा भी अच्छी होती है. आमतौर पर ज्यादातर सवर्ण महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त मिलेंगी, लेकिन उस शिक्षा का कोई प्रयोग वे समाज हित में नहीं करती हैं. समाज में अपनी बड़ी इज्जत का ढोल पीटने वाले सवर्ण पुरुष अकसर अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाना पसंद नहीं करते हैं. कुछ फीसदी ही हैं जो औरतों की शिक्षा और नौकरी को महत्त्व देते हैं और उन के घरों की महिलाएं ऊंचे पदों पर भी पहुंचती हैं.

थोथली दलील

आमतौर पर ऊंचे और सम्मानित घरों के पुरुषों की दलील यह होती है कि जब घर में पैसे की कमी नहीं है तो घर की औरतों को बाहर निकल कर सड़कों पर धक्के खाने और पैसा कमाने की क्या जरूरत है? तो फिर उन की औरतों द्वारा ली गई उच्च शिक्षा का औचित्य क्या था? वह सीट किसी गरीब और निम्न जाति की महिला को दे दी जाती तो वह नौकरी कर के अपने घर की आर्थिक स्थिति बेहतर कर सकती थी.

बिसाहूलाल ने बिलकुल ठीक कहा कि जितने धान काटने, आंगन लीपने, गोबर फेंकने के काम हैं वे हमारे गांव की महिलाएं करती हैं. उन के कहने का अर्थ यह कि छोटी जाति की महिलाएं शिक्षित नहीं होते हुए भी घर से बाहर निकल कर काम करती हैं और अपनी क्षमतानुसार पैसा कमाती हैं. बारीक नजर इन गरीब तबके की और उच्चवर्ग की महिलाओं पर डालें तो आप पाएंगे कि गरीब घर की जो महिला घर से बाहर निकल कर काम कर रही है वह खुद को ज्यादा आजाद पाती है. वह किसी पर निर्भर नहीं है. अपने पैरों पर खड़ी है और सब से बड़ी बात यह कि घर के फैसलों में उस का भी मत शामिल होता है.

मंत्री बिसाहूलाल ने अगली बात यह कही कि  जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को काम भी बराबरी से करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो. तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

दूरदर्शी सोच

इस वक्तव्य से बिसाहूलाल की देश की महिलाओं के प्रति विस्तृत और दूरदर्शी सोच का पता चलता है. देश के संविधान ने महिला और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए हैं. फिर क्यों एक पुरुष शिक्षा प्राप्त कर के बढि़या नौकरी करता है, बढि़या और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी की तलाश में अन्य शहरों तक और विदेशों तक बेखटके चला जाता है, जबकि एक महिला शिक्षा प्राप्त करने के बाद गृहस्थी के बंधन में जकड़ी घर की किचन तक सिमट कर रह जाती है.

वह लड़?ागड़ कर नौकरी कर भी ले तो उसे घर के पास ही किसी स्कूल या औफिस में काम करने की इजाजत मिलती है. वह अपनी शिक्षा और क्षमता के अनुसार दूसरे शहर या विदेश में नौकरी के लिए अप्लाई नहीं कर सकती है. यह उस की आजादी पर बहुत बड़ी रोक है. बिसाहूलाल इस रोक को हटाने का आह्वान कर रहे थे तो उस में गलत क्या था?

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आजादी चाहिए या धनदौलत

फिल्में समाज का आईना होती हैं. समाज जैसा है वही परदे पर आता है. भिन्नभिन्न समयकाल में भारतीय महिला की स्थितियां अनेक फिल्मों में दिखाई गई हैं. एक महिला को उस की आजादी प्रिय है या धनदौलत, इसे बहुत सुंदर तरीके से फिल्म ‘रौकस्टार’ के एक गाने में दर्शाया गया है. इस फिल्म के गीत ‘हवाहवा को जरा ध्यान से सुनिए- चकरी सी पैरों में… रुके न फिर पांव पांव पांव… पांव रुके न किसी के रोके… ये तो चलेंगे… नाच लेंगे…’

चिढ़ कर गुस्से में बोला राजा, ‘ओ रानी, क्यों फटकी मेरी पोछी, ओ नाक कटाई, वाट लगाई, तूने तलवाई मेरी इज्जत की भाजियां, आज से तेरा बंद बाहर है जाना…’

यह सुन कर रानी मुसकराई बोली, ‘सोने की दीवारें मु?ो खुशी न यह दे पाईं, आजादी दे दे मु?ो, मेरे खुदा… ले ले तू दौलत और कर दे रिहा… हवा हवा…’

इस गीत ने आर्थिक रूप से संपन्न घर में कैद औरत की छटपटाहट को बखूबी सामने रखा है. सोनेचांदी की बेडि़यां वह खुशी कभी दे ही नहीं सकतीं, जो आजाद हवा में सांस लेने पर मिलती है. इसलिए रानी कहती है, ‘ले ले तू दौलत और कर दे रिहा…’

यदि आर्थिक रूप से संपन्न औरत को अपने मनमुताबिक काम करने की आजादी न हो तो वह संपन्नता उस के लिए रोग बन जाती है.

देश की आजादी के 7 दशक बाद भी देश की आर्थिक आजादी और विकास में महिलाओं की भूमिका अब भी वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए. इस मामले में देश ने 70 सालों में भी कोई खास प्रगति नहीं की है. देश में हो रहे आर्थिक विकास के परिपेक्ष्य में इन्वैस्ट इंडिया इनकम ऐंड सेविंग सर्वे में जो आंकड़े निकल कर आए हैं वे बेहद निराशाजनक हैं.

गांवों में ज्यादा काम करती हैं महिलाएं

टीवी पर आधुनिक भारत की महिलाओं की तसवीर देख कर कोई विदेशी भ्रम में पड़ सकता है कि आधुनिक भारत के शहरों में रहने वाली महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम करने के लिए कितनी उत्साहित हैं, परंतु वस्तुस्थिति बिलकुल भिन्न है. गांव में महिलाएं घर के बाहर जा कर ज्यादा काम करती हैं, शहरी आबादी की तुलना में. गांव में 45% से ज्यादा महिलाएं खेतों में काम करती हैं. इन में से 55% महिलाएं वर्ष भर में 50 हजार रुपए भी नहीं कमा पाती हैं.

शिक्षित न होने के कारण और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होने के कारण लोग उन का शोषण करते हैं. यह शोषण कार्यस्थल पर भी होता है और घर में भी. इन में से मात्र 15% महिलाएं ही ऐसी होंगी जो अपनी कमाई को अपनी इच्छानुसार खर्च कर पाती हैं वरना अधिकतर अपनी कमाई अपने पति के हाथ में रखने के लिए मजबूर होती हैं. उन का अपनी कमाई पर कोई अधिकार नहीं होता. पति जैसे चाहे उस का पैसा खर्च करता है.

शहरी क्षेत्रों में 2 से 5 लाख रुपए सालाना आय वाले परिवारों की मात्र 13% महिलाएं ही नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाती हैं जबकि 5 लाख से ऊपर वाले आय वर्ग में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत मात्र 9 है.

सपनों को उड़ान

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी है वहां महिलाओं के नौकरी या घर से बाहर निकल कर काम करने का प्रतिशत कम है. पंजाब में 4.7% महिलाएं घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6%, दिल्ली में 4.3%, उत्तर प्रदेश में 5.4% महिलाएं काम के लिए घर से बाहर जाती हैं. वहीं बिहार में 16.3% और उड़ीसा में 26% महिलाएं घर से बाहर निकल कर मजदूरी या नौकरी करती हैं.

एक तथ्य जो गौर करने लायक है वह यह कि दक्षिण के राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहां पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम के लिए जाती हैं. तमिलनाडु में यह प्रतिशत 39 है, जबकि आंध्र प्रदेश में 30.5, कर्नाटक में 23.7 है यानी शिक्षित महिला जो निम्न या मध्यवर्ग की है, अपनी आजादी का आनंद लेने के साथसाथ आर्थिक रूप से भी मजबूत है.

मगर बाकी देश में सामाजिक बंधनों और धार्मिक कट्टरता के चलते महिलाएं चाह कर भी अपना योगदान खुद और देश के आर्थिक

विकास में नहीं दे पा रही हैं. हम चाहे कितनी भी आर्थिक आजादी की बात कर लें, पर जब तक महिलाओं के विकास और आजादी की बात

नहीं होगी, जब तक धर्म की बेडि़यां नहीं कटेंगी, औरत की इच्छाओं पर पड़े समाज के बंधन नहीं टूटेंगे, तब तक आर्थिक आजादी अधूरी नजर आएगी.

13% महिलाएं ही काम करती हैं

सामाजिक रूप से अब भी हम इस मामले में काफी पिछड़े हैं. घर की महिलाएं काम करने के लिए जाएं यह वहीं हो रहा है जहां परिवार काफी गरीब हैं और घर के मुखिया के मेहनताने पर घर नहीं चल पा रहा है यानी महिलाओं के घर से बाहर निकल कर काम करने को सीधे रूप से गरीबी से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए.

आंकड़े भी यही कहते हैं कि औरतों की जनसंख्या का मात्र 13 फीसदी ही बाहर काम करने के लिए जाता है. उन में से भी प्रति 10 महिलाओं में से 9 महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं. असंगठित क्षेत्रों में काम करने के कारण इन महिलाओं को सुविधाएं तो दूर, काम करने के लिए अच्छा माहौल तक नहीं मिल पाता है. अगर निम्न जाति की महिलाओं को अच्छी शिक्षा प्राप्त हो जाए तो यही महिलाएं देश और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकती हैं.

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